
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा नाम शिखा है, मैं 23 वर्ष की हूँ। मैं 11–12 साल से नवरात्रि का व्रत करती आई हूँ। तो आपसे सीखा है कि जो हम सब करते हैं, कि भगवान के नाम पर घी का हवन करते हैं, हलवा–पूरी चढ़ाते हैं, ये खाना है, ये नहीं खाना है, सुबह से शाम तक यही दिमाग़ में चलता है। और दुर्गा सप्तशती का भी पाठ करती आई हूँ, लेकिन आपसे सुना तो मैं उसको अच्छे से समझ पाई हूँ।
मम्मी का फ़ोन आया था दो दिन पहले, बोली कि नवरात्रि आ रही है तो अभी व्रत रहना है, कैसे क्या करोगी। तो मैं बोली, नहीं, इस बार तो मैं व्रत नहीं रखूँगी। कही, तब कैसे क्या करोगी? कही, तो उद्यापन कर दो। मैं बोली, उद्यापन का क्या मतलब है? तो भगवान से छुट्टी लेना होता है? कह रहीं, कि नहीं तो ये तो करना ही पड़ता है। मैं बोली, कि नहीं, ये तो नहीं करूँगी। कही, तब क्या करोगी?
आचार्य जी, मैं आपसे पूछने आई हूँ। वैसे तो हर दिन माता रानी के लिए विशेष है, इस नवरात्रि क्या किया जाए कि महामाया मोक्षदायिनी बने?
आचार्य प्रशांत: इस नवरात्रि दुर्गा सप्तशती को पूरे हृदय से, पूरी निष्ठा से समझा जाए।
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: अगर माता रानी को, बड़ी माँ को समझना है तो उनका जो केंद्रीय प्रमुख ग्रंथ है, वहीं जाना पड़ेगा न। बहुत संक्षिप्त नहीं है ग्रंथ, लेकिन बहुत विस्तृत भी नहीं है। नौ दिन बिल्कुल ठीक हैं, न कम, न ज़्यादा, पाठ करने के लिए। और पाठ माने ये नहीं कि बस संस्कृत बोल दी या सुन दी, पूरे हृदय से उसको समझना है। पूरे हृदय से, यही व्रत है।
वृद्धि अहंकार यही है। हम जो हैं न, हमें ही व्रत करना होता है न। तो अहम् ही व्रत उठाता है, व्रत माने संकल्प। अहम् ही व्रत उठाता है, और एक ही संकल्प शुभ होता है। कौन सा? मैं जो हूँ, मुझे वैसा नहीं रहना है। तो जो कुछ मुझे मेरे जैसा नहीं रहने में सहायक हो, मुझे उसकी संगति करनी है, मुझे उससे निष्ठा रखनी है। बहुत अच्छे से समझना चाहते हैं, कि जीवन माने क्या? देह माने क्या? प्रकृति माने क्या? ये जन्मदायिनी, मुक्तिदायिनी माँ है कौन?
और दुर्गा सप्तशती शुरू ही ऐसे होती है, कि बताइए कौन है, और आपके लिए है दुर्गा सप्तशती, ये भी साफ़-साफ़ बता दिया जाता है। कथा याद है न, हम लोगों ने बहुत बार चर्चा करी है कि वो दो जने कौन हैं, क्या नाम है उनका?
