आचार्य प्रशांत: एक पहली बात भिक्षा की। दूसरी पूछ रहे हो कि सिद्धार्थ ने उस पूरी प्रक्रिया में कोई गलती करी कि नहीं करी। असल में जो दूसरी बात पूछ रहे हो न वो उन्हीं के लिए अर्थपूर्ण होगी जिन्होंने वो किताब पढ़ी है। जिन्होंने पढ़ी ही नहीं, वो बेचारे कुछ नहीं जान पाएँगे कि क्या बात हो रही है यहाँ पर। क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है कहानी के चरित्र कौन हैं, घटनाएँ क्या हैं। कुछ जानते ही नहीं। जो दूसरा हिस्सा है, वो तो तुम मुझसे अलग से भी पूछ सकते हो। मैं जो पहली बात है उसी का जवाब दे देता हूँ।
पहला पूछ रहे हो कि बुद्ध को, जब उनके हज़ारों अनुयायी हो गए थे, उसके बाद भी भिक्षा माँगने की क्या ज़रूरत थी।
देखो, मैं हमेशा कहा करता हूँ कि बड़े-से-बड़े वेदांतियों में महात्मा बुद्ध का नाम लिया जाना चाहिए। उपनिषद् ईसा पूर्व आठवीं-नौवीं शताब्दी से रचित होना आरम्भ हुए और उसके बाद लगभग ईसा पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी तक उनकी रचना होती रही। जो ज़्यादा मान्य उपनिषद् हैं, जिन्हें प्रमुख कह लोगे या प्रमुख उपनिषदों के अलावा भी जो ज़्यादा प्रसिद्ध उपनिषद् हैं, वो सब इसी काल में रचे गए। हालाँकि बाक़ी उपनिषद् तो और सैकड़ों साल बाद भी लिखे जाते रहे। तो उपनिषदों की परंपरा महात्मा बुद्ध से लगभग तीन-चार सौ साल पुरानी है। और बुद्ध भिक्षा क्यों माँग रहे हैं, क्योंकि भिक्षा वाली बात भारत के लिए सर्वथा नई थी। एकदम नई बात थी ये, कि ये भिक्षा कहाँ से आ गई।
बुद्ध ने भिक्षु होने पर इतना ज़ोर क्यों दिया, ये समझना है तो आपको भगवद्गीता के अध्याय दो और तीन में जाना पड़ेगा। भगवद्गीता माने वेदांत और मैं कहता हूँ बुद्ध हैं वेदांती। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो जीवन यज्ञ की तरह नहीं बिता रहा वो व्यक्ति घोर दुख का भागी बनता है और जो अपना सर्वस्व यज्ञ में समर्पित किए बिना ख़ुद ही खा जाता है, वो चोर है। निश्चित रूप से बुद्ध ने गीता के मर्म को बहुत गहराई से समझा है। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, 'तुम्हारा जो कुछ भी है वो तुम अपने ऊँचे लक्ष्य को समर्पित कर दो। अपनी ओर से अपने लिए तुम कुछ भी मत रखो और उसके बाद यदि कुछ मिल जाता है या बच जाता है तो बस उसको प्रसाद की तरह ग्रहण कर लो।'
जो श्रीकृष्ण के शब्दों में प्रसाद है, वही बुद्ध के दर्शन में भिक्षा बन गया। प्रसाद में और भिक्षा में एक चीज़ साझी है बिल्कुल — तुम अपने लिए कुछ नहीं कमाते, न तुम जानते हो कि कितना मिलेगा। न तुमने उसके लिए कोई श्रम किया, न तुमने उसकी इच्छा रखी, न तुम्हें कोई पूर्वानुमान था कि कितना मिलेगा, मिलेगा भी कि नहीं मिलेगा। ये बात प्रसाद पर भी लागू होती है और भिक्षा पर भी लागू होती है।
भिक्षु होना, भिक्षु होना और ज़्यादा व्यावहारिक अभिव्यक्ति हो गई क्योंकि प्रसाद में तो आप जिसको अर्पित कर रहे हो, वो हो सकता है आपके ही मन की कोई रचना हो और वहाँ ये भी संभावना बनी रहती है कि हो सकता है आप कुछ घपला कर लें। श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि तुम देवत्व को सब आहुति करने के बाद जो शेष रह जाए, बस उसको ग्रहण करना। अब कितना शेष रह जाएगा, इसमें तो गड़बड़ करी जा सकती है न। आप कह सकते हो कि अरे आज बस इतना ही होम हो सकता था, बाक़ी बच गया है तो उसको अब हम भोगेंगे।
