प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, महिलाओं को अक्सर इनकैपेबल देखा जाता है ज़िन्दगी के बड़े डिसीजन्स लेने में। चाहे फ़ाइनेंस की बात हो, रियल एस्टेट की बात हो, बिज़नेस रन करने की बात हो — जितनी भी इस तरीके की चीज़ें होती हैं, वहाँ पर अक्सर ही उन्हें इनकैपेबल देखा जाता है एंड वो ख़ुद भी कहीं ना कहीं ख़ुद को इनकैपेबल पाती हैं।
आचार्य प्रशांत: देखो तो वो महिलाएँ फिर उन महिलाओं का उदाहरण क्यों नहीं लेतीं? इतिहास में दर्जनों-सैकड़ों उदाहरण हैं महिलाओं के, जो बहुत ऊँचा गईं। विज्ञान के क्षेत्र में ले लोगे तो तुम मैरी क्यूरी को ले लो। तुम राजनीति के क्षेत्र में अगर लेना चाहते हो तो पीछे रज़िया सुल्तान से लेकर वर्तमान में इंदिरा गांधी तक कितने उदाहरण तुमको मिल जाएँगे। विदेशों में चले जाओगे तो वहाँ पर तुमको मार्गरेट थैचर बैठी हुई मिल जाएँगी। और अभी अगर वर्तमान में देखोगे तो वहाँ पर वो कमला हैरिस आ गई हैं। इनकी ओर आप क्यों नहीं देखेंगी?
आप खेल के क्षेत्र में देखें तो अब तो कोई खेल ऐसा नहीं है जो महिलाएँ नहीं खेल रही हैं। और कई बार तो जो महिलाओं के मैच होते हैं वो ज़्यादा रोमांचक होते हैं पुरुषों के मैच से। तो आपने पी. वी. सिंधु का वो जो ओलंपिक्स में मैच हुआ था — वो हार गई थीं उसको, लेकिन वो स्पेन की खिलाड़ी हैं, उनके ख़िलाफ़ उन्होंने खेला था — वो मैच मैंने पूरा लाइव देखा था, पिछले ओलंपिक्स में। तो क्या मैच था वो और बैडमिंटन के मैं और भी मैचेज़ देखता हूँ जहाँ पे जो मेडल मैचेज़ होते हैं, और वो ज़बरदस्त मैच था। वैसे ही क्रिकेट में ले लो क्रिकेट को तो हाल तक पुरुषों का ही खेल माना जाता था। अब जो भारत में ही महिलाओं की क्रिकेट टीम है, उसके मैचेज़ देखने लायक होते हैं। क्या छक्के मारती हैं वो!
तो अगर आप महिलाओं के उदाहरणों से प्रेरणा लेना चाहती हैं तो अब तो सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं। आपको लेखिका चाहिए? आपको लेखिका मिलेंगी। आपको गायिका चाहिए? गायिका मिलेंगी। कलाकार चाहिए? कलाकार मिलेंगी। आप बताइए आपको क्या चाहिए? आपको जिस भी क्षेत्र में महिला को देखना है अग्रणी, वहाँ आपको एक नहीं, पचास महिलाओं का उदाहरण मिल जाएगा। और उसके बाद भी कोई कहे कि हमको तो माना ही यही जाता है कि आपको घर में चूल्हा-चौका ही करना है — तो फिर देखिए आप गलत आवाज़ों को सुन रही हैं। आप गलत लोगों को सम्मान और महत्त्व दे रही हैं। जो सही उदाहरण हैं, उनकी ओर देखिए ना।
महिला अगर मनुष्य है, तो किसी भी मनुष्य की तरह उसके जीवन के लक्ष्य वही होने चाहिए, जो एक मनुष्य को शोभा देते हैं, गरिमा देते हैं।
