महिला की देह नहीं, मनुष्य की चेतना हैं आप || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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महिला की देह नहीं, मनुष्य की चेतना हैं आप || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी! मेरे दो प्रश्न हैं। पहला प्रश्न है कि टिपिकली (आमतौर पर) ऐसा माना जाता है कि जो महिलाएँ होती हैं, वो थोड़ा प्राकृतिक रूप से केयर गिवर्स (देखभाल कर्ता),इमोशनल (भावुक), ह्वेरैज़ मेन (जबकि पुरुष) वो थोड़ा,लॉजिकल (तार्किक), गो-गेटर्स (उद्योगी), ऐम्बिशस (महत्वाकांक्षी) होते हैं।

जब परिवार में बच्चे आ जाते हैं, तो ज़्यादा रिस्पांसिबिलिटी इट फ़ॉल्स ऑन द वूमेन ऑफ़ द हाउस (ज़िम्मेदारी घर की औरत पर आ जाती है।) उनका करियर उन्हें छोड़ना पड़ता है। छह महीने के लिए हो, दो साल के लिए हो, कितने भी समय के लिए हो! पर (इट्स एक्सपेक्टेड, सोसाइटी से भी और सेल्फ इंपोज़्ड ऑलसो, दैट दे हैव टू गिव अप (समाज द्वारा ये उम्मीद की जाती है, और स्व आरोपित भी कि उन्हें त्याग करना है।)

तो बहुत सारी महिलाएँ हैं, जो ऐसा बहुत आराम से ऐसा कर लेती हैं, लेकिन प्रश्न कुछ ऐसी महिलाओं के लिए है जो कुढ़ती रहती हैं। उन्हें अपना कैरियर छोड़ देने के कारण, चाहे वो छोटे ही ड्यूरेशन (अवधि) के लिए क्यों न हों, इनसिक्योरिटी (असुरक्षा) होने लगती है। फिर क्लेश हो जाता है, मतलब बच्चा आया नहीं कि पति-पत्नी में इशूज़ (समस्याएँ) होने लग जाते हैं। और एक तो ये प्राकृतिक टेंडेंसी (वृत्ति) है। पर इसका एक और कारण भी है कि ऐसा आजकल समझा जाता है कि यू आर अ बेटर पर्सन इफ़ यू आर इंडिपेंडेंट फाइनैन्शल (यदि आप आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, तो आप बेहतर इंसान हैं)।

आजकल इम्प्लिसट्ली (परोक्ष रूप से) होम मेकर्स (गृहिणी) को थोड़ा-सा लुक डाउन (तिरस्कार करना) भी करते हैं। बहुत एक्सप्लिसिटली (स्पष्ट रूप से) नहीं करते, पर करते हैं। तो दोनों ही है। एक तरफ़ प्राकृतिक टेंडेंसी (वृत्ति) है, एक तरफ़ सोसाइटी इंपोज़्ड कन्डिशनिंग, (समाज द्वारा थोपा हुआ प्रशिक्षण) तो ऐसी महिलाओं के लिए आपका क्या सुझाव होगा? कैसे वो थोड़ा शांति से रह सकें, गिवेन द सिचूएशन दे आर इन (जिस परिस्थिति में वो हैं)?

आचार्य प्रशांत: आप उन महिलाओं की बात कर रही हैं, जो छोटे बच्चे के होने के कारण घर पर रहती हैं। वो आ गया है या आ गयी है छोटी बच्ची, तो जितने दिन उस बच्ची का अधिकार है उसको वो अधिकार आपको देना ही पड़ेगा। सवाल मेरा दूसरा है। मातृत्व, गर्भाधान, प्रेगनेंसी;ये कोई अचानक आसमान से गिरी चीज़ें तो होते नहीं।

बैठिए-बैठिए। (प्रश्नकर्ता को बैठने के लिए कहते हैं)

आपको तो पता होता है न कि अब आप गर्भधारण करने जा रहे हैं। आपको पता होता है न कि अब अगर आप ऑफ़िस वगैरह जाते थे, तो वो नहीं हो पायेगा। और अब कुछ सालों तक नहीं हो पायेगा शायद, या कम-से-कम कई महीनों तक नहीं हो पायेगा। ये तो सब पता था न! तो इंतज़ाम क्या किया? अब ये क्यों पूछा जा रहा है; जब पैदा हो गया है। और जब आप कह रही हैं कि फाइनैन्शल इंडिपेंडेंस में दिक़्क़त आने लग जाती है और इशूज़ होने शुरू हो जाते हैं। ये मुद्दा अब क्यों उठाया जा रहा है! कम से कम नौ महीने तो उपलब्ध थे सोचने के लिए। ज़्यादा नहीं तो नौ महीने तो थे न, सोचने के लिए! तब सोचा क्यों नहीं गया कि ‘अब कैसे करना है?’