श्रोता: सुरथ और समाधि।
आचार्य प्रशांत: हाँ, जो जा रहे हैं महर्षि के पास। और दोनों ने लगभग यही तय कर लिया है कि समाज–संसार से ही नहीं, जीवन से ही वैराग्य ले लेंगे। जीने से ही कोई लाभ नहीं। दोनों को ही धोखा मिला है, छल मिला है, उम्मीदें टूटी हैं, दुख में हैं बहुत। लेकिन उसके बाद भी संसार से उनकी आसक्ति जा नहीं रही है, न वैश्य की और न ही राजा की।
तो ये दोनों जाते हैं, वहाँ मेधा मुनि का आश्रम है, वहाँ पर बैठते हैं। तो इनका ही दुख दूर करने के लिए, इनकी आँखों पर जो मोह छाया हुआ है, उसको हटाने के लिए ही फिर माँ क्या है, जीवन क्या है, और क्यों व्यक्ति आसक्ति में दुख पाता है, इसके लिए पूरी कथा सुनाई जाती है। बहुत सांकेतिक कथा है, बहुत गहरी, बहुत सुंदर कथा है। जो उसको समझ जाएगा, वो सचमुच मुक्ति पाएगा। और यही उद्देश्य है इन नौ रातों का, सिर्फ़ रिचुअल्स से काम नहीं चलने वाला भाई।
जो आपने जो भी बोला, घी, शक्कर, हलवा, पूरी, वो आपको करना है तो करें, पर वो पर्याप्त किसी हालत में नहीं है। और कुछ ऐसा जिसमें माँ के ही जो बच्चे हैं, सब पशु–पक्षी, आप उनको हानि पहुँचाएँगे, तब तो माँ को बिल्कुल अच्छा नहीं लगने वाला, बिल्कुल भी नहीं।
जब कथा शुरू होती है तो उसमें दृश्य मालूम है न, क्या बताया जाता है? कि मुनि बैठे हुए हैं, कुछ बात कर रहे हैं, कुछ सुना रहे हैं, और जितने अलग-अलग तरीके के पशु हैं, सब उनको घेर कर बैठे हुए हैं। आशय समझो। इन्हीं पशुओं को आप किसी भी तरह से पीड़ा दोगे अगर, तो माँ प्रसन्न तो नहीं होने वाली। और धोखा उनसे कर नहीं सकते, क्योंकि माँ वहाँ नहीं है। माँ कहाँ है? (देह को इंगित करते हुए) सब कुछ माँ ही माँ है बेटा, पूरा ब्रह्मांड वही है। प्रकृति ही है सिर्फ़, और क्या है। सिर्फ़ प्रकृति ही है। ये जो समूचा विस्तार है, इसी को माँ बोलते हैं। इसी में आप उठते हो लहर की तरह, इसी में आप गिर जाते हो लहर की तरह। जन्म भी वही देती हैं, मृत्यु भी वही देती हैं और मुक्ति भी वही देती हैं।
कथा समाप्त होती है तो दोनों से कहा जाता है, अच्छा बताओ, क्या चाहिए? तुम लोगों ने बड़ी तपस्या करी। तो जो सज्जन कहते हैं, मेरा जो सब खोया हुआ था, लौटा दो, वो उनको लौटा दिया जाता है। लेकिन उससे ऊँची चीज़ है कि उनसे माँगा जाता है कि हमें इस पूरे झंझट से मुक्ति ही दे दो।
मुक्ति देने वाली भी माँ ही है। अब ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम उनसे जन्म–मृत्यु माँगते हो, माँगना है तो माँग लो। और तुम्हारे ऊपर है कि तुम मुक्ति माँगते हो, मुक्ति माँगनी है तो माँग लो।
माँगने का तरीक़ा क्या है? ऐसे हाथ जोड़ के, माँ यहाँ खड़ी होंगी, वरदान माँगोगे, ये तरीक़ा है? नहीं। माँ का ही जो ग्रंथ है उसको समझो, समझो, समझो। पुराना नहीं ग्रंथ है वो, आज की जितनी समस्याएँ हैं समकालीन समाज की, आदमी के पगलाने से लेकर क्लाइमेट चेंज तक, तुम्हें सबका मूल वहाँ समझ में आएगा।
जब ये सब राक्षस समाप्त हो जाते हैं, तो इनकी समाप्ति के क्या लक्षण वहाँ बताए जाते हैं?