बुद्ध ने उस बात को और व्यावहारिक बना दिया। वो बोले, 'बात को अपने हाथ में रखो ही मत, क्योंकि प्रसाद में भी झंझट होता है।' और झंझट ख़ूब होते थे, उस समय पुरोहित वर्ग में इतना भ्रष्टाचार फैल गया था, तभी तो बुद्ध को एक नई धारा ही तोड़नी पड़ी तो भ्रष्टाचार और घपले होते भी ख़ूब हैं। तुमने ज़रा सा अहंकार को मौक़ा दे दिया और वो कुछ-न-कुछ बेईमानी कर गुज़रता है। प्रसाद में बेईमानी होने की सम्भावना बची रह जाती है। आप यज्ञ के बाद प्रसाद ही लोगे, ये बात आपकी ईमानदारी पर निर्भर करती है, करती है न? और हर व्यक्ति ईमानदार इतना होता नहीं।
तो बुद्ध ने कहा, चीज़ अपने हाथ से निकाल ही दो। अपना कोई नियंत्रण ही मत रखो, तुम भिक्षा पात्र पकड़ लो, तुम्हारे पास जो कुछ है वो तुम संसार को देते चलो और संसार से कुछ मिलेगा या नहीं मिलेगा वापस, इस बारे में निष्काम हो जाओ, फिर गीता। तुम्हारे पास जो कुछ है वह तुम दुनिया को अधिकतम दे दो। अपनी क्षमता से थोड़ा ज़्यादा ही दे दो और दुनिया तुम्हें कुछ वापस देगी कि नहीं देगी, ये तुम दुनिया के ऊपर छोड़ दो।
महावीर और आगे निकल गए, उन्होंने कहा, हम इस बात को भी संयोग पर नहीं रहने देंगे कि दुनिया से हमें वापस क्या मिलेगा। उन्होंने दुनिया से वापस लेने पर भी बड़ी भारी शर्तें लगा दीं, हम भिक्षा की बात कर रहे हैं। बुद्ध ने तो कह दिया था कि भिक्षा में जो भी मिले उसको स्वीकार कर ही लेना है। यहाँ तक कि अगर भिक्षा में — एक बार ऐसा हुआ कि कुछ मरे हुए चूहे या कुछ सड़े हुए माँस का टुकड़ा मिल गया, उन्होंने कहा अब यह पात्र में आ गया है, चलो इसको भी स्वीकार कर लो।
महावीर ने और कड़ी शर्तें लगा दीं। कड़ी शर्तें क्यों लगा दीं? क्योंकि हम बेईमान लोग हैं। अगर आपको पता चल जाए, उदाहरण के लिए, कि किसी घर में भिक्षा माँगने जाओ और वहाँ स्वादिष्ट ही खाना मिलता है तो आप बार-बार वहाँ भिक्षा माँगने चले जाओगे। अब ये भिक्षा नहीं रही न। भिक्षा वही है जिसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता।
तो महावीर ने कहा, अच्छा, हम शर्तें और कड़ी करते हैं। उन्होंने कहा — तुम पहले मन में कल्पना करो कि आज उसी घर से लूँगा भिक्षा जिसके आगे नीम का पेड़ होगा और नीम के पेड़ के नीचे एक बछड़ा बैठा होगा, पहले ही कल्पना कर लो और फिर घूमने निकलो। ऐसा कोई घर मिले तो भिक्षा लेना, नहीं तो मत लेना। और ये किसी को बात पता नहीं होनी चाहिए कि तुमने भीतर संकल्प क्या लिया है। या कि आज मैं भिक्षा ग्रहण ही तभी करूँगा जब दो बार द्वार खटखटाने पर एक छोटी बच्ची, जिसने हरे कपड़े पहन रखे होंगे, वो बाहर आ जाएगी। अगर खटखटाने पर ऐसी कोई बच्ची हरे कपड़ों में बाहर आती है तो लूँगा, नहीं तो भूखा रह जाऊँगा।
यह सब कुछ इसलिए ताकि हमारे भीतर जो झूठा बैठा हुआ है, जो पल-पल का बेईमान है, उसे अंकुश में रखा जा सके। नहीं तो हम वही करते हैं जो श्रीकृष्ण ने पहले ही कह दिया है गीता में — चोरी। अब ये बात क्या है चोरी की, इसको अच्छे से समझिए।
