मात्र उनके लिए जो ऊँचा उठना चाहते हों

Acharya Prashant

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मात्र उनके लिए जो ऊँचा उठना चाहते हों

आचार्य प्रशांत: पूरे अस्तित्व की जहाँ से शुरुआत होती है। इस दुनिया में ही जो बिल्कुल प्रथम बिंदु है, ये याद रखना है कि उनसे भी श्रेष्ठ कोई है। तो पहले तो मन को ऊँचा-ऊँचा-ऊँचा, और ऊँचा, और ऊँचा उठाओ, अधिकतम और उच्चतम, जहाँ तक मन को ले जा सकते हो, ले जाओ और फिर अपने-आपको याद दिलाओ कि अब जब यहाँ पर आकर मैं ठहर गया इसके पार जो है वो सत्य है। सत्य मन की उड़ान या मन की ऊँची कल्पना में नहीं है। उच्चतम कल्पना, उच्चतम सिद्धांत, उच्चतम शब्द जहाँ पर जा करके रुक-सा जाता है, उसके पार जो है वो सत्य है। और इसीलिए सत्य उनको नहीं मिल सकता जो इस संसार में उच्चतम के अभिलाषी न हो। कारण मनोवैज्ञानिक है: अगर आप संसार में ही कुछ ऊँचा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं तो आपकी आशा ये बंधी रहती है कि अभी थोड़ा कुछ और ऊँचा मिल जाएगा और उसमें तृप्ति हो जानी है। "अभी तो यहाँ ही जो मिलना है मैं वही नहीं हासिल कर पाया तो यहाँ जो मिलना है उसको हासिल करता हूँ और उसकी उपलब्धि से ऐसा लगता है कि मैं तृप्त हो जाऊँगा।"

सत्य उनके लिए है, मुक्ति उनके लिए है जो बड़ी ऊँचाइयाँ हासिल करें दुनिया में और उन ऊँचाइयों के बाद उनको दिखाई दे कि यहाँ नहीं है। इसका अर्थ ये नहीं है कि जीवन के हर क्षेत्र में आपको अग्रणी या प्रथम स्थान पर होना चाहिए। इसका अर्थ ये है कि जीवन में कहीं पर तो आपने उत्कृष्टता हासिल करी हों, कहीं पर तो आपकी उपलब्धि बेजोड़ हो और तब आपको पता चलता है कि आपकी उच्चतम उत्कृष्टता और ऊँची उपलब्धि के क्षण में भी, भीतर कुछ खाली रह गया है। तब आप समझते हो कि वो जो चीज़ है जो मुझे चाहिए वो इसके पार की है, ये वो नहीं है। समझ में आ रही है बात?

ब्रह्मा या हिरण्यगर्भ का संबंध पार से नहीं है, वो इसी संसार के हिस्से हैं। इस संसार के कौन-से हिस्से हैं वो? उच्चतम। जो इस संसार का उच्चतम बिंदु है, जहाँ से समझ लो ये पूरा संसार टपक पड़ा है, एक बूंद थी और उससे फिर सारा संसार ही बिल्कुल बाढ़ की तरह खुल बैठा, वो हिरण्यगर्भ है। संसार का सबसे ऊँचा बिंदु, तुमने वो भी पा लिया उसके पार है सत्य। तो कुछ तो श्रेष्ठ अर्जित करना पड़ेगा, कहीं तो उपलब्धि प्रदर्शित करनी पड़ेगी और जीवन के हर क्षेत्र में अगर तुम उपलब्धिहीन ही हो तो फिर तो अभी संसार तुम पर बहुत हावी रहेगा, संसार तुमको बड़ा आकर्षित करेगा। कोई चीज़ जब तक मूल्यवान लग रही हो, छोड़ी नहीं जाएगी। कोई चीज़ जब तक मिल ही न रही हो तब तक उसका मूल्य तुम्हारी नज़र में ऊँचा ही रहेगा और होना भी चाहिए क्योंकि अभी तो तुम इतने भी ऊँचे नहीं हो कि दुनिया को ही पूरा पा सको, तुम दुनिया के पार वाले को क्या पाओगे?