श्रोता: नदियाँ साफ़ हो गईं।
आचार्य प्रशांत: नदियाँ साफ़ हो गाईं, पहले की तरह बहने लगीं, सूरज की रोशनी पहले जैसी हो गई, धुआँ छट गया। ये असुरों का काम था कि उन्होंने प्रकृति पूरी बर्बाद कर रखी थी। और माँ प्रकृति ही है।
असुरों का संहार माने प्रकृति को उसके निर्मल रूप में वापस लाना।
और प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करते हो तो माँ ने जो करा सब इनके साथ, शुम्भ, निशुम्भ वग़ैरह के साथ, महिषासुर, वही फिर होता है। अभी जितना तुम प्राकृतिक उपद्रव देख रहे हो, वो और क्या है, वो माँ का प्रकोप ही समझो। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करोगे तो फिर प्रकोप के लिए तैयार रहो।
और ये कोई संयोग मात्र नहीं है कि जब हम ग्रंथ के बिल्कुल शिखर की ओर पहुँचते हैं, तीसरे खंड में, तो वहाँ क्या बताया जाता है, कि माता एक रूपवती स्त्री का देह लेकर के कहाँ पर स्थित है? हिमालय पर। और ये सब चंड–मुंड लगे हुए हैं, कि हमें तो तुम पर कब्ज़ा करना है। कुछ-कुछ आज के समय से बात मिलती हुई दिख रही है, कि हमें हिमालय चाहिए, हिमालय चाहिए। तो वो अपने इन दो दूतों को भेजते हैं। क्या है दूतों का नाम?
प्रश्नकर्ता: चंड–मुंड।
आचार्य प्रशांत: हाँ, कि जाओ और उनसे कहो कि दुनिया की सब ऊँची चीज़ें हमने ले ली हैं, तो तुम दुनिया की अगर सबसे रूपवती हो तो तुम्हें भी हमारे ही पास होना चाहिए। तो कहती हैं, मैं तो ऐसे ही हूँ साधारण सी स्त्री, पर मैंने एक शर्त रखी है, जो मुझे परास्त कर देगा…
श्रोता: मैं उसकी हो जाऊँगी।
आचार्य प्रशांत: तो मैं उसकी हो जाऊँगी, तो वो मुझे अपने साथ ले आना चाहते हैं, आएँ मुझे परास्त कर दें। वो जाते हैं तो फिर वो सब वहाँ कांड चलता है, धूम्रलोचन और ये और वो, एक के बाद एक आते–जाते हैं, पिटते जाते हैं, आते–जाते हैं, पिटते जाते हैं। मतलब समझ रहे हो? उनको परास्त करने से आशा समझ रहे हो क्या है? जो उनको जान लेता है, उसकी हो जाती हैं। और जो उन पर कब्ज़ा करना चाहता है, शोषण करना चाहता है, प्रकृति के माध्यम से अपनी मनोकामना पूरी करना चाहता है, भोगना चाहता है, उसका असुरों जैसा हाल होता है, मारा जाता है। और,
जो प्रकृति को देखकर, जानकर कुछ सीख नहीं पा रहा, मंदिर, मस्जिद वग़ैरह उसके काम नहीं आएँगे। क्योंकि सीखना तो आपको अंततः जीवन से ही है।
मेरे पास भी आएँगे तो मैं आपको भेजता तो जीवन की ओर ही हूँ न, जाओ आत्मवलोकन करो, जाओ अपनी ज़िंदगी को देखो। और ज़िंदगी को देखना माने किसको देखना? प्रकृति को ही देखना। तो सिखाने वाली भी, परम शिक्षिका भी प्रकृति ही है, वो है माँ। बोधदायिनी भी, जैसे हमने कहा जन्मदायिनी, मृत्युदायिनी, मुक्तिदायिनी, वैसे ही बोधदायिनी भी प्रकृति ही है। लेकिन बोध कैसे होता है? प्रकृति को निष्पक्ष होकर के, निष्प्रय होकर के, निष्काम होकर के देखकर। सारी सीख वहाँ निहित है, सब देख लोगे अगर जीवन को देख लिया।
कुछ ऐसा नहीं है जो जीवन आपको नहीं सिखा सकता। कह तो रहा हूँ ग्रंथ भी अंततः आपको बहुत सारी बातें कहने के बाद यही कहेगा, कि चलो जीवन को देखो। जो जीवन को नहीं देख सकता, ग्रंथ भी उसके क्या काम आएगा।
हमने लेकिन अपने गहरे से गहरे और ऊँचे से ऊँचे पर्वों का मज़ाक बनाकर रख दिया है। है न? अभी आप आइए नोएडा से ग्रेटर नोएडा की तरफ़ सड़कों पर लोग नाच रहे हैं, उछल रहे हैं, फ़िल्मी गीतों पर ठुमके मार रहे हैं और सड़कों पर लोट रहे हैं। कई तो जान-बूझकर ट्रैफ़िक रोक रहे हैं। माता प्रसन्न होंगी इससे या और प्रकोप मिलेगा?