वेदांत हमको समझा रहा है कि तुम्हारा जीवन तुम्हारे भोग के लिए नहीं है, बाबा। तुम्हारा जीवन इसलिए नहीं है कि जो रुपया तुमको मिला है, तुमने उससे अपना ही सुख बना लिया, या तुमको बुद्धि मिली है तो तुमने उस बुद्धि का इस्तेमाल कर लिया अपनी ही व्यक्तिगत तरक़्क़ी के लिए। या तुमको शरीर मिला है, ऊर्जा मिली है, सामर्थ्य है तो तुमने अपने स्वार्थ के लिए ही उसका पूरा उपयोग कर लिया। ये मूल शिक्षा है। तुम्हारे पास जो कुछ भी है वो यज्ञ के लिए है।
यज्ञ माने क्या? — देवत्व को समर्पित कर दो। यज्ञ माने वो नहीं कि जो आप वेदी सजाते हो और फिर उसमें आप लकड़ी, धुआँ करते हो, वो सब यज्ञ नहीं है। यज्ञ का मतलब है — जो ऊँचे-से-ऊँचा हो सकता है, तुम्हारे भीतर ही जो देवत्व है या संसार में जो दैवीय कार्य हो सकता है, उसको अपना जीवन, अपना श्रम, अपनी बुद्धि, अपने सारे संसाधन समर्पित कर दो। इसको यज्ञ कहते हैं। यज्ञ समझ में आ रही है, बात क्या है? समझ रहे हो?
ये जो आप कर्मकांडी अनुष्ठान करते हो, वो यज्ञ नहीं है। वो यज्ञ का बहुत स्थूल रूप है जिसकी आज के समय में कोई प्रासंगिकता भी नहीं बची है। आज के समय में अगर सब यज्ञ ही करने लग जाएँ तो सोचो क्या होगा। अभी तो हम क्लाइमेट चेंज की बात कर रहे थे और यज्ञ में अग्निहोत्र बोलते हैं उसको, सब अग्निहोत्री हो गए अगर तो गड़बड़ हो जाएगी। कितनी लकड़ी जलाओगे? जंगल के जंगल गिर जाएँगे। आठ सौ करोड़ लोग तब नहीं थे भाई। जब यज्ञ किया जाता था, उस समय आठ सौ करोड़ लोग नहीं थे दुनिया में और न तो क्लाइमेट चेंज था। और लकड़ी जलाओ तो उसमें से कार्बन-डाईऑक्साइड ही निकलती है।
तो यज्ञ का असली अर्थ क्या है? यज्ञ का असली अर्थ यही है — "तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोए।" जो कुछ है वो तेरा है, मैं उसको अपने ऊपर ख़र्च कैसे कर सकता हूँ।
जो कुछ तूने दिया है मैं अधिक-से-अधिक उसका ट्रस्टी हो सकता हूँ बस, मैं उसका भोक्ता नहीं हो सकता। मैं तुझे तेरा दिए दे रहा हूँ। मैंने अपना फ़र्ज़ निभा दिया। अब मेरा क्या होगा? मैंने अपना कर्तव्य निभा दिया, मेरे पास जो सबकुछ था, तुझे दे दिया। तू अपनी जान, तुझे कुछ अगर मुझे देना हो, तू चाहता है कि मैं जियूँ तो तू मुझे दे दे। मेरे पास जो अधिक-से-अधिक है वह मैं तुझे दे दूँगा। और तुझे अगर मेरा कुछ ध्यान रखना है तो तू मुझे दे दे। देखो, कितना मधुर और प्रेम का रिश्ता है ये, व्यक्ति और समष्टि के बीच में।
बुद्ध कह रहे हैं, मैं सबकुछ दे रहा हूँ। मैंने अपना जीवन ही दे दिया। मैंने महल त्याग दिया, परिवार त्याग दिया, जनता में गाँव-गाँव घूमकर के जो ऊँची-से-ऊँची चीज़ है वह सबमें बाँट रहा हूँ। और एक बात मैं पक्की रखूँगा — अपना खाना ख़ुद नहीं बटोरूँगा, न पकाऊँगा। मैं जियूँ या नहीं जियूँ, ये बात अब मैंने समाज के ऊपर छोड़ दी है। तुम चाहते हो मैं जियूँ तो भिक्षा दे देना। तुम चाहते हो मैं मर जाऊँ तो भिक्षा दो ही मत पर मैं तो अब अग्निहोत्री हो गया। मेरा काम है अनवरत यज्ञ। समझ में आ रही है बात?
