जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।
सरदी-गरमी और सुख-दु:खादि में तथा मान और अपमान में जिसके अंतःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित हैं अर्थात् उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक ७
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, साफ़ लिखा है कि ‘सुख-दु:ख, मान-अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ शांत हैं’, पर ऐसा तो पूरी तरह हो नहीं पाता। मन तो दूसरों से मान की अपेक्षा रखता ही है। ख़ुद को समझा तो लेता हूँ कि ये मान इत्यादि इतने ज़रूरी नहीं हैं, पर मान पाने की और अपमान से बचने की चाह बार-बार वापस आ ही जाती है। क्या बोध से ही वृत्तियाँ कम होंगी या पूरी तरह मिट जाएँगी? कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: * सब कुछ ठीक ही होता तो गीताकार को उपदेश देने की आवश्यकता क्या पड़ती? बोध, या शांति, या स्पष्टता या सरलता मनुष्य की प्राकृतिक स्थिति नहीं है।
दो जगह से आए हैं हम – एक प्रकृति से और दूसरे कहीं और से। प्रकृति से किस प्रकार आए हैं हम, यह जानना हो तो डार्विन और अन्य विकासवादियों को पढ़ लो। समूचा विज्ञान है, बहुत खोज हुई है, अनुसन्धान हुआ है, बड़े प्रमाण मिले हैं और मिलते ही जा रहे हैं।
मनुष्य ने प्रकृति में बड़ी लंबी यात्रा करी है और वह यात्रा आज भी चल रही है। प्रकृति बोध-शांति वग़ैरा नहीं जानती बिल्कुल, वहाँ तो प्रोटीन्स और अमीनो एसिड से खेल शुरू हुआ था। छोटे परमाणु बड़ी-बड़ी मॉलिक्युलर (आण्विक) श्रृंखलाएँ बन गईं। ऐसे खेल आगे बढ़ा।
अणुओं को, परमाणुओं को क्या करना है बोध से, मुक्ति से, शांति से, मोक्ष से? हाइड्रोजन, ऑक्सिजन, बिल्कुल सरल। हाइड्रोजन से सरल क्या होगा? फिर पानी, फिर थोड़े और बड़े मॉलिक्यूल्स (अणु), फिर पॉलीमर्स (बहुलक), और फिर बहुत बड़े पॉलीमर्स * । लेकिन कोई * पॉलीमर न शांत होता है, पहली बात, न शांति का इच्छुक होता है।
एक तरफ़ तो निर्विवाद तथ्य है कि हम पदार्थ से उठे हैं, मिट्टी और पानी से उठे हैं। दूसरी ओर, यह बात भी सीधे-साधे अनुभव की है कि हमने पानी को तो कभी ‘शांति-शांति’ चिल्लाते देखा नहीं। पृथ्वी पर जीवन पानी से उठा, समुद्रों से उठा। ठीक? पर तुमने कभी देखा कि पानी चिल्लाता हो ‘शांति-शांति’? तो पानी तो हम हैं, सत्तर प्रतिशत आज भी पानी हैं हम। लेकिन पानी तो कभी नहीं चिल्लाता कि शांति चाहिए। न पानी कभी आत्महत्या करता है कि तनाव बहुत बढ़ गया था। पानी को तनाव भी नहीं होता। जब तनाव ही नहीं होता तो शांति काहे को माँगेगा?
