माया क्या है? || सर्वसार उपनिषद् पर (2019)

Acharya Prashant

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माया क्या है? || सर्वसार उपनिषद् पर (2019)

आचार्य प्रशांत: आगे पूछा है कि, “माया क्या है?” माया क्या है; जितना कहा जाए कम है। इस बीच दो और व्याख्याएँ ऐसी आई हैं जो प्रश्नों में नहीं हैं पर महत्वपूर्ण हैं, तो उनकी चर्चा करेंगे।

एक है 'लिंग शरीर'। लिंग शरीर क्या है? ऋषि समझाते हैं कि,

“आत्मा की जो मायावी ग्रंथि है अनात्मा से, उसे कहते हैं हृदय-ग्रंथि, और उस ग्रंथि के कारण जो परिणाम उत्पन्न होता है उसको कहते हैं लिंग शरीर।“ वास्तव में जो आपका मानसिक जगत है, जो आपका सूक्ष्म शरीर है वही कहलाता है लिंग-शरीर। उपनिषद् को उद्धृत किए देते हैं- “मन आदि जो सूक्ष्म तत्व हैं, इनकी उपाधि सदैव आत्मा के साथ प्रतीत होती है, जिसे लिंग शरीर कहते हैं, वही हृदय की ग्रंथि है।“ -(सर्वसार उपनिषद्, श्लोक ७)

हृदय की ग्रंथि की चर्चा रमण महर्षि अक्सर किया करते थे। समझ में आ रही है बात?

हृदय की ग्रंथि कौन-सी ग्रंथि है? जहाँ पर सत्य से संसार उद्भूत हो जाता है। लोग पूछते हैं न, कि निराकार से साकार और निर्गुण से सगुण आ कैसे गया? तो उसी को दर्शाने के लिए हृदय ग्रंथि का सिद्धान्त दिया गया है। एक ग्रंथि है, जैसे एक गाँठ है, जहाँ जो निर्गुण है माने जो प्रकृति के पार है, वो सगुण से मिलता है। सगुण माने जिसमें प्रकृति के गुण आ गए। और जिस बिन्दु पर ये मिलन होता है, जहाँ गाँठ लगती है इन दोनों में, ग्रंथि माने गाँठ, जहाँ गाँठ लगती है इन दोनों में, दो अलग-अलग चीज़ों को गाँठ लगाकर बाँधा जाता है ना-उसको कहते हैं हृदय ग्रंथि।

और उस ग्रंथि के फलस्वरूप जो शरीर उत्पन्न होता है उसी को कहते हैं लिंग शरीर। तो लिंग शरीर आपका सूक्ष्म शरीर है, मन आदि। और फिर उस मन से आगे पूरे संसार का, जीव का, शरीर का सबका प्रक्षेपण हो जाता है।

इसी तरीके से एक और; जब ‘तत् त्वम् असि' बात हो रही है, “तत् त्वम् असि, श्वेतकेतु!” तो वहाँ पर शुद्धता को ध्यान में रखते हुए उपनिषद् के ऋषि हमें एक बात और स्पष्ट कर देते हैं। देखिए सत्य शुद्ध है, इसीलिए सत्य से संबंधित जितने वक्तव्य भी उपनिषदों में हैं उनमें शुद्धता का बहुत ध्यान रखा गया है। इसीलिए एक ही बात को बहुत-बहुत तरीकों से दोहराकर और भाँति-भाँति के उदाहरणों से समझाया गया है, ताकि आप उन बातों में अपनी ओर से कोई मेल-मिलावट, मिश्रण ना कर लें।

तो इसी तरीके से एक बार कह दिया कि 'तत् त्वम् असि' में 'तत्' परमात्मा है और 'त्वम्' प्रत्यगात्मा है, तो आगे बात को शुद्ध रखने के लिए एक चीज़ और जोड़ी; कहा कि, “सुनो! जो परब्रहम है उसके लिए कोई शब्द नहीं हो सकता, तो तुम उस तत् को भी आखिरी मत जान लेना,” क्योंकि हम ‘तत्’ को ब्रह्म ही समझते हैं। तो कहा, “लेकिन अब ये तो वो ब्रह्म हो गया ना जिसको तुमने नाम दे दिया? चूँकि इसको नाम दे दिया, तो इसके लिए इससे आगे भी कुछ होगा।“