दुनिया के पार जाने के लिए पहले दुनिया को तो पार लगाना पड़ता है न? अभी तो तुम्हारी दुनिया को ही लांघने की हैसियत नहीं हो रही है। दुनिया के भीतर ही तुम ठीक से कुलांचे नहीं मार पा रहे, तुम पार क्या निकलोगे? तो जो दुनिया के भीतर ही अभी फिसड्डी बनकर बैठे हों, अध्यात्म उनको जमता नहीं है। उन्हें बात ही नहीं समझ में आती। जब उनके सामने पार की बात होती है तो वो रोमांचित नहीं हो जाते, उनका लहू और गर्म नहीं हो जाता, दिल और ज़्यादा उत्तेजित होकर धड़कनें नहीं लगता। उनके सामने जब अध्यात्म की बात होती है तो उनको नींद आने लग जाती है। वो कहते हैं "पता नहीं क्या बातें हो रही हैं? इस दुनिया में तो हम फिसड्डी हैं, आप कह रहे हो दुनिया के पार निकल जाना है! दुनिया से भी श्रेष्ठ कुछ है। अरे! पहले हम दुनिया के तो काबिल बन जाए" और हमें उनसे फिर सहानुभूति रखनी पड़ेगी। वो ठीक ही कह रहे हैं। कुछ समझ में आ रही है बात?

अगर ब्रह्मा, इस दुनिया के रचयिता हैं और हिरण्यगर्भ वो प्रथम बिंदु है जिसके माध्यम से इस दुनिया की रचना हुई तो वो भी फिर दुनिया के हिस्से ही हो गए, उनके पार जाना है। ब्रह्म और ब्रह्मा की कोई तुलना नहीं। और ब्रह्मांड और ब्रह्मा एक ही आयाम में हो गए। माने चीज़ का जो रचयिता है वो चीज़ के आयाम में ही होता है। तो अगर इस संसार को रचने वाला कोई हो गया तो वो संसार के ही आयाम में ही हो गया। संसार के पार जो होगा वो फिर संसार का रचनाकार भी नहीं हो सकता। वो रचनाकार भी नहीं है।

देखो! साक्षी होने में और रचनाकार होने में बहुत अंतर है। साक्षी तो रचना कभी नहीं करता या करता है? भारतीय दर्शन इस मामले में बेजोड़ है। यहाँ साक्षी समझा गया, रचनाकार नहीं, क्रिएटर नहीं *विटनेस*। ये नहीं कहा गया कि परम वो है जो दुनिया को बनाता है। दुनिया को तो माना गया साफ-साफ कि दुनिया उसने नहीं हमने और आपने बनाई है। प्रतिपल हम और आप हैं जो दुनिया को अपने मन और इंद्रियों से प्रक्षेपित कर रहे हैं तो दुनिया परम सत्ता ने नहीं बनाई है। परम सत्ता ने कुछ नहीं करा है, परम सत्ता तो स्वयं में संपूर्ण, अद्वैत, प्रथम और आख़िरी और एकमात्र और केवल है। वो वहाँ बैठ कर के कोई निर्माण नहीं कर रहा है कि पहले मैं बैठकर के आदमी बनाऊँगा फिर औरत बनाऊँगा फिर झील बनाऊँगा, फिर तालाब बनाऊँगा, हूरें बनाऊँगा, ये बनाऊँगा। ना ना ना! कोई मतलब ही नहीं है उसको कुछ बनाने से। कुछ कभी बना ही नहीं है। जिनको लगता है कि कुछ बना हुआ है वो अभी माया में फँसे हैं। इसीलिए अद्वैतवाद को मायावाद भी कहा गया और खासतौर पर जो लोग अद्वैतवाद को समझ नहीं पाते और अद्वैतवाद से किसी प्रकार की रंजिश रखते हैं वो उसको मायावाद कह करके चिढ़ाते हैं। कहते हैं कि ये तो मायावादी हैं।

ये बात समझ में आ रही है? यहाँ किसी तरह की रचना की कोई संभावना नहीं है और परमात्मा की रचना करने में कोई रुचि नहीं है। रचनाकार कौन है? हम और आप। और प्रमाण इसका ये है कि आपकी दुनिया अलग और मेरी दुनिया अलग। अगर किसी एक दुनिया को, किसी एक ऊपर वाले ने रचा होता तो वो हम सबके लिए समान होती न? आपकी दुनिया अलग, मेरी दुनिया अलग, खरगोश की दुनिया अलग, कुत्ते की दुनिया अलग और आपकी भी दुनिया जो इस पल है वो अगले पल नहीं रहेगी, ये तो दुनिया ही अनंत हैं और प्रतिपल बदल रही हैं। कोई एक दुनिया ही नहीं है तो रची किसने? ज़रूर हम ही ने रची है। ये तो हमारे ही मन का विस्तार है। हमारा ही फैलाव है बस। समझ में आ रही है कुछ बात?