प्रश्नकर्ता: इसमें, आचार्य जी, NCRB का डाटा है — (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) का — कि जो मेजॉरिटी ऑफ़ क्राइम्स होते हैं महिलाओं के अगेंस्ट, वो ज़्यादातर उनके आसपास के क़रीबी लोगों के थ्रू ही होते हैं। या तो घरों में होते हैं या कोई ना कोई जानने वाला व्यक्ति ही होता है। तो एक चीज़ ये रहती है कि — या तो अपने शरीर की ओनरशिप हमको दे दो, या फिर हम आपके शरीर पे ही अटैक कर देंगे। वहाँ रेप्स होते हैं, ऑनर किलिंग होती है, एसिड अटैक्स होते हैं।
आचार्य प्रशांत: तो देखो ना, आपने अभी जो समस्या का विवरण दिया, उसी में समाधान भी है। आप कह रहे हो महिला पर 70% जो अत्याचार और अपराध होते हैं, वो उसके नज़दीकी लोग ही करते हैं — परिवार के लोग, चाहे उसके प्रेमी लोग — यही लोग करते हैं। ठीक है? अगर मैं आपको ये बताऊँ कि ऐसा होता है — ये डाटा मैं आपको बता दूँ — और फिर कहूँ कि तो अगर लड़की को अपने ऊपर अपराध रोकने हैं, तो उसे क्या करना चाहिए, तो क्या उत्तर आएगा? सीधे तर्क लगाइए।
अगर मैं कहूँ कि आपके ऊपर अपराध होने की 70% संभावना आपके निकट के लोगों से है, तो आप अगर अपराध से बचना चाहती हैं, तो आपको क्या करना होगा?
प्रश्नकर्ता: बाहर।
आचार्य प्रशांत: बस यही बात है। आप अपने निकट के लोग वही रखिए ना जो तमीज़ के, ढंग के हों। आपने गलत लोगों से घिरे रहने का निर्णय क्यों कर रखा है? अब यही गलत लोग हैं, फिर जो आप पर 100 तरह के अत्याचार करते हैं। दहेज हत्याएँ हो रही हैं। प्रतिदिन तो न जाने कितनी — बीस तो दहेज हत्याएँ हो रही हैं प्रतिदिन — और ये वो हैं सिर्फ़ जो हम जानते हैं। और भी और पता नहीं कितने तरह के अपराध हो रहे हैं। महिलाएँ युद्धों में तो मरती नहीं, महिलाओं का ये तो होता नहीं कि वो वहाँ जा रही हैं और सीमा पर गोली खा रही हैं। तो महिलाओं की मौत सब कहाँ हो रही है?
और प्राकृतिक तौर पर, प्रकृति ने महिला को थोड़ा ज़्यादा मज़बूत बनाया है।
वो पुरुष से ज़्यादा जीती है तो वो बीमारियों से भी कम मरती है। ना तो फिर वो युद्ध में मर रही है, ना वो बीमारी में मर रही है, तो कहाँ मर रही है? वो सड़क पर भी कम मर रही है क्योंकि वाहन कम चलाती है, तो सड़क दुर्घटनाओं में भी उसकी इतनी नहीं मौत हो रही। वो घर के अंदर मर रही है। और ये मैं नहीं — ये आँकड़े बोल रहे हैं। ये बात जिनको इस बात पर बहुत अचरज हो रहा हो या क्रोध आ रहा हो, वो आँकड़ों को देख लें। महिला घर के अंदर मर रही है, और घर के अंदर वो उन्हीं के द्वारा मारी जा रही है, जिनको वो अपना कहती है। कई तरीकों से मारी जा रही है। तो फिर अगर वो बचना चाहती है, तो वो ग़ौर से देखे ना कि किसको अपना कहना है और किसको अपना नहीं कहना है।
आप जिसको अपना कह रहे हो, वही आप पर अत्याचार कर रहा है, कभी हत्या कर रहा है तो बेकार में क्यों बेवकूफ़ लोगों को अपना बोल देते हो? किसी से भी विवाह कर लेते हो, किसी को भी अपना प्रेमी घोषित कर देते हो, वही प्रेमी फिर तुम्हारी हत्या कर रहा है। तुम्हें कुछ भी अपनी सुधबुध नहीं है क्या? विवेक कहाँ है? बुद्धि कहाँ है?