जो भी चीज़ अब नामयुक्त हो गई, वो चीज़ अब उपाधियुक्त हो गई, वो चीज़ अब मानसिक हो गई; क्योंकि सब नाम मन से ही आते हैं, सब नाम मानसिक व्याख्याओं और स्मृतियों के अंतर्गत ही होते हैं। तो इसीलिए अगर तुम कहोगे कि ‘तत्’ ब्रह्म है, तो तुमने ब्रह्म को ज़रा गिरा दिया, क्योंकि तुमने ब्रह्म को नाम दे दिया; नाम ही नहीं दे दिया तुमने ब्रह्म की ओर इशारा कर दिया, तुमने बोल दिया ‘तत्’। हालाँकि बड़े आदर के साथ ये इशारा किया गया है, देखो ना संकेत में भी बस इतना कहा - तत्, दैट(वह), पूरा नाम भी नहीं लिया। लेकिन पूरा नाम न लेने के बावजूद सिर्फ़ ‘तत्' कह देने पर भी थोड़ी अशुद्धि आ गई। क्यों तुमने ‘तत्’ भी क्यों कह दिया, तुम्हें तो मौन हो जाना चाहिए था।

अगर तुम्हें ब्रह्म की बात करनी है तो सारी बात रोकनी होगी। अगर तुम्हें ब्रह्म की बात करनी है तो बात करने का एक ही तरीका है कि तुम ब्रह्म हो जाओ।

तुम 'तुम' रहकर 'ब्रह्म' की बात कर रहे हो तो तुमने ब्रह्म की बात नहीं करी, तुमने अपनी ही जैसी किसी चीज़ की बात कर दी। अब तुमने जिस ब्रह्म की बात करी वो ब्रह्म नहीं है, वो ब्रह्म से नीचे की कोई चीज़ है तुम्हारे ही जैसी। और अगर तुम कह रहे हो कि तुम ब्रह्म की बात कर सकते हो तो फिर तो तुम ही ब्रह्म हो। “ब्रह्मा वेद ब्रह्मौव भवति- जो ब्रह्म की बात कर सकता है वो तो खुद ही ब्रह्म होगा।“ और अगर तुम ब्रह्म हो तो बात क्यों कर रहे हो? इसका मतलब तुमने जो बात करी वो ब्रह्म की तो है नहीं। लेकिन तुमने अपनी बातचीत में 'ब्रह्म' शब्द का उपयोग कर दिया।

“तो अब हम ऐसा करते हैं कि 'ब्रह्म' शब्द तो तुमने दूषित कर दिया तो वास्तविक ब्रह्म को इंगित करने के लिए अब हम कहेंगे 'परब्रहम'। ठीक वैसे, जैसे वास्तविक आत्मा को इंगित करने के लिए हम कह रहे थे 'परम-आत्मा'। तो जैसे वहाँ कहा था परम-आत्मा, तो ऐसे ही अगर तुम ब्रह्म के साथ छेड़खानी करोगे तो हम कह देंगे परब्रहम।“

ये जो पूरा यहाँ प्रयास है वो एक ट्रान्सेंडेंस (श्रेष्ठता), आतीत्य बचाए रखने का है, कि “देखो, छुओ मत।“

बात समझ में आ रही है?

“तुम अगर उसे छूदोगे तो वो चीज़ असली नहीं रह गई, और अगर तुमने उसको छू लिया तो असली चीज़ को हम कोई और नाम दे देंगे। अगर तुम आत्मा को छू लोगे और आत्मा के बारे में सौ-तरह की बातें करने लगोगे कि, देवी! मेरी आत्मा तुमसे प्रेम करती है, ऐसे। तुम आत्मा के बारे में इस तरह की बात करोगे तो हम कहेंगे असली चीज़ फिर परमात्मा है। इसी तरह से अगर तुम ब्रह्म शब्द का दुरुपयोग करना शुरू कर दोगे तो फिर हम कह देंगे कि असली चीज़ परब्रहम है।“ ये पूरी कोशिश हो रही है उस परम सत्य की शुद्धता को बचाए रखने की। किसी तरीके से ऋषि चाहते हैं कि परम सत्य कहीं हमारा कोई मानसिक सिद्धान्त या कल्पित स्वप्न ना बनकर रह जाए, उसको वो सुदूर और अस्पर्शित ही रखना चाहते हैं, उसको वो हमारे मन से बहुत आगे का ही रखना चाहते हैं।

