प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैंने आपकी किताब पढ़ी थी दुर्गा सप्तशती जिसमें आपने मतलब माँ दुर्गे के सारे रूपों के बारे में विवरण किया अच्छे से काफी अच्छी पुस्तक थी। मैंने बहुत ही मतलब रुचि से पढ़ी है उसको। तो उस किताब में माँ दुर्गा के सारे रूपों के बारे में बताया गया है।
लेकिन जैसे हम माँ सीता को भी देखते हैं, उनको हम लोगों ने सिर्फ़ एक शांत स्वभाव या फिर एक ऐसी सहनशील स्वभाव में देखा है। तो आपकी पुस्तक जो मैं बोल रही हूँ दुर्गा सप्तशती उससे हमें माँ दुर्गा की शक्तियों के बारे में पता चलता है और उनसे कई सीखें मिली है। माँ सीता से हमको क्या सीख लेनी चाहिए? क्योंकि हमने उनको सिर्फ़ सहन करते हुए देखा है और थोड़ा कष्ट काटते हुए ही देखा है। लेकिन सीख आप कुछ बता सकेंगे तो और क्या वो सही था जो उन्होंने देखा भी है?
आचार्य प्रशांत: अर्थ को उठाना पड़ेगा, उठा दोगे तो सब सही दिखाई देने लग जाता है। जो शिव-शक्ति का संबंध है वही राम-सीता का संबंध है। “सियाराम मैं सब जग जानी।” ठीक है? एक बार ऐसे देख लिया फिर सारी बात साफ हो जाएगी। प्रकृति है सीता, आत्मा है राम। प्रकृति को बोलो, 'ये (शरीर की ओर इंगित करते हुए) है प्रकृति।' इसको बोलो पीछे-पीछे चलती रहे आत्मा के, यही सत्यनिष्ठा है, यही सतीत्व है। बहुत सुंदर साखियाँ गाई हैं ज्ञानियों ने सती के लिए, सती माने वो नहीं उसका संबंध सती प्रथा से मत लगा देना।
सती का अर्थ ही यही है मन जो चलता ही आत्मा के पीछे है उसको सती बोलते हैं। सीता उसी की प्रतीक है, प्रतिनिधि हैं।
क्या सीखें हम? एक बार जान लिया कि सच क्या है? सही क्या है? अब किसी और दिशा में मत चल देना। ना डर के मारे, ना लोभ, लालच, स्वार्थ के मारे। आप लोग गाते हो ना कि “खीर खांड भोजन मिले साकट संग ना जाए। कबीर संगत साधु की जौ की रोटी खाए।”
कबीरा संगति साधु की, जौ की भूसी खाय। खीर खाँड भोजन मिले, साकट संग न जाय।। ~ संत कबीर
वहाँ तो इतना ही कहा था "खीर खांड भोजन मिले," सीता का चरित्र कहता है, 'दुनिया भर का सोना भी मिले तो भी वहाँ साकट संग ना जाए, रावण संग ना जाए।' और ये जो प्रकृति बैठी हुई है इसमें बड़ा आकर्षण आ जाता है दुनिया की चीज़ों के लिए। जब अशोक वाटिका में कैद कर रखा है उनको तो एक तरफ तो वो दुनिया भर की राक्षसनियाँ हैं वो उनको डरा रही है हर तरीके से। क्या हो गया? भय। और दूसरी ओर रावण क्या बोल रहा है? अरे! मंदोदरी वगैरह एक तरफ रख दूँगा, आप पटरानी बनोगी। वो भी किसकी? अरे! बाप रे बाप! महामाहिम रावण की, दुनिया का जो एकक्षत्र अधिपति है कितनी बड़ी बात। बोले तू क्या ये तू वनवासी को पकड़ कर बैठी है? आ तेरा स्थान यहाँ पर है, लंका नहीं पूरे विश्व पर राज करेगी। मैंने तो सब देवताओं को कैद कर रखा है।
“खीर खांड भोजन मिले साकट संग न जाए।” ये स्वयं को समझाने की बात। हमें सत के सामने सीता हो जाना है। राम क्या है? सत। हमें क्या हो जाना है? सीता। बिल्कुल वही बात जो कह रहा था। “गले राम की जेवरी। जित खींचे तित जाऊँ।” अब एक और चीज़ जोड़ो। “*तुलसी भरोसे राम के निर्भय होकर सोए।*” तुम पीछे चल दो, उसके बाद तुम्हें बचाने वो आएँगे। तुम निर्भय होकर सोओ। ऐसा थोड़ी हुआ कि सीता को रावण ने हर लिया तो राम कहे छोड़ो और भी काम है ज़िन्दगी में करने के। और मैं तो राम हूँ मुझे तो कितनी भी रानियाँ स्त्रियाँ मिल जाएँगी। मुझे क्या कमी है?