हम निरूपित भले ही करते हों माता को एक छवि से, पर माता बहुत बड़ी हैं। वो एक छवि में नहीं समाने वाली। वो कितनी बड़ी हैं, वो ब्रह्मांड जितनी बड़ी हैं। ये समूचा ब्रह्मांड ही और वो नौ दिनों में भी नहीं समाने वाली, सच पूछो तो। क्योंकि वो जैसे सबकी अम्मा है, वैसे ही समय की भी, काल की भी माँ हैं। नौ दिन! अभी हम बात कर रहे थे न, टाइम और स्पेस इनसेपरेबल होते हैं। तो अगर पूरे ब्रह्मांड की माँ है, तो फिर टाइम की भी तो माँ हो गईं।
तो बात ये भी नहीं है कि तुम इन नौ दिनों में कोई ख़ास आचरण कर लोगे तो माँ प्रसन्न हो जाएँगी। माँ से छुप कर कहाँ जाओगे? एक-एक कोशिका माँ है। कैसे छुपाओगे?
देखा है जो रिपीटीशन का तरीक़ा है वो कितने अच्छे से इस्तेमाल करती है दुर्गा सप्तशती, ये बताने के लिए कि तुम जो कुछ भी सोच सकते हो, वो सब माँ ही है। कौन सुनाएगा, “या देवी सर्वभूतेषु।” एक तरह से देखो तो इसी फॉर्मेट में सब कुछ, कभी बुद्धि डाल देती हैं, कभी मुक्ति, कभी शक्ति, सब कुछ। आशय क्या है ये कहने का? कि वो सब कुछ जो तुम देख सकते हो, सोच सकते हो, अनुभव कर सकते हो, वो सब कुछ देवी ही है। “नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः।” और ये एक बार नहीं कहा गया, बिल्कुल इसी तरीक़े से बस एक शब्द बदल दिया जाता है।
तो कहाँ छुप कर जाओगे? जन्म भी वही हैं, मृत्यु भी वही हैं। छुप कर कहाँ जाओगे? वही हैं। यही है सब कुछ। और इसी बात को और प्रभाव से समझाने के लिए कि सब कुछ वही हैं, ग्रंथ आपको बताता है कि सब देवताओं ने अपना जो श्रेष्ठतम था, जब वो अर्पित किया तो फिर देवी खड़ी हुई। माने देवताओं से भी ऊपर है। सांकेतिक बातें हैं, समझो। ये कोई ऐतिहासिक घटना नहीं बताई जा रही है कि आप पूछो कि ऐसा ईसा पूर्व हुआ था, ऋग्वेद के दौरान हुआ था कि उससे पहले हुआ था, ये किस सन् की बात है? ऐसे प्रश्न नहीं पूछे जाते, वो नादानी है। यहाँ बात इतिहास से कहीं ज़्यादा गहरी है और आगे की है।
कि सत्य तक भी मात्र प्रकृति के ही माध्यम से पहुँच सकते हो। तो तुम्हारे लिए तो प्रकृति ही पहली चीज़ हुई न, ठीक वैसे ही जैसे “गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागुं पाय।” कैसे पहुँचोगे गोविंद तक, सामने तुम्हें एक सगुण चाहिए। सगुण माने गुण सारे किसके होते हैं? त्रिगुणात्मक कौन है? प्रकृति। सामने एक सगुण गुरु चाहिए न, नहीं तो गोविंद तक पहुँचने के लिए कोई सीढ़ी ही नहीं है, वो