तो इसलिए फिर ऋषि 'तत् त्वम् असि' का उदाहरण लेने के बाद शिष्य को ये भी स्पष्ट कर देते हैं, कहते हैं, “देखो जो ‘तत्’ कहा गया है यहाँ पर वो असली नहीं है, असली तो 'परब्रहम' है।“ ताकि शिष्य कहीं इस गुमान में ना आ जाए कि अभी-अभी तो मैंने ब्रह्म को शब्दों में अभिव्यक्त कर दिया, “नहीं कर सकते भाई! और अगर अभी-अभी तुमने किया है, तो तुमने जिस चीज़ को किया है वो चीज़ ही कोई छोटी चीज़ होगी।“

माया। तो क्या कहते हैं ऋषि?

“जो अनादि है, विनष्टप्राय है, जो न सत् है और न असत्। जो स्वयं ही सबसे अधिक विकाररहित प्रतीत होती है तथा अन्य लक्षणो से शून्य है, उस शक्ति को ‘माया’ कहते हैं। उसका वर्णन किसी अन्य प्रकार से नहीं किया जा सकता।“ -(सर्वसार उपनिषद्, श्लोक १५)

“यह माया शक्ति तुच्छ, अज्ञान स्वरूप और मिथ्या है, परन्तु मूर्खों को यह सदैव वास्तविक प्रतीत होती है, इसलिए सुनिश्चित रूप से ‘यह कैसी है', यह बताना संभव नहीं है।“ -(सर्वसार उपनिषद्, श्लोक १५)

'यह कैसी है', ये बताना संभव नहीं है। फिर भी दो-चार बातें कह दीं हैं। अनादि है- कुछ पता नहीं लगेगा आई कहाँ से, कह नहीं सकते कहाँ से आई। कारण है क्यों नहीं पता लगता कहाँ से आई, समझना।

माया माने दु:ख, माया माने झंझट, उलझाव, है न? आप आमतौर पर जहाँ भी कहीं दुख या उलझाव देखते हैं, क्या आप ऐसा पाते हैं कि लोग ईमानदारी से उत्सुक हैं उन दुखों का उन्मूलन करने में, कि “ये दुख मिट जाए”? अगर लोगों को चुनाव दिया जाए, कि आपको दुख मिटाना है या ये पता करना है कि आपको दुख देने वाला कौन है, तो आपकी अधिक रुचि किसमें है?

मैं आपसे पूछूँ, “अभी आपको कोई पीछे से पत्थर मार कर भाग गया, आपकी पीठ में दर्द हो रहा है, भाई! तत्काल एक लेप लगा करके मैं आपका दर्द मिटा सकता हूँ।“ और, “भाई! मैं आपको बता सकता हूँ आपको पत्थर किसने मारा था, लेकिन उसके लिए आपको लेप वगैरह छोडकर मेरे साथ भागना होगा, उसका पीछा करना होगा।“ अधिकांश लोग किसमें रुचि दिखाते हैं? “नहीं, पता तो चले मारा किसने है? दर्द का इंतज़ाम बाद में कर लेंगें।“

ऋषि की दृष्टि उल्टी होती है, वो कहता है, “कारण नहीं जानना।“ आदि माने उद्गम- कहाँ से आया। कहते हैं, ”माया कहाँ से आई नहीं जानना। माया अनादि होगी, अनंत तो नहीं है न?”

