आचार्य प्रशांत:
“ऊँचे कुल के कारणै, ब्राह्मण कोय न होय। जउ जानहि ब्रह्म आत्मा, रैदास कहि ब्राह्मण सोय।।”
कितनी सरलता से और कितनी बारीकी से अध्यात्म का मर्म भी समझा दिया है, और आध्यात्म में जो बाधा आती है, जो चीज़ें नकली अध्यात्म, नकली धर्म बनकर खड़ी हो जाती हैं, उनके विरुद्ध चेता भी दिया है और उन्हें अस्वीकार भी कर दिया है।
“जो जाने ब्रह्म आत्मा।”
‘जो ब्रह्म को जानता हो, आत्मा को जानता हो और ब्रह्म को ही आत्मा जानता हो, वही ब्राह्मण है।’ जाति से नहीं, नाम से नहीं, अतीत से नहीं, शरीर से नहीं, चेतना से ही किसी व्यक्ति का स्थान निर्धारित होता है। आप कहाँ पैदा हो गए आपके पास रुपया-पैसा कितना है, आपके पूर्वज कौन थे, कुल-कुनबा, समुदाय, संप्रदाय क्या है आपका, ये सब बातें संयोग की हैं, देह की हैं। मनुष्य की पहचान न संयोग है, न समय है, न समाज है, मनुष्य की पहचान उसकी चेतना है।
कैसी चेतना चाहिए? किस चेतना की बात कर रहे हैं संत रैदास यहाँ पर? सीधे आते हैं ब्रह्म और आत्मा पर। जो जब दुनिया को देखे, संसार को, तो उसे मात्र प्राकृतिक विविधताएँ ही न दिखाई दे, उसे उन सबमें विविधताओं के पीछे का एकत्व भी दिखाई दे। विविधताएँ उसको ही ज़्यादा दिखाई देती हैं जिसके पास कामना होती है। जिसको अभी दुनिया में अपना लालच आज़माना होता है, वो लालच किसी एक जगह तो कभी पूरा होता नहीं न। उसके लिए बहुत सारे दरवाज़े खटखटाने पड़ते हैं। तो ज़रूरी हो जाता है ये मानकर चलना कि उस दरवाजे के पीछे जो है अलग है, उस दरवाजे के पीछे जो है वो भी अलग है, ताकि अगर एक द्वार बंद भी हो जाए, एक दरवाज़े से निराशा भी मिले, तो आदमी अपनी कामना की आज़माइश किसी दूसरे दरवाज़े पर कर सके।
दुनिया में एकत्व का दिखाई देना और देखने वाले की दृष्टि का शुद्ध होना, ये फिर साथ-साथ चलेंगे। दृष्टि जितनी ज़्यादा आत्मज्ञान की होगी, दुनिया की विविधता उतना कम अर्थ रखेगी। और दृष्टि जितनी अहंकार की होगी दुनिया उतनी विविध नज़र आएगी, और फिर आशा और कामना का कोई अंत नहीं होगा।
आप बहुत जगह ज़ोर-आज़माइश करेंगे, हार पाएँगे, ठुकराए जाएँगे, चोट लगेगी, लेकिन उसके बाद भी आप जीवनभर अलग-अलग जगहों पर कामनापूर्ति का प्रयास करते रहेंगे ये सोच के कि अब जो प्रयास करने जा रहा हूँ, उसका विषय अलग है। विविधता में आपका बहुत यकीन है न। तो वहाँ जहाँ पहले आज़माया था वो अलग था। अब जहाँ जा रहा हूँ वो भिन्न है, तो यहाँ सफलता मिल सकती है।
ब्रह्म का अर्थ है संसार का एकत्व देख पाना। और संसार में एकत्व वही देख पाता है जो भीतर से आत्मस्थ होता है। बाहर ब्रह्म तभी है जब भीतर आत्मा है। और जब बाहर ब्रह्म है भीतर आत्मा है, तो बाहर भीतर का भेद मिट जाता है। अहंकार ही तो द्वैतात्मक दुनिया में जीता है न, वो संसार है, ये मैं हूँ, हम दोनों अलग-अलग हैं, और हम दोनों में विषमता का रिश्ता है। संसार मेरे लिए खतरा भी है और संसार मेरे लिए कामना पूर्ति का साधन भी है। ये अहंकार द्वारा निर्मित एक मानसिक मॉडल रहता है — वो दुनिया है, ये मैं हूँ, द्वैतात्मक।