तो इसीलिए जिन्हें ज़रा भी समझ थी, उन्होंने तुरंत देख लिया कि सिर्फ़ मिट्टी-पानी नहीं हैं हम, यानी सिर्फ़ भौतिक नहीं हैं हम। कुछ और भी हैं हम, जिसका न मिट्टी से सम्बंध है, न पानी से सम्बंध है, न पृथ्वी से सम्बंध है, न किसी पदार्थ से सम्बंध है। कुछ और भी हैं हम। पर वो जो कुछ और हैं हम, वो जुड़ा बैठा है इस मिट्टी-पानी से। होगा वो कुछ भी।
हो सकता है, जैसा कहा जाता है, कि वो सन्तों में सीधे-सीधे अवतरित होता है। पर संतों को भी बोलने के लिए, भाई, मिट्टी-पानी की ही ज़बान चाहिए, और पत्थर सरीखे ही दाँत चाहिए और भौतिक एक मस्तिष्क चाहिए, नहीं तो कोई संत बोल नहीं पाएगा। ये हमारी हालत है।
समझना, मिट्टी-पानी हैं हम जो अपने-आपमें कभी बोध, शांति वग़ैरा माँगता नहीं। लेकिन सिर्फ़ मिट्टी पानी नहीं हैं, कुछ और भी हैं हम। जो हम कुछ और हैं, वो जुड़ किसके साथ गया है? इस मिट्टी-पानी के साथ। तो अगर वो ऊँची-से-ऊँची बात भी बोलता है तो बोलता मिट्टी-पानी के माध्यम से ही है। मिट्टी-पानी हटा दो, नहीं बोल पाएगा।
कृष्ण शारीरिक रूप से अवतरित न हों तो अर्जुन को ज्ञान न दे पाएँ। गीता भी तभी आएगी जब मिट्टी-पानी का कृष्ण का शरीर बोलेगा। अव्यक्त परमात्मा अपने-आपको व्यक्त करता है मिट्टी-पानी से, अन्यथा अव्यक्त ही रह जाएगा, मूक और मौन। मिट्टी-पानी की ये महत्ता है।
कह सकते हो कि मिट्टी-पानी की महत्ता मिट्टी-पानी के ही जीव के लिए है। चूँकि हम मिट्टी के हैं, इसीलिए हमें कोई चाहिए होता है जो हमसे मिट्टी की भाषा में बात करे। गीता अर्जुन को कही गई थी न, और अर्जुन क्या है? मिट्टी का पुतला। तो इसीलिए उसे श्रीकृष्ण भी भौतिक रूप में चाहिए तभी गीता आएगी, नहीं तो गीता न आए।
हमारी प्राकृतिक अवस्था है शांति से कोई सम्बंध न रखने की और चेतना हमारी चाहती है शांति। आदमी की हालत पर गौर करिए थोड़ा। हमारी जो प्राकृतिक हालत है, वो कहती है कि शांति चीज़ क्या है, भाई। हमें चाहिए नहीं। मुझे क्या चाहिए? मुझे दाल बताओ, चावल बताओ, रोटी बताओ, पानी बताओ। पशुओं को देख लो तो समझ में आ जाएगा कि हम प्राकृतिक रूप से क्या चाहते हैं। प्राकृतिक रूप से हम क्या चाहते हैं? खाना, पीना और प्रजनन, बस। खाओ, पियो, बच्चे पैदा करो। शरीर इतना ही चाहता है।
लेकिन चेतना शरीर में फँसी हुई है। संतों ने कहा जैसे पिंजरे में चिड़िया। प्रकृति का पिंजरा, उसमें चेतना की चिड़िया फँस गई है, वो माँगती है शांति वग़ैरा। इसलिए श्रीकृष्ण को समझाना पड़ता है कि देखो, तुम प्रकृति नहीं हो। इसलिए अष्टावक्र बिल्कुल साफ़ कहते हैं कि प्रकृति से परे हो तुम। ये बताना क्यों ज़रूरी है? ताकि ये जो चेतना की चिड़िया प्रकृति के पिंजरे में फँसी हुई है, वो पिंजरे में ही शांति और बोध खोजना न शुरू कर दे। इसलिए सब देशना की ज़रूरत पड़ती है।