और उसी यज्ञ को तुम और ज़्यादा सत्यनिष्ठा के साथ कर सको तो इसके लिए हम अभी कह रहे थे कि, जैनों ने परंपरा बना दी कि भिक्षा लेने में भी तुम शर्तें रखो। भिक्षा भी तुम यूँही नहीं ले लोगे। और आज हमें पता चलता है कि जैनों ने जो शर्तें बनाई थीं वो ठीक ही बनाई थीं। एक प्रमाण ये है कि, बौद्धों में जितना माँसाहार है वह किसी भी और वर्ग से कम नहीं है। सिर्फ़ इसलिए क्योंकि एक अवसर पर बुद्ध ने छूट दे दी थी कि, अगर तुम्हारे पात्र में माँस भी आ गया है तो स्वीकार कर लो — अचुनाव और अविरोध का सिद्धान्त सर्वप्रथम है, बुद्ध ने उस सिद्धान्त की रक्षा के लिए बोला था। बोले थे, अगर मैंने यहाँ चुनाव करने की छूट दे दी कि क्या लेना है, क्या नहीं लेना है तो कल को यह भी चुनाव करेंगे कि स्वादिष्ट है वही खाऊँगा, स्वादिष्ट नहीं है तो नहीं खाऊँगा।
बोले अचुनाव होना चाहिए। अस्तित्व तुम्हें जो कुछ दे दे, उसको स्वीकार कर लो। जो मिला सब ठीक है। "जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए।" तो बोले माँस भी अगर आ गया कटोरे में तो कर लो स्वीकार। उसका नतीजा ये हुआ कि सब बौद्ध माँसाहारी हो गए। बौद्धों का बड़े-से-बड़ा वर्ग माँसाहारी हो गया है। आप जापान चले जाइए, आप दक्षिण पूर्व एशिया चले जाइए, माँसाहार ख़ूब चलता है और इस तरह का माँसाहार चलता है जो कि आप अन्यथा पाएँगे भी नहीं। कोई भी चीज़ चल रही है, रेंग रही है, कुछ भी है, उसको खा लो।
महावीर ने शायद इस बात का भी पूर्वानुमान लगा लिया था कि अगर हमने इनको ये भी छूट दे दी कि जो भी मिल रहा है भिक्षा में ले लो तो ये वहाँ भी बेईमानी करेंगे। तो शर्त और कड़ी करो। समझ में आ रही है बात?
भिक्षा का मतलब क्या है? अपने लिए कुछ नहीं करूँगा। अपना भोजन तो हर आदमी देख रहा है, मैं भी अगर अपना भोजन देखूँ तो मैं बुद्ध कहाँ हुआ! अपनी थाली तो हर आदमी भर रहा है, मैं अपनी थाली नहीं भरूँगा। मैं तुम्हारे लिए जी रहा हूँ न। तुम चाहते हो मैं जियूँ तो मेरी थाली भर दो। और तुम नहीं भी भर रहे तो मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, ये है भिक्षु धर्म — भिक्षु। अन्तर समझ रहे हो?
