माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय || आचार्य प्रशांत, गुरु कबीर पर (2018)

Acharya Prashant

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माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय || आचार्य प्रशांत, गुरु कबीर पर (2018)

प्रश्नकर्ता: कबीर कहते हैं — "माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय। भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय।।"

कृपया बताएँ कि दूसरी पाँत (पंक्ति) का क्या अर्थ है? मुझे तो ऐसा लगता है कि माया से पार पाना असंभव ही है! बस कुछ संयम रखा जा सकता है। माया बहुत छेड़ती है मुझे। क्या उससे लड़ाई करूँ?

आचार्य प्रशांत: यही जो तुमने उद्धृत किया है, इसी में हल है सारा। माया और छाया की एक पहचान है।

यहाँ खड़े हो जाओ, चलो! जल्दी, जल्दी खड़े हो! वहाँ जाओ। वहाँ खड़े हो जाओ! भाग के, भाग के! वहाँ पे खड़े हो। यहीं पर, ठीक है! इसकी छाया देखिए कहाँ है? सूरज के तरफ़ है (या) सूरज के खिलाफ़ है? सूरज की तरफ़ है (या) सूरज के खिलाफ़ है?

श्रोता: खिलाफ़ है; पीछे है।

आचार्य प्रशांत: 'सम्मुख भागे सोए' — सत्य सम्मुख भी होगा, छाया उसके खिलाफ़ खड़ी होगी। कभी देखी है छाया जो सूरज की तरफ़ हो? और अब देखना क्या होगा – ये खड़ा है तो इसकी छाया खड़ी है। अब तू भाग बेटा! छाया क्या कर रही है?

श्रोतागण: साथ में भाग रही है; पीछे भाग रही है।

आचार्य: अरे! 'भगता के पीछे लगे’ , सूरज से डरी बैठी थी, छुपी बैठी थी लेकिन ये जहाँ भगा, ये इसके पीछे लग गई। माया और छाया, दोनों की यही पहचान है।

अब एक और चीज़ देखो, मज़ेदार! छाया इसका पीछा कर रही थी। इसने कहा, “अच्छा ठीक है। छाया को मुझसे बहुत प्रेम है, छाया मुझसे मिलना ही चाहती है।” अब उल्टे हो जाओ। अब इसकी छाया किधर को है? इसके आगे है। चलो! अब तुम छाया का पीछा करो; देखते हैं छाया क्या करती है? ये क्या हुआ? अरे! जब ये भाग रहा था तो इसका पीछा कर रही थी और जब इसने कहा कि चलो छाया से मिल ही लेते हैं तो... भगने लग गई! ये क्या चक्कर है?

यही तो खेल है माया का। न तुम्हें वो तुमसे दूर जाने देती है, अपनेआप से दूर जाने देती है और उससे कहो कि आ जा तुझसे मिल ही लेते हैं, तो भागती है। जैसे कोई तुम्हें छोड़ने के लिए, रिझाने के लिए तुम्हारे पीछे-पीछे आता हो, और फिर तुम कहो, “ठीक है! तू इतनी ही रिझा रही है तो आ जा! हो जाए फिर!” तो भगी ज़ोर से।

ये जा रहा था सत्य की ओर, सूरज की ओर; सूरज माने प्रकाश, सत्य। तो ये चला प्रकाश की ओर, तो इसको छोड़ ही नहीं रही। इसका पाँव पकड़े हुए है। फिर भाग तू सूरज की ओर, देखो इसका पाँव पकड़े हुए है, छोड़ ही नहीं रही इसको। तो ये रूक गया, इसने कहा, “ये पीछा ही नहीं छोड़ती!" इसने कहा, "फिर आ जा! पहले तुझसे मुक्त हो लूँ, फिर चला जाऊँ जहाँ जाना होगा।” तो अब ये माया से कह रहा है, आ जा! माया छाया से कह रहा है, आ जा! पकड़ ज़रा माया छाया से! अब वो पकड़ में ही नहीं आ रही। अब डर के भगी।