संत रविदास निर्गुणी भक्ति से थे, द्वैत से बहुत ऊपर उठे हुए। उनका उपास्य (जिसकी आराधना की जाए) अद्वैत है। तो जो जानहिं ब्रह्म आत्मा - जिसने ब्रह्म और आत्मा को जान लिया। और दोनों को एक ही जान लिया कि — ब्रह्म ही आत्मा है, वही ब्राह्मण है।
जो ऊँची से ऊँची बात है, उसको सामाजिक सरोकार के साथ पिरो दिया है। अद्वैतवाद का उच्चतम सिद्धांत और उसका प्रयोग कर रहे हैं सामाजिक कुरीति के खंडन के लिए। ऐसे हैं संत रविदास, तभी उनकी वाणी आदिग्रंथ में स्थान पाती है, भक्तिकाल के सर्वोच्च नामों में उनकी गिनती होती है। लगभग पूरा ही उत्तर भारत उनको एक समाज सुधारक, एक आध्यात्मिक गुरु के रूप में उच्चतम स्थान देता है। और वर्ग, पंथ, मजहब; इन सबसे हटकर उनको स्वीकृति और सम्मान मिला है।
आसान नहीं रहा होगा। चौदहवीं-पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी का समय है, और बिलकुल ठीक-ठीक पता नहीं चलता है उनकी जन्मतिथि के बारे में पर लगभग मोटे तौर पर यही समय है। चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच में अनुमान लगाया जाता है। बहुत रूढ़िवाद से ग्रस्त था तब का भारत। आज भी है, पर तब स्थिति और बुरी थी। वैसे समय पर ये स्थान हासिल कर पाना कि समाज के जो सबसे ऊँचे लोग हों, चाहे ज्ञान से और चाहे परंपरा से, वो भी आपके आगे आकर झुकें, ये बिलकुल आसान नहीं रहा होगा।
जन्म से वे उच्च कुल के नहीं गिने जाते थे, चर्मकार समाज से थे। पर चेतना ने उन्हें आध्यात्मिक क्षेत्र में जो उच्चतम स्थान हो सकता है, वहाँ पर बैठाया है। उनका जो साहित्य है, वो उच्चतम कोटि का है। साधारण जो लोक व्यवहार होता है, उसमें एक दूसरे को नसीहत देने के लिए भी उनकी वाणी का, दोहों का, छंदों का इस्तेमाल होता है। और अगर जो सबसे गूढ़, गुह्य रहस्य होते हैं, आध्यात्मिक है उनका भी प्रतिपादन करना हो, तो भी आप संत रविदास के पास जा सकते हैं और आपको निराशा नहीं मिलेगी।
वैसे ही एक और उनका सुंदर वक्तव्य लेता हूँ:
“माला तिलक हाथ जपमाला, जग ठगने को स्वांग बनाया। मारग छाँड़ कुमारग उहुकै, साचि प्रीत बिन राम न पाया।।”
संत रविदास हैं। हमें संत कबीर याद आ जाते हैं। दोनों समकालीन ही हैं और दोनों का बनारस से बड़ा गहरा संबंध है।
“माला तिलक पहनी मनमाना, लोगन राम खिलौना जाना।”
ये संत कबीर हैं। वही बात यहाँ संत रविदास कह रहे हैं। विद्रोही तेवर देखिए, “सांची प्रीत बिन राम न पाया।”
वास्तविक प्रेम, जिसमें अहंकार अपने आप को नहीं बचाता बल्कि स्वयं को देखकर समझ जाता है कि अगर खुद को मिटाकर के राम मिल सकते हैं। राम से यहाँ पर अर्थ है मुक्ति, या वही आत्मा, ब्रह्म; जिसकी अभी बात करी।