बस ये है कि दूसरी तरफ़ से पकड़ रहे हैं बुद्ध। वेदांत कह रहा है, 'मुझे देवत्व तक पहुँचना है।' तो वहाँ पर फिर आप कभी पंडित माने जाते हो, कभी ज्ञानी माने जाते हो, कभी आप स्वामी माने जाते हो। बुद्ध कह रहे हैं, 'मुझे अपना सब कुछ छोड़ना है।' और छोड़ने वाली बात ज़्यादा सटीक है। वास्तव में वही वेदांत का मर्म भी है क्योंकि वहाँ सारी प्रक्रिया निषेध की, नकार की, नेति-नेति की है। नेति-नेति ही भिक्षुत्व है। मैं भिक्षु हो गया, अपना सब कुछ छोड़ दिया।
भिक्षुत्व इसीलिए सिर्फ़ बाहर की घटना नहीं हो सकती, वो भीतरी बात भी है। अपना जो कुछ था, भीतर से सब छोड़ दिया, भीतर से खाली हो गया, वो भिक्षु है।
जो बाहर से भिक्षु का चोला पहन ले वो भिक्षु नहीं। भीतर अहंकार से खाली होना, वो भिक्षु हो गया।
यही सबसे सुन्दर रिश्ता है जो एक शिक्षक और उसके समाज के बीच हो सकता है। इसी में प्रेम की सुगंध है। दोनों पक्ष बड़े प्यारे तरीके से अपना-अपना प्रेम, धर्म निभा रहे हैं।
हम इसकी तो बात कर लेते हैं कि बुद्ध जाकर के बारह-चौदह साल ज्ञान प्राप्ति के लिए, मुक्ति के लिए इधर-उधर भटकते रहे, इतने सारे गुरुओं से, शिक्षकों से मिले। हम उसकी तो बात करते हैं, उसकी जो बाद की बात है वो और ज़्यादा मार्मिक है न। सत्तर-अस्सी साल जिए थे, तो मोक्ष के या निर्वाण के बाद अगले तीस-चालीस साल क्या किए? क्या किए? और सुकुमार, राजकुमार बुद्ध क्या किए? बस इधर से उधर जा रहे हैं, जा रहे हैं, चलते जा रहे हैं। और वो हम बात कर रहे हैं ईसा से पाँच-छः सौ साल पहले की। भारत की आबादी इतनी सी, लोग कम, जंगल ज़्यादा।
कुछ गिनती के शहर, बाक़ी सब छोटे-छोटे, छोटे-छोटे गाँव। और गाँव-गाँव में भी न जाने कितनी दूरी। एक गाँव से दूसरे गाँव पहुँचना ही कितनी मेहनत का और ख़तरे का काम रहा होगा। और अब योद्धा क्षत्रिय तो रहे नहीं कि अस्त्र लेकर चलेंगे या सेना लेकर चलेंगे। तो नंगे पाँव जा रहे हैं। हद-से-हद दो-चार उनके भिक्षु उनके साथ हैं और जंगल-ही-जंगल, जंगल-ही-जंगल। खाने-पीने का, वहाँ कौन भिक्षा देता होगा? तो सोचो एक बार, कितनी ही रातें, कितने ही हफ्ते नंगे पैर और भूखे पेट! ये वो है जो वो अपनी ओर से दे सकते हैं। और जब उन्होंने इतना दिया तो भारत से फिर उनको बराबर का प्यार भी मिला। पूरा उत्तर भारत बुद्ध का अनुयायी हो गया। बहुत सम्मान दिया भारत ने बुद्ध को।
ये बात भारत में है। जो लोग चेतना में ऊँचे होते हैं, ज्ञानी होते हैं, जिनको हम पाते हैं कि वो हमारी भलाई के लिए कुछ कर रहे हैं, हम उनको सिर-आँखों बैठाते हैं। उसमें कई बार हम धोखा भी खाते हैं, क्योंकि सम्मान हम कई बार ऐसों को भी दे देते हैं जो उसके अधिकारी नहीं होते। पर वो ग़लती करनी फिर भी ठीक है। किसी ऐसे को इज़्ज़त दे दी जो उसका अधिकारी नहीं, कोई बात नहीं। लेकिन ऐसे को इज़्ज़त देने से कभी चूक मत जाना जो उसका अधिकारी है।
तो बुद्ध ने अपना जीवन दे दिया भारत को और भारत को ही नहीं, फिर बुद्ध की बात भारत से बाहर भी ख़ूब फैली। और भारत ने फिर सम्मान भी दिया, उनकी बात को माना भी।
