
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मैं आपको पिछले दो साल से सुन रही हूँ। परिवर्तन ये आया है कि मैं अकेली यहाँ आ गई आज, और मैं आ गई। दूसरी बात, मैंने घर पर किसी को बताया नहीं, सिर्फ़ मेरी बेटी को पता है और किसी को नहीं बताया। रात को फोन आया था मेरे हस्बैंड का, तो मैं सो गई थी। करीब 11:00 बजे के आसपास फोन आया। बोलते हैं, "घर पर कब तक आओगे?" मैंने बोला, "मैं दिल्ली जा रही हूँ।" आचार्य जी, उसके बाद से बम बम बम, ऐसी आवाज़ आती रही, दरवाज़े पटकने की, और कोई आवाज़ नहीं आई। मैं "हेलो, हेलो" बोल रही थी, लेकिन उधर से कोई रिप्लाई नहीं आ रहा था।
मुझे कोई फ़र्क़ भी नहीं पड़ा। मैंने सेकंड टाइम कॉल किया और फिर उन्होंने फोन भी नहीं उठाया, तो मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है क्योंकि इतना कोई विशेष मुद्दा है नहीं। मैं जो इस काम के लिए आई हूँ, वो काम मेरे लिए बहुत ज़्यादा ज़रूरी था। मेरा एक प्रश्न जो था, वो प्रश्न का जवाब अपने आधे से ज़्यादा सेशन में वो हो गया है। प्रश्न का जवाब मुझे मिल गया है, तो प्रश्न तो कुछ रहा नहीं। बस लास्ट का उसमें ये था मेरा, कि जब अहम् जगह-जगह जाकर चिपक जाता है, अलग-अलग विषय से, व्यक्ति से, तो उसकी ये आदत ख़ुद की भी होती है कि वो फिर अपने विषय दूसरे भी बना लेता है। एक जगह चिपकता है, फिर दूसरी जगह चले जाता है।
अभी मेरा लास्ट का ये था कि अभी जैसे मैं गीता सेशन सुन रही हूँ, इतने दो साल से करीब-करीब, और आपको दिन भर ही ऑलमोस्ट सुनती हूँ। ऑफिस तो बहुत एक सेकेंडरी रह गया है। आपको ही सुनने का काम है मेरा, खाना बनाते टाइम भी और हर समय ड्राइविंग के टाइम भी, ऑफिस के टाइम पर भी।
लेकिन है न, अब थोड़ा सा एक डर ऐसा हो गया है क्योंकि मेरी भी आदत थोड़ी ऐसी है, अधिकतर जब मैं कभी भी किसी को सुनती थी, तो लोग यही बोलते थे, “हाँ अब आप इसको सुनते हो,” कुछ लोग हँसी भी उड़ाते हैं सर। तो फिर वो है न मुझे तो विश्वास है ख़ुद पर, फिर भी थोड़ा सा ऐसा लग रहा है कि कहीं सच में मैं माया के आवेग में आकर ये सब छोड़ तो नहीं दूँगी न, मुझे छोड़ना नहीं है क्योंकि। मैं इसके साथ हमेशा रहना चाहती हूँ, इन एनी कंडीशन, चाहे सब कुछ छूट जाए। मुझे ये नहीं छोड़ना है।
आचार्य प्रशांत: ऐसी कोई गारंटी नहीं है कि नहीं छूटेगा।
प्रश्नकर्ता: वही गारंटी आपसे माँगने आई हूँ मैं।
आचार्य प्रशांत: ऐसी तो कोई गारंटी है नहीं। इसकी सचमुच कोई गारंटी नहीं होती है कि कोई चीज़ जैसी आज चल रही है, वैसी ही कल भी चलेगी।
प्रश्नकर्ता: सर ये तो बदलता नहीं है न पर।
आचार्य प्रशांत: सत्य नहीं बदलता। अभी हम इतना भीतर से परिमार्जित हुए नहीं होते कि कह सकें कि मामला सत्य के तल पर आ गया है, उसमें और बातें रहती हैं। अब आप कह रही हैं कि दूसरे हँसी उड़ाते हैं, उससे फ़र्क़ पड़ जाता है, ये सब हो जाता है। सत्य को थोड़े ही आत्मसंशय हो जाता है। पर अभी हो रहा है न?
प्रश्नकर्ता: नहीं, हरगिज़ नहीं होगा सर। पहले जब शुरुआत थी तो लोग बोलते थे, और शुरुआत मतलब पाँच-छह साल पहले जब मेरे पास गीता आई, मेरा सफर आपसे ऐसे हुआ है आचार्य जी। ये बात बोलना, सॉरी मैं समय ले रही हूँ, पर छह साल पहले मेरे पास गीता आई थी और भगवद्गीता पढ़ने का बिल्कुल भी समझ नहीं आता था एक शब्द भी मुझे। कंटीन्यूसली मैं यूट्यूब पर सर्च करा करती थी कि कैसे असली चीज़ तक पहुँचूँगी, क्योंकि मुझे कुछ भी समझ, सब कुछ जीरो रहता था मेरे सामने।
एक-एक शब्द, एक-एक श्लोक पर बार-बार आती थी, लेकिन कुछ भी समझ नहीं आता था। उसके बाद फिर अचानक एक दिन आप, मैं मतलब उसके पहले तो मैं रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण और नारद गीता, रिभु गीता और चैतन्य महाप्रभु, न जाने मैं कहाँ-कहाँ पहुँच गई, पर मुझे सेटिस्फ़ेक्शन नहीं होता था। फिर एक दिन आपका एक यूट्यूब पर वीडियो था, "कृष्ण कौन है?" तो फिर जैसे ही वो मैंने वीडियो सुना, उसके बाद मेरी जर्नी खत्म हो गई, सर्चिंग वाली।
आचार्य प्रशांत: देखिए, न छूटे तो अच्छा ही है। लेकिन झूठा आत्मविश्वास ज़्यादा घातक होता है, इससे अच्छा होता है कि ये सतर्कता बनी रहे कि माया तो आख़िरी साँस तक है। तो वो कभी भी भाँजी मार सकती है, ये याद रहे तो बेहतर रहता है, क्योंकि ऐसा है। साहब का है, कि जब आप माया को सोचते हो कि मरी पड़ी है, आप उस वक़्त भी अगर जाकर के देखोगे, तो उसका जो पिंजर होगा, स्केलेटन, वो भी धीरे-धीरे साँस ले रहा होता है। आशय ये है कि जब तक आपका पिंजर साँस ले रहा है, तब तक माया का पिंजर भी साँस ले रहा है, वो कभी नहीं मरती। तो भूलने–भटकने की संभावना तो देखिए, हमेशा रहेगी।
और आप उस तरफ़ ले आते हैं, जहाँ मैं आमतौर पर जाना नहीं चाहता। लेकिन बोध का स्रोत जब ग्रंथ की जगह कोई व्यक्ति होता है, तो उसका थोड़ा-सा अतिरिक्त लाभ यही हो जाता है, उसकी जो सशरीर उपस्थिति है, वो आपको ये जताने के काम आती है कि तुम भटक सकते हो। और जब भटकते हो, तो वो फिर शरीर रूप में अनुपस्थित हो जाता है तुम्हारे लिए।