जानने वाले यही बात पकड़ लेते हैं। उन्होंने देखा और पकड़ा। आ जाओ, बैठो। उन्होंने कहा, छाया इसलिए नहीं है मात्र कि तुम सूरज की तरफ़ जा रहे हो। छाया इसलिए है क्योंकि तुम सूरज की तरफ़ जा रहे हो अपने आप को बचाए हुए; तुम ‘तुम’ होते हुए जा रहे हो सूरज की ओर। तुम कुछ नहीं होकर जाओ सूरज की ओर, छाया कुछ नहीं।

ज़रा एक शीशे को, शीशे के एक टुकड़े को सूरज की ओर ले जाओ, फ़िर मुझे बताओ छाया कहाँ है? क्यों नहीं है छाया? क्यों नहीं है? क्योंकि वो कुछ नहीं हुआ, वो कुछ नहीं हुआ। अब छाया नहीं बनेगी। छाया इसलिए बनती है क्योंकि गति तो तुम्हारी है सूर्य की ओर लेकिन तुम सूर्य अभी हुए नहीं; तुम्हारे भीतर गहरा अंधेरा अभी बैठा हुआ है। तुम झाँकोगे इस तन के भीतर तो वहाँ क्या प्रकाश दिखेगा तुमको? ये बात मात्र भौतिक ही नहीं है, सांकेतिक भी है।

तन माने अंधेरा। सूरज की रोशनी पड़ तो रही है पर तुम पर बाहर-बाहर पड़ रही है और पड़ के छिटक जा रही है। तुम्हारे भीतर क्या भरा हुआ है? तुम्हारे भीतर जो अंधेरा भरा हुआ है वही पीछे तुम्हारी छाया के रूप में दिखाई देता है, समझो! और तुम जितने बड़े हो, तुम्हारी छाया उतनी बड़ी होगी। तुम जितने बड़े, तुम्हारे भीतर का अंधेरा उतना बड़ा। इसीलिए पीछे का अंधेरा, उतना ही बड़ा।

सूरज अंधेरे का कारण नहीं है, सूरज छाया का कारण नहीं है, छाया का कारण तुम हो। पर तुम बढ़ते रहो, बढ़ते रहो, बढ़ते रहो। माया, छाया का काम है तुम्हें पछियाना; वो तुम्हें पछियाती रहेंगी। उनसे मुक्त होने का कोई तरीका नहीं। उनसे मुक्त होने का एक ही तरीका है कि तुम सूर्य ही हो जाओ। वहाँ कोई छाया नहीं होती। पदार्थों की छाया होती है, प्रकाश की छाया नहीं होती। छाया प्रकाश के माहौल में देखी जाती है लेकिन होती पदार्थ की है। जहाँ पदार्थ है, वहाँ छाया है; प्रकाश नहीं है छाया का कारण।

समझ रहे हो बात को?

तुम बढ़ते जाओ। वो पीछे-पीछे लगी रहेगी। तुम ये मत सोचना कि तुम कुछ भी करके उसे संतुष्ट कर पाओगे। ये महा, महाभूल है। तुमने कर लिया ना सबकुछ जो तुम कर सकते थे संतुष्ट करने को? इसने क्या करा? ये रुका। वो हटी? ये बढ़ रहा था तो वो इसके पीछे लगी थी, ठीक! तो ये रुक गया, वो हटी? नहीं हटी।

इसने ये तक कर लिया कि इसने सूरत की तरफ़ जाना छोड़ दिया; इसने सूरज के प्रति अपनी निष्ठा छोड़ दी। इसने अपने कदम मोड़ लिए, ये छाया की तरफ़ बढ़ने लगा, वो क्या तब भी हटी? वो क्या तब भी तृप्त हुई? वो तो तब भी भूल-भुलैया, पकड़म-पकड़ाई ही खेलती रही। “आ! छू के दिखा मुझे! आ पकड़ के दिखा मुझे!”

