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मैं आपको बहुत ऊँचा देखना चाहता हूँ || आचार्य प्रशांत
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: अगर हमारे बीच वास्तव में कोई रिश्ता है तो मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा कि आप वैसे ही कोई ज़िन्दगी जी रहे हो जैसे कोई आम आदमी जीता है। मुझे अपनेआप पर और अपनी बात पर घिन आएगी। आप अगर कहते हो आप दो साल से मेरे साथ हो कितनी बार मिल भी चुके हो और कई लोग तो पाँच-पाँच, छ:-छ: साल, दस वर्ष वाले भी हैं, जो कहते हैं, ‘दस-दस साल से हम आपको सुन रहे हैं।’

देखिए, लोगों ने मुझे नहीं सुना हो तो मुझे एक उम्मीद रहती है। मुझे लगता है ये मुझे सुनेंगे तो ज़िन्दगी बदलेगी, दुनिया बदलेगी, कुछ नया होगा। मुझे उम्मीद बनी रहती है। वो उम्मीद मेरी ऊर्जा रहती है; पर जहाँ मुझे ये दिख जाता है कोई मेरे साथ भी रहा है। पाँच साल-सात साल से वो फिर भी नहीं बदला तो फिर मेरी भी हिम्मत टूटने लगती है। जैसे रीढ़ पर किसी ने मार दिया हो। फिर मुझे लगता है, ‘कुछ भी करने से फ़ायदा क्या है अगर जिनके लिए किया जा रहा है उनको लाभ ही नहीं हो रहा है तो?’

मैंने एक आम ज़िन्दगी नहीं जी है, कुछ चाहा नहीं था। कुछ अलग उत्कृष्ट, निराला, एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी (असाधारण) करना है। लेकिन कुछ अलग होता गया, होता गया हो गया। तो ये कैसे सम्भव है कि आप मेरे साथ हैं और आपकी ज़िन्दगी वही पुरानी आम ज़िन्दगी ही है कि आप कहीं बस में जा रहे हैं और बस एक आम यात्रियों जैसे ही दिख रहे हैं। आप सब्ज़ी मंडी में खड़े हुए हैं और आप भी चार रुपये के लिए बहस करते किसी आम ख़रीददार जैसे ही हैं।

ये इतनी चीज़ मैं आपसे माँग रहा हूँ अगर हमें वैसे ही चलना है जैसे हम हैं तो हम यहाँ एक-दूसरे के आमने-सामने कर क्या रहे हैं? स्वाँग? आप कहते हो, ‘नहीं, हमने समझ लिया है हमारे भीतर-भीतर परिवर्तन आ गया है, लेकिन बाहर-बाहर तो देखिए दुनिया के साथ ही चलना पड़ता है।’ फिर आप दुनिया के साथ ही चल लीजिए मुझे छोड़ दीजिए। मुझे माफ़ करिए बिलकुल।

डर मुझमें भी रहा है, सन्देह मुझमें भी रहे हैं, लेकिन फिर भी लगभग शत-प्रतिशत ईमानदारी से कह सकता हूँ जितना मैं दहाड़ सकता था, ललकार सकता था मैंने किया है। बाक़ी इंसान हूँ, त्रुटियाँ होंगी, दोष होंगे, कहीं मैं भी शायद डरकर पीछे हटा होऊँगा। उसकी बात नहीं कर रहा लेकिन लगभग जितनी दूर तक जा सकता हूँ, जितनी ज़ोर से पुकार सकता हूँ, मैं कर रहा हूँ।

मैं ये कैसे देख लूँ कि मेरे साथ के लोग दब्बू हैं? मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप मेरे पक्ष में दहाड़ें, आप जहाँ हैं वहीं पर आपकी ज़िन्दगी में एक रौनक, एक तेज, एक नूर, दिखना चाहिए न। मोहल्ले के दस लोग खड़े हैं और उसमें एक आप भी खड़े हुए हैं और कोई अन्तर ही नहीं दिख रहा; न हस्ती में, न बातों में, न निर्णयों, न कर्मों में। कोई अन्तर ही नहीं दिख रहा। तो...