सीता ने अगर कहा कि मैं सत्य के पीछे ही चलूँगी तो सत्य ने फिर कहा कि सीता की मैं हर कष्ट से रक्षा भी करूँगा।
“तुलसी भरोसे राम के।” तुम राम का भरोसा करो। राम तुम्हें बचाएँगे। बात दोनों ओर से बराबर की है। देखिए जो पूरा नैरेटिव होता है ना कथानक, उसको एक ऊँचाई देनी होती है। अगर उससे लाभ पाना है तो समझना पड़ता है कि ये जो महाकाव्य है इसका इशारा किधर को है। उसमें घुस कर के बारीक बातों में नहीं फँस जाते ना। उसमें त्रुटियाँ खोजना शुरू कर देते हैं कि अरे! देखो ये बात हो गई, ऐसा हो गया। अग्नि परीक्षा क्यों करा दी? ये कर दिया वनवास ये वो। जो उसकी जो ब्रॉड डायरेक्शन है वो समझी जाती है कि जो पूरी बात कही गई है किस उद्देश्य से कही गई है।
मान लीजिए मैं आपसे इतनी बातें बोल रहा हूँ। अब मैंने किसी शब्द का गलत उच्चारण कर दिया तो आप उसको पकड़ के बैठ जाओगे क्या? ये मैंने आपको उदाहरण दे दिया जो पूरे तरीके से अनुकूल नहीं है। उसको पकड़ के बैठ जाओगे क्या? या ये आप देखोगे कि जो बात समझाना चाह रहे हैं वो क्या है? इसी तरीके से रामायण हो या मानस हो ये आपको क्या बात समझाना चाह रहे हैं उस बात पर ध्यान दो, छोटी-छोटी चीजों को पकड़ कर मत बैठो। बात समझ रहे हैं ना?
तो सीता माने वही जिनकी आपने बात करी दुर्गा सप्तशती में — 'शक्ति'। उनका जो समर्पित रूप है, सत्यनिष्ठ रूप है, लॉयल रूप है वो हमको दिखाई देता है रामायण में, और रूप जितने भी होंगे सब सीमित होंगे क्योंकि जो सगुण है उसे सीमित तो होना पड़ेगा। तो आपको एक ही चरित्र एक ही किरदार में सब तरह के रूप नहीं दिखाई दे सकते। शक्ति माने प्रकृति का जो रूप आपको चामुंडा में दिखाई देता है वो सरस्वती में नहीं दिखाई दे सकता, और जो सरस्वती में दिखाई देता है वो सीता में नहीं दिखाई दे सकता। क्योंकि सब रूप सीमित होते हैं; असीम तो निर्गुण निराकार ही होता है। पर ये अलग-अलग रूप हो सकते हैं और सब रूप हमसे कुछ कहना चाहते हैं। सब रूप हमें संदेश देकर कुछ सिखाना चाहते हैं। जो सीखने वाली बात है उसको सीखिए।
सीता के रूप में शक्ति हमको सिखा रही हैं कि राम को अपने आगे-आगे चलने दो। “गले राम की जेवड़ी जित खींचे तित जाऊँ।” जीवन में एक बार राम आ जाए उसके बाद बेवफाई मत करना, भले ही लुभाने वाला रावण क्यों ना बैठा हो। मनोहर प्रतीक है। ज़रा सा एक तृण ले लेती है इतनी-सी कुशा और उससे कह रहीं हैं भस्म कर दूँगी तुझे। रावण आकर स्पर्श करने की कोशिश कर रहा, रावण ने स्पर्श नहीं किया। तथ्य की तरह मत लो इसको। समझो कि समझाया क्या जा रहा है? आपको इतिहास नहीं पढ़ाया जा रहा है, आपको जीवन की उच्चतम सीख दी जा रही है उसे ग्रहण करो।