प्रश्नकर्ता: इससे थोड़ा सा अलग बात है कि भारत में हमेशा से ही देवियों को पूजा गया है। देवियाँ तो किसी पर डिपेंडेंट नहीं रही हैं बहुत करेजियस ही उनको हमेशा दिखाया — बोल्ड दिखाया है। लेकिन जो वर्च्यूस एक वुमन में जेनरली प्रेस किए जाते हैं समाज में, वो ऐसे रहते हैं जो कि सबमिसिव हों। लड़की थोड़ी सुनती हो, ज़्यादा आर्ग्युमेंटेटिव ना हो, या फिर शायद आपके घर में आए तो बाहर जॉब करना ज़्यादा पसंद ना करती हो, थोड़ी ट्रेडिशनल तरीक़े की हो। तो एक तरफ़ तो आप पूजते उन्हें हो, जो कि उन सारी वैल्यूज़ को रिप्रेज़ेंट करती हैं, और दूसरी तरफ़ आप अपने घर में जो चाहते हो, वो बिल्कुल ही अलग चीज़ है। तो ये इतना बड़ा गैप क्यों है?
आचार्य प्रशांत: नहीं, नहीं, आडंबर है बस, दोगलापन और कुछ नहीं। दो ही बात है — कि आप जिन देवियों को पूज रहे हो, उनके तो हाथ में आप बल भी दिखाते हो, ज्ञान भी दिखाते हो, शस्त्र भी दिखाते हो, शास्त्र भी दिखाते हो। भारत में जो देवी का सिद्धांत है, सब देवियाँ उसी एक आदि शक्ति का रूप हैं। तो नौ दुर्गा उदाहरण के लिए आती हैं, उसमें आप नौ देवियाँ लेते हो — वो जो नौ देवियाँ हैं, वो वास्तव में एक ही शक्ति के नौ रूप होते हैं। और नौ ही रूप नहीं होते हैं आप दुर्गा सप्तशती के पास जाओगे अगर, देवी महात्म्य में, तो वहाँ आपको देवियों के कुछ नहीं तो दो दर्जन नाम मिलेंगे। ठीक है? और वो सब की सब बड़ी सबल, सुदृढ़, ज्ञानी, शक्तियाँ हैं।
तो एक ओर तो हम उनकी पूजा कर रहे हैं और दूसरी ओर जो घर की महिला है, हम चाहते हैं कि वो बिल्कुल हमारे चरणों में लोटे। वहाँ पर जो महिला है, वो ऐसी है कि सब देवता आकर उसकी स्तुति कर रहे हैं। और देवता कह रहे हैं कि — "देवी, हमसे ये नहीं संभाले जा रहे महिषासुर और शुभ-निशुंभ और इनकी सेना — ये इतने नालायक हैं, हमसे नहीं संभाले जा रहे।" तो जो काम हम पुरुष नहीं कर सकते, देवी आप वो काम करके दिखा दो ना। तो एक ओर तो आपको ये सिद्धांत दिया गया है कि महिला की यहाँ तक पात्रता और शक्ति होती है कि जो पुरुष नहीं कर सकता,वो महिला करेगी।
और ये कोई गर्व रखने की बात नहीं हो रही है कि आप कहें कि — "हाँ, एक काम तो है ही ना जो महिला करती है, पुरुष नहीं करता — कि वो संतान पैदा करती है।"
नहीं, आपका जो शक्ति का सिद्धांत है, उसमें जो देवियाँ हैं, उनको ये ज़िम्मेदारी थोड़ी दी गई है कि आप संतान पैदा करिए। उनको ज़िम्मेदारी दी गई है दुनिया के सबसे ऊँचे काम करने की — अधर्म हटाना है, और जो धार्मिक लोग हैं उनकी रक्षा करनी है, हर तरीक़े से जगत में कल्याण का संचार करना है। ये ज़िम्मेदारी देवियों को दी गई है।