सत्य में और माया में यही अंतर है, अनादि दोनों हैं, लेकिन सत्य अनंत है और माया सांत है, माया का अंत लाया जा सकता है।

ऋषि की दृष्टि माया का आदि जानने में नहीं है, माया का अंत करने में है। और जो माया का आदि जानने को उत्सुक हो गया वो माया का अंत कर ही नहीं पाएगा, क्योंकि उसकी दृष्टि अंत की ओर है ही नहीं। ऋषि तो ये पूछता है कि बताओ खत्म कैसे करें? क्योंकि माया कार्य-कारण की प्रक्रिया का दूसरा नाम है। माया का अर्थ ही है श्रम और परिणाम; मूल और फल; कर्ता और भोक्ता; किया और पाया। तो जो ये जानने में उलझ गया कि ये जो अभी मुझे परिणाम मिला है किसी चीज़ का वो चीज़ क्या है, वो वास्तव में परिणाम की प्रक्रिया का अंत नहीं कर रहा, वो परिणाम की प्रक्रिया में और उलझ रहा है न?

भई, माया ने ही आपको परिणाम दिया, और माया है क्या? कार्य और परिणाम की श्रृंखला का ही नाम माया है। उस परिणाम के वशीभूत होकर या उस परिणाम से आवेश में आकर आप अगर इसी बात में उत्सुक हो गए कि ये सब आ कहाँ से रहा है- मुझे पीछे-पीछे और जाना है, तो आप पीछे जाने की प्रक्रिया में माया से मुक्त नहीं हो रहे, माया में और आप रुचि दर्शा रहे हैं।

“अच्छा! ये कहाँ से आया, फिर वो कहाँ से आया, फिर वो कहाँ से आया?”- ये मुक्ति का रास्ता नहीं है; क्योंकि वैसे भी जो ये कार्य-कारण की श्रृंखला है ये अनंत कड़ियों की है, आप कितना पीछे जाएँगे? और जितना आप पीछे जाएँगे, उतना आपकी पीछे जाने में रुचि या तो बढ़ती जाएगी या आप थकते जाएँगे। आप अगर थकते भी जा रहे हो तो ये सत्य के प्रति आपकी अरुचि का द्योतक हो गया, मतलब आप माया में फँस गए; और अगर आप बढ़ते जा रहे हो तो ये माया के प्रति आपकी रुचि का द्योतक हो गया, मतलब आप माया में फँस गए। दोनों ही स्थितियों में माया का आदि तलाशना सत्य की ओर बढ़ने वाला कदम नहीं है।

तो इसीलिए उपनिषद् और वेदान्त ये नहीं कहते कि वो आपको सब दुखों के कारण का ज्ञान दिला देंगे। ज्ञान से क्या हो जाएगा? वो कहते हैं कि वो सब दुखों का निवारण कर देंगे। 'नेति-नेति' की प्रक्रिया में ज्ञान नहीं अर्जित किया जाता माया या मिथ्या या मिथ्या पदार्थों के विषय में, 'नेति-नेति' की प्रक्रिया में वैराग्य अर्जित किया जाता है।

किसी विषय के बारे में ज्ञान अर्जित करना, आवयशक नहीं है कि उस विषय से मुक्ति दिला देगा; उस विषय से मुक्ति होती है उसके बारे में ज्ञान नहीं अपितु वैराग्य अर्जित करके। अगर ज्ञान उस विषय के बारे में अर्जित भी करना है तो इस दृष्टि के साथ करना होता है कि यह ज्ञान मुझे मुक्ति कैसे दिलाएगा।

दो तरह का ज्ञान होता है – एक, आप विषय के बारे में जानते हो ताकि आप विषय में और लिप्त हो जाओ, दूसरा, आप विषय के बारे में जानते हो ताकि आप विषय से मुक्त हो जाओ। लिप्तता हेतु है या मुक्तता हेतु, आपकी दृष्टि का ये अंतर ही सबकुछ निर्धारित कर देता है।

समझ में आ रही है बात?