तो इस फैलाव के पार जाना है और चाहे हिरण्यगर्भ हो, चाहे ब्रह्मा हो, हैं तो वो इसी फैलाव के हिस्से, तो इसीलिए सत्य ब्रह्मा और हिरण्यगर्भ दोनों से श्रेष्ठ होगा। ब्रह्मा को प्रतिनिधि मान लो संसार की भी जो उच्चतम अवस्था है और संसार से भी जो ऊँचे-से-ऊँचा और बढ़िया-से-बढ़िया तुम्हें सुख मिल सकता है।

अगर जगत को बनाने वाले ब्रह्मा हैं, तो सत्य ब्रह्मा से बहुत ऊँचा है। है तो वो अनंत व्यापक, अनंतता है उसकी, कभी ख़त्म नहीं होता। कौन जा कर सीमा लगाएगा उस पर? लेकिन फिर भी प्राणी जितने हैं उन सब में विद्यमान है। प्राणी में वो विद्यमान है इसका अर्थ क्या है? प्राणियों में विद्यमान है, प्राणियों की आख़िरी संभावना के रूप में। वो प्राणियों में ऐसे नहीं विद्यमान है कि भीतर कोई बैटरी लगी हुई है या चिप किसी ने आ करके फिट कर दी है। हर प्राणी की उच्चतम संभावना परमात्मा ही है और चूँकि कोई भी प्राणी अपनी उच्चतम संभावना पर पाया नहीं जाता इसीलिए हर प्राणी तड़प रहा है और जो प्राणी अपनी उच्चतम संभावना पर पहुँच गया, वो परमात्मा ही हो जाता है, ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति। समझ में आ रही है बात?

वो तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है एक बुलावा बन के। वो तुम्हारे भीतर बैठा है एक शाश्वत आमंत्रण के रूप में कि "आओ उठो! तुम ऐसे हो सकते हो। ये क्या जीवन बिता रहे हो तुम?" वो तुम्हारे भीतर ऐसे नहीं बैठा है कि बाहर जैसी दुनिया तुम्हारी चल रही है धूल-कीचड़ में लिपटी हुई, अज्ञान में सनी हुई वो बाहर-बाहर चलती रहे और भीतर तुम्हारे परमात्मा विराजा हुआ है और तुम कहो आ हा हा! मेरे हृदय में तो परमात्मा बसता है। नहीं ऐसे नहीं।

तुम्हारी ज़िंदगी अगर ख़राब चल रही है तो परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है उस ख़राबी की तड़प के रूप में। मुझे बताओ तुम्हें ख़राबी बुरी क्यों लगती है अगर ख़राब होना ही तुम्हारा स्वभाव होता? बताओ मुझे? बोलो। ज़िंदगी बिल्कुल निम्नस्तरीय चल रही है, बिल्कुल घटिया—अगर किसी निम्नस्तरीय चीज़ से ही तुम्हें तृप्ति मिल सकती तो किसी को भी एक निचला, छिछला, उथला जीवन जीने में क्या आपत्ति होती? लोगों के भीतर आकांक्षा, महत्वाकांक्षा, कामना उठती ही क्यों? कामना की मौजूदगी ही इस बात का प्रमाण है कि तुम जैसे हो वैसे होना तुम्हीं को स्वीकार नहीं है।