जो सच का प्रेमी होता है उसके हाथ में थोड़ा-सा संसाधन भी कमाल कर देता है। एक तिनका था सीता के हाथ में और रावण की पूरी सेना और अस्त्र-शस्त्र काम नहीं आए। सीता का तिनका जीत गया।
सीता का तिनका जैसे राम की गिलहरी की रेत। तुम्हारे पास थोड़ा है तो थोड़ा ही करो पर जितना कर सकते हो पूरा करो। वो और वहाँ क्या करती? वहाँ वाटिका में बैठी है वहाँ उनको बस इतना-सा एक मिल गया तिनका बोली इसी से भस्म होगा तू। गिलहरी और क्या करती? इतनी-सी तो है तो उसको थोड़ी-सी रेत मिल गई वो इतना ही से, तुम जो कर सकते हो सर्वश्रेष्ठ करो राम के लिए करो, उसके बाद कमाल देखो जादू होता है कि नहीं होता है।
लोग व्यर्थ के प्रश्नों में उलझ जाते हैं। अच्छा हनुमान उड़ के कैसे लाँघ गए? कैसे उड़ सकता है? कैसे उड़ेगा कोई? उड़ सकता है कि नहीं उड़ सकता है हटाओ ये मुद्दा। ये विचारणीय है ही नहीं कि उड़ सकता है, नहीं उड़ सकता है। मुद्दे की बात पकड़ो। सीता से कह रहे हैं जैसे उड़ के आया वैसे ही उड़ के चला भी जाऊँगा, बैठो मेरी पीठ में। बोल रही है जब राम के भरोसे हूँ तो लेने भी वही आए। मैं पुत्र समान हूँ माँ, पर मुझे पुरुष मत मानो मैं पुत्र समान हूँ आओ बैठो पीठ पर। राम आएँगे। ये होती है श्रद्धा।
कष्ट सहना स्वीकार है सत्य के अलावा किसी और को साधन बनाना भी स्वीकार नहीं है।
कितने भी कष्ट में रह लेंगे। और जब थोड़े से विचलित होते हो, विमुख होते हो तो फिर क्या होता है? फिर वही होता है कि लक्ष्मण रेखा लाँघ दी। स्वर्णमृग के पीछे भेज दिया स्वयं ही। इतना-सा विचलन भी बड़े वियोग का कारण बन गया ना, इतना-सा विचलन बस। तो जो लोग साधारण जीवन जी रहे हैं उनको अगर दंड सज़ा भी मिलती है तो साधारण ही मिलती है। पर जिन्होंने अब सच्चाई को अपना हृदय दे दिया, जिन्होंने सच के साथ चलने को अपना जीवन बना लिया वो थोड़ा भी अगर लक्ष्मण रेखा लांघेंगे तो फिर उन्हें बड़ी सज़ा मिल जाती है। साधारण आदमी तो कितनी रेखाएँ लाँघता रहता है। उसे कोई दंड मिलता है? कुछ नहीं मिलता।
ये नियती कैसी कि सीता जो इतने वर्षों से राम के पीछे-पीछे चल रही हैं, सुकुमारी सीता, जनक की लाडली सीता उन्होंने कुछ नहीं करा इतना ही कर दिया कि अब आया है वो ब्राह्मण है भिक्षा माँग रहा है बूढ़ा, और कह रहा है कि ये सीमा वगैरह के पीछे से नहीं लेते हम। तो इतना ही तो करना है कि जाके इसको ऐसे दे दो इतने में ही दंड मिल गया। जो लोग सच की राह चल रहे हो उन्हें इतना भी नहीं लाँघना चाहिए अपनी मर्यादा को, इतना भी नहीं। और मर्यादा लाँघो तो उसके बाद शिकायत मत करना कि हमने थोड़ा-सा ही तो अपराध करा था। हमें इतनी भारी सजा क्यों मिली?