तो माया अनादि है। कहाँ से आई, मत पूछो। जब तुम कहते हो, “कहीं से तो आई होगी,” तो देखो न तुमने क्या स्वीकार कर लिया, तुमने ये स्वीकार कर लिया कि “है तो।“

दो घूम रहे हैं; एक तो शराबी है, एक शराबी है और उसको चीज़ें दिखाई पड़ रही हैं। कभी वो कहता है, “मेरे हाथ में अठारह अंगुलियाँ है,” उसको दिखाई पड़ रही हैं, उसको बहुत सारी चीज़ें दिखाई पड़ रही हैं। तो वो दूसरे से पूछता है, “ये सामने से अभी बिल्ली गुज़री, कहाँ से आई?” गुज़रा कुछ नहीं है, यूँ ही बस हवा, छाया। पर भई, जब नशा चढ़ा हो तो कुछ भी प्रतीत हो सकता है न? तो ये साहब कह रहे हैं, “कहाँ से आई?” और दूसरा कह रहा है, “मैं इसके स्रोत का पता लगाकर आता हूँ कि आई कहाँ से।“ तो शराबी एक है या दो यहाँ पर? बोलो?

जो है ही नहीं अगर तुम उसके आदि का पता करने निकल पड़े तो तुम भी ये मान रहे हो न, कि 'है तो'? है ही नहीं। माया का आदि क्या खोजना, बस ये जान लो कि जो नहीं है उसको माया कहते हैं। जो नहीं है उसको माया कहते हैं तो उसका अंत हो गया न, अब उसका आदि क्या खोज रहे हो?

समझ में आ रही है बात?

जितना ज़्यादा तुम उसका आदि खोजने चलोगे, उतना तुम उसमें लिप्त होते जाओगे; वो है ही नहीं।

जितना ज़्यादा तुम कहते हो कि मुझे पता लगाना है कि ये घटना घटी कैसे, उतना ज़्यादा तुम अपनी हस्ती को मान्यता दे रहे हो न? क्योंकि वो घटना किसके साथ घटी है? तुम्हारे साथ। उस घटना के होने का प्रमाणकर्ता कौन है? तुम। तो जब तुम कहते हो, “मैं उस घटना के बारे में कुछ पता लगा रहा हूँ; कोई घटना थी तो ज़रूर,” तो तुम वास्तव में ये कह रहे हो, “मैं हूँ तो ज़रूर।“ ये अहं की रक्षा के लिए तुम काम कर रहे हो।

कुछ हुआ, और तुम कह रहे हो, “मुझे पता करना है कि मुझे जो अनुभव हुआ वो क्यों हुआ?” तो तुम ये थोड़े ही कह रहे हो कि मैं पता करूँ कि जिसे अनुभव हुआ वो कहीं नकली या बेहोश या नशेड़ी तो नहीं है? ये तो तुम पूछना ही नहीं चाह रहे। तुम कह रहे हो, “नहीं, जिसे अनुभव हुआ वो तो सीधा, सच्चा, सही आदमी है। वो ठीक है, मुझे अनुभव के बारे में पता करना है।“ ये कहकर के तुम खुद को ज़बरदस्ती मान्यता दे रहे हो न?

समझ में आ रहा है?

तो इसीलिए माया अनादि है। “कहाँ से आई”, अगर ये पूछना ही है तो बस इतना कह दो, “मेरी बेहोशी से आई।“ माया कहाँ से आई? माया का आदि क्या है? “मेरी बेहोशी। ब्रह्म ने भी नहीं भेजी, मेरी बेहोशी ने भेजी, मेरा चुनाव है माया। मैं होश भी चुन सकता था, मैं नशा भी चुन सकता था। मैं ज्ञान भी चुन सकता था, मैं अज्ञान भी चुन सकता था। मैं जागृति भी चुन सकता था, और मैं स्वप्न भी चुन सकता था; मैंने चुना है नशे को, मद मेरा चुनाव है।“

सत् की जगह मद को चुनना- ये माया है।

“माया कहाँ से आई? मेरे चुनाव से आई। मैं कहाँ से आया? मैं ख़ुद अपना चुनाव हूँ।“

“मैं हूँ”, ये कहने का भी चुनाव या निर्णय किसका है? मेरे होने का भी प्रमाण कौन है मेरे अलावा? आप कहेंगे, “नहीं, वो सामने बैठा हुआ है वो भी मानता है कि मैं हूँ।“ वो जो सामने बैठा है वो भी 'है', ये कौन मानता है? ये तो तुम ही मानते हो न? तो इस बात का प्रमाण क्या है कि तुम हो भी, और तुम्हारी पूरी दुनिया है भी, और तुम्हें जितने अनुभव हो रहे हैं वो हो भी रहे हैं? तुम्हारे अलावा कौन प्रमाण है?