आपको नया होना चाहिए। ऐसा थोड़े ही है कि घर में पाँच लोग हैं या आठ लोग हैं और उनमें से एक हो जो इस वक्ता को — प्रशांत को सुनता भी है, पढ़ता भी है; लेकिन उस एक में और बाक़ी जो छ:-सात हैं उनमें कहीं कोई अन्तर ही नहीं, कहीं कोई भेद ही नहीं। तो हटाइए फिर।

वही फ़िल्में जो बाक़ी छ: देख रहे हैं वही आप भी देख रहे हैं, वही बातें, वही गॉसिप (गपशप) जो बाक़ी छ: कर रहे हैं आप भी कर रहे हैं। बाक़ी छ: भी रात में बैठकर दूधमलाई उड़ा रहे हैं, आप भी उड़ा रहे हैं, क्योंकि आप उनके साथ के हैं न। तो आप उन्हीं के साथ हो जाइए। मेरे साथ मत रहिए फिर। मुझे अकेले चलने का बड़ा अनुभव है। मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि इतने लोग भी हो जाएँगे। मैं अकेला ही भला।

जैसे अभी कह रहे थे न कि पर्वतों में हिमालय। वैसे ही सच का बन्दा जंगल में शेर होता है। आपकी दहाड़ कहाँ है? ‘चूँ-चूँ, चीं-चीं’ और मिमियाना ‘म्याऊँ।’ थोड़ा अभी मुझे कटु इसलिए होना पड़ रहा है क्योंकि मुझे लगता है। मुझे लगता इसलिए है क्योंकि मैंने अभी इंसान से उम्मीद नहीं खोयी है। और जो लोग मेरे साथ आ जाते हैं उनसे तो — ये दोष है मेरा — लेकिन उनसे मुझे बहुत उम्मीदें हो जाती हैं।

मैं उन्हें बहुत-बहुत ऊँचा देखना चाहता हूँ। आपको इतिहास पुरुष होना है। आप एक साधारण बन्दा रहने के लिए और एक औसत जीवन जीने के लिए पैदा नहीं हुए हैं। इतिहास पुरुष जानते हो किसको बोलते हैं? जो समय की धारा को मोड़ दे उसको बोलते हैं। उसी में नवीनता है। यहाँ इतने जवान लोग भी बैठे हुए हैं तुम्हारी भुजाओं में कुछ बल नहीं है क्या? तुम्हारे गले में आवाज़ नहीं है? और जो थोड़ा प्रौढ़ लोग बैठे हुए हैं वो आमतौर पर अपने-अपने घर के मुखिया होंगे। आप अपने घर के मुखिया हो फिर भी ग़ुलाम हो? क्या मजबूरी है?

हाथ में अभी आपके टीवी का रिमोट आ जाएगा आपके पास विकल्प नहीं है क्या बोलो न। रिमोट का तो मतलब ही होता है ‘विकल्प’। उसका नाम ही है ’रिमोट कंट्रोल’। या उसका नाम है रिमोट कंट्रोलर? यू आर सपोज़ टू यूज़ इट टू कंट्रोल प्रकृति (आपको प्रकृति का नियंत्रण करने के लिए इसका उपयोग करना चाहिए)। उल्टा होता है न? क्या? वो पर्दा आपको कंट्रोल करता है इसके माध्यम से, रिमोट के माध्यम से।

वो विकल्प कहाँ है? वो चेतना कहाँ है जो पूछे कि क्या मैं जो कर रहा हूँ वो अनिवार्य है, ज़रूरी है? ‘मजबूरी, मजबूरी, मजबूरी।’ मजबूरी करते-करते राख हो जाना एक दिन और फिर कहना, ‘अब मजबूरियाँ मिट गयीं। अब कोई मजबूरी नहीं है।’

देखिए, मैं कोई बड़ी ऊँची, कोई बड़ी नयी बात बोल नहीं रहा हूँ। बात उसको सुनने की नहीं है कि सुनते ही जा रहे हैं, सुनते ही जा रहे हैं। बात उसको जीने की होती है।

जो एक चीज़ है जो आप कर सकते हैं और आपको करनी चाहिए, वो है कि जो बात आपको समझ में आने लगी है उसको जियें। सिर्फ़ उसी से सिद्ध होगा धन्यवाद। कृतज्ञता यदि है तो जीवन में दिखाई दे। सामने आकर के दहाड़ना पड़ेगा, खुलकर के जीना पड़ेगा। उसके अलावा नहीं कोई विकल्प होता है।

साथ चल रहे हैं? समझ रहे हैं बात को? कोई बहुत बड़े काम नहीं करने हैं। जो करते हो उसमें ही पूछो, ‘जो कर रहा हूँ इससे कोई बेहतर विकल्प नहीं है क्या मेरे पास? मुझे कौनसी मजबूरी है जो कर रहा हूँ वही करते रहना है? थोड़ा तो बेहतर हो जाऊँ।’ और फिर थोड़े बेहतर होते रहो, होते रहो। यही ज़िन्दगी है — मुक्ति की और अनवरत यात्रा। और क्या? और क्या?

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