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मदद या अहंकार? || आचार्य प्रशांत (2014)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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मदद या अहंकार? || आचार्य प्रशांत (2014)

वक्ता: देखिये, रमन महर्षि थे। तो लोग पूछते थे कि-“आप यहाँ पड़े रहते हो मंदिर में, बाहर निकल कर के कुछ करते क्यों नहीं?” और वो जिस समय पर थे, पिछली सदी का जो पूर्वार्थ था, सन से 1910 से 1940। 1950 तक जीए थे। अब उस समय पर भारत में हज़ार तरह की समस्याएँ थीं, गरीबी भी थी, अशिक्षा भी थी, जातिवाद भी था, धार्मिक दंगे भी हुए, स्वतंत्रता की लड़ाई भी चल रही थी। ये सब चल ही रहा था। तो हज़ार मुद्दे थे जिन पर लोगों से मिला जा सकता था, बातचीत की जा सकती थी। समाजिक कुरीतियाँ थीं। उनको लेकर लोगों से मिला जा सकता था। तो लोग कहते थे कि, “आप यहाँ क्या बैठे रहते हो? बाहर निकल कर के कुछ करते क्यों नहीं? मदद करो।” तो वो कहते थे कि, “तुम्हें ये कैसे पता कि यहाँ बैठे-बैठे तुम्हारी मदद नहीं कर रहा हूँ। तुम बस कार्य-कारण को जानते हो। तुमको लगता है कि तुम्हारे करने से होता है जबकि हो कैसे रहा है, उसके दांव-पेंच बिलकुल अलग है। वो पूरी टैक्नोलोजी ही अलग है। वो करने वाला ही सिर्फ़ जानता है।” तो एक तो (तरीका) ये है कि मैं ऐसी हालत में पहुँच जाऊँ, मैं ऐसी स्थिति में पहुँच जाऊँ कि मेरा होना ही दुनिया भर की मदद है। मुझे एक कदम भी विशेषतया मदद के लिए बढ़ाने की ज़रूरत नहीं है कि मैं कहूँ कि, ‘’मैं ये काम किसी की मदद के लिए कर रहा हूँ।’’ हम जो भी करते हैं वो सब की मदद होती है। हमारा होना ही मदद है।

तो वो तो आखिरी स्थिति है। उससे पहले की जो मदद है, उसमें सूक्ष्म अहंकार रहता है। उसमें ये अहंकार रहता है कि, “मैं मदद कर सकता हूँ” और जब भी तुम ये दावा करोगे कि, ‘’मैं मदद कर सकता हूँ,’’ तो उसमें चोरी-छिपे ही सही, थोड़ा बहुत ही सही, लेकिन ये भाव भी आएगा ही, “मैं श्रेष्ठ हूँ।” मुझमें योग्यता है मदद करने की और ‘मैं’ मदद कर रहा हूँ, ‘मैं’। तो उसमें अहंकार रहेगा ही रहेगा। वो अहंकार इसलिए रहता है क्योंकि अभी तक तुम खुद पूरे तरीके से मुक्त नहीं हुए हो। तुम घिरे हुए थे, तुम अँधेरे में थे। तुम्हें उजाला मिला है। तुम्हें याद है अभी भी अच्छे से कि, अँधेरे ने बड़ा कष्ट दिया था। तुम्हें उजाला मिला है। तुम इसको बांटना चाहते हो। तुम पूछो- “कि फिर इसमें अहंकार कहाँ है? आप क्यों कह रहे हो कि इसमें अहंकार है?” अहंकार है। अहंकार ये है कि तुम्हें उजाला मिला है लेकिन तुम अभी भी ये समझ रहे कि वो अँधेरा असली था। तुम अभी भी ये समझ रहे हो कि उस अँधेरे को मिटाने की ज़रूरत है। ये मैं उस आदमी के सन्दर्भ में कह रहा हूँ जो कोशिश कर रहा हो दूसरों की मदद करने की। समझ रहे हो? वो यही तो कर रहा है न? उसको उजाला मिल गया है, वो दूसरों में भी उसी उजाले को बांटना चाहता है। वो कह रहा है कि-“भाई देखो। बड़ी मजेदार चीज़ है। मुझे भी मिली है तुम्हें भी मिले।” लेकिन एक भूल तो कर ही रहा है अभी भी। क्या? वो ये भूल कर रहा है कि अभी वो ये पूरी तरह मानने को तैयार नहीं है कि क्या अँधेरा, क्या उजाला? सब खेल है, चलने दो। अगर कोई तड़प भी रहा है तो इसमें कोई असलियत नहीं है; खेल है। उसका मन अभी ये मानने को तैयार नहीं है। वो मान रहा है कि अँधेरे में कुछ तो असलियत है।