ऐसे समझिए कि आपके पास ग्रंथ है, और ग्रंथ आप अपने साथ रखती हैं, अपने पर्स में मान लीजिए। आप भटक भी गई हैं, तो वो आपके पर्स में पड़ा रहेगा। आप भटक भी गई हैं, आपके पर्स में पड़ा हुआ है, आप उसे ले जाइए कहीं भी। तो ग्रंथ इस मामले में लाचार होता है कि वो आपको ये ख़ुद एहसास नहीं दिला पाएगा कि तुम भटक गए, कोई प्रमाण नहीं दे पाएगा। क्या प्रमाण देगा? पहले भी आपके पर्स में वो ग्रंथ था छोटी-सी ऐसी, और अभी भी है, तो कुछ नहीं बदला।
लेकिन जब कोई व्यक्ति होता है, ऐसा शरीर, आप जब भटकते हो, तो फिर वो शरीर रूप में आपको दिखाई देना बंद हो जाता है। इस अर्थ में समझ लीजिए कि अभी आप यहाँ आकर के बैठी हैं। आप भटक जाइए, आप गीता से दूर हो जाइए, तो फिर आप यहाँ आकर थोड़ी बैठोगे। तो एक खुला प्रमाण खड़ा हो जाएगा सामने, एक ज़ोर से चिल्लाता हुआ सबूत, कि आपका आपके लिए कुछ अब बदल गया है। आप भटक गए हो। वो सबूत एक छपा हुआ काग़ज़ का ग्रंथ नहीं दे सकता।
भटकना हो सकता है, कभी भी हो सकता है, हमको ये याद रखना चाहिए। आप पूछ रहे हैं न, कि कैसे ना हो भटकना? तो ये याद रखना ही विधि है, जितना आप ये याद रखोगे कि कभी भी हाथ आई चीज़ छूट सकती है, भटकाव कभी भी संभव है, जितना ये आपको याद रहेगा, भटकने की संभावना उतनी ही कम हो जाएगी।
इसकी जगह अगर हमने एक आत्मविश्वास पकड़ लिया कि “मुझको तो मिल गया,” तो वो लगभग एनलाइटनमेंट जैसी चीज़ हो गई न फिर कोई, कि “मुझे तो मिल गया।” वो बड़ी माया होती है। जिनको लगता है कि “मुझे तो अब कोई आख़िरी चीज़ मिल गई,” उनसे हाथ आई चीज़ भी छूट जाती है।
ये ऐसी चीज़ है जो आपको लगातार मिल रही है, और आपको लगातार जो इसका दाम है, वो चुकाना पड़ेगा, लगातार। ये ऐसी चीज़ नहीं है। लगभग बिजली की तरह है। आप बिजली पैक करके घर में नहीं रख सकते। रख सकते हो क्या? ठीक है, कोई बड़ा कैपेसिटर हो सकता है, पर कितना बड़ा होगा? कितना बड़ा हो सकता है? ये ऐसी चीज़ है जो हर महीने आपके घर आती है, और आप हर महीने इसका बिल देते हो, एनरोलमेंट। तो ये ऐसी चीज़ नहीं है कि एक बार ले ली और पैक करके रख ली, ये एक सतत् प्रवाहिक जीवंत चीज़ है जिसका कनेक्शन कभी भी कट सकता है।
और ये बहुत अच्छी बात है। ये आपको लगातार सतर्क रखेगी कि “अरे, अंधेरा हो गया क्या?” इसका क्या मतलब है? इसका मतलब ये है कि मैंने इसकी क़द्र नहीं की। ये बैटरी नहीं है, ये इन्वर्टर नहीं है, ये कैपेसिटर नहीं है, ये कोई चार्ज्ड चीज़ नहीं है, ये एक जीवित प्रवाह है इलेक्ट्रॉन्स का, जो कभी भी रुक सकता है। साँस की तरह है, जो चल रही है, चल रही है, पर कभी भी रुक सकती है। तो सतर्क रहना होता है, और वो सतर्कता ही तो चाहिए, आश्वस्ति मत माँगिए, सतर्कता माँगिए।
ये मत पूछिए कि "मुझे गारंटी दे दीजिए कि आप कभी दूर नहीं होंगे।" ये कहिए कि "इतना हो जाए कि मैं सदा सतर्क रहूँ ताकि दूर ना होने पाऊँ।"
गारंटी मिल गई, गारंटी मिलते ही आदमी क्या करता है? सोने चला जाता है, लापरवाही आ जाती है। गारंटी का तो मतलब ही है कि अब तो हमारे हो गए, अब तो कुछ नहीं हो सकता। वो तो फिर जैसे हमारे औपचारिक रिश्ते होते हैं वैसी बात हो जाएगी न, कि "अब तो ये भाई है मेरा, तो अब पूरे जन्म भाई ही है।" कभी भाई आपका बोल सकता है कि "अब मैं तेरा भाई नहीं हूँ।" तो ये तो वैसी बात हो जाएगी, फिर उसमें कोई दम नहीं रहता। माँ नहीं बोल सकती "तेरी माँ नहीं हूँ।" बाप नहीं बोल सकता। वो तो फिर हो गया अब तो, चिल।
ये चीज़ ऐसी है जिसमें कुछ भी कभी जम नहीं जाता, जिसमें कुछ भी कभी स्थायी नहीं हो जाता। जिसमें कभी भी कुछ भी पत्थर की लकीर नहीं हो जाता। हो सकता है आपका पचास बरस का नाता हो, एक पल में आप तोड़ सकते हो, क्योंकि हम जिस चुनाव को वेदांत का मूल कहते हैं, वो चुनाव तो प्रतिपल है न। तो पचास साल का रिश्ता भी एक पल में टूट सकता है, कोई ये न सोचे कि पचास साल का हो गया। वो घर में होता है कि "हमारी पचास साल की शादी है, थोड़ी टूट जाएगी।"
अध्यात्म में वैसा नहीं होता, यहाँ जो रिश्ता होता है बोध के स्रोत से, वो पल भर में भी टूट सकता है। लेकिन अपनी ओर से नहीं तोड़ेंगे वो, तोड़ने का काम हमेशा जो छात्र होता है, उसकी ओर से होता है। कभी लापरवाही में, कभी आत्मविश्वास में, वो कहता है, "अब मुझे मेरा तो मिल गया, मुझे हो गया," या कि "मैं तो वहाँ पहुँच गया हूँ, जहाँ से मैं नीचे गिर ही नहीं सकता।" जैसे ही इस तरह की भावना आती है, वैसे ही गड़बड़ हो जाती है।
मैं आपको जो अभी बता रहा हूँ, ये वो चीज़ है जो संबंध टूटने से बचा देगी, उसका नाम है सजगता, सतर्कता। वही बचा सकती है सिर्फ़, बाक़ी कोई गारंटी नहीं है। एकदम गारंटी नहीं है।
मैं तो आप लोगों का देखता रहता हूँ न, अब कम्युनिटी भी कितनी दो साल पुरानी तो हो ही रही होगी कम से कम। दीप जी कितने साल हो गए जब से ये फीड के कितने? दो साल से ऊपर हो गए होंगे अब?