ठीक वैसे जैसे 100 किलो तुम रेत भी खोदो तो कुछ नहीं खो दिया लेकिन 10 ग्राम सोना खोदोगे तो सजा पा जाओगे। प्रश्न ये है ना कि तुम्हें मिल क्या गया है? जिसको रेत ही रेत मिली है जीवन से जिसने रेत ही रेत चुनी है जीवन से, वो 100 किलो रेत भी खो दे तो उसे क्या सजा मिलेगी? कुछ नहीं। पर जिसने जीवन से अब सोना चुन लिया, सत चुन लिया, राम चुन लिया, अगर वो थोड़ा-सा भी खोएगा तो बड़ी सजा पाएगा। तुम थोड़ा-सा भी मत खोना क्योंकि तुम्हें कुछ बहुत-बहुत ज़रूरी मिल गया है। उसको थोड़ा-सा भी खोओगे, कष्ट मिलेगा। समझ में आ रही है बात?
सीता का चरित्र अनूठा है, अनुगामिनी। अहम जो कह रहा है मेरा अपना कोई रास्ता ही नहीं जो तेरी राह है वही मेरी राह है। जिधर तू जा रहा है उधर मैं जा रही हूँ, ये सीता है। सुना है ना मेरा तो जो भी कदम है वो तेरी राह में है, ये सीता है। सीता माने कोई व्यक्ति विशेष नहीं, सीता माने कोई लिंग विशेष भी नहीं। जो भी कोई जीवन में सत्य के पथ पर चलने लग जाए वो सीता हो गया। उसको बस उस पथ से विचलित नहीं होना है। समझ में आ रही है बात ये? व्यक्ति तो करोड़ों अरबों हुए हैं सीता कोई व्यक्ति थोड़े ही हैं। व्यक्तियों में कुछ थोड़ा विशेष हो सकता है पर प्रतीकों में जो ऊँचाई हो सकती है वो अलग चीज़ है। आपके सामने जब व्यक्तित्व भी लाए जाते हैं धार्मिक साहित्य में तो वो व्यक्तित्व इसलिए लाए जाते हैं ताकि आप उनसे जो उच्चतम है वो सीख सको।
व्यक्तियों से व्यक्तित्व नहीं सीखना होता। व्यक्तियों से जो उच्चतम है वो सीखना होता है। ऐसे हो जाओ कि जिसके साथ चल रहे हो जिसके पीछे चल रहे हो वो तुम्हें हटाए भी तुम तब भी ना हटो। राम उत्सुक थे ही नहीं कि सीता साथ आए। कम उम्र की है, बड़े लाड़-प्यार से पली हैं, अभी-अभी ब्याहता होकर आई हैं। राम बोले ये मुझे मिला है ना वनवास इनको थोड़ी मिला है। ये काहे के लिए जाएँगी? और लौट आऊँगा। 14 बरस है, बीतेंगे। तुम महल में रहो।
"नहीं।"
तुम महल में रहो।
"नहीं।"
ये सीता है। दुनिया की नहीं सुनेंगे अगर दुनिया हमें तुमसे दूर करेगी। तुम्हारी भी नहीं सुनेंगे अगर तुम हमें तुमसे दूर करोगे। नहीं।
अरे! रुक जाओ यहीं पर।
"नहीं।"
अच्छा, चलो फिर।
उसके आगे फिर मानस को आप देखें तो संत तुलसीदास का जो कवि है वो बड़े मधुर तरीके से वर्णित करता है। अब उनको चलना ही नहीं आता था वो तो महलों में चली थी। वो चल रही है वहाँ नंगे पैर जंगल में, तो कभी यहाँ उलझे कभी वहाँ गिरे। अब पाँव रक्तिम हो गए हैं फिर उनको एक ऊँचे पत्थर पर बैठा दिया है। राम कह रहे हैं दिखाओ। कहें — अरे, अरे! कांटे ही कांटे, बैठा के उनके कांटे निकाल रहे हैं।