तो आसमान में बैठे हैं। निराकार तक साकार के हाथ कैसे पहुँचेंगे? तो प्रकृति ही सीढ़ी है, प्रकृति ही गुरु है। प्रकृति ही बोधदायिनी भी है। और जो प्रकृति की उपेक्षा करके या शोषण करके भौतिक सुख पाना चाहता है, वो भौतिक जगत में पिटता है। और जो प्रकृति की उपेक्षा करके आध्यात्मिक उन्नति पाना चाहता है, वो अध्यात्म में पिटता है।
प्रकृति माने, मैं उम्मीद कर रहा हूँ आप ये नहीं सोच रहे हैं कि बस पेड़–पौधों और नदियों–पहाड़ों की बात कर रहा हूँ। सब कुछ प्रकृति है। वो जो मानवकृत है, वो भी। अच्छा, चिड़िया का घोंसला प्राकृतिक है कि नहीं? तो आपका घर क्या हुआ?
श्रोता: प्राकृतिक।
आचार्य प्रशांत: तो आपका कंप्यूटर भी क्या हुआ?
श्रोता: प्राकृतिक।
आचार्य प्रशांत: और ये बात लोगों को अजीब लगेगी क्योंकि हम ऐसे सोचते नहीं कि कंप्यूटर भी प्राकृतिक है। पर अगर चिड़िया का घोंसला प्राकृतिक है तो कंप्यूटर भी प्राकृतिक है।
जो कुछ भी इंद्रियों से अनुभव्य है, वो सब प्राकृतिक है। चाहे वो सीधे-सीधे मिट्टी से उठा हो या मिट्टी से ये जो पुतला उठा हो, इस पुतले ने बनाया हो, वो सब प्राकृतिक ही है। हाँ, आप ये कह सकते हो, एक प्राइमरी रूप से प्राकृतिक है और एक सेकेंडरी तरीक़े से प्राकृतिक है। फिर एक टर्शरी तरीक़े से भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, मैंने बनाई फैक्ट्री और फैक्ट्री ने बनाया फोन। तो प्राइमरी उत्पाद कौन हो गया प्रकृति का?
श्रोता: मैं।
आचार्य प्रशांत: सेकेंडरी क्या हो गया?
श्रोता: फैक्ट्री।
आचार्य प्रशांत: और टर्शरी क्या हो गया?
श्रोता: फ़ोन।
आचार्य प्रशांत: लेकिन है तो सब प्राकृतिक ही। आ रही है बात समझ में?
तो जो कुछ भी जानना, सीखना है, इसी जीवन से ही सीखना है। इसके अलावा कुछ नहीं है। इसी बात को सांकेतिक तरीक़े से बार-बार समझाया गया है कि विष्णु भी फँस गए थे, सो रहे थे और क्या उनके मैल से वो पैदा हो गए दो और वो लड़े रहे हैं। और फिर माँ आती हैं कहती हैं। इसी तरह से जितने भी हम देवी–देवताओं की बात करते हैं, वो सब वहाँ पर आते हैं और सब जब अपनी सारी शक्तियाँ सामूहिक रूप से संकलित करते हैं, तो फिर जो पुंज है। ये बताने का मतलब क्या है? कि नंबर एक पर तो एक ही चीज़ आती है, क्या? ये जगत, ये जीवन। इससे अछूते रहकर या इसके अज्ञान में रहकर तुम कुछ हासिल नहीं कर पाओगे, न विद्या, न अविद्या। आ रही है बात समझ में?
हमें ऊँचा दर्शन मिला, हमें