तुम कुछ कर लो, उसे लगे रहना है क्योंकि शरीर हो तुम। जहाँ शरीर है वहाँ माया-छाया है। समझो बात को! तुम कुछ कर लो, उसे तुम्हारे साथ लगे रहना है। तुम सूरज की ओर मुँह कर लो, छाया होगी। तुम सूरज की ओर पीठ कर लो, छाया होगी। तुम कुछ कर लो। ये बात अच्छी है।

तुम कुकर्म करो, तुम सुकर्म करो, माया तुम्हें छोड़ने नहीं वाली। दोनों ही स्थितियों में जब वो तुम्हें छोड़ने ही नहीं वाली तो तुम्हारे लिए निर्णय आसान हो गया न! तुम उसे मना नहीं सकते, तुम उसे कभी तृप्त नहीं कर सकते।‌ माया का गला हमेशा सूखा रहता है, वो और, और, और माँगती रहती है तुम्हारा खून।

बहुत लोग हैं जो कहते हैं, हम माया से संधि-समझौता कुछ कर लेते हैं। उसकी माँगें मान लेते हैं। तुम उसकी माँगें मान भी लो तो भी वो तुम्हारा गला पकड़े ही रहेगी, वो प्यासी ही रहेगी। देखा नहीं, ये सूरज को छोड़ के छाया की ओर चल दिया तो भी छाया तो बनी ही रही। बनी ही नहीं रही, फिर वो इसको आँख-मिचौली करने लगी, दूर भागने लगी इससे। तो तुम माया को कभी तृप्त नहीं कर पाओगे। ये बढ़िया बात तुम्हें पकड़ में आ गई। तुमने कहा, ‘इसको न ऐसे तृप्त होना है और इसको न वैसे तृप्त होना है, तो मेरे लिए अब निर्णय करना आसान हो गया’।

मैं क्या निर्णय करूँ? ‘तू पड़ी रह! क्योंकि तू तो ऐसी हठी है कि तुझे तो तृप्त किया जा ही नहीं सकता। तू पड़ी रह! तेरा होना तो उसी दिन तय हो गया था जिस दिन मैंने शरीर धारण किया था। शरीर है, शरीर के भीतर अंधकार है, वही अंधकार बाहर दिखाई देता है। तो तू पड़ी रह! तू अपना काम कर, मैं अपना काम करूँगा। तेरा काम है मुझे पछियाना और मेरा काम है आगे बढ़ते जाना। तू लगी रह! मैं आगे बढ़ता जाऊँगा। एक दिन ऐसा आ जाएगा जब मैं और सूरज एक हो जाएँगे। फिर मुझे दिखा, छाया! तू कहाँ बची!’ और जब तक मैं और सूरज एक नहीं हुए तब तक छाया बनी रहेगी, तुम रोना-कलपना नहीं; न भाग्य की दुहाई देना।

कभी भूला मत करो कि मूल भूल तो उसी दिन हो गई थी जिस दिन तुम पैदा हुए थे। तो अब तुम्हें दुख मिल रहा है तो ये कोई अत्याचार नहीं हो रहा है तुम्हारे साथ; ये वही हो रहा है जो होना निश्चित था। कष्ट मिल रहा है?

मृत्यु देखनी पड़ रही है?

संताप झेल रहे हो?

तो इसमें कोई तुम्हारे मौलिक अधिकारों का हनन हो गया क्या? इसमें ऐसा क्या हो गया जो तुमको अनाचार लग रहा है? अन्याय कुछ नहीं है इसमें। यही होना है। यही होना तय है क्योंकि जीव पैदा हुए हो। जीव पैदा हुए हो, बुद्ध को भूलो मत – जीवन दुख है।

हाँ, जो जीव पैदा हुआ है उसके पास सूरज की संभावना ज़रूर है। वो बीज लेकर पैदा हुए हो; उस संभावना को साकार तुम करते हो या नहीं करते हो, तुम जानो। दुख तथ्य है, आनंद संभावना मात्र। मैं तुम्हें किसी धोखे में नहीं रखना चाहता। आनंद को बहुत लोग बताते हैं कि ‘देखिए, आनंद तो सत्य है। आनंद ही तो हमारा स्वभाव और स्वरूप है’।

अरे होगा! यहाँ कौन जी रहा है आनंद में? मुझे ज़मीनी हक़ीक़त दिखाओ, मुझे उससे मतलब है, आसमानी बातें नहीं। कौन जी रहा है भाई आनंद में? निकलो बाज़ार में और देखो कितने लोग आनंदित घूम रहे हैं और कितने ऊबे, चिड़चिड़े, द्वेष-राग, हिंसायुक्त? कितने आनंदित दिखते हैं? तो आनंद है हमारा तथ्य या चिढ़? और दुख और संताप? बोलो! कलह, क्लेष में जी रहे हैं हम, ऐसे जीव हैं।