यदि स्वयं का सौदा करके मुक्ति का आनंद मिल सकता है, तो ये बड़े मुनाफे का सौदा है। इतने मुनाफे का सौदा है कि आदमी बिलकुल तत्पर हो जाता है। खिंचा चला आता है कि नहीं मुझे ये करना है। स्वयं को मिटाना है, और जो मेरी उच्चतम संभावना है उसको पाना है।
“सांची प्रीत बिन राम न पाया।”
एक ओर तो यहाँ मुक्ति के प्रति गहरी निष्ठा देखने को मिलती है, और दूसरी ओर बागी तेवर: “जग ठगने को स्वांग रचाया।” खुली बात कि माला, तिलक और ये सब जो तुम कर रहे हो, जब तक इसमें प्रेम कहीं नहीं है, इसमें सच्चाई कहीं नहीं है, इसमें बस तुम, जो तुम्हारे क्षुद्र स्वार्थ हैं उनकी पूर्ति करना चाहते हो। तुम दुनिया को क्या तारोगे, तुम तो खुद ही सौ तरह के बंधनों में फँसे हुए हो। तुम्हारा तो इरादा भी नहीं है तरने का।
तो पहले तो उलाहना है, डाँट है, और फिर उसके बाद रास्ता भी बता देते हैं, कहते हैं कि — सही राह पकड़ो, और सही जो राह है वो सत्यनिष्ठा की है। सत्य के प्रति बेशर्त प्यार, वही राह है। और वो राह ऐसी है जिसमें ज्ञान और प्रेम एक हो जाते है। क्योंकि अहंकार खुद को छोड़ेगा ही नहीं, जब तक खुदको जानेगा नहीं। वो आत्मा से प्यार कर सके उसके लिए ज़रूरी है कि पहले वो खुद को जाने। तो जानना और प्रेम ये साथ-साथ ही चलते हैं।
साधना के जो सब बाहरी रूप होते हैं — माला, तिलक, हाथ-जपमाला; इन सबके प्रति उपेक्षा की दृष्टि, इनसे कुछ नहीं होना है। तुम ये कितना भी तिलक धारण करते रहो और हाथ में माला फेरते रहो, इससे नहीं होगा। भीतरी बात होनी चाहिए, सचमुच दिल अपने ही सीमित दायरे की जगह आकाश जैसी मुक्ति के लिए धड़कना चाहिए, तब बात बनती है।
“जनम जात मत पूछिए का जात अरू पात। रैदास पूत सब प्रभु के कोए नहीं जात कुजात।।”
तो फिर वही असाधारण गहराई और अवाक् कर देने वाली सरलता। “रैदास पूत सब प्रभू के।” अब अद्वैत वेदांत में किसी सगुण ईश्वर की कोई परिकल्पना नहीं होती है। प्रकृति सगुण है और यदि आप ब्रह्म पर सगुणता को आरोपित करो तो इसको माया कहते हैं।
तो क्या कह रहे हैं यहाँ पर संत रैदास, बड़ी गहरी बात कह रहे हैं, कह रहे हैं, ये प्रकृति ही है, और सब इसी से उठते हैं। तो जात माने जन्मा हुआ, जिसका जन्म हुआ हो, उसको कहते हैं जात। कह रहे हैं, ‘जब सबकी माँ एक है, तो सबका फिर जन्म अलग-अलग कैसे माना जा सकता है।’ ऊपर और नीचे की श्रेणियाँ कैसे स्थापित की जा सकती है।
तो मात्र नैतिक आधार पर ही वे वर्ण का या जाति का खंडन नहीं कर रहे हैं, बहुत गहरे दार्शनिक और सैद्धांतिक आधार पर वो कह रहे हैं कि सब अलग-अलग कैसे हो सकते हो, सब इसी मिट्टी से उठे हो, ये प्रकृति ही सबकी माँ है।
“पूत सब प्रभु के, बच्चे सब प्रकृति के।”
तो तुम सब अलग-अलग कैसे हो गए, एक ही तुम्हारी प्रजाति है। जहाँ तक देह की बात है, एक ही देह है तुम्हारी और एक ही माँ है। हाँ, अंतर व्यक्ति और व्यक्ति के चुनावों में आ सकता है। ठीक वैसे जैसे घर में दो बच्चे पैदा हुए हों, उनके जन्म में अंतर नहीं है, पर उनके जीवन में अंतर हो सकता है।