हाँ, अब ये अलग बात है कि जैसे वेदांत में एक सड़न पैदा हो गई थी, कुछ सौ सालों के बाद, ठीक उसी तरीके से बुद्ध की शिक्षा भी पाँच-सात सौ साल बीतते-बीतते लोगों ने विकृत कर दी। वो भी चीज़ सड़ने लग गई, वो हमारी माया है न। हमें कोई ऊँची-से-ऊँची चीज़ भी बता दो, हम उसको बिगाड़ ही देते हैं कालांतर में। तो फिर जब बुद्ध की बात भी बिगड़ गई तो धीरे-धीरे उसका भी प्रभाव मिट गया।
भिक्षु वाली बात स्पष्ट हो रही है? भिक्षु होना कोई कृत्य नहीं है। भिक्षु होना किसी पहनावे की या किसी नाम की बात नहीं है कि जिसने ऐसा पहनावा कर लिया और सिर घुटा लिया और 'भिक्षाम् देहि' कह रहा है, वही भिक्षु है। नहीं, भिक्षु होना जीने का एक तरीका है। जीने का सबसे सुन्दर और सबसे ऊँचा तरीका है — भिक्षु हो जाओ।
राजा हर्षवर्धन हुए हैं। वह साल में एक बार अपनी सारी सम्पदा दान कर देते थे और राजा हैं। जो कुछ भी उनके पास व्यक्तिगत तौर पर होता था वो सब दे देते थे। बाक़ी तो राज्य का है, उसको तो राजा छू नहीं सकता। पर व्यक्तिगत तौर पर उनके पास जो भी था सब दे देते थे एक बार। यहाँ तक कि अपना आख़िरी कपड़ा भी दे देते थे। फिर उनके परिवार से कोई आता था, ज़्यादातर उनकी कोई बहन और वो उनको एक कपड़ा देती थी कि तुम ये पहन लो। बस इतना।
भाव यही था कि ये चीज़ मेरी नहीं है। मैं अधिक-से-अधिक इसका ध्यान रख सकता हूँ, केयर टेकर हो सकता हूँ। ये मेरी संपत्ति नहीं है, ये मेरा दायित्व है। दायित्व में क्या शब्द है? देयता, मुझे इसको देना है। ये देने की चीज़ है, ये पराई चीज़ है। और भारत ने संसार को हमेशा पराया ही माना है। ये पराया है, ये तो मेरा नहीं है। "रहना नहीं, देस बीराना है।" मेरा नहीं है। जब मेरी चीज़ नहीं है तो मैं उस पर हक़ क्यों जमाऊँ, उसको खा कैसे जाऊँ? दूसरों का माल खा लो तो पाप लगेगा न। तो जो कुछ भी मिला है, ये दूसरे का माल है। ये मेरा है क्या? इस दुनिया से मिला है, मैं इसको क्यों भोगने लग जाऊँ? और जो भोगने लग जाते हैं दूसरे का माल, वो फिर भीतर से चोर बन जाते हैं और ग्लानि में, अपराध भाव में और डर में जीते हैं।
तुमने किसी से उधार ले रखा हो तो भीतर-ही-भीतर हालत कैसी रहती है, डर लगा रहता है न? हाँ, बुद्ध वो है जिसे अब डरना पसंद नहीं है। वो कह रहे हैं दूसरे का माल छूना ही नहीं है, दूसरे का माल छूना ही नहीं है। हाँ, तुम्हें हमसे प्यार हो तो हमें भिक्षा दे देना। पर अपनी ओर से अब हम अर्जन करना बंद कर रहे हैं। क्या काम करना बंद कर रहे हैं? नहीं-नहीं-नहीं, अर्जन करना बंद कर रहे हैं, काम तो जान लगा कर कर रहे हैं।