और लेकिन जो घर की "देवी" है, देखो हम उससे क्या कराते हैं—कहते हैं कि "तू घर में रह और बिस्तर साफ़ कर दे, और चाय बना दे, और बर्तन और कपड़े धो दे। यही सब तू घर में कर दे और फिर जब ख़ाली टाइम मिले तो बैठ के महिलाओं वाले सब सीरियल देख ले दोपहर में, और अपना दिमाग़ ख़राब कर।" तो ये कुछ भी नहीं है। ये तो फिर बस पाखंड, हिपोक्रेसी है और कुछ नहीं।
प्रश्नकर्ता: इसमें, आचार्य जी, जो पैट्रियार्की है — पैट्रियार्की को अगर एक व्यक्ति की तरह देखा जाए तो ऐसा मालूम होता है कि वो व्यक्ति बड़ा डरा हुआ है भीतर से। वो दिखने में बहुत डॉमिनेंट दिखता है, वायलेंट भी दिखता है, अग्रेसिव दिखता है। लेकिन मूल में काफ़ी भीतर से डरा हुआ है। तो इसमें एक कोट है, एक फ्रेंच दार्शनिक का — सिमोन द बोवुआर का: "नो वन इज़ मोर एरोगेंट टुवर्ड वुमन, मोर अग्रेसिव ऑर स्कॉर्नफुल, दैन अ मैन हू इज़ ऐन्क्शस अबाउट हिज़ विरिलिटी।"
आचार्य प्रशांत: वो तो है ही। देखो, स्त्री की ओर जब आप इसी भाव से देखोगे कि ये मेरे सेक्सुअल कंज़म्पशन की चीज़ है, क्योंकि उसको आप चेतना तो मान ही नहीं रहे ना। अब ये तो मान ही नहीं रहे कि मेरे सामने बैठकर के साहित्य की कोई बात कर सकती है, या ये जी की चुनौतियों का सामना मुझसे कंधे से कंधा मिलाकर कर सकती है, ये तो आप मान ही नहीं रहे।
घर में कहीं पर कोई महत्त्वपूर्ण बैठक चल रही होती है, उसमें सब दादा, ताऊ, चाचा बैठ गए होते हैं, और जो घर की महिला होती है उसका काम ये होता है कि बस वो जब बैठे हैं तो आकर उनको चाय सबको सर्व कर दे। घर में किसी बहुत महत्त्वपूर्ण मुद्दे पे बातचीत चल रही है, तो उसमें पाँच मर्द, पाँच पुरुष बैठे होंगे और गोष्ठी कर रहे होंगे। और महिलाएँ सब या तो पीछे से कहीं कमरों से सुन रही होंगी या कोई एक महिला बीच में आकर पानी रख जाती होगी, उनका इतना ही रहता है। ऐसा थोड़ी है कि पाँच पुरुष बैठे हैं तो पाँच महिलाएँ बैठी हैं और बिल्कुल बराबर की बातचीत हो रही है, सबसे राय ली जा रही है। ऐसा तो नहीं होता।
तो पुरुष ने महिला को ये माना ही नहीं है कि ये मेरे सामने बैठकर दर्शन की, ज्ञान की, विज्ञान की, साहित्य की, विश्व की चर्चा कर सकती है।
ये मेरे सामने बैठने लायक नहीं है। क्यों मेरे सामने बैठने लायक नहीं है? क्योंकि मैंने इसको एक ही काम दिया है — तू मेरे सामने नहीं बैठेगी, तू मेरे बगल में लेटेगी। सामने क्या बिठाना है? जब बगल में लिटा करके ही मेरी सारी स्वार्थ पूर्ति हो जाती है, तो सामने क्या बैठाऊँ? और सामने बैठाऊँगा तो इसको पर और निकल आएँगे। जब पर निकल आएँगे तो फिर मैं जब बिस्तर पर लिटाना चाहूँगा अपने बगल में, तो हो सकता है ना-नुकुर कर दे। हो सकता है फिर जो मेरी काम-इच्छा है, जो मेरी शारीरिक इच्छा है, उसकी पूर्ति से इंकार कर दे। या अपनी मर्ज़ी बताने लगे कि नहीं-नहीं, आज नहीं मन कर रहा। तुझसे तेरी राय किसने पूछी?
तेरा काम है कि जब पति आए, तो तू पति के चरणों में अपना शरीर अर्पित कर दे, तेरा तो काम ये है। अब पति की देह को अपनी देह अर्पित करने का काम दिया गया है, तो उसको सामने बैठा के कौन बात करेगा फिर? और बात कराओ तो खतरनाक हो जाती है। इसीलिए तो ज़्यादातर लोग फेमिनिस्ट्स को, या थोड़ी सुलझी हुई महिलाओं को, या थोड़ी जागृत महिलाओं को पसंद ही नहीं करते।
वो कहते हैं, बहस बहुत करती हैं, ज़बान लड़ाती हैं। जो बोलो चुपचाप मानती नहीं है। बोलो कि लेट जा चुपचाप और कपड़े उतार, तो सुनती नहीं है। तो बड़ा गुस्सा आता है — अरे ये कैसे? हमारी बात सुन। और उल्टे सामने आकर के ऐसे खड़ी हो जाती है जैसे हमारी बराबरी की हो। बहस कर रही है। ज़बान कैंची की तरह चलती है। इस तरह? तुझे तो मौन होना चाहिए। तेरा सद्गुण तो ये है कि तू पति को परमेश्वर माने, और वो जैसा भी हो — भला है, बुरा है — जैसा भी है, मेरा पति तो मेरा देवता है। यही गाया कर दिन-रात।
तो ये बात, ये बात समझने की है। हालाँकि ये बात पूरी तरह मूर्खता की है, और मैं ये भी कहूँगा कि इस बात ने पुरुषों का भी भरपूर नाश करा है। क्योंकि जब तुम घर में एक शिक्षाहीन, बोधहीन, बलहीन स्त्री तैयार कर लेते हो, तो तुम्हारे ऊपर भी बोझ ही बनती है। और वो तुम्हारी भी ज़िन्दगी खराब ही करके रख देती है। लेकिन पुरुष को ये बात समझ में नहीं आई। पुरुष को लगा — मेरी ज़िन्दगी खराब हो तो हो, ये मेरी मुठ्ठी के नीचे रहनी चाहिए बस। भले ही फिर ये ख़ुद भी मेरे लिए एक परेशानी का कारण बनती है, वो तो बने, लेकिन रखूँगा मैं इसको दबा के ही।
तो ये सोच रही है, मूर्खतापूर्ण सोच। जिनकी आपने बात करी, वो बहुत प्रसिद्ध नारीवादी हैं फ्रांस की — "सिमोन द बोवुआर।" और नारीवादी ही नहीं हैं कि बस नारीवादी से हम समझते हैं नारावादी कि वो नारे लगाती होंगी इधर-उधर तो नारावादी हैं। वो दार्शनिक हैं, वो उच्च कोटि की अस्तित्ववादी दार्शनिक हैं। वो सार्त्र के बराबर के क़द की दार्शनिक हैं वो। और सार्त्र के साथ वो जीवन भर रहीं और दोनों ने आपसी सहमति से कहा था कि हम ये जो वंशवाद की आइडियोलॉजी है, इसको मानते ही नहीं। ये जो बात होती है न कि बच्चा पैदा करो — ये अपने आप में एक सिद्धांत है। ये आइडियोलॉजी है। हम सोचते हैं कि ये कोई प्राकृतिक अर्ज़ है। नहीं, ये प्राकृतिक अर्ज़ से ज़्यादा एक सोशल आइडियोलॉजी है — वंशवाद। बोले, हम वंशवाद नहीं मानते। हम नहीं मानते।
दोनों ने उत्कृष्ट कोटि के काम करे अपने जीवन में — अद्भुत किए। दोनों ही की मृत्यु अभी 40 साल पहले हुई है लगभग, तो दोनों ने अपनी ज़िन्दगी में उत्कृष्ट काम करे। किताबें लिखीं, दर्शन शास्त्र के पूरे विषय को ही दोनों ने आगे बढ़ाया। और सार्त्र तो मुझे मेरे कॉलेज के समय से प्रिय हैं, क्योंकि मैं उनके नाटक अभिनीत किया करता था। तो उनके जो सेडिस्ट थीम्स पर उनके नाटक होते थे, तो मुझे पसंद आते थे। तो उनको लेकर मैं फिर मंच पर निर्देशन भी करता था, अभिनय भी करता था।