देखो, तुम खाली जगह पर तलवार नहीं भांजते हो। अगत तुम किसी परछाई पर तलवार चला रहे हो तो इसका मतलब क्या है? तुम्हें लग रहा है कि परछाई में कुछ तो असलियत है। तो अगर तुम किसी की मदद करना चाहते हो तो इसका मतलब ये है, निश्चित रूप से कि तुम ये सोच रहे हो कि कष्ट में कोई असलियत है। तभी तो तुम कष्ट दूर करना चाहते हो न? तो ये भूल हो रही है। इसी को मैं कह रहा हूँ कि ये अहंकार अभी बाकी है। और ये भूल है। निश्चित रूप से ये भूल है क्योंकि

कष्ट में कोई असलियत नहीं है। न कष्ट से मुक्ति में कोई असलियत है।

ये सब बातें तो पारस्परिक हैं। ये भी एक तरह का भ्रम है। ये भी भ्रम है कि कोई तड़प रहा है, या कोई मौज में है। क्या? कुछ नहीं। सब एक है, सब खाली हैं, सब शून्य। कुछ नहीं। पर वो बहुत आखिरी बात है। वो वहदत की वो स्थिति है जहाँ तुम्हें कुछ नहीं दिखाई दे रहा, जहाँ तुमको लाश और जिंदे में कोई फर्क नहीं है, जहाँ तुमको रेत और मछली में कोई फ़र्क नहीं है, जहाँ तुमको अपने शरीर में और एक लकड़ी में कोई फर्क नहीं है, जब तुम वहाँ पहुँच जाओ सिर्फ़ तब तुम ये कह सकते हो कि, ‘’मुझे किसी की मदद करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि मदद जैसा कुछ होता ही नहीं।’’ उससे पहले तो मदद करनी पड़ेगी। लेकिन मैं साथ ही में ये भी कह रहा हूँ कि वो मदद अहंकार है। वो सूक्ष्म अहंकार ही सही। आखिरी अहंकार ही सही, पर उसमें भी अहंकार है। क्यों अहंकार है?

क्योंकि पहली बात तो ये है कि, ‘’मैं सोच रहा हूँ कि मैं मदद कर सकता हूँ।’’ और दूसरी बात ये कि मैं सोच रहा हूँ कि, ‘’मैं जिसकी मदद कर रहा हूँ, उसका कष्ट असली है।’’ तो मैं कष्ट को एक प्रकार की मान्यता दे रहा हूँ। मैं मान रहा हूँ कि कष्ट असली है। ये दोनों ही बातें झूठ हैं। सही बात तो ये है कि तुम्हारे करे किसी की मदद होगी नहीं और सही बात ये भी है कि कोई कष्ट असली होता नहीं। लेकिन वहाँ तक पहुंचना, कि जहाँ पर तुम्हारे सामने कोई मर भी रहा हो, तो तुम कहो कि, “क्या जीना, क्या मरना? सब एक ही बात है। तू पैदा ही कब हुआ जो मर रहा है तू?” और तुम आगे को बढ़ जाओ। वो होती होगी कोई आगे की स्थिति।