लोग कहते हैं प्रमाण क्या है कि जगत के पार कुछ है? प्रमाण ये है कि जगत में तुम को चैन और राहत तो मिलते नहीं। तुम प्रमाण हो और क्या प्रमाण चाहिए? बात खत्म! एक से बढ़कर एक नास्तिक आते हैं। कहते हैं "क्या प्रमाण है ईश्वर का?" मैं कहता हूँ तुम हैप्पी हो? तुम संतुष्ट हो? सेटिस्फाइड हो? “नहीं!" तो बस यही प्रमाण है। बताओ तुम्हें क्या लाकर दे दें कि तुम हो जाओगे संतुष्ट? ये लाकर दे दो, वो लाकर दे दो। थोड़ी-सी भी बुद्धि होगा तो कहेगा “कुछ भी ले आकर दे दो; रहूँगा तो मैं ऐसा ही, खुद से रूठा हुआ।" यही प्रमाण है कि जगत के पार कुछ है और वही चाहिए तुमको इसीलिए तो तुम परेशान हो, पागल! समझ मैं आ रही है बात?

तो ये भी बड़ी भ्रांति है कि हम सबके भीतर क्या बैठी हुई है? आत्मा बैठी हुई है इत्यादि, इत्यादि। नहीं, आत्मा नहीं बैठी है तुम्हारे भीतर। तुम्हारे भीतर कुछ नहीं बैठा है। तुम्हारे भीतर वही है जो तुम्हारे बाहर है, क्या? यही सब माँस, खाल, कोशिकाएँ, तंतु, मिट्टी, जिससे उठा भोजन जो भीतर गया, हड्डी बन गया, माँस बन गया। यही सब है, अंदर भी यही है। आत्मा कहीं नहीं है अंदर। हाँ, भीतर एक तड़प है। वो तड़प प्रतिनिधि है परमात्मा की। परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है, उस तड़प के माध्यम से और वो तड़प तुमसे बार-बार कह रही है: उठो! उठो! उठो! और तुम इतना उठ सकते हो कि परमात्मा सदृश ही हो जाओ, उसी के जैसे हो जाओ। ये तुम्हें मिली हुई है काबिलियत। यही जीवन का लक्ष्य है कि उस संभावना को तुम साकार कर सको। समझ में आ रही है बात?

तो अब आगे से कभी सुनना कि हर नर में नारायण होता है, जीव में ही ईश्वर है और कण-कण में राम बसता है तो उस बात का असली मतलब समझना। क्या है उसका असली मतलब? कि जो भी चीज़ जैसी है वैसा होने से वो संतुष्ट नहीं है, वैसा होना उसकी नियति नहीं है। जब एकमात्र यथार्थ ब्रह्म है तो जो कुछ भी है चैतन्य, उसे ब्रह्म ही होना है और ब्रह्म से अलग या ब्रह्म से नीचे अगर वो कुछ बनी बैठी है तो तुम उसके जीवन में अशांति पाओगे।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने कहा कि जिसने संसार में ऊँची उपलब्धि प्राप्त कर ली, वही सत्य की ओर अग्रसर होने का इरादा रखता है, इसे हम कैसे समझें?

आचार्य: नहीं, इसमें ऐसा कोई नियम नहीं है कि फलानी उपलब्धि ही ऊँची-से-ऊँची कही जाएगी। उपलब्धि से ज़्यादा अच्छा शब्द इस संदर्भ में है उत्कृष्टता। कुछ तो ऐसा करो जो तुमने जान लगाकर करा हो। किसी चीज़ को तो जी-तोड़ तरीके से करो न। कोई उपलब्धि तो ऐसी हो जो तुमने दिल से चाही थी, पा भी ली और फिर जो अनुभव हुआ वो बहुत बातें बता गया। कुछ ऐसा नहीं है कि ऊँची-से-ऊँची उपलब्धि का मतलब है कि कम-से-कम इतने रुपए तो कमाओ हीं या दुनिया की राजनीति में कम-से-कम इतना स्थान तो तुम पाओ हीं, वो नहीं है।

उसका अर्थ सब्जेक्टिव है, तुमसे संबंधित है। तुम्हें कोई ऐसा अनुभव होना चाहिए जिसमें तुमने कुछ अर्जित करना चाहा, जिस वस्तु को तुम अर्जित करना चाह रहे हो उससे तुमने बहुत आशा रखी, जो जीतना था उसको जीता भी, एक नहीं, दो बार-चार बार जीता और उस अनुभव ने ही तुम्हें सिखाया कि इस तरह की जीतें, न अभी दे पायी कुछ, न आगे दे पाएंगी। कुछ निश्चित रूप से हम ये नहीं कह रहे हैं कि तुम सारा जीवन उपलब्धियाँ ही पाने में लगा दो कि जब तक मैं इतनी उपलब्धियाँ नहीं पाऊँगा, तब तक मैं पार कैसे जाऊँगा।