श्रोता: दो साल।
आचार्य प्रशांत: दो साल हो गए करीब। दो साल पहले जो लोग सबसे मुखर खिलाड़ी हुआ करते थे, हर तीन घंटे में इतना लंबा लंबा आ रहा है, वो अब कहीं देखने को नहीं मिलते। और ये क्रिया-प्रक्रिया हर छह महीने चलती रहती है। आप आज आते हो और बहुत जोर-शोर से आते हो, ऐसे आते हो कि बिल्कुल आके वहाँ फैल गए, बिखर गए, अपने से ऊपर वाली छह पोस्ट और नीचे वाली छह पोस्ट पर भी छा गए। ऐसे जैसे फैल गए। और उसके चार महीने बाद सन्नाटा, कहाँ गया उसे खोजो, बहती पवन सा था वो। और फिर खोजने भी जाओ तो फोन भी नहीं उठाते।
तो ये सब तो आवत-जावत जीवन प्रपंच है, रोज़ देखते हैं, बहुत होता है। आपको इसलिए नहीं बता रहे कि आप डर जाओ या हतोत्साहित हो, इसलिए बता रहे हैं ताकि आप सतर्क हो जाओ। “हमें घर मिल गया, ये कम्युनिटी ही हमारा घर है।” घर से भाग कहाँ गए? नज़र क्यों नहीं आ रहे? कहाँ हो?
प्रश्नकर्ता: घर से भाग के यही आएँगे, और कहाँ जाएँगे।
आचार्य प्रशांत: आप जो कर रहे हो वो अच्छा हो सकता है निसंदेह। बस मैं ये कह रहा हूँ कि ख़तरे बहुत हैं। ठीक है? तो ख़तरों से सावधान रहिएगा।
प्रश्नकर्ता: लव यू आचार्य जी।
प्रश्नकर्ता: तो मैं ये बोल रही थी कि इसमें न एक चीज़ ये भी होती है कि जब हम कुछ बड़ा काम नहीं चुनते न, जैसे इन्होंने बोला, कि मैं सुन रही हूँ, सुन रही हूँ। अगर इससे कुछ बड़ा काम नहीं उठाएँगे, तो सुनना-सुनना होता चलेगा न, तो तब बड़ा ख़तरा हो जाता है। ये मेरे साथ हुआ था कि वही चल रहा है, वही चल रहा है। तो लगता है हमें सब आता है, और आपको थोड़ा सा ऐसे लेते हैं, लाइट। आचार्य जी, अपने पड़े हैं फोन में चल रहे हैं साइड में, और अपना दिमाग कहीं और लग रहा है।
फिर जब कुछ थोड़ा काम उठाया है उसके आगे, तो अभी लग रहा है कि आपकी कितनी ज़रूरत पड़ती है।
आचार्य प्रशांत: और वो जो थोड़ा काम है, वो उठाना पड़ेगा क्योंकि वो स्थितियाँ, या वो माँग मैं ख़ुद पैदा कर दूँगा न। कोई बच्चा छठी में है, वो बार-बार बोले कि "मुझे सब आ गया, मुझे सब आ गया," तो मैं क्या करूँगा?
प्रश्नकर्ता: सिलेबस बढ़ा दोगे।
आचार्य प्रशांत: मैं उसे सातवीं की किताब दे दूँगा। और सातवीं की किताब जब आएगी, तो हो सकता है कि फिर भारी पड़ने लगे। पर हो सकता है कि आत्मविश्वास अभी भी बना रहे। और हम कहें कि सातवीं वाला काम भी हो गया, हो गया, हो गया, तो मैं क्या करूँगा? तो आप जितना ज़्यादा बोलोगे कि आप यहाँ जम गए हो, उतना ज़्यादा मैं आपको कुछ ऐसा दूँगा जो आपको शायद उखाड़ दे। अब यही वो कीमत है जो अदा करनी पड़ती है।
क्योंकि आप अगर जम गए हो, तो अब आपको काम भी तो भारी मिलेगा न। और मैं ना भी दूँ काम तो स्थितियाँ दे देंगी, मैं ना भी दूँ तो स्थितियाँ दे देंगी। फिर याद रखिए, एक जीवंत प्रवाह है, इसमें लगातार विस्तार होता रहता है। जानते हो, मैं जिस काम पर हूँ, उस काम को करते अब लगभग बीस साल हो रहे हैं। बहुत-बहुत कम लोग टिके हैं मेरे साथ।
मैं उनकी बात नहीं कर रहा जो सिर्फ़ मेरे काम के लाभार्थी हैं, जो मेरे छात्र रहे हैं। मैं उनकी बात कर रहा हूँ जो मेरे साथ चलते थे कंधे से कंधा मिला के, जो मेरी संस्थाओं का ही हिस्सा हुआ करते थे। वैसे शायद अगर मैं गिरूँगा, तो पाँच सौ, सात सौ, आठ सौ लोग होंगे जो कभी फॉर्मल रूप से यहाँ काम करते थे और अब नहीं करते हैं।
उसकी क्या मूल वजह है? उसकी मूल वजह ये है कि मैं जो काम कर रहा हूँ, वो कोई एक काम नहीं है कि मैंने ये गीता का श्लोक है, आपको आज बता दिया। ये पाँच बाइस जो है आज का, ये शायद मैं आज से दस बार पहले भी आप लोगों के साथ, आपके साथ नहीं तो किन्हीं और लोगों के साथ चर्चा कर चुका हूँ। हमारा जो काम है, वो लगातार आगे बढ़ते रहने का है। आज जो मैंने अर्थ कहा पाँच बाइस का, अगली बार जब भी मौका मिलेगा और बात होगी, तो शायद मैं इससे कुछ अलग बात बोलूँगा, आगे की बात बोलूँगा।
आज हम जिस तल की एक संस्था के तौर पर चुनौतियाँ उठा रहे हैं, आज से एक साल बाद हम उससे बड़ी चुनौतियाँ उठा रहे होंगे। इतना ही नहीं, व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए भी ये बहुत ज़रूरी रहा है कि मैं सिर्फ़ आगे ही नहीं बढ़ूँ, मैं और ज़्यादा गति से आगे बढ़ूँ। तो इतना ही काफ़ी नहीं है कि आगे बढ़ रहे हो, आगे तो आप एक कांस्टेंट गति से भी बढ़ सकते हो। हमारा काम क्या है? आगे बढ़ने की गति भी बढ़ती रहे।
उस संस्था से लोग इसलिए छूट गए क्योंकि उन्हें मैं तो शायद पसंद हूँ, मेरी गति नहीं पसंद है। मेरे साथ होना आनंद की बात बाद में है, चुनौती की बात पहले है। मेरे साथ कदम से कदम बढ़ाकर चलना आसान नहीं है। क्योंकि मेरा काम है एक्सीलरेट करते रहना। उतना एक्सलरेशन ज़्यादा लोग पसंद नहीं करते। हाँ मैं बैठ जाऊँ, महफ़िल जमा करके किसी एक जगह पर और कहूँ, "चलो, अब दोहे और चौपाइयाँ होंगी, रसास्वादन करेंगे और रोज रात में आठ घंटे यही हुआ करे," तो कोई न छोड़ के जाए।
सैलरी वग़ैरह की उतनी नहीं बात होती, आधी सैलरी पर भी लोग रुक जाएँगे। कहेंगे, "ये बढ़िया है। रोज सात बजे से लेकर आधी रात तक यहाँ पर ठंडाई घोटी जाती है और सब बैठ-बैठ के ऐसे आध्यात्मिक मुशायरा चलता है।" कोई न भागे। पर दिक़्क़त ये है कि संस्था में भी जो लोग हैं, वो भी कोई आध्यात्मिक बात मुझसे तभी सुन पाते हैं जब आप लोग सुनते हो, गीता प्रतिभागी। नहीं तो इनसे मज़ाल है कि मेरे मुँह से ये ब्रह्म सुन लें। पहली बात तो इनका मुझसे वास्ता ही नहीं पड़ेगा। और कभी पढ़ भी गया तो मैं तो इनसे सीधे एक प्रोफेशनल की तरह नंबर्स, मैट्रिक्स और टारगेट्स पर बात करूँगा और परफॉर्मेंस पर बात करूँगा। वो मुश्किल होता है।
