माता-पिता की मृत्यु का भय सताए तो || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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माता-पिता की मृत्यु का भय सताए तो || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, माता-पिता की मृत्यु का भय सताता है, कि कैसा जीवन रहेगा। मतलब जीवन में कुछ करने की हिम्मत होगी या नहीं? मतलब, मेरे अंदर ऐसा लगता है कि...

आचार्य: अभी वो हैं। अभी वो हैं, अभी उनके साथ कैसा जीवन बिता रहे हो, इस पर ध्यान दो न। जब वो चले गये तो चले ही गये, इसमें कोई लाग-लपेट की बात नहीं। उन्हें भी जाना है, तुम्हें भी जाना है। यहाँ जितनी मूर्तियाँ बैठी हैं सबको जाना है। ये तो नहीं है कि वो जाएँगे नहीं, ये तो निश्चित है कि वो जाएँगे। अभी तो हैं। अभी उनके साथ कैसी ज़िन्दगी बिता रहे हो?

प्र: अभी तो उनका स्वास्थ्य सब ठीक है।

आचार्य: तो बस ठीक है। इसी के बारे में केंद्रित रहो। जो उन्हें ऊँचे-से-ऊँचा दे सकते हो, दो। और पता होना चाहिए देने योग्य वस्तु क्या होती है। बार-बार सोचना क्या कि चले गये तो क्या होगा। निश्चित है कि जाएँगे। और कोई बड़ी बात नहीं कि उनसे पहले तुम निकल जाओ। कोई बड़ी बात नहीं कि तुमसे और उनसे पहले मैं निकल जाऊँ। यहाँ कौनसी देह अमर होकर आयी है। तो इस बात की चिंता क्या कर रहे हो कि किसी की विदाई हो जाएगी। इसमे चिंतन जैसा कुछ है ही नहीं।

जो चीज़ निश्चित है, उसको लेकर क्या ऊहापोह मे रहना। कुछ अनिश्चित हो, संभावित मात्र हो, तो उसको लेकर सोचो।

कल का दिन है, देखो कल के दिन क्या कर सकते हो उनके साथ। इससे आगे तुम्हारा ज़ोर नहीं है। सांसारिक दृष्टि से भी पढ़े-लिखे हो। अध्यात्म की ओर भी तुम्हारी रुचि है। बुद्धिमान हो, जानते हो, समझते हो। दोनों ही आयामों का तुम्हें कुछ ज्ञान है। तो देखो न कि सुन्दर से सुन्दर भेंट क्या है जो माँ-बाप को दी जा सकती है। वो दो उनको।

भूलिएगा नहीं, मौत भी हमें भयानक इसलिए लगती है क्योंकि हम ठीक से जी नहीं रहे।

जीवन में अपूर्णता है, इसीलिए मौत बड़ा ख़तरा है। अच्छा, जब मौत बड़ा ख़तरा बन जाती है तो उस ख़तरे से काँपते-काँपते हम जीवन को और अपूर्ण बना लेते हैं। तो मौत के ख़तरे से निपटने का तरीक़ा है उस ख़तरे की उपेक्षा करना। सीधे कह देना, 'ख़तरा क्या, निश्चितता है। तो अब मैं ये देखूँ कि मैं आने वाले एक साल, कि पाँच साल, कि दस साल, कि तीस साल, जितना भी समय अनुमानित है, मैं उसका श्रेष्ठतम उपयोग क्या करूँ? हर दिन को मैं शान्ति से, आनंद से, मुक्ति से कैसे भर दूँ?'

और अगर सही जी रहे हो तुम तो तुम्हारे पास मृत्यु इत्यादि की चिंता करने का समय बचेगा नहीं, यकीन जानो; न उनकी, न अपनी। जीवन को अनजिया मत छोड़ देना।

ये है न (पानी की ग्लास उठाकर दिखाते हुए) इसको पूरा पी जाओ, पूरा। ये न हो कि पीने से पहले निकल लिए। क्योंकि मौत तो आनी है; वो आनी ही नहीं है, वो बिना बताए आनी है। हम नहीं जानते कितनी दूर खड़ी है। कौन जाने दरवाज़े के बाहर खड़ी हो! कौन जाने हँस रही हो बाहर!