पिंजरे में क्यों नहीं मिलेगी शांति? क्योंकि प्रकृति को शांति से कोई मतलब ही नहीं है। और चेतना की चिड़िया को घर तो यही मिला है जीव में। उसको पिंजरा बोल लो या चाहे पृथ्वी बोल लो। घर तो यही मिला है तुमको। जब तक शरीरी हो, रहना तो इसी पिंजरे में पड़ेगा। पिंजरे में रहना तो है, कोई विकल्प नहीं। लेकिन भूलना नहीं है कि भाई, ये पिंजरा शांति और बोध से कोई सरोकार नहीं रखता। यहाँ तो बात अमीनो एसिड और पॉलीमर्स की है, शांति और बोध की नहीं।
वो जो चिड़िया है न, उसे धोखा हो जाता है। उसने जन्म से देखा ही क्या है? पिंजरा। तो उसे अगर शांति भी चाहिए तो, ज़ाहिर सी बात है, उसको क्या लगता है? यहीं मिलेगी और कहाँ मिलेगी? आज तक उस चिड़िया को जो भी कुछ मिला है, कहाँ मिला है? पिंजरे के भीतर ही मिला है। अब चिड़िया छटपटाती है कि मुझे शांति चाहिए, समझदारी चाहिए, बोध चाहिए, जो भी तुम बातें कहते हो, मुक्ति चाहिए। तो उसको ये एहसास हो जाता है, ये भ्रम हो जाता है कि वो भी मुझे इसी पिंजरे में मिल जाएगा।
अब पिंजरे में तुम्हें जो भी अणु-परमाणु चाहिए, वो तो मिल जाएँगे। मिट्टी-पानी का तुम्हें जो भी मसाला चाहिए, वो पिंजरे में मिल जाएगा, उसकी कोई कमी नहीं है। सब मिलता है, उपलब्ध। लेकिन चिड़िया एक ऐसी चीज़ माँग रही है जो पिंजरे में नहीं है, नहीं है, नहीं है तो नहीं है। तो इसलिए कृष्ण को ये समझाना पड़ता है।
अब चिड़िया को पिंजरे में बड़ा समय हो गया तो चिड़िया को पिंजरे की आदत लग गई है। इसीलिए बार-बार कई तरीके से, कई उदाहरणों से, कई विधियों से उसको समझाना पड़ता है, इतना समझाना पड़ता है कि तुम समझ जाओ कि मामला टेढ़ा ही होगा। नहीं तो इतना समझाना क्यों पड़ता? अगर कोई किसी बात को तुम्हें बहुत बार समझाए, बहुत तरीकों से समझाए, बहुत ज़ोर देकर समझाए, तो इससे बात समझ में आए न आए, इतना तो समझ में आता ही है कि बात टेढ़ी है, क्योंकि बात अगर आसानी से समझ में आने वाली होती, तो इतना तो समझाना नहीं पड़ता।
इतनी मेहनत क्यों कर गए सब जानने समझने वाले ऋषि-मनीषी? ज़रूर कुछ ऐसी बात है जो आसानी से इस मिट्टी-पानी की खोपड़ी में बैठी चिड़िया के पल्ले पड़ती नहीं है। बात छोटी सी है लेकिन उसे कितना घुमा-फिराकर हज़ार तरीके से समझाया जाता है फिर। और तब भी चिड़िया ऐसे भोली, नादान, मासूम चिड़िया, ऐसे-ऐसे देखती है (पलकों को झपकाते हुए), कहती है, ‘पिंजरा’।
कबीर साहब आते हैं, कहते हैं, "हंसा यह पिंजरा नहीं तेरा।” और हंसा कह रहा है, "नहीं, पिंजरा तो बड़ा अच्छा है।” फिर कह रहे हैं, "अरे, हंसा ये पिंजरा नहीं तेरा।” हंसा काहे को माने। मानता ही नहीं। उसको लगता है कि पिंजरे में ही है सब कुछ।
अभ्यास लगेगा। कबीरों की बड़ी लंबी श्रृंखलाएँ लगेंगी। जब तक पिंजरे रहेंगे, तब तक कबीरों की भी ज़रूरत रहेगी, क्योंकि पिंजरा, पिंजरे का हर प्रतीक, पिंजरे का हर उदाहरण चिड़िया को यही भरोसा दे जाता है कि पिंजरे के भीतर ही वो मिल जाएगा जो वो चाह रही है। जब पिंजरा बार-बार है, तब पिंजरे का यथार्थ बताने वालों को भी बार-बार होना होगा और बार-बार बोलना होगा। नहीं तो दुःख रहेगा, कष्ट रहेगा, अज्ञान रहेगा।