हमने अध्यात्म का ये स्वरूप इतिहास में बहुत कम देखा है, जहाँ केंद्र पर मामला विशुद्ध आध्यात्मिक है। लेकिन जो बॉडी है, वो पूरे तरीके से एक प्रोफेशनल कॉरपोरेट बॉडी है। जैसे कोई भी कॉरपोरेशन लगता रहता है कि हमें अपनी रीच बढ़ानी है। वो कहते हैं, "हमें अपनी सेल बढ़ानी है। हमें मार्केट शेयर कैप्चर करना है।" उनके पास ये मैट्रिक्स होती है, हमारे पास दूसरी मैट्रिक्स हैं, पर हमारे पास भी हमारी हैं। और हमारे पास जो हैं हमारी हम उन्हें और ज़्यादा गंभीरता से लेते हैं क्योंकि हमें पता है कि वो क्यों ज़रूरी हैं।
दुनिया ने धर्म का वो रूप देखा है, जहाँ केंद्र पर भले ही कॉरपोरेट ग्रीड हो, पर बाहर-बाहर कुछ नहीं करना है। बाहर-बाहर क्या करना है? बाहर-बाहर बिल्कुल बाहर-बाहर है राम नाम जपना, और केंद्र पर क्या है पराया माल अपना। जनता ने वो रूप देखा और वो रूप स्वीकार है कि बढ़िया, मस्त बैठे हुए हैं और ऐसे सब लोग बैठो, बच्चा भजन करो। आ-हा-हा, आनंद बरस रहा है, रस बरस रहा है। भले ही पीछे वहाँ पर सारा वो जितना भी गल्ला था, वो गल्ला गिना जा रहा हो, दो चेले बैठ के गल्ला ही गिन रहे हैं दिन-रात।
वो रूप स्वीकार होता है हमें कि बाहर-बाहर ऐसा लगे कि मामला बिल्कुल धार्मिक है। और भीतर केंद्र में भले ही उतनी ही ग्रीड हो जितनी कि किसी कॉरपोरेशन में होती है, वो चल जाती है, कि सेंटर ग्रीडी है लेकिन जो एक्सटीरियर है, वो धार्मिक दिख रहा है, बिल्कुल किसी खास रंग का दिख रहा है, और एक तरीके के काम हो रहे हैं।
हमारे यहाँ उल्टा है, इसलिए लोगों से झेला नहीं जाता। हमारे यहाँ केंद्र विशुद्ध आध्यात्मिक है, लेकिन केंद्र तो केंद्र होता है न, केंद्र तो एक बिंदु होता है, केंद्र तो निर्गुण होता है, केंद्र नहीं पता चलेगा। और जो केंद्र के चारों तरफ़ है, वो बिल्कुल प्रोफेशनल है, वो दिखाई देगा। और उसको आप देखोगे तो कहोगे, "अच्छा, ये तो फिर एक प्रॉफिट मेकिंग कॉरपोरेशन है।"
भाई, हम इस दुनिया से संघर्ष में हैं, तो हमें उतने ही प्रोफेशनल तरीके से काम करना पड़ेगा न, जितने तरीके से वो कर रहे हैं। अगर माँस बेचने वाली एक कंपनी बिलियन डॉलर वैल्यूएशन रखने वाली एक कंपनी फुली प्रोफेशनल तरीके से काम कर रही है, तो क्या हम प्रोफेशनल और स्ट्रेटेजिक तरीके से काम ना करें? और नहीं करेंगे तो क्या उनका मुकाबला कर लेंगे? अगर वो अपनी एफिशिएंसी और प्रोडक्टिविटी मेज़र करते हैं, तो हम करें कि ना करें? और हमारी उनसे ज़्यादा होनी चाहिए या कम?
श्रोता: ज़्यादा।
आचार्य प्रशांत: ज़्यादा होनी चाहिए। तो मेरा काम ये रहा है कि और ज़्यादा, ज़्यादा, ज़्यादा, ज़्यादा आगे बढ़ना। कैसे आगे बढ़ना? केंद्र को और स्थिर करना अध्यात्म में, और जो बॉडी है, उसको और गति से घुमाना। लोगों से दोनों ही चीज़ें बर्दाश्त नहीं होतीं, केंद्र पर इतनी गहराई और इतनी स्थिरता भी नहीं बर्दाश्त होती, और परिधि पर इतनी गति भी नहीं बर्दाश्त होती। इतनी गति होती है लोग कहते, “बाप रे बाप! यहाँ तो।”
ख़ासकर जो लोग कम्युनिटी से में थे और फिर आ जाते हैं संस्था जॉइन करते हैं, आठ दिन चल जाएँ बड़ी बात है। उनको इतनी धमकी देते हैं इंटरव्यू के समय पर कि “तुम नहीं चलोगे, तुमसे नहीं होगा, तुम्हारे बस की नहीं है।” कहेंगे, “हो ही नहीं सकता। आचार्य जी को दिल, जिगर, जान, किडनी, लिवर सब दे दिया है। हो ही नहीं सकता, हो ही नहीं सकता। हम आ गए हैं सब घर-द्वार छोड़ के आचार्य जी के लिए आ गए हैं, आ गए। अब हम यहीं रहेंगे।”
कई तो कहते हैं, धमकी देते हैं कहते हैं, “आमरण अनशन कर लेंगे।” कहते हैं, “आचार्य जी, आपके द्वार पर कुत्ता बनकर बैठ जाएँगे, यहाँ से कहीं नहीं जाएँगे। हमें यहीं रख लो, ऐसे कर लो, वो कर लो।” सचमुच में ये हुआ पड़ा है।
एक बार बाहर था मैं, मुझे वापस नहीं लौटने दिया। बोले, “आप लौटिएगा नहीं यहाँ बाहर दो-चार फिर रहे हैं, वो घुसने नहीं देंगे आपको अंदर।” और अगर अंदर ले लो, तो जो दिखाई देता है, वो कल्पनाओं से बिल्कुल अलग होता है। कल्पना आपकी ये होती है कि जैसा मैं आपके सामने स्क्रीन पर आता हूँ, ऐसा ही मैं दिनभर रहता हूँगा, कि यहाँ बोधस्थल के गलियारों से गुज़र रहा हूँ और ऐसे करके दोहा-भजन कुछ गा रहा हूँ। पर मैं ऐसे नहीं गुजर रहा गलियारों से दोहा-भजन गाते हुए। क्योंकि संसाधन कम हैं और काम ज़्यादा करना है।
अब वो यहाँ आते हैं, मेरा कुछ और ही रूप देखते हैं। ख़ैर, मुझे तो नहीं देखने पाते, पर जो नियम, क़ानून, प्रक्रियाएँ, प्रोसेसेज़ देख रहे हैं, वो तो मेरे ही हैं। तो उनको लगता है, धोखा हो गया। स्क्रीन पर तो ये अध्यात्म की बात करते थे, पर अंदर आए तो क्या दिखाई पड़ रहा है? यहाँ तो सब कुछ वही है। इतने से इतने बजे आप आठ बजे के आठ-तीस तक सो रहे थे, और ये हमारे प्रोसेस ने पकड़ लिया है। नहीं तो ग़ज़ब हो गया! “अरे, थोड़ा सो लिए रामखुमारी थी। तो क्या गलत कर दिया? पहले भी तो स्क्रीन के पीछे सोते ही थे जब आप सेशन लेते थे।” बेटा, तब चल जाता था। अब अंदर आ गए तो नहीं चलेगा, पकड़े जाओगे।” समझ में आ रही है बात?