ये भैंसे वाला (यमराज) सरप्राइज़ देने में बड़ा उस्ताद है। इसको इतना समझाया कि ऐसी सरप्राइजेस न दिया कर, लोग मर जाते हैं (सब हँसते हुए)।

पूरा पी जाओ, छोड़ना मत। अफ़सोस मौत का नहीं होगा; अफ़सोस इस बात का होगा कि पूरा नहीं पिया। भूलना नहीं, जन्म एक कारण से हुआ है। जन्म को सार्थक करो। यही धर्म है तुम्हारा माता-पिता के प्रति भी, यही धर्म है तुम्हारा पूरे संसार के प्रति भी और अपने लिए भी। ठीक है? ख़ुद पाओ, उनको भी दो। समय कम है, जल्दी करो।

आलस में मत रहो। कल जिस कंफर्ट ज़ोन (आराम की अवस्था) की बात कर रहे थे, उससे बाहर आओ। तुम सो भी रहे हो तो भी घड़ी तो टिक-टिक कर ही रही है न? या ऐसा है कि तुम कंफर्ट ज़ोन में हो तो घड़ी भी कंफर्ट ज़ोन में चली गयी? वो तो अपना काम कर रही है। तो इसलिए कम्फर्टेबल ज़रा कम रहो।

मेहनत लगेगी क्योंकि हम ढर्रों में सुव्यवस्थित हो जाते हैं न। माँ-बाप का भी जीने का एक तरीक़ा चल रहा है, हमारा भी चल रहा है, अब कौन उसको छेड़े, ऊर्जा लगती है। जिनके प्रेम में, जिनके हित के लिए कर रहे हो, कई बार वही विरोध करेंगे। वो कहेंगे, 'क्यों परेशान कर रहा है, ठीक तो चल रही है ज़िन्दगी। अब कह रहा है बुढ़ापे में ये करो वो करो। हम नहीं करना चाहते, हमें ऐसे ही रहने दे।' अगर प्रेम होगा तो तुम प्यार से थोड़ा सा धक्का लगाओगे।

छोटी सी बात पूछ रहा हूँ, आम तौर पर भारतीय मध्यम वर्ग या उच्च-मध्यम वर्ग में जो अभिभावक होते हैं, उन्होंने विदेश क्या, पूरा देश ही नहीं देखा होता है। हाँ, उनकी नौकरी ऐसी रही हो कि जगह-जगह उनकी नियुक्ति होती हो, तो अलग बात है। अन्यथा उन्होंने नहीं देखा होता। देश के भ्रमण से ही शुरुआत कर लो, शास्त्रों से परिचय कराओ। दुनिया भर के साहित्य से परिचय कराओ। हो सके तो विदेश ले जाओ। जीवन में ज़रा संपन्नता लाओ।

और ये सब बातें अपनी जगह हैं, उन सब से बड़ा तोहफ़ा है तुम्हारा अपना व्यक्तित्व। तुम उनके सामने बैठे रहोगे मुँह लटकाए, तो तुम उन्हें क्या दे रहे हो? तुममें एक ताज़गी, ऊर्जा, ज़िन्दगी होनी चाहिए। तुममें जान होगी तो तुम उनके जीवन में जान फूँक दोगे, फिर मौत दो कदम पीछे हट जाती है। और तुम ही निढाल पड़े हुए हो, जम्हाइयाँ ले रहे हो, तो कौनसा जीवन तुम जी रहे हो और कौनसी ज़िन्दगी तुम दे रहे हो? मेहनत का काम है। बनवा लो पासपोर्ट।

खेलने जाते हो, कुछ खेलते हो? क्या खेलते हो?

प्र: क्रिकेट।

आचार्य: क्या करते हो क्रिकेट में?

प्र: बॉलिंग।

आचार्य: किस हाथ से करते हो ?

प्र: राइट (दायाँ)।

आचार्य: फास्ट बॉलर हो?

प्र: मीडियम

आचार्य: कितना मीडियम?

यह शोभा देता है, इसको ढक रहे हो हाथ से? फास्ट बॉलर के कंधे ऐसे होते हैं?

तुम लिख कर के दो, तुम करते क्या हो, पूरे हफ़्ते का हिसाब दो। एक-एक छोटी-छोटी बात, समय कहाँ जाता है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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