पाथर चुन-चुन महल बनाया, लोग कहें घर मेरा। हंसा ये पिंजरा नहीं तेरा।
इसका मतलब यह नहीं है कि हंसा इस पिंजरे से निकल जा, किसी और पिंजरे में घुस जा। लोग घबरा जाते हैं, वो कहते हैं, “अच्छा-अच्छा, इसका मतलब गलत पिंजरे में हैं, किसी और पिंजरे में जाना है।" अरे नहीं, भाई। वे तुम्हें समझा रहे हैं कि तुम जहाँ भी जाओगे, पिंजरे में ही रहोगे, क्योंकि वो पिंजरा तुम्हारे साथ है। तुम उस पिंजरे के भीतर हो।
ऐसे समझ लो कि जैसे कोई पिंजरा हो जिसमें इतनी गुंजाइश हो कि तुम्हारी टांगें भर ज़मीन तक आती हों। तो तुम पिंजरा पहने हुए चल सकते हो। कल्पना कर पा रहे हो ऐसे पिंजरे की? पिंजरा तुम्हारे चारों ओर है लेकिन तुम्हारी टांगें जो हैं, वो ज़मीन को छू सकती हैं, चल सकती हैं। तो तुम जहाँ भी जाओगे, क्या करोगे? पिंजरे को साथ लेकर जाओगे।
तो बात यहाँ पर ये नहीं है कि यहाँ से उठकर वहाँ चले गए, घर से उठ करके मंदिर चले गए, एक घर को छोड़कर दूसरे घर में आ गए, एक नौकरी छोड़कर दूसरी नौकरी, या एक कपड़े छोड़कर दूसरे कपड़े पहन लिए तो पिंजरे से बाहर हो जाओगे। हम ही अपना पिंजरा हैं। बात को और साफ़ करके कहा जाए तो चिड़िया का जन्म पिंजरे में नहीं हुआ है। पिंजरे का ही जन्म होता है चिड़िया के साथ; चिड़िया और पिंजरा एक साथ जन्म लेते हैं। चिड़िया पिंजरे में नहीं जन्म लेती; चिड़िया और पिंजरा एक हैं और दोनों एक साथ जन्म लेते हैं।
इसका मतलब है कि चिड़िया यह उम्मीद कभी न करे कि वो पिंजरा छोड़कर उड़ सकती है। ये गड़बड़ हो गई। अभी हम कह रहे थे कि ‘हंसा ये पिंजरा नहीं तेरा’, अब कह रहे हैं कि चिड़िया पिंजरा छोड़कर उड़ नहीं सकती क्योंकि चिड़िया जहाँ जाएगी, पिंजरे को साथ लेकर जाएगी। चिड़िया ही पिंजरा है।
तो कोई बाहर-बाहर का परिवर्तन करने से बात नहीं बनेगी। एक कमरा छोड़कर दूसरे कमरे में आने से बात नहीं बनेगी, एक घर छोड़कर दूसरे घर, इनसे बात नहीं बनेगी। भीतरी परिवर्तन करना पड़ेगा। और वो आंतरिक परिवर्तन करने के लिए सबसे पहले देखना पड़ेगा कि अपनी हालत जो है न, कुछ ठीक है नहीं।
अपनी शक्ल को आइने में गौर से देखना पड़ेगा और कहना पड़ेगा, मानना पड़ेगा कि समझदारी कुछ दिखाई पड़ती नहीं है इन आँखों में। अपने दिन-प्रतिदिन के क्लेश को, उतार-चढ़ाव को और भावनात्मक लहरबाज़ियों को देखना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि ये सब इस बात के तो लक्षण नहीं हैं कि ज़िन्दगी बहुत अच्छी जा रही है। ये है आंतरिक पिंजरे से मुक्ति की प्रक्रिया, या कह लो मुक्ति की शुरुआत।
देखो तो कि हालत क्या है तुम्हारी उस पिंजरे के साथ। पहचानों तो कि पिंजरे में हो। ख़ुश हो जैसे हो? वाकई? अगर संतुष्टि है पूरी, तो छोड़ो ये चिड़िया, पिंजरा सब, क्या करना है। बेकार की बातें। पर अगर दिखाई देता है, मानते हो कि बड़ी अतृप्ति का जीवन जी रहे हो, बड़े डरे-डरे रहते हो, छोटी-छोटी बात पर आशंका पैदा हो जाती है, काँप जाते हो, तो फिर अपनी ही ख़ातिर, अपनी बेहतरी के लिए समाधान करो। अपने ही स्वार्थ के लिए कुछ बातें समझो। और जल्दी नहीं होने वाला, जल्दी की उम्मीद न करें।