किसी झूठे भरोसे में मत रहिएगा, मेरा साथ छूटना इस दुनिया की सबसे आसान बात है, और मेरे साथ चलना बहुत-बहुत कठिन बात है। मैं कैसे आपको गारंटी दे दूँ कि आप मेरे साथ चल लोगे? नहीं चल पाया कोई, मैंने तो प्रमाण देखा है। बीस साल में कौन मेरे साथ चल पाया? और मेरे लिए ये जीवन का ये एक बड़ा अपने व्यक्तिगत तौर पर दुख रहा है, कि नहीं चल पाए लोग मेरे साथ।
मेरी पूरी कोशिश के बाद भी सब कुछ, बस एक चीज़ थी जिसको मैं, कॉम्प्रोमाइज़ नहीं कर सकते, उस पर समझौता नहीं कर सकते, वो ये कि काम और मिशन को ही थोड़ा कम कर दो तो आपके साथ चल लेंगे। नहीं, तुम अगर मेरे साथ इस शर्त पर चलोगे कि मैं काम में कुछ समझौता कर लूँ, तो फिर मैं तैयार हूँ कि तुम छूट जाओ पीछे। इतने लोग छूटे हैं पीछे, मैं आपको कैसे गारंटी दे दूँ कि आप नहीं छूटोगे पीछे?
और एक और बात बोलता हूँ, जो पीछे छूटते हैं न, उनमें से नब्बे प्रतिशत भली-भाँति जानते हैं कि वो पीछे इसलिए छूटे क्योंकि उन्होंने चुना पीछे छूटना। तो फिर वो सिर्फ़ पीछे छूटते नहीं हैं, वो विलुप्त हो जाते हैं। वो फिर कभी नज़र भी नहीं आते। क्योंकि यहाँ जो होता है न, वो एक तरह का प्रेम-संबंध है, और पीछे छूटना एक तरह का ब्रेकअप होता है।
ब्रेकअप होने के बाद क्या आप अपने एक्स से हाय-हेलो भी करना पसंद करते हो? मुश्किल है, नहीं होता। फिर आप ये चाहते हो कि इसको परमानेंटली डिलीट कर दूँ। यही होता है न? तो यहाँ ऐसा ही होता है। जिस दिन आप मुझे छोड़ते हो, उस दिन के बाद ये नहीं कि अब यदा-कदा हम इनके सत्र सुन लेंगे या कुछ होगा। जिस दिन आप मुझे छोड़ोगे, उस दिन आप मुझे पूरी तरह छोड़ोगे। आपको बता दे रहा हूँ, और इतना ही नहीं होगा पूरी तरह छोड़ोगे।
ये भी आपने देखा होगा कि जब ब्रेकअप होता है तो कई बार छोड़ने के बाद गाली-गलौज बहुत होती है, बहुत भयानक गाली-गलौज होती है। आप वो भी कर सकते हो। आप जो अभी यहाँ बैठे हो, इतने प्रेम से, बहुत संभव है कि आप जिस दिन छोड़ो, उस दिन गाली देकर छोड़ो।
क्यों दोगे गाली, वो भी बता देता हूँ। आपको पता होगा कि वो जो छूटा है, वो आपकी असमर्थता का प्रमाण है। मुझे छोड़ना आपको दिखाई देगा कि आपकी नाक़ाबिलियत का प्रमाण है। मैं इसलिए नहीं छूटा हूँ कि मैं आपको छोड़ना चाहता था। मैं इसलिए छूटा हूँ क्योंकि आप मेरे साथ चल नहीं पाए। मैं तो कह रहा था कि कहीं मत जाओ, मेरे साथ रहो। बस मैं अपनी गति कम नहीं कर सकता।
आपको मुझे इसलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि आप मेरी गति के साथ नहीं चल पाए, और ये बात आपको बहुत चुभेगी, बहुत चुभेगी। आप जितनी बार याद करोगे कि आपने मुझे क्यों छोड़ा, आपको याद आएगा कि आपने इसलिए छोड़ा क्योंकि आप काम नहीं करना चाहते थे। आप मेहनत नहीं करना चाहते थे। आप कीमत नहीं अदा करना चाहते थे। और इतनी ईमानदारी होगी नहीं कि आप स्वीकार कर पाओ कि आपने चुनाव करके छोड़ा है। तो फिर आप सारा दोष किस पर डालोगे? मेरे ऊपर डालोगे। और दोष ज़्यादा यही डालोगे कि यहाँ तो जो था कॉर्पोरेट चीज़ थी, ये थी, वो थी, ये। कुछ बोलना है तो कुछ तो बोलने के लिए होना ही चाहिए न, कुछ भी बोलो फिर तो।
मैं आपको कहीं नहीं ले जा रहा। मैं आपको जहाँ ले जा रहा हूँ, वो जगह वो है जहाँ आप बचोगे ही नहीं। मेरे साथ चलने का मतलब है कि जैसे कोई ग्लेशियर आगे बढ़ता है, वो कहाँ पहुँचता है?
प्रश्नकर्ता: पिघल जाता है।
आचार्य प्रशांत: मेरे साथ चलने का ये मतलब है कि आप कहीं नहीं पहुँचने वाले, आप बस मिटने वाले हो। कौन चलेगा मेरे साथ, न आप चल सकते हो, न मैं आपसे उम्मीद रखता हूँ कि आप अंत तक मेरे साथ चल सकते हो, क्योंकि वो अंत यात्रा का अंत नहीं होगा, वो अंत आपका अंत होगा। कौन ऐसा पागल है जो अपना अंत कराने के लिए मेरे साथ चले? कभी-न-कभी तो आप टपकोगे ही। और जो जितने ज़्यादा अवधि तक मेरे साथ रहकर टपकता है, वो उतना ज़्यादा ज़हरीला होकर फिर डसता है।
और अब मैं ये सब बोल रहा हूँ, मैं चाह रहा हूँ आप चलो मेरे साथ, मैं चाह रहा हूँ अंत तक चलो मेरे साथ। पर व्यवहारिक रूप से मुझे ये भी पता है कि बड़ा मुश्किल है।
अब मैं फुल्स पैराडाइज में थोड़ी रहूँगा कि मैं उम्मीद करूँ कि आप सब यहाँ आ गए हो। अब हम बस इकट्ठे लल्ला-लल्ला लोरी करेंगे और अब, ऐसे थोड़ी होने वाला है। ना हुआ है, बीस साल से देख रहा हूँ। और मैं कुछ बदल नहीं सकता इसमें। मैं क्या बदलूँ, बताओ? मैं अपनी गति रोक दूँ? गति पहले रोक दी होती तो आप लोग आज यहाँ नहीं होते। होते क्या?