माया का स्रोत अगर पता करना है तो कह दो, “मैं ही हूँ माया का स्रोत, मेरी मूर्खताएँ।“ तो इसीलिए ऋषि कह रहें है कि पामरों को, पामर माने- मूढ़ पुरुष; कि, “पामरों को माने मूढ़ों को ये माया हर समय असली ही प्रतीत होती है। इसीलिए हे शिष्य! मैं तुम्हें इसके बारे में क्या बताऊँ? जो चीज़ पूरी दुनिया को असली लग रही हो, उसको माया कहते हैं।“ और ऋषि ने यहाँ बहुत सामाजिक शालीनता की परवाह भी नहीं करी है, सीधे कह दिया है- पामर। कह दिए, “माया है किसके लिए? तुम पूछ रहे हो माया कहाँ से आई, मैं कह रहा हूँ जो पामर है उसी के लिए माया है; है ही नहीं, हम चर्चा क्या करें उसकी?”

जैसे कोई सुबह-सुबह तुम्हारे पास उठकर आए और कहे, “वो जो अभी दो घंटे पहले मुझे तीन पूँछ वाला बंदर दिखाई दे रहा था, बताओ कहाँ से आया?” सो रहा था, सो-कर उठकर आया, बोल रहा है, “ वो अभी थोड़ी देर पहले मैं तीन पूँछ वाला बंदर देख रहा था, बताओ वो कहाँ से आया?” और तुम भी उसी के समान उत्सुक हो जाओ वो तीन पूँछ वाले बंदर की तहक़ीक़ात करने में, तो एक नहीं, दो पामर हैं।

समझ में आ रही है बात?

खूब चलता है ये इस दुनिया में। एक आएगा और वो कोई मायावी, मिथ्या फूल खिला देगा अचानक, और दूसरे को उसकी खुशबू भी आने लगेगी। दूसरा कहेगा, “मैं बता रहा हूँ न, मुझे भी खुशबू आई।“

पूरब में ऐसे कहते हैं, कि मामा-भांजा चले आ रहे थे एक, और दोनों को शौक था फेंकने का। और यथा मामा तथा भांजा, खून का रिश्ता है। अब चले जा रहे हैं दूर कहीं, गंगा से करीब दो-सौ मील दूर हैं। मामा बोलते हैं, “सुनाई पड़ रहा है मुझे, बारिश खूब हो रही है, और गंगा में बाढ़ आई हुई है।“ भांजा क्यूँ पीछे रहे, भांजा बोला, “हाँ मामा, अभी कुछ छींटे भी पड़े हैं।“ एक ने हवा बनाई, दूसरे ने बात फैलाई; एक ने सिद्धान्त खड़ा किया, दूसरा उस सिद्धान्त के पक्ष में प्रमाण भी ले आया।

जैसे कि कुछ विचारधाराएँ हैं जो यूरोप में जन्मीं हैं, पर हमारे बुद्धिजीवी और विचारक लोग उनके प्रमाण भारत में आविष्कृत कर लेते हैं। वो कहते हैं, “देखो, अभी भारत में जो कुछ हो रहा है ये बिलकुल वही हो रहा है जो दो-सौ साल पहले यूरोप में हो रहा था।“ ये है झूठा फूल खिलाना और फिर उसकी खुशबू में खुद ही मदमस्त हो जाना; ये माया है। ये कहाँ से आती है? ये तुम्हारे नशे से आती है। तो इसलिए ये अनादि है, अनादि क्यों? यही क्यों नहीं कह देते कि इसका स्रोत है आदमी का नशा? यही क्यों नहीं कह देते कि माया का स्रोत 'मैं' है? कहो?