पूछा है, “मन दूसरों से मान की अपेक्षा रखता है और अपमान होता है तो बुरा तो लग ही जाता है।”
जानते हो, ये मान-अपमान क्या चीज़ है? पूरी तरह प्राकृतिक है बस, और कुछ नहीं है। और हमने कहा था कि प्रकृति बस दो-चार चीज़ें ही चाहती है – खाओ-पिओ, मौज मनाओ, शरीर फूलाओ और प्रजनन करो। प्रकृति बस इतना चाहती है। उसको इतना दे दो, वो संतुष्ट रहेगी। अब तुम देखो कि इस मान-अपमान का सम्बंध किस चीज़ से है। इसका सम्बंध कुछ नहीं, बस इन्हीं आदिम पाशविक वृत्तियों से है।
अच्छा, ज़रा देखना। किसी मंच पर जिसके लिए तालियाँ बज रही होंगी, बड़ा जिसका मान बढाया जा रहा होगा, उसे मान के साथ-साथ और क्या दिया जा रहा होगा? कुछ तोहफ़ा, कुछ भेंट, कुछ पुरस्कार, एक शॉल डाल दी गले में, एक चेक थमा दिया। देख रहे हो, मान किस चीज़ के साथ जुड़ा हुआ है? धन के साथ। और धन का क्या इस्तेमाल होता है? कोई भौतिक चीज़ खरीद ली, कुछ खाना-पीना आ गया।
तो वास्तव में हमें मान नहीं चाहिए। जब हमारा मान छिनता है तो हम परेशान इसलिए हो जाते हैं क्योंकि मान का छिनना इस बात की सूचना होती है कि अब खान-पान भी छिनने वाला है। तुम किन्हीं के यहाँ गए हो और उन्होंने तुम्हें देखकर पलक-पावड़े बिछा दिए, “अरे, अरे, आइए, आइए, जोशी जी।” और बिल्कुल तुम्हें देख करके गीले हुए जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं, तो इतना समझ लो कि भोजन बहुत बढ़िया मिलने वाला है। मान के साथ खान-पान।
और उन्हीं के यहाँ रुक गए तुम, और पाँच दिन बीत चुके हैं, और जिनके यहाँ रुके हो, वो तुमसे ज़रा अब रूखे तरीके से बात करने लगे हैं। तो साथ-ही-साथ ये देख लेना कि खाने में दलिया बनेगा। बल्कि कई बार मेहमानों को संकेत देने का कि साहब विदा हों, तरीका ही यही है कि आज तो रोटी और तुरई बनी है। मेहमान में समझदारी होती है तो जान जाता है कि ये अब जाने का संकेत है। मान के साथ? खान-पान।
पुराने ज़माने में जो पंडित होते थे। वो जाएँ, पूजा-पाठ, यज्ञ कराएँ। उसके बाद उनकी एक चीज़ पक्की होती थी। क्या? पूड़ी और कद्दू की सब्ज़ी। और उसके बाद जब वो वहाँ से चलें, जजमान के यहाँ से उठ करके, तो क्या उनको दिया जाता था? कुछ पैसा दिया जाता था, कुछ वस्त्र दिए जाते थे और खाने का और भी सामान दिया जाता था। लो जी, लड्डू भी ले जाओ। और फिर ब्राम्हण देवता के चरणस्पर्श किए जाते थे। ये देख रहे हो मान का सम्बंध सीधे-सीधे किससे है? खान-पान से।
और खान-पान इतना ही नहीं होता जो तुमने मुँह से खा लिया। ये जो तुम शरीर (और मन) से खा रहे हो, ये भी तो खान-पान ही है न। ये खान-पान नहीं है? हम इसलिए इतना परेशान हो जाते हैं जब कोई हमारा अपमान करता है। पुरानी जंगली वृत्तियाँ उठती हैं और संकेत देने लग जाती हैं मष्तिष्क को कि अब खाने को नहीं मिलेगा, खाने को नहीं मिलेगा, तुम तुरंत परेशान हो जाते हो। कितनी अजीब बात है!