ये जो मेरे सामने आज मुश्किल है या सवाल है, ये तो दस साल पहले भी था। दस साल पहले ही मैंने कह दिया होता कि अगर मैं इतनी गति से चलूँगा तो कोई मेरे साथ नहीं चल पाएगा, तो अपनी गति कम कर दो। मैंने गति कम कर दी होती तो क्या आप लोग आज बैठे होते यहाँ पर?
तो गति तो मैं कम करने वाला हूँ नहीं। हमारा तो है कि एक्सीलरेटिंग टुवर्ड्स एक्सटिंशन, जस्ट लाइक द अर्थ, तो हम तो। अब आप में उतना पागलपन अगर होगा किसी में तो वो साथ बना रहेगा। बाकी सब तो कभी-न-कभी इधर-उधर “जी थोड़ा सा अभी हम, भाया बस रोकना।” क्या करना? “नहीं कुछ नहीं, थोड़ा उधर टॉयलेट है।” और बस रोकी नहीं कि वो उतर करके फिर सीधे खेतों की तरफ़ भागे।
हम आपसे किसी तरह का इसमें एक्सप्लेनेशन भी नहीं माँगेंगे। मत बताइए कि भाया बस क्यों रुकवानी है? बस इतना कह दीजिए, बस रोकना। बस रुक जाएगी, उतर जाइए। हर महीने आपको मौका मिलता है बस से उतरने का। हर महीने मौका मिल रहा है। हाँ कुछ लोगों को ख़ुद को थोड़ा भरोसा देना होता है। तो कहते हैं, हर महीने हम अपने आप को ही मौका देंगे ही नहीं। वो फिर दो महीने, चार महीने के लिए अपने आप को बाँध देते हैं, तो उन्हें चार महीने बाद मौका मिल जाता है। पर मौका तो सभी को मिल जाता है।
देखिए, ये जो हम लिख रहे हैं न, वो कोई रोमांटिक उपन्यास नहीं है। वो कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसका कोई बहुत, जिसको हम लोकभाषा में सुखद अंत कहते हों, वो चीज़ होने वाली हो।
सच की कहानी हमारी छवियों, हमारी कल्पनाओं के पार की होती है।
सुखद अंत लोक-कथाओं के होते हैं, हम लोक-कथा तो लिख नहीं रहे हैं। तो मुझे ख़ुद को ले भी कोई बहुत उम्मीद नहीं है कि मेरा कोई बहुत सुखद अंत होगा जीवन-यात्रा का। ठीक है?
तो हाँ, जिनको अभी, जो अभी बर्दाश्त कर पा रहे हैं मुझे, वो साथ चलते रहें। जब तक आप बर्दाश्त कर रहे हो, चलते रहो। एक दिन ऐसा आएगा जब आप मुझे नहीं झेल पाओगे, बस रुक जाएगी। उतर जाना, चल देना जहाँ जाना है।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी। जैसे आपने न, अभी इस बच्चे को समझाया कि इसकी मौज-मस्ती वाली चीज़ कि खुलकर रहो। तो मुझे भी ऐसा जवानी में फील होता है कि यार, कैसे मतलब खुलकर रहना है। तो आपके पास आए हैं, तो वो मौज वाला टच मिल गया है।
लेकिन या तो हमारे संग ये समय का कह लो या कुछ भी, जो आपके साथ पहले जुड़े थे न मेंबर्स, उनको आपके साथ थोड़ा पर्सनल टाइम, शिविर वग़ैरह का, वो वाला मिल गया। हमें क्या? कमरे बंद में या घर सेशन्स में वो वाला टाइम मिलता है। वो पर्सनल टच। हम युद्ध में तो धकेल दिए गए हैं, वो पर्सनल टच मिस हो गया।
मैं मिशन को वास्तव में समझना चाहती हूँ। एक डर वो जो लगता है न, वो ये लगता है कि क्या आपके संग वो मौज वाले क्षण मिल पाएँगे कि नहीं? कॉर्पोरेट में झोंक दो, हाँ ये लगता है। कॉर्पोरेट में जानना चाहती हूँ मैं कि कॉर्पोरेट में वास्तव में मिशन का काम क्या है? फैलाना? वेदांत को फैलाना, क्या?
आचार्य प्रशांत: बेटा, आपने वो मौज वाली ही रिकॉर्डिंग देखी है बस।
प्रश्नकर्ता: मौज मतलब काम वाली भी।
आचार्य प्रशांत: काम वाली नहीं मौज, जो बाक़ी भी सब देखा है न, अब हर चीज़ थोड़ी रिकॉर्ड हुई पड़ी है। एक टच कई तरह का हो सकता है। एक टच हो सकता है, व्हेयर वन ऑब्जेक्ट अप्रोचेज द अदर विथ अ स्पीड ऑफ लेट से 1 मीटर/सेकंड। और टच एक ये भी हो सकता है, व्हेयर वन ऑब्जेक्ट अप्रोचेज द अदर विथ 100 मीटर/सेकंड।
संस्था में कोई नहीं है जिसको टच ऑफ द काइंड 2, टी2 ना मिला हो। टी2 कहाँ गया? जो भी है, तो वो छोड़ो, वो मतलब बहुत मुश्किल काम है मेरे आसपास रहना, बहुत-बहुत मुश्किल काम है आसपास रहना। उतना वो नहीं है कि आचार्य जी तो बस टेडी बियर की तरह सबको हँसाते हैं और फिर गाना-वाना गवाकर के बोध-संदेश पिलाते हैं। ये सब नहीं होता है।
श्रोता: आचार्य जी शिविर का मौका मिलेगा?
आचार्य प्रशांत: शिविर का मौका। आप करिए न अब शिविर और औरों को कराइए, दूसरों में बाँटिए। अब हो गया, मैं जितना दे सकता हूँ, दे रहा हूँ अपनी ओर से।
तो शिविर का मौका बिल्कुल मिलेगा, पर वो शिविर आप आयोजित करोगे। आप आयोजित करिए, दूसरों में बाँटिए। मुझसे अब ये उम्मीद रखेंगे कि मैं ही करूँ आयोजित, तो पता नहीं मेरा भी एक समय था, कर लिया था। है न? अब आपका समय है, आप करो। अपने परिवार वालों के साथ ही शुरू करो।
श्रोता: नहीं वो मुश्किल फ़ेस करनी है, जैसे आप कहते हैं, बहुत मुश्किल होता है जब पास रहते हैं तो नीति करना, तोड़ना अपने आपको आसान लगता है।
आचार्य प्रशांत: आप जो जिस तल पर सोच रहे हो, मुश्किल है; उससे किसी अलग तल पर मुश्किल है। और आप जितना सोच रहे हो मुश्किल है, उससे ज़्यादा मुश्किल है। मुझे अभी इतना नहीं आप पर भरोसा है कि आप टूटोगे नहीं। मैं क्या बोलूँ? मैं कैसे आप पर भरोसा कर लूँ?