लेकिन ये पक्का समझ लो कि मदद करने में भले सूक्ष्म अहंकार हो, पर मदद न करने में तो घना अँधेरा है। पहली बात तो ये — और ये बात कई बार पहले भी बोली है, फिर से बोल रहा हूँ — कि वो लोग तो मदद करने की सोचें ही न, जो खुद अभी कुछ पाएं ही नहीं है। तो उनसे तो मैं हमेशा यही कहता हूँ कि तुम छोड़ ही दो ये सोचना कि किसी की मदद करनी है। मज़ेदार बात ये है कि वो लोग सबसे ज़्यादा इच्छुक होते हैं मदद करने को। कभी माँ-बाप बन के, कभी दोस्त-यार बन के, कभी शिक्षक बन के, कभी सगे-सम्बन्धी बन के। वो सबसे ज़्यादा मदद करना चाहते हैं। “हमें तो मदद करनी हैं,” और ये कौन लोग हैं जिन्हें खुद मदद की ज़रूरत है? ये कौन लोग हैं जो तुमको ज्ञान बांटना चाहते हैं? जो खुद निर्ज्ञानी हैं। तो उनसे मैं कहता हूँ कि बिलकुल कोशिश मत करो किसी की मदद करने की। समझा करो, क्योंकि अलग-अलग लोगों से अलग-अलग बात कही जाती है। अगर किसी सत्र में ये कह दिया कि, “किसी की मदद करने की कोशिश भी मत करना।” तो वो एक विशेष श्रोतागण से कहा गया है। सामने जो लोग बैठे हैं, सिर्फ़ उनसे कहा गया है। वो कोई सार्वभौमिक बात नहीं हो गई है।

जिस किसी को भी मिलना शुरू हो, उसका धर्म है बाँटना।

बाँटते-बाँटते वो स्थिति आ जाए, मैं कह नहीं सकता। वो स्थिति एक दिन आ जाए कि जब तुम कहो कि, ‘’बाँटने की कोई ज़रूरत ही नहीं।’’ लेकिन जब मिलना शुरू हो तो, तब बाँटो। मदद करो। मदद नहीं करोगे तो सड़ जाओगे। तुम्हें अगर कुछ मिल रहा है, तो इसी शर्त पर मिल रहा है कि तुम्हारे माध्यम से वो औरों को पहूँचेगा। अगर तुम्हारे आध्याम से वो औरों को नहीं पहुँच रहा तो तम्हें भी नहीं मिलेगा। ये पक्का समझ लो। बिलकुल सौ प्रतिशत जान लो।

जो मदद सेवा ना हो, उसमें गहरा अहंकार है।

समझ रहे हो? मदद ऐसे नहीं की जाती, जैसे एक अमीर आदमी किसी गरीब की करता है। मदद ऐसे करी जाती है, जैसे सेवा। सेवा प्रेम है।

श्रोता: पर उसमें खुद भी बहुत कुछ सीखने को मिलता है।

वक्ता: हाँ, तो वही। प्रेम है न क्योंकि प्रेम में तुम्हें भी मज़ा आता है। ठीक। तो असली मदद वही होती है, जिसमें तुम्हें भी मज़ा आए। जैसे प्रेम होता है। प्रेम में तुम ये थोड़ी ही कहते हो कि, “मैं तेरे साथ इसलिए हूँ क्योंकि मैं तुझ पर कोई कृपा कर रहा हूँ।” तो दो लोग मिले हैं प्यार में,तो दोनों की मस्ती है न उसमें। ठीक उसी तरह से सेवा भी है। “सेवा भले ही तेरी कर रहा हूँ पर उसमें कुछ ऐसा नहीं है कि कोई एहसान किये दे रहा हूँ, मुझे अच्छा लगता है।”

श्रोता : और उसमें फिर दोनों को ही मिलता है।

वक्ता: बेशक। और तुझे कुछ दे रहा हूँ, तो मुझे कुछ मिल भी रहा है। तो उसमें मेरा गणित भी साफ़ है। जितना बाँट रहा हूँ, उतना मिल भी रहा है।

श्रोत: सर, लेकिन ये भाव रख लेना कि “मुझे कुछ मिल भी रहा है”, ये तो गलत है न?

वक्ता: तुम ये चाह नहीं रहे थे, लेकिन अब जब मिल रहा है तो..

श्रोत: सर, ये भाव नहीं आना चाहिए न कि मुझे कुछ मिल रहा है।

वक्ता: ये भाव नहीं आये, पर ये बोध तो है ही कि मिल गया। चाहा भले ही नहीं था, पर अब मिल गया, तो मिल ही गया। पर ये पक्का बता रहा हूँ कि सबसे ज़्यादा तब ही मिलता है जब बाँटते हो।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

YouTube Link: https://youtu.be/bx9UGau5ZTs

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