वो जीवन में कैसे चुनाव करते हैं उनकी चेतना का क्या स्तर है। अपने ही द्वारा निर्धारित किया जाता है न। चेतना का अर्थ ही है चुनाव। तो हम कहाँ तक उठ पाते हैं वो हमारे फ़ैसले की बात होती है। तो कहाँ पर आपका फ़ैसला है वो भी रविदास बता देते हैं कहते हैं वही कि — “जो जाने ब्रह्म आत्मा”, रविदास उसको ब्राह्मण मानते है।
तो अंतर है दो मनुष्यों में अंतर आएगा उनके ज्ञान के स्तर से। और ज्ञान संयोग की बात नहीं होती है। ये बाहरी ज्ञान की बात नहीं कर रहे हैं, सूचना की बात नहीं कर रहे हैं। आप कहीं स्कूल, कॉलेज, पाठशाला वगैरह में क्या सीख आते हैं, उसकी बात नहीं कर रहे हैं। आत्मज्ञान की बात कर रहे हैं और वो पूरी तरह से व्यक्ति का चुनाव होता है। क्योंकि उसकी कीमत चुकानी पड़ती है न।
कोई चुनता है कि हाँ खुद को जानूँगा, और खुद को जानने पर जो कष्ट होता है उसको स्वीकार करूँगा। खुद को जानने पर जो कुछ छूटने लगता है उसको छूटने दूँगा। यही कीमत होती है जो चुकानी पड़ती है। तो कोई वो कीमत चुकाने को तैयार होता है, कोई नहीं तैयार होता है। ये सबका अपना-अपना फ़ैसला होता है।
तो कौन ये फ़ैसला कर रहा है, कौन ये फ़ैसला नहीं कर रहा है, इसके आधार पर लोग अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन जन्म के आधार पर कोई अलग-अलग नहीं हो सकता। क्योंकि व्यक्तियों श्रेणी में अंतर होता है, बिलकुल होता है, पर जन्मजात कुल से नहीं होता। चेतना के स्तर से होता है। क्या चेतना भी जन्म द्वारा निर्धारित होती है? नहीं, बिलकुल नहीं, चेतना पूरी तरीके से व्यक्ति का अपना चुनाव होती है।
तो आप कितने ऊँचे रह गए जीवन में और कितना आपने जीवन के अवसर को गँवा दिया ये आपके ऊपर है। तो एक ओर तो इंसान और इंसान में अंतर होता है, और दूसरी ओर वो अंतर स्वयं आपके द्वारा निर्धारित होता है। जन्म द्वारा नहीं निर्धारित होता है, संयोग द्वारा नहीं निर्धारित होता है, लिंग द्वारा नहीं निर्धारित होता, खाल के रंग द्वारा नहीं निर्धारित होता, किसी भी सांयोगिक तत्व द्वारा नहीं निर्धारित होता, किसी भी सामाजिक कारक द्वारा नहीं निर्धारित होता। लेकिन फिर भी अंतर होता है।
एक आम आदमी जो आम ज़िन्दगी की भूल भुलैया में भटकना, लिप्त रहना स्वीकार कर चुका है, उसमें और संत रविदास के स्तर में तो अंतर है ही पर उस अंतर को चुना गया है, वो अंतर थोपा नहीं गया है, वो अंतर बलात नहीं है, ज़बरदस्ती नहीं है। कोई चुनता है कि हाँ, मुझे मुक्ति प्यारी है, आज़ादी प्यारी है, मैं दाम चुकाऊँगा। मुफ्त नहीं मिलती है मुक्ति, दाम चुकाऊँगा।
और कोई कहता है, ‘नहीं, नहीं, नहीं! मुझे तो बंधनों का सौदा ही ज़्यादा अच्छा लगता है।’ तो आपका फ़ैसला है। संतों का काम होता है आपको बार-बार प्रेरित करते रहे कि आप सही फ़ैसला लें। संत रविदास उस कोटि के उच्चतम संतों में से एक हैं।