अच्छा एक बात बताओ, चलो आप इतनी ही खुली-खुली बात करना चाहते हो तो, मैं एक टीचर हूँ, ठीक है? मैं बायो का या ज़ूलॉजी का टीचर हूँ। *बायो** का। मैं यहाँ पर आपको पीछे एक स्लाइड पर, स्क्रीन पर दिखाऊँ कि कार्निवोर्स, वायलेंट एनिमल्स, कौन से होते हैं, जो आपको नुक़सान पहुँचा सकते हैं, कितने तरीक़े से। मैं आपको तेंदुआ दिखा रहा हूँ, चीता दिखा रहा हूँ, बाघ दिखा रहा हूँ, सिंह दिखा रहा हूँ, साँड दिखा रहा हूँ, हिप्पो, गैंडा सब, हाथी दिखा रहा हूँ।
और आप बोलो, सब सीख लिया, सब सीख लिया। मैं परीक्षा भी लूँ तो उस परीक्षा में भी आपके नंबर आ जाएँ। परीक्षा में विकल्प आ गए, ए, बी, सी, डी, ई, और उसने पूछा, इनमें से कौन-कौन से हिंसक पशु हैं? और आपने बिल्कुल टिक कर दिया। ये सब है और आप बहुत खुश हो गए और आप कह रहे हो, आचार्य जी, आप जो सिखा रहे हो, वो तो सब हमने सीख ही लिया है। अब हम पूरी तरह से समझ गए, अब हम आपके साथ चल सकते हैं क्या जंगल में?
अब तो हमने जंगल में जितने ख़तरे होते हैं, आपके साथ सीख ही लिए हैं। तो अब हम जंगल में जा सकते हैं बिल्कुल बेखट, निरापद कोई समस्या नहीं आएगी। और मैं आपका मुँह तकता हूँ। क्यों मुँह तकता हूँ? क्योंकि मैंने देखा है कि आप यहाँ से बाहर निकलते हो और भेड़िया घूम रहा है, बस भेड़िये ने या तो कॉर्पोरेट के कपड़े पहन रखे हैं या धार्मिक कपड़े पहन रखे हैं। कॉर्पोरेट के कपड़े पहन रखे हैं तो आप जाकर के उसको इज़्ज़त दे रहे हो। और धार्मिक कपड़े पहन रखे हैं तो आप जाकर के उसका चरण-स्पर्श कर रहे हो।
अगर जो मैंने सिद्धांत आपको यहाँ सिखाए, आपने सीखे होते, तो बाहर क्या आप ये व्यवहार कर रहे होते? यहाँ आप कहते हो कि आप सब सीख गए कि माया क्या होती है और कैसे-कैसे नुकसान पहुँचा सकती है। और मैं आपकी ज़िंदगियों को देखता हूँ, तो उसी माया को आपने अभी भी गले लगा रखा है। तो मैं आप पर भरोसा करूँ फिर?
बीच-बीच में कम्युनिटी में कोई आकर लोकधर्म का कोई मुद्दा कम्युनिटी पर डाल देता है। कभी वो फ़िल्म से संबंधित हो सकता है, कि कोई फ़िल्म आई है उसके बारे में कुछ लिख दिया। कभी किसी बाबा से संबंधित, कभी किसी राजनेता से संबंधित, कभी किसी पॉलिटिकल पार्टी से संबंधित, कभी कोई नया प्रोडक्ट लॉन्च हुआ है मार्केट में, उससे संबंधित। माने ऐसी चीज़ें जो दुनिया में चल रही हैं, दुनियादारी की कोई बात ला के कम्युनिटी पर डाल देते हैं। और वहाँ आपके जो जवाब आते हैं, उनका गीता या मुझसे कोई लेना-देना नहीं होता। वहाँ आपके जवाब आते हैं आपकी ही पुरानी मान्यताओं से।
आचार्य जी ने भले ही सिखाया होगा कि भेड़िया घातक होता है, पर भेड़िया तो मेरा सबसे अच्छा दोस्त है और बहुत पुराना दोस्त है। मुझे परंपरा में सिखाया गया है कि भेड़िया अच्छा होता है। तो मैं तो भेड़िये को अच्छा ही मानूँगी, भले ही आचार्य जी ने बता दिया हो कि भेड़िया कितना गड़बड़ है। मैंने बता दिया, भेड़िया गड़बड़ है। एग्ज़ाम में भी भेड़िया गड़बड़ है लिख के आपने नंबर ले लिए, पर ज़िंदगी से तो भेड़िया आप नहीं निकाल पा रहे हो। न अपने धर्म से भेड़िया निकाल पा रहे हो, न अपनी पॉलिटिक्स से भेड़िया निकाल पा रहे हो, न अपने कंज़म्शन से भेड़िया निकाल पा रहे हो।
तो मैं क्या भरोसा करूँ आप पर? जब भी कोई विवादास्पद पोस्ट डल जाती है कम्युनिटी पर, पक्का होता है कि कम से कम दस-बीस लोगों को उस पोस्ट के चलते ही संस्था अब कम्युनिटी से बाहर करेगी। क्योंकि उस पोस्ट के नीचे लोग आ-आकर अपने जो जातिगत पूर्वाग्रह, धर्मगत पूर्वाग्रह, संस्कारगत पूर्वाग्रह, राजनीतिगत पूर्वाग्रह होते हैं, वो सब वहाँ आकर उढ़ेलना शुरू कर देते हैं। और उसमें ऐसे-ऐसे लोग भी होते हैं जिनकी उस पर लिखा होता है, प्रोफ़ाइल पर 1 ईयर 8 मंथ्स, 1 ईयर 7 मंथ्स।
तुम पौने दो साल से मेरे साथ हो, पौने दो साल से तुम कह रहे हो कि तुम गीता के साथ हो। और इतिहास का तुम्हारा जो फेवरेट कैरेक्टर है, उसके बारे में वेदांत ने कुछ और बता दिया, तो तुम भड़क गए। कि नहीं, इससे तो जो मेरा जातिगत, समुदायगत और क्षेत्रगत अहंकार है, वो चोट खाता है, तो मैं अब यहाँ पर आकर नारे लगाऊँगा। तो मैं तुम पर भरोसा करूँ? ये तो छोड़िए कि मैं ये भरोसा करूँ कि आप बाहर जाकर कुछ अच्छा कर लोगे। मुझे तो अभी ये भी भरोसा नहीं है कि कल को मेरे ऊपर कोई आक्षेप लगता है, तो आप मेरे साथ खड़े भी रह पाओगे।
क्योंकि आक्षेप वही लगेगा, उसी दिशा से लगेगा, जिस दिशा से आपके संस्कार आ रहे हैं। तो आक्षेप ऐसे ही लगेगा कि आपके भी पुराने संस्कार बिल्कुल तिलमिला के खड़े हो जाएँ। आप सब भूल जाओगे गीता, वेदांत वग़ैरह सब भूल जाओगे। आपको बस आपका पुराना इतिहास और संस्कार यही याद रह जाएँगे। आपको आपका पूरा लोकधर्म यही याद रह जाएगा।