क्योंकि चीज़ भले ही झूठी हो, उसका स्रोत जब बताओ तो स्रोत तो कम से कम असली हो बाबा! माया चीज़ नकली है, उसका स्रोत भी 'मैं' है, जो कि नकली है, तो क्या स्रोत बताएँ? एक नकली चीज़ का दूसरा नकली स्रोत। एक नकली सिद्धान्त का दूसरा नकली प्रमाण। तो कौन किसका स्रोत है क्या बताएँ? तो इसीलिए उसको कह देते हैं, “अनादि है।“ पर अंत हो सकता है उसका।

सपना कहाँ से आया कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन झँझोड़-कर जगा दें तो? अंत हो सकता है उसका, विनष्टप्राय है, क्योंकि सपना तो सपना है, टूटता है; विनष्टप्राय है माया। लुभावनी लगे, कि डरावनी, एक बात पक्की है- बीतेगी। न सत् है न असत्; मज़ेदार बात ये है कि यही बात ब्रह्म के लिए और सत्य के लिए भी कही जाती है, कि वो न सत् हैं न असत्। पूछो क्यों? माया को क्यों कहते हैं ‘न सत् है न असत्'? क्योंकि ‘सत् है' कहा, या ‘असत है' कहा, दोनों ही स्थितियों में ‘है' कहा; दोनों ही स्थितियों में मान लिया कि ‘है तो’। कहा, “असत् ‘है'।“ अरे क्यों उसको इतनी प्रतिष्ठा दें कि उसको कहें कि ‘है'? जो है ही नहीं, उसको माया कहते हैं, तो क्या सत् क्या असत्?

“या मा, सा माया।“ ‘मा’ माने - ‘नहीं’। जो नहीं है उसको कहते हैं माया; जो न होते हुए भी अपने होने का अनुभव करा जाए, उस अलबेली को कहते हैं माया। जो सब विकारों का कारण है लेकिन सबसे अधिक विकाररहित प्रतीत होती है, वो माया है।

जिन्होंने संसार के अनुभव चखे हैं, उन्हें जैसे कुछ बातें याद आ रही होंगी अपने पुराने अनुभवों के बारे में; कि जो चीज़ें बाद में सबसे ज़्यादा दोषपूर्ण और विकारपूर्ण नज़र आईं, वो आरंभ में उतनी ही निर्दोष और निर्विकार लगती थीं न? ये दोषमुक्त से दोषयुक्त कैसे हो गया मामला, और वो भी कई बार बस दो-महीने के अंदर-अंदर? कैसे हो जाता है, कि जो चीज़ पहले प्राणों से प्यारी लगती थी, वो चीज़ कुछ दिनों बाद प्राणों की प्यासी लगती है; ये कैसे हो जाता है?

तो ऋषि महाराज ने कई हज़ार साल पहले ही कह दिया था कि जो सब विकारों का मूल होते हुए भी बड़ी विकाररहित मालूम हो, कि, “इसमें तो कोई कमी ही नहीं, कोई दोष नहीं, आहाहा! क्या निष्पाप, निश्छल सत्यता और सौंदर्य है,” उसी को कहते हैं माया।

आगे कुछ कहते नहीं, श्लोक का अंत जानते हो कैसे होता है? “वक्तुम न शक्यते।“ शक्य माने – संभव; कि “बेटा! बता पाना संभव नहीं है, या तो स्वाद चखो या इससे मुक्त हो जाओ, यही दो तरीके हैं। बातचीत से नहीं होगा। ज़्यादा पूछोगे तो किसी भी जानने वाले का जवाब यही होगा, क्या? ‘वक्तुम न शक्यते'। नहीं बता सकते भाई! या तो समझ जाओ जितना बोल दिया उतने में, नहीं तो....।“

तो ये, बड़ी सांकेतिक बात है कि पूरे उपनिषद् का आखिरी प्रश्न था। हालांकि माया पर ऋषि रुकते नहीं हैं; शिष्य का आखिरी प्रश्न यही है, “माया क्या है?” ऋषि वहाँ रुकते नहीं हैं, ऋषि आगे कुछ और भी बातें कहते हैं। क्या कहते हैं ऋषि, हम सुनेंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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