जानते हो, दुनिया में इस वक्त आठ सौ करोड़ लोग हैं और दुनिया अभी भी एक हज़ार करोड़ लोगों के खाने का प्रबंध करती है। बहुत सारा अन्न फेंक दिया जाता है। और एक बड़े अनुपात में अन्न पैदा किया जाता है सिर्फ़ जानवरों को खिलाने के लिए ताकि तुम बाद में उन जानवरों को मारकर खा सको।
खाने-पीने की कोई कमी नहीं है वास्तव में। तथ्य ये है कि खाने-पीने की कोई कमी नहीं है, लेकिन वो जो सिग्नलिंग प्रोसेस (सांकेतिक कार्यविधि) है, वो अभी भी पंद्रह लाख वर्ष पुराना है भीतर। आदमी आगे आ गया, प्रकृति लेकिन अभी भी उसकी पुरानी है। भीतर की जो हार्डवायरिंग (संरचना) है, वो अभी भी पुरानी है।
समझो कि हम क्यों परेशान हो जाते हैं जब कोई हमारी बेज़्ज़ती या फ़ज़ीहत करता है। वो जो पुरानी व्यवस्था है, हमको ये संकेत देती है कि अगर अपमान हुआ तो खाने को भी नहीं मिलेगा, मर जाओगे। तो अपमान का अर्थ इसीलिए मृत्यु बराबर हो जाता है।
इसीलिए कुछ होशियार लोगों ने फिर मुहावरे भी ऐसे बना रखे हैं कि हम मौत चुन सकते हैं, बेइज़्ज़ती नहीं। वो बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। क्या ठीक कह रहे हैं उन्हें ख़ुद भी पता नहीं है। वो बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, क्योंकि बेइज़्ज़ती का मतलब ही होता है कि अब तुमको भुखमरी शायद मिलने वाली है। ऐसा हुआ करता था कभी।
कभी ऐसा हुआ करता था कि जो बेइज़्ज़त हुआ, अब भूखा मरेगा। और वो बात इस मस्तिष्क को अभी भी स्मृति में है। तो इसीलिए जैसे ही बेइज़्ज़ती होती है, हम बिल्कुल परेशान हो जाते हैं। और इसीलिए मान-अपमान के लिए इतने युद्ध होते हैं। जो मान-अपमान के नाम इतने युद्ध कर रहे हैं, उनको पता भी नहीं है कि वो पुरानी जंगली हार्डवायरिंग को इक्कसवीं शताब्दी में भी इस्तेमाल कर रहे हैं। उनको ये बात समझ में भी नहीं आ रही।
ये सब बातें समझनी हो तो बहुत दूर नहीं जाना है, एक कुत्ते को देख लो। एक घर में कुत्ता होगा, घर में आठ लोग हों लेकिन कुत्ता सबसे ज़्यादा उसी के पांव में लोटेगा और उसी के सामने दुम हिलाएगा जो उसे रोटी डालता है। और कुत्ता बिल्कुल तुम्हारे पीछे-पीछे आता है। देखा है? पीछे-पीछे आएगा। ये वो अपनी ओर से तुमको मान दे रहा और प्रेम दे रहा है। इससे समझ लो कि हम जो मान और प्रेम का खेल खेलते हैं, उसकी हक़ीक़त क्या है। उसकी हक़ीक़त यही है कि रोटी चलती रहे अपनी। कुत्ते को देखो, साफ़ समझ में आ जाएगा।
इसलिए हम इज़्ज़त के इतने भूखे होते हैं। और जो आदमी जितना तुम संवेदनशील पाओ इज़्ज़त को ले करके, समझ लो कि ये उतना ही ज़्यादा जंगल में जी रहा है। इसको समझ में ही नहीं आ रहा कि ये इज़्ज़त का खेल क्या है। जिनको समझ में आ गया, फिर वो ऋषि-मुनि कहलाते हैं। उनको कहा जाता है कि अब ये मान-अपमान से ऊपर उठ गए। मान-अपमान से ऊपर उठ गए माने प्रकृति से ऊपर उठ गए, क्योंकि प्रकृति बस ये चाहती है कि तुम्हें भोजन मिलता रहे और प्रजनन चलता रहे।