बिल्कुल सही सवाल है कि अगर उपलब्धियों की ही कतार लगाकर कोई पार जाता है तो जिंदगी के सत्तर-अस्सी बरस तो बहुत कम पड़ जाएंगे। उपलब्धियों के पार लगाने की बात नहीं हो रही है। एक ऐसी ज़िंदगी जीने की बात हो रही है जिसमें जज़्बा हो, टूट कर कुछ चाहने की बात हो रही है। चाहे वो यही हो कि आप एक मैच खेल रहे हो और आपका शरीर नहीं साथ दे रहा है और आप पीछे भी चल रहे हो लेकिन आपने अपने-आपसे बोल दिया है कि ये तो मैं ही जीतूंगा और आप जीत भी लिए और उस जीत के बाद का जो सूनापन है उसका अनुभव आपको कुछ सिखा जाएगा। इतनी-सी उपलब्धि भी काफी होगी पर कुछ तो हो न आपकी जिंदगी में जिसको मैं कह रहा हूँ कि आपने टूट कर चाहा हो और टूट कर चाहने की कीमत आपने अदा करी हो।

अधिकांश लोग कुछ भी नहीं चाहते दिलों-जान से। जिसे कहते हैं न प्राण-प्रण से चाहना? उनके लिए सब कुछ ऐसा ही होता है गुनगुना-सा। मिल गया तो ठीक, नहीं मिला तो भी उन्हें बुरा नहीं लगता। इसीलिए मुझे बड़ा भीतर से क्लेश उठता है, बड़ी निराशा उठती है जब मैं किसी जवान आदमी को पाता हूँ कि उसे हार से कुछ बुरा ही नहीं लग रहा, कोई चोट ही नहीं लग रही। ये वो आदमी है जिसकी ज़िंदगी में प्रेम नहीं है। जिसने प्राणों से कभी कुछ भी चाहा ही नहीं है क्योंकि भीतर चोट भी तब लगती है न जब पहले तुमने कुछ माँगा हो, ख़्वाहिश की हो। जान लगाई हो और पाया न हो। अब कोई आपके सामने है जिसको हार मिल गई है तो भी वो ठीक है, “हे हे हे हे!" जीत मिल गई तो भी वो ठीक है, “हे हे हे हे!" ऐसा आदमी कुछ नहीं पाएगा, न संसार में कुछ पाएगा, न सत्य पाएगा।

और ये कोई संतत्व नहीं है कि साहब हम तो हार-जीत में समभाव से रहते हैं। वो संतत्व बहुत आगे की बात है। उसका नाम लेना ऐसे लोगों को शोभा भी नहीं देता। ये वो लोग हैं जो गई-गुजरी हालत में हैं पर जिन को सुधरने की कोई आकांक्षा भी नहीं। ये पूर्णता पर नहीं पहुँच गए हैं, ये अपूर्णता में धँसे हुए हैं और उस अपूर्णता से उन्हें कोई आपत्ति भी नहीं। वो आपत्ति होनी बहुत ज़रूरी है। भीतर से रोष उठना, आक्रोश उठना बहुत ज़रूरी है। बहुत बुरा लगना चाहिए। हार हो तो वो दिल को छलनी कर जाए, कचोटती रहे बहुत दिनों तक। बार-बार पूछो अपने आपसे: “क्या किया मैंने जो हार मिली?" और उसके बाद अपना सर्वस्व लगा दो जीत के लिए। उसके बाद जो जीत मिलती है वो जीत तुम्हें बताती है इस जीत से काम चलेगा नहीं, आगे जाना पड़ेगा। जो ज़िंदगी में जीतने के लिए ही कुछ दाँव पर लगाने के लिए तैयार नहीं, ऐसे ही हैं बस...अपना लुजुर-पुजुर, उसको कुछ नहीं मिलता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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