बुद्ध ने जितना काम किया उतना बहुत कम लोग ही कर पाए। इतना बड़ा संघ उन्होंने खड़ा कर दिया था। जो आन्तरिक उनका ज्ञान है, उसको तो छोड़ो एक तरफ़ रखो, जो उन्होंने भौतिक तल पर भी कर दिखाया, आज हम यूनिकॉर्न की और 'बिलियन डॉलर मार्केट कैप' ये सब बातें करते हैं, उस समय का बड़े-से-बड़ा आश्चर्य था महात्मा बुद्ध का संघ। किसी आम आदमी के बूते की बात है? संघ ऐसे ही थोड़े होता था जो आप देख लेते हो चित्रों में कि बुद्ध बैठे हुए हैं वृक्ष के नीचे और उनके आगे सिर घुटाए पाँच भिक्षु बैठ गए हैं और बुद्ध उनको बस प्रवचन दे रहे हैं। ऐसे नहीं होता है।
बहुत विशाल संघ था और उसकी व्यवस्था चलाते थे। बुद्ध एक तरह से उसके 'सीईओ' थे। और उसके बहुत विस्तृत सूक्ष्म नियम-क़ायदे थे, वो सब बुद्ध ने स्वयं तय करे थे।
उनका पालन होता था। भिक्षुओं के भी कई तल थे, स्तर थे। कौन एक से दूसरे पर जाएगा, इसका भी निर्धारण होता था। हर चीज़ के लिए नियम, क़ायदे, प्रक्रियाएँ, शर्तें सब तय करी गई थीं, जैसा किसी भी संस्था में होता है आज की। तो काम पूरा करना है, अर्जन नहीं करना है। काम में तो कोई कमी ही नहीं।
वही बात जो श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि आसक्ति वाला आदमी अपनी आसक्ति के लिए बहुत ज़ोर लगाकर मेहनत करता है। अर्जुन, तुम उतनी ही मेहनत करो बिना आसक्ति के, समाज के कल्याण के लिए। कौन-सा सूत्र था ये? भगवद्गीता, तीसरे अध्याय का चौबीसवाँ या पच्चीसवाँ सूत्र था। और जो बात श्रीकृष्ण कह रहे थे, वही बुद्ध ने करके दिखा दी। कि राजसिक आदमी, महत्वाकांक्षी आदमी अपनी भलाई के लिए दिन-रात खटता है। जितनी मेहनत वो करता है, अर्जुन, तुम उतनी ही मेहनत करके दिखाओ, लेकिन अपने लिए नहीं — ये भिक्षुत्व है। मेहनत पूरी है, अपने लिए नहीं। और उसका जो आनंद है वो फिर चीज़ दूसरी है।
ये बात सिर्फ़ संयोग ही नहीं है कि बुद्ध के पीछे-पीछे छाया की तरह आनंद चलते थे। आप भिक्षु हो जाओ, आनंद आपके भी पीछे-पीछे चलेंगे। बड़ा आनंद है! कटोरा नहीं ले लेना हाथ में, डर मत जाओ। हम कह रहे हैं भिक्षुत्व जीने का एक तरीका है। आपको बाल नहीं घुटाने हैं, आप अपनी शर्ट-पैंट पहने रह सकते हो। इसी तरीके से यज्ञ का मतलब यह नहीं है कि सुबह-सुबह उठकर के ‘ओम स्वाहा।‘ आज उस तरह का यज्ञ अप्रासंगिक हो चुका है।
अज्ञेय (एक हिन्दी कवि) का है न, "मैंने आहुति बनकर देखा, यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।" आहुति बना दो अपने जीवन को।
“मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ, कुचला जाकर भी धूल-सा, आँधी-सा और उमड़ता हूँ, मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने, इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने, वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें जीवन रस का कटु प्याला है, वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहनकारी हाला है, मैंने आहुति बनकर देखा, यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।“
ये है यज्ञ। यही है भिक्षुत्व। पर सुनने से पता नहीं चलेगा। "नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः।" और न ही "बहुना श्रुतेण।" उससे भी नहीं पता चलता। "मैंने आहुति बनकर देखा," तब पता चलेगा। ठीक?