बहुत लोग इस बात पर आपत्ति करते हैं कि अरे! कोई पैदल पैदल कैसे बिल्कुल उत्तर से लेकर के नीचे पहुँच जाएगा, वहाँ रामेश्वरम और लंका कैसे हो सकता है? कोई पदयात्रा इतनी लंबी कैसे? उस समय में वो भी बीच में ऐसे जंगल थे सब। अरे, तुम 100 ही किलोमीटर मान लो भाई, अपने तर्क को शांत करो। तुम 100 किलोमीटर ही नंगे पाँव चल के दिखा दो, मत मानो कि ढाई हजार किलोमीटर है। तुम 100 किलोमीटर नंगे पाँव चल के दिखा दो और वो भी राजकुमारी होके। ऐसा प्रेम जो सब झेल जाता है। “जा मारग साहब मिले प्रेम कहावे सोए।”
ये सीता है। ऐसा प्रेम जो सब झेल जाता है। इतना झेलता है इतना झेलता है कि एक बिंदु पर आकर के कहते हैं कि कोई माँ अपनी बेटी का नाम सीता ना रखे। क्योंकि सीता माने कष्ट, राम के लिए बहुत दुख झेलना पड़ता है।
मेरी माताजी का नाम सीता है। और मैं छोटा था तो मैंने घर में चर्चाएँ सुनी थी कई बार कि ये नाम अपने साथ दुख लेकर आता है। फिर मैं बड़ा होने लगा। मुझे समझ में आया कि जिन्होंने नाम रखा उन्होंने उनका नाम सीता इसलिए रखा है क्योंकि ये नाम अपने साथ शायद राम भी लेकर आता है। और सीता का मतलब ही यही हो गया कि जिसको दुख बहुत झेलना पड़ेगा और वो दुख स्वीकार है क्योंकि राम के लिए है ना। समझ में आ रही है बात ये?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अंत में बस दो बातें करके कहना चाहती हूँ अवलोकन ही होगा। आपकी काफी सारी पुस्तकें फिलहाल अभी तक, काफी सारी तो नहीं मतलब हाँ एटलीस्ट चार पाँच तो पढ़ी अच्छे से और दुर्गा सप्तशती तो बहुत ही सुंदर है। साथ-साथ में एक स्त्री है और क्योंकि मैं अभी खुद स्त्री हूँ तो मैं काफी रिलेट कर पा रही हूँ उस बुक को भी मैं पढ़ करके काफी प्रेरित हुई हूँ। और साथ-साथ में मैं कोशिश करती हूँ कि मैं जितने लोगों को दे सकूँ और वो भी पढ़ सकें।
तो थैंक यू फॉर दोज़ टू बुक्स पर्सनली एंड टू ऑल अदर बुक्स दैट यू हैव गिवन टू अस। और जो अंत में आपने भी बात कही कि सीता आती हैं तो साथ में राम भी ले आती हैं। अब मैं यह नहीं जानती आप राम लेके आ रहे हैं या नहीं। लेकिन आप कम से कम हमको वो जो चार राम है उनमें से पहले दूसरे जो भी है हमें किसी राम से आप इंट्रोड्यूस तो करवा रहे हो। सो थैंक यू सो मच फॉर दैट।