दुख तो तय ही है। सूरज उपलब्ध मात्र है, उसे तुम पाते हो या नहीं पाते हो, ये तुम्हारा निर्णय है। और मैं उस निर्णय पर बहुत ज़ोर देता हूँ। एक ओर तो मैं ये कहता हूँ कि कुछ है जो बँधा हुआ है, जो तय है – उसका नाम है दुख। और दूसरी ओर मैं ये भी कहता हूँ कि तुम दुखी ही जियो और दुखी ही मर जाओ, ये आवश्यक नहीं है। संभावना खुली हुई है, वो देखो सूरज चमक रहा है और आमंत्रित कर रहा है। उस आमंत्रण को तुम स्वीकार करते हो या नहीं, ये तुम्हारा निर्णय है। तो निर्णय ज़रा ठीक से करो। बुद्धि सुबुद्धि रहे, संगत सुसंगत रहे, अन्यथा सारे निर्णय ऊँच-नीच हो जाएँगे।

आई बात समझ में?

तुम बढ़ते रहो, रुकना नहीं। शिकायतें करोगे जितनी ज़्यादा, उतना ज़्यादा समझ लो कि रुक करके उस पर ध्यान कर दिया। और ध्यान उस पर नहीं करना है, किस पर? छाया पर। ध्यान का विषय, ध्येय सदा सूर्य रहे। कुछ भी हाल हो, बढ़ते रहना है।

छाया बड़े झांसे देती है; वो कभी इतनी-सी हो जाती है और सूरज जब ठीक सर पर टंगा हो ऊपर, तो फिर वो विलुप्त भी हो जाती है, तुम्हें क्या लगेगा? “अरे! मिल गया छुटकारा, गई!” काल ज़रा बीतने दो, घड़ी ज़रा बीतने दो, फिर देखो क्या होता है। समय तुम्हारे सारे भ्रम तुम्हारे ही ऊपर पलट के मारेगा। घंटे भर बाद क्या पाओगे?‌ – आ गई!

और कभी-कभी ऐसा होता है कि वो छाया इतनी गहन हो जाती है कि तुम पर छा ही जाती है और फिर भी, तब भी तुम्हें ऐसा लग सकता है कि छाया मिट गई। उस स्थिति को तमसा कहते हैं, उसको रात्रि कहते हैं। रात में छाया होती है कहीं? रात में छाया नहीं होती। ये तामसिक आदमी की स्थिति है।

‘तम’ माने अंधेरा। इसीलिए तिमिर से बचने को कहा गया है। अंधेरे में छाया का पता नहीं चलता, यही तो गड़बड़ है। क्योंकि छाया अब सर्वव्यापक हो गई। अंधेरा अब चारों तरफ़ हो गया तो उसमें फिर वो छोटा सा व्यक्तिगत अंधेरा पता ही नहीं चलता। आदमी को लगता है, सब ठीक! अंधेरे में कोई दुहाई ही नहीं देता कष्ट की। तुम ऐसे बेहोश हो गए दर्द के मारे कि अब तुम दुख महसूस ही नहीं कर रहे, तुम कलप ही नहीं रहे।

जब तक थोड़ा सा प्राण था, थोड़ा सा होश था, तब तक तो तुम रोते भी थे कि, “कोई मुझे कष्ट से बचाए,” और फिर तुम बेहोश ही हो गए। अब तुम रोते भी नहीं हो कि मुझे कष्ट से बचाओ। अब तुम्हारे ऊपर जीवन की रात्रि उतर आई है। अब तुम्हारे ऊपर मन का अंधकार उतर आया है। ये माया है।

ये जो छाया है – ये कभी घटेगी, कभी बढ़ेगी; पचास तरह से तुम्हें झांसा देगी, तुम बच के रहना। भूलना मत कि तुम कुछ भी कर लो, जब तक शरीर है, वो मौजूद रहेगी। तुम तो एक काम करना, क्या? सूरज की तरफ़ बढ़ते रहना, तब भी जब वो सर के ऊपर हो, तब भी जब वो क्षितिज पर हो, और तब भी जब वो संसार के दूसरी तरफ़ हो और दिखाई न देता हो। तुम बढ़ते रहना उसकी ओर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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