इसका समाधान क्या है, मुझे नहीं पता। कितनों के टेस्ट लूँ? कैसे टेस्ट लूँ? ऐसा टेस्ट तो सब्जेक्टिव होगा। मैं बीस, चालीस, पचास हजारी लोगों का सब्जेक्टिव टेस्ट लूँ? सब्जेक्टिव समझते हो न? फिर वो ऑनलाइन नहीं हो सकता, फिर किसी व्यक्ति को बैठ के परखना पड़ेगा, एक-एक को।
एक समय था जब मेरे पास समय था, मैं एक-एक को बैठ के परख सकता था। आज मैं एक-एक को बैठ के कैसे परखूँ? और परखने की कीमत भी होती है। परखा, और जिसको व्यक्तिगत रूप से परखा, वो ठीक नहीं निकला। तो फिर वो आपके प्रति व्यक्तिगत द्वेष लेकर जाता है। वो कहता है, इन्होंने मुझे व्यक्तिगत रूप से परखा, इन्होंने मुझे व्यक्तिगत रूप से खारिज किया। तो अब ये व्यक्तिगत रूप से मेरे दुश्मन हो गए।
जहाँ मैं व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं भी कर रहा, लोग मुझसे वहाँ भी व्यक्तिगत दुश्मनी रख रहे हैं। अब मैं व्यक्तिगत रूप से ही आपको परखूँ और आपको रिजेक्ट कर दूँ, तो आप क्या करोगे फिर? और रिजेक्ट तो बहुत होंगे। और जितने रिजेक्ट होंगे, ये बाहर जाकर अपनी अलग संस्था बना लेंगे। वार पता नहीं वहाँ से क्या करें? चढ़ाई ही कर दें।
जिस दिन मुझे आप पर भरोसा आ जाएगा, उस दिन जो होना है, वो मैं ख़ुद ही करूँगा। आपको माँग नहीं करनी पड़ेगी। बिल्कुल ऐसा हो सकता है मुझे आप पर भरोसा आ जाए, तो मैं आपके घर टिकट भेज दूँ, “आ जाओ।” बिल्कुल हो सकता है। टिकट छोड़ दो, ये भी हो सकता है, जो जानते हैं जिनकी आप बात कर रहे हो, मैंने जाकर उनके घरों से उठाया हुआ है उनको।
मुझे जिस पर भरोसा आ जाता है, जिसको मैं अपना लेता हूँ, वहाँ फिर मैं कोई सीमा नहीं रखता। लोगों के घरों में घुस के चलो बैठो, फिर पीछे से कोई फोन करता रहे, पुलिस करता रहे, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, हम देख लेंगे। लेकिन जब भरोसा नहीं है, तो मैं कैसे कह दूँ कि नहीं ऐसा है, वैसा है? कुछ नहीं।
आप अभी क्या साधारण प्रक्रियाएँ भी समझते हो? आप मेरे पास इसीलिए आ पाए क्योंकि आप मेरी बात सुन पाए। सुन पाए, लिसनिंग थी, तभी आ पाए न। जिसको ऐसा कर दोगे आप कि वो मेरी बात अब सुन ही न पाए, दुष्प्रचार कर-करके अगर किसी को ऐसा कर दिया गया कि वो मेरी बात सुन ही नहीं सकता, वो कभी आएगा मेरे पास? आएगा क्या? पर उस दुष्प्रचार का अगर कोई उत्तर भी देने जा रहा था, तो संस्था में सैकड़ों लोग थे जिन्हें बड़ी समस्या हो गई थी, नैतिक समस्या। “हम क्यों हैं? हम हैं न हमसे बात करिए, आचार्य जी, और कोई अब क्यों आया आपके पास? हम आ गए न, हमने बस की सारी सीटें हमने घेर ली हैं। और कोई क्यों चढ़े अब?”
जब अभी आप पूरी प्रक्रिया ही नहीं समझ रहे हो कि हम क्या कर रहे हैं और किस तरह से कर रहे हैं, तो आपको बहुत भीतर लाने में गड़बड़ हो जाएगी। आप समझोगे ही नहीं कि हम क्या काम कर रहे हैं और आप पर न जाने क्या प्रभाव पड़ जाए। आप तो ये तक नहीं समझते कि ज़्यादातर लोग, एक तो ये कि मिशन के फैलने के लिए ज़रूरी है कि पहले कोई बात सुने। दूसरी बात, लोग बात नहीं सुन पा रहे, उसका कारण ही यही है कि बहुत ज़्यादा दुष्प्रचार हुआ है। और उसके आगे की एक और बात, कि जिन्होंने दुष्प्रचार किया, उन्होंने इसीलिए किया है क्योंकि मैंने आप तक अपनी बात पहुँचाई है। वरना उन्हें मुझसे क्या रंजिश है?
ये ज़्यादातर लोग, ये वही हैं जिनके घर का कोई-न-कोई सदस्य मुझे सुन रहा है। उन्हें यही समस्या है, और इसलिए उन्होंने अब कसम खाई है कि। अब ऐसे ही सोचो, एक आदमी है साधारण, जैसा चलता है लोकधार्मिक परिवार। वो अपनी पत्नी से साधारण तरह का ही संबंध रखता है, जिसमें शोषण भी है, जिसमें भ्रूण-हत्या भी है, जिसमें दहेज भी है, जिसमें सब कुछ है।
पत्नी मुझे सुनने लगती है, वो खड़ी हो जाती है और कहती है कि “ये सब अब नहीं चलेगा।” ये जो पति है, ये मेरा कट्टर दुश्मन अब बनेगा कि नहीं बनेगा? तो मुझे कोई गाली भी दे रहा है, तो इसलिए नहीं दे रहा कि उसे मुझसे कोई व्यक्तिगत समस्या है। वो मुझे गाली भी इसलिए दे रहा है क्योंकि मैंने आपको बचाया है। बहुतों को तो अभी ये तक नहीं समझ में आता। मैं उन्हें अपने कितने निकट आने दूँ? आप लोग आधा तो मुझे भी बाबा ही मानते हो। अभी आप पहले समझ तो लो, मैं हूँ कौन?
नोट्स बना लिए उसने सारे, देखिए। (बच्चे की ओर इंगित करते हुए)।
श्रोता: आचार्य जी एक कविता लिखी है।
आचार्य प्रशांत: कविता रहने दो बेटा, आप पोस्ट कर देना। बहुत अच्छा है, कोई दिक़्क़त नहीं है अभी, कभी तो मैं ख़ुद ही था, “ज़िंदगी को कविता बना लो।” ज़िंदगी को कविता बना लो।
एक समय था जब मैं सोचता था कि कविता को ही ज़िंदगी बना लूँगा। मुझे कवि ही बनना है, फिर ज़िंदगी कविता बन गई।
श्रोता: सर जो उभरा हूँ, वो आपकी वजह से ही है।
आचार्य प्रशांत: बस, बस बढ़िया, अच्छा है। ज़िंदगी को कविता बना लो। जो लिखा है न, उसको जियो, यही चाहता हूँ।