इसीलिए जो व्यक्ति आत्मा पर जीता है, जिस व्यक्ति का एक आंतरिक मूल्य होता है, वो धीरे-धीरे ये परवाह करनी छोड़ देता है कि कौन उसको इज़्ज़त दे रहा है और कौन नहीं दे रहा है। जीवन में उसे कुछ ऊँचा मिल गया है। उसे बस अब खाने और बच्चा पैदा करने से ही नहीं मतलब रह गया है, उसे कुछ और, एक ऊँचा लक्ष्य मिल गया है और वो उसमें डूब गया है। अब वो नहीं परवाह करेगा कि कौन उसकी स्तुति करता है, कौन निंदा करता है वग़ैरा, वग़ैरा। छोड़ो।
अगर आप बात-बात में बुरा मान जाते हों, अगर छोटी-छोटी बातें आपको चोट पहुँचा देती हों, आहत हो जाते हों, अगर आप उन लोगों में से हों जो जल्दी से हर्ट (आहत) हो जाते हैं, तो समझ लीजिए कि आप बड़े जंगली हैं। जंगल से बाहर आएँ। सभ्यता में स्वागत है आपका। बहुत शहर बन गए, भाषाएँ आ गईं। आदमी ने बड़ी तरक्की कर ली। जंगल से बाहर का माहौल भी थोड़ा आज़माएँ। क्या करेंगे जंगल में रह करके? ये सब जंगल के खेल हैं।
जल्दी से रोने न लग जाया करो, “फलाने ने मुझे ऐसा बोल दिया, मुझे बड़ी चोट लग गई।” अगली बार जब आओगे बोलने कि फलाने ने बोल दिया, चोट लग गई, तो मैं कहूँगा, “ले, खा ले, क्योंकि तुम्हारे कुल बात का सार, लब्बोलुआब तो यही है न कि अब खाने की दिक्कत होने वाली है।” जो कोई तुम्हारे सामने आए बहुत अपमान का रोना ले करके, उसको दो पराठे दिखा दो। बोलो, “ले, यही तो चाहिए था तुझे। नहीं मर रहा तू भूखा, चिंता मत कर।”
अब तुम समझोगे कि इसीलिए जो लोग दूसरों पर जितना ज़्यादा आश्रित होते हैं, वो उतना ज़्यादा अपने मान-अपमान के प्रति संवेदनशील होते हैं। वो जल्दी हर्ट होते हैं, क्योंकि उनको पता है कि उनके भूखे मरने की नौबत आ जाएगी जिस दिन उनका सम्मान छिना। देखा है ऐसा?
जो दूसरों पर जितना अश्रित होगा, उसको उतनी जल्दी चोट लग जाती है।
इसका सम्बंध पेट से है, भाई। रोटी-पानी आपका चल ही उसी दिन तक रहा है, जिस दिन तक दूसरा व्यक्ति आपको मान दे रहा है। मान गया कि खान-पान गया। हो सकता है कि न भी जाए, लेकिन वो पुरानी हार्डवायरिंग आपको यही बता रही है कि गया। वास्तव में नहीं जाएगा, कुछ नहीं होगा। कोई इतना दुर्बल नहीं होता कि अगर दूसरे की पनाह से निकल जाए तो भूखा मर जाए, इतना कमज़ोर कोई नहीं होता। लेकिन वो पुरानी वृत्ति, वो अभी भी पुराने सिग्नल (संकेत) ही दिए जा रही है।
कई लोगों को तो ये बातें ही सुनकर बुरी लग रही होंगी। हम तो किसी भी बात से चोटिल हो जाते हैं। मैं कुछ भी बोलता हूँ, तत्काल लोगों के इधर-उधर सोशल मीडिया पर कमेंट आ जाते हैं कि क्या है। कड़वा बोल दिया, ये कर दिया, आहत करते हैं। थोड़ा मीठा नहीं बोल सकते? मैं मीठा बोलूँगा नहीं, मैं तुम्हें मीठा खिला दूँगा। तुम इसी के लिए मर रहे हो। आओ, बोलो, कितना रसगुल्ला खाना है? खाओ। तुम्हें सम्मान तो चाहिए ही नहीं है। तुम्हें पकवान चाहिए। लो।