और प्रेगनेंसी के पहले ही दिन से तो नौकरी छोड़ नहीं देनी पड़ती। कई महीने उपलब्ध थे, आगे की योजना बनाने के लिए। और कुछ ऐसा इंतज़ाम या प्रबंध करने के लिए, अपनी जो आर्थिक स्वतंत्रता है वो बनी रहे। वो प्रबंध क्यों नहीं किया गया? और प्रबंध नहीं किया गया तो फिर “पछताए होत क्या!”

जब आपको पता है कि अभी आप अगले छह महीने या साल भर बाहर नहीं निकल सकतीं, या शायद दो साल बाहर नहीं निकल सकतीं, या शायद चार साल बाहर नहीं निकल सकतीं। तो उसका आपने क्या विकल्प तलाशा? क्योंकि विकल्प तो तलाशना है न! ये तो बात ही नहीं है कि अब बच्चा आयेगा तो अब मैं कमाना वगैरह छोड़ दूँगी। चलिए, कमाना भी छोड़ देना है।

तो पहले से आपने कुछ बचत करके क्यों नहीं रखी। ऐसा तो नहीं है कि जिस दिन नौकरी लगी, उसी दिन गर्भवती हो जाना ज़रूरी है। पहले कर लो, तीन साल, पाँच साल नौकरी। बचत कर लो। उसके बाद आ जायेगा बच्चा। तो वहाँ पर फिर किसी पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा। आप कह सकते हैं कि ‘भाई, आने वाले दो साल के लायक, मैंने तो अपनी ही बचत करके रखी हुई है’।

या कोई ऐसी नौकरी तलाश ली जाए, जो घर से की जा सकती है, बच्चे के साथ की जा सकती है। ऑनलाइन युग है अब तो।

देखिए, मैं पूरी सावधानी और सम्मान के साथ कह रहा हूँ। महिलाओं का एक वर्ग ऐसा है, जिसको ज़रा भी झिझक नहीं होती, नौकरी छोड़ देने में, ये कह करके कि अब तो फ़ैमिली रिस्पांसिबिलिटीज़ (परिवार की ज़िम्मेदारी) हैं। ये बात ठीक नहीं है। कई बार तो ऐसा भी लगता है—सब महिलाओं की नहीं, कुछ की बात कर रहा हूँ—जैसे, वो फ़िराक में ही थीं कि कोई बहाना मिले और नौकरी छोड़ दें, और घर बैठ जाएँ। बस, किसी तरीक़े से कोई सम्मानजनक तरीक़ा मिल जाए, नौकरी छोड़ने का।

सब महिलाएँ ऐसी नहीं हैं, मुझे ग़लत न समझा जाए। लेकिन, एक वर्ग है ऐसा— खट से रिज़ाइन करती हैं, और बैठ जाती हैं घर पर। पुरुष ऐसा नहीं करते। नतीजा ये है कि एम्प्लॉयर्स भी कुछ बातें जानते हैं, हायरिंग के समय। और वो उन बातों को फिर ध्यान में रखकर हायरिंग करते हैं। स्त्री-पुरुष में वो फिर भेद करते हैं, डिस्क्रिमनेशन करते हैं। उन्हें पता है कि दोनों का व्यवहार अलग-अलग होने वाला है। ‘शादी होगी, प्रेगनेंसी होगी, संभावना है कि अपने ज़िम्मेदारियों से पीछे हट जाए’।

और इसमें मैं कह रहा हूँ, स्त्री की चालाकी जितनी होगी तो होगी, स्त्री का शोषण बहुत ज़्यादा है। क्योंकि हमने उसे सिखा दिया है कि उसको सम्मान का अधिकारी बनाता है—उसका मातृत्व। जोकि है एक बिलकुल शारीरिक बात। तो हमने कह दिया है कि ‘तुम्हारे शरीर से जो हो रहा है, उतने भर से तुम सम्मान की अधिकारी हो गयी’। वो सब बातें सारी कि ‘माँ से ऊँची जगह तो भगवान की भी नहीं होती’, वगैरह-वगैरह। सुना है न ख़ूब? ‘माँ कैसी भी हो, उसके चरणों में जन्नत होती है’—ये सब बातें।

‘न पढ़ी हो, न लिखी हो, न उसमें कोई गुण हो, न योग्यता हो, न संसार को जानती हो, न अध्यात्म को जानती हो;अगर उसको गर्भ हो गया, तो वो भगवान हो गयी!’ ये कोई बात है! आप बताइए। मैं महिलाओं से पूछ रहा हूँ, आप बताइए। पुरुषों को हटाइए। आप ही लोग बताइए। ये बात न्यायपूर्ण है? महिला बाद में हैं, इंसान तो पहले हैं न?

एक ऐसा इंसान जिसने ज़िंदगी में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं की, ज्ञान पाने की कोशिश नहीं की, कोई कौशल विकसित करने की कोशिश नहीं की; जिसके भीतर हिम्मत नहीं, साहस नहीं, स्पष्टता नहीं, ऐसा इंसान अगर गर्भ धारण कर ले, तो वो भगवान बराबर हो जायेगा क्या? महिलाएँ ही बताएँ, आपसे पूछ रहा हूँ। आप न्याय कीजिए। बोलिए। नहीं होगा न? तो फिर?

लेकिन ये धारणा ख़ूब चलती है—‘गिव हर रिस्पेक्ट, शी इज़ अ मदर’ (उसे सम्मान दो, वो एक माँ है!) ये कोई बात है!

आप एक मनुष्य हैं, महिला बाद में हैं। आप बिलकुल वैसे ही एक अतृप्त चेतना हैं, जैसे एक पुरुष होता है। तो आपका भी अपने प्रति वही कर्तव्य है जो एक पुरुष का होता है—जीवन को सार्थकता देना, पूर्णता देना, चेतना को उसकी ऊँचाइयों पर पहुँचाना, आपका भी तो यही धर्म है न जीवन में।

तो किसने आपका शोषण करा है, आपको ये पट्टी पढ़ाके कि ‘आपका पहला धर्म है माँ बनना’। मुझे बताइए। अगर पुरुष का पहला धर्म बाप बनना नहीं है। तो स्त्री के लिए मातृत्व पहली चीज़ कैसे हो गयी? किसने ये झूठा पाठ पढ़ाया आपको? और आपको दिख नहीं रहा है ये पाठ पढ़ा करके कितना शोषण किया गया है, कितनी बेड़ियों में डाला गया है आपको!

मुझे, आग्रह करके कह रहा हूँ, ग़लत न समझा जाए। मैं मातृत्व के, गर्भ रखने के और बच्चों के ख़िलाफ़ नहीं हूँ। मैं बस चेतना के पक्ष में हूँ। समझदारी के पक्ष में हूँ।

लेकिन, ये देखा जाता है। और फिर इसीलिए ये होता है कि बहुत सारी भ्रमित लड़कियाँ अक्सर अपनी शिक्षा पर और अपने कैरियर पर ध्यान नहीं देतीं। ख़ासतौर पर, अगर वो दिखने में सुंदर वगैरह हों। उन्हें कॉलेज जाने से ही बहुत मतलब नहीं होता। और अगर छोटे शहरों, कस्बों की बात करें, तो उनके टीचर, प्रोफ़ेसर भी उन पर ज़ोर नहीं देते कि ‘तुम कॉलेज आओ’। वो कहते हैं, ‘ये तो सुंदर लड़की है। ये बीएससी करके क्या कर लेगी! इसका कैरियर तो दूसरी दिशा में है। एक से एक कैरियर वाले आएँगे इसको उठा ले जाने। ये पढ़के क्या करेगी? सब पढ़े-लिखे अभी— उसके दरवाज़े आने वाले हैं—बारात लेकर।’

ये बात अगर पुरुष बोल रहे होते तो कम घातक होती। घातक बात ये है कि इस धारणा को लड़कियाँ आत्मसात कर लेती हैं। कर लेती हैं या नहीं कर लेती हैं? मुझे सावधान होना पड़ता है, क्योंकि आरोप लग जाता है कि ‘आप स्वयं पुरुष हैं, इसीलिए महिलाओं के बारे में अनाप-शनाप बोल रहे हैं। हम तो ऐसी होती ही नहीं हैं!’

अरे भाई! मैं कोई अपना ओपिनियन नहीं व्यक कर रहा। मैं आँकड़ों की बात करता हूँ। बिना जाने-समझे पूरी सूचना के, बोलना ठीक होता ही नहीं। और मैं पूरी कोशिश करता हूँ कि अगर मुद्दे की जड़ तक नहीं पहुँचा हूँ;तो चुप ही रहूँ।

इतना ही नहीं होता। जो थोड़ी रूपसी लड़कियाँ होती हैं, उनमें एक अलग ही कॉन्फिडेंस आ जाता है। एकदम डब्बा बंद, यहाँ से (मस्तिष्क की ओर संकेत करते हैं)। कुछ नहीं आता-जाता; न भाषा आती, न गणित आता, न विज्ञान आता, न कलाएँ आतीं, न कॉमर्स आता, कुछ नहीं! लेकिन कॉन्फिडेंस उनका यहाँ रहता है (सिर से ऊपर के तल को दर्शाते हैं)। ऐसा होता है या नहीं होता है?

और ये बात स्वयं महिलाओं के लिए ही घातक है या नहीं है? अगर कोई आपको आपके ज्ञान की वजह से नहीं बल्कि आपकी देह की वजह से ब्याह कर ले जा रहा है, तो आपको दिखाई नहीं दे रहा;वो आपका क्या इस्तेमाल करने वाला है! बोलिए।

ये बाज़ारू बात नहीं हो गयी? आपने एक चीज़ देखी, वो चीज़ आपको चमकदार, आकर्षक, सेक्सी लगी। आप उसे उठाकर अपने घर ले आए। यही करते हैं न बाज़ार में हम? और ये ज़हरीली धारणा लड़कियों के ही भीतर प्रविष्ट करा दी गयी है।

उसका एक और मैं आपको, बहुत सविनय बोल रहा हूँ, उसका एक और घातक परिणाम बताता हूँ। बहुत सारी लड़कियाँ और महिलाएँ फिर जीवन में कष्ट झेलने को तैयार नहीं होतीं और कोई भी ऊँचा काम करना है;तो उसमें कष्ट तो झेलना पड़ेगा।

अब मान लीजिए, वो नौकरी कर रही हैं। और नौकरी में स्थिति ऐसी बन गयी कि ज़्यादा घंटे देने पड़ेंगे, ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, और डाँट भी खानी पड़ेगी, क्योंकि काम बहुत गंभीर है, क्रिटिकल है;उसमें ऊँच-नीच होती नहीं है कि तुरंत डाँट पड़ती है। ऐसे में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के रिज़ाइन कर देने की संभावना बहुत ज़्यादा रहती है। वो डाँट नहीं सहतीं। वो कहेंगी कि ‘मेरे पास, दूसरे ऑप्शन्स हैं, नाइन टू फ़ाइव ठीक है, पर ज़्यादा दबाव डालोगे, परेशान करोगे, मैं रिज़ाइन कर दूँगी‌’।

फिर उसका नतीजा ये होता है कि बहुत सारी कंपनीज़ में, ऑर्गेनज़ेशंस में महिलाओं को ज़िम्मेदारी के काम दिए ही नहीं जाते। क्योंकि हर ज़िम्मेदारी के काम में तनाव और दबाव झेलना पड़ता है। ये भूल जाना पड़ता है कि कब खाना खाया, कब सोए, कब नहाए, कब आए, कब गए। आप में से जो लोग काम करते हैं कहीं, व्यवसायिक अनुभव है, वो मेरी बात से सहमत हो रहे होंगे। होता है कि नहीं होता है?

एकदम जूनियर लेवल पर ऐसा चल जाता है कि नौ बजे आए पाँच बजे निकल गए। जैसे-जैसे काम की गंभीरता बढ़ती है, जैसे-जैसे आप नेतृत्व के पदों पर आते हो, वैसे-वैसे काम चौबीस घंटे का हो जाता है। लगातार।

महिलाओं को वो पद नहीं मिलते। मुझे बताओ, इसमें महिलाओं की भलाई है? उसको हमने देह बना डाला है। माँ बना-बना कर, उसको देह ही बना दिया। क्योंकि बच्चा जनना काम तो देह का ही है न! आप जितना ज़्यादा मातृत्व को गौरवान्वित करोगे, उतना ज़्यादा आप स्त्री को पतित करोगे। आप बोल दोगे, ‘वो तो देह है, जो बच्चा पैदा करती है’। फिर ‘नहीं साहब वो देहभर थोड़े ही है, देखिए बच्चे को बड़ा भी तो कर रही है!’

बच्चा अपनेआप बड़ा होता है। उसको मनुष्य बनाने के लिए जो ज्ञान चाहिए, क्या उसकी माँ ने वो स्वयं अर्जित करा है पहले? कद तो बच्चे का अपनेआप बढ़ जाता है। हर पशु अपनेआप बड़ा हो जाता है। बच्चे को बड़ा नहीं करना होता है। गाय का बछड़ा अपनेआप सांड बन जाता है या नहीं बन जाता है? बड़ा नहीं करना पड़ता। हाँ, उसे इंसान बनाना पड़ता है, उसे चेतना देनी पड़ती है। माँ अपने बच्चे को इंसान बना पाए, इसके लिए सर्वप्रथम क्या ज़रूरी है? माँ की चेतना को ख़ुद उठी हुई हो, ऊपर की ओर हो;उसके लिए तो माँ को ख़ुद को ज्ञान अर्जित करना पड़ेगा, मेहनत करनी पड़ेगी। वो ज्ञान अर्जित करने के रास्ते में, मेहनत के रास्ते में, सबसे बड़ी बाधा सामाजिक धारणाएँ हैं। उसको बोल दिया गया है, ‘ज्ञान चाहिए नहीं, मेहनत करनी नहीं है, माँ बनना काफ़ी है। बच्चे की देखभाल करो’!

आप बच्चे की देखभाल भी नहीं कर पाएँगी, अगर आप बोध, चेतना के रास्ते पर नहीं चली हैं। आपको ये भ्रम रहेगा, ‘मैंने अपने बच्चे की अच्छी परवरिश करी है। मैं उसे पराठे बनाके खिलाती थी’;वगैरह-वगैरह! वो बच्चा बर्बाद ही निकालना है।

हाँ, आप अपनेआप को ये भुलावा देती रहेंगी कि ‘इत्तू-सा पैदा हुआ था। मैंने छह फुट का कर दिया’! आपने नहीं कर दिया, वो अपनेआप छह फीट का हो गया है। रही बात चेतना की, तो वो इत्तू-सी पैदा हुई थी और इत्तू-सी ही है। उसको आप बढ़ा ही नहीं पाईं;क्योंकि आपकी अपनी चेतना ही इत्तू-सी है। शरीर देख करके आप क्या फूल रही हैं कि ‘मैंने बड़ा करा है’।

(विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़ते हैं) आप लोगों को, महिलाओं को, बुरा तो नहीं लग रहा है? हज़ार, दो हज़ार, शायद दस हज़ार महिलाओं की एक पूरी ब्रिगेड है, (श्रोतागण में उपस्थित महिलाएँ हँसती हैं) जो विशेषकर मेरे पीछे पड़ी रहती है।

आपकी देह आपकी पहले संपत्ति नहीं है। जैसे पुरुष की नहीं होती, वैसे आपकी भी नहीं है। इतना समय शरीर को मत दिया करिए। मन में इतना महत्व शरीर को मत दिया करिए। दिन में दो-दो, तीन-तीन, चार-चार घंटे मेक अप में मत लगाया करिए। कोई आदमी रोज़ नहाता है;इससे वो अच्छा आदमी नहीं हो जाता। और बुरे आदमी की पहचान ये नहीं है कि वो रोज़ नहाता नहीं। जी।

आपका पैसा काज़्मेटिक्स इंडस्ट्री (प्रसाधन उद्योग) के लिए नहीं है। अपनेआप से सवाल पूछा करिए, पुरुषों के कपड़े इतने सस्ते क्यों होते हैं? और आपकी आधी कमाई क्यों जाए महँगे कपड़ों में? छोटा-सा बच्चा होगा, एक साल का लड़का, उसके भी कपड़े सस्ते होंगे। और एक साल की बच्ची होती है, उसके भी कपड़े महँगे होते हैं, क्यों? ये देख नहीं रहे हैं, समाज आपके साथ क्या कर रहा है!

समाज आपसे कह रहा है कि आपकी सारी कमाई देह पर जानी चाहिए। समाज आपको संदेश दे रहा है, सीख दे रहा है महिलाओं को! कि ‘सबसे मूल्यवान चीज़’ क्या हैं? ‘देह पर डाले हुए कपड़े’! माने देह।

मैं मुख पर राख मलने को नहीं कह रहा। मैं सहज जीने को कह रहा हूँ, जैसा एक मनुष्य को जीना चाहिए। आप मनुष्य पहले हैं; महिला बाद में हैं। और जो लोग मुझसे कहते हैं कि ‘हाउ ऐज़ अ मैन कैन यू टॉक अबाउट विमेन!’ (एक पुरुष होते हुए आप महिलाओं के बारे में कैसे बोल सकते हैं!) ‘ऐज़ अ ह्यूमन बीइंग आई एम टॉकिंग अबाउट अदर ह्यूमन बीइंग’’ (एक इंसान होते हुए, मैं दूसरे इंसान के बारे में बोल रहा हूँ)। या, आप ह्यूमन बीइंग नहीं हैं अब? वुमन (महिला) हैं, ह्यूमन (इंसान) नहीं हैं?

देखिए, जब कोई व्यक्ति आंतरिक रूप से मुक्त नहीं होता और आर्थिक रूप से मुक्त नहीं होता, तो उसे क्या करना पड़ता है? उसे दूसरों से ग़लत संबंध बनाने पड़ते हैं,और उसे दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है। और उसे कई तरीक़े की चालें खेलनी पड़ती हैं, उसे घरेलू राजनीति करनी पड़ती है। क्योंकि वो असुरक्षित अनुभव करता है,इनसिक्योर फ़ील करता है। ये जो आप घरों में इतना देखती हैं न! सास, ननद, देवरानी, जेठानी! ये सिर्फ़ इसीलिए है;क्योंकि वो सब महिलाएँ इनसिक्योर (असुरक्षित) हैं। क्यों इनसिक्योर (असुरक्षित) हैं? क्योंकि वो मुक्त नहीं हैं, आत्मनिर्भर नहीं हैं।

तो, इसीलिए वो सौ तरीक़े की चालें फिर खेलती हैं, आपस में कि किसका हाथ ऊपर रहेगा, किसका सिक्का चलेगा। नहीं तो, समय ही नहीं होगा, आपके पास ये छोटे-मोटे पचड़ों में पड़ने का! ये क्यों चलता रहा है कि बेटे पर नियंत्रण के लिए सास और बहू में कशमकश! क्योंकि बेटा क्या है? बेटा?

श्रोतागण: आमदनी।

आचार्य: हाँ, बेटा आमदनी का स्रोत है। वो माँ को भी चाहिए, उसकी पत्नी को भी चाहिए; तो वो आपस में लड़ती हैं। दोनों इसलिए लड़ती हैं;क्योंकि दोनों ही नहीं कमातीं। और दोनों क्यों नहीं कमातीं? क्योंकि दोनों को ये पाठ पढ़ा दिया गया था, ‘तुम तो स्त्री हो न! तुम्हारे लिए कोई और कमाएगा। तुम बच्चे पैदा करो’!

हमने खरगोश पाले हैं। हम यहाँ आए हैं, तो उनके लिए पहले व्यवस्था करके आए हैं। आपको भी अगर अपने जीवन में खरगोश लाने हैं, तो पहले व्यवस्था कर दीजिए न! व्यवस्था पहले कर लीजिए, फिर खरगोश को लाइए।

मैं कहूँ कि ‘मैं यहाँ आ ही नहीं सकता, महोत्सव में भाग नहीं ले सकता;क्योंकि मेरे पास खरगोश हैं।’ ये कोई बात हुई? बोलिए। और, दस हैं वो पूरे! इत्ते-इत्ते! (अपनी बात सुधारते हुए) ‘इत्तू-इत्तू’! (हँसते हैं)

आचार्य: जैसे आप बोल देते हैं कि मेरे पास मेरा बच्चा है, मैं कैसे आ सकती हूँ! मैं काम नहीं कर सकती! मैंने शिविर में नहीं आ सकती। मैं कुछ नहीं कर सकती। मेरे पास तो!’ मेरे पास दस हैं खरगोश। मैं भी नहीं आऊँगा!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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