प्रश्न: सर, मैं आदर्श कैसे बनूँ?
वक्ता: देखो छोटा वाला आदर्श बनोगे तो आप को लग जायेगा ४-५ साल। बड़ा वाला आदर्श बनने लिए आपको चाहिए बीस साल। और पूर्णतः आदर्श बनने के लिए चाहिए करीब ४०-५० साल। कौन सा वाला चाहिए? पूर्णतः आदर्श? हमने यह जाना है कि ४ घंटे ट्रेन का इंतज़ार करने में हालत ख़राब हो जाती है, और ४० साल तक पूणतः आदर्श बनने में हालत क्या हो जाएगी?
सभी श्रोता(एक स्वर में): बिल्कुल ख़राब ।
वक्ता: तो बनना है पूर्णतः आदर्श? कुछ भी बनने की प्रक्रिया हमेशा उबाऊ होती है। ‘बिकमिंग इस ऑल्वेज़ अ बोरिंग एक्टिविटी’। क्या तुम्हें एक उदासी भरा, उबाऊ जीवन चाहिए?
सभी श्रोता(एक स्वर में): नहीं सर।
वक्ता: तो तुम क्यों कुछ ‘बनने’ पर आतुर हो? तुम यह देखो कि तुम जो हो, वाकई हो, उसको जानो। वो नहीं जो तुम स्वयं को मानते हो। तुम जो हो उसमें ऐसी क्या खोट है कि तुम्हें संपूर्णता चाहिए, आदर्श चाहिए? तुममें ऐसी क्या कमी है? जिस आदर्श की, संपूर्णता की, निर्दोषिता की, परफेक्शन की तुम तलाश कर रहे हो, वो तुम्हारी कल्पना ही है ना? अभी यहाँ जितने लोग बैठे हो, ८०-१००, मैं सबसे कहूं कि लिखो कि तुम लोगों के लिए परफेक्शन क्या है, तो तुम्हें क्या लगता है कि सब एक ही बात लिखोगे? सब अलग-अलग बातें लिखोगे। इसलिए अलग-अलग लिखोगे क्योंकि परफेक्शन, आदर्श, निर्दोषिता, तुम्हारी एक कल्पना है।
मैं आज तुम्हें कहूँ कि बताओ आदर्श का क्या अर्थ है, तुम एक बात लिखोगे। एक साल बाद तुमसे कहूँ कि बताओ आदर्श का क्या अर्थ है, तुम दूसरी बात लिखोगे। और अगर तुमसे पूछा जाए कि आज से दस साल पहले तुम्हारे लिए आदर्श क्या था, तो वो कोई और अलग बात होगी। आदर्श मात्र तुम्हारी एक कल्पना है, उसका कोई वास्तविक अर्थ नहीं है। पर तुम उसके पीछे भागना चाहते हो, और ज़िन्दगी ख़राब करना चाहते हो। ऐसा ही है ना?
किसी ‘आदर्श’ की तलाश है सबको। आदर्श कहाँ है? कहीं नहीं है मन के अलावा, और वहाँ भी वो एक चीज़ नहीं है। आज कुछ आदर्श है, कल कुछ और आदर्श है, और परसों कुछ और। और उस आदर्श की तलाश में जो तुम्हें उपलब्ध है, अस्तित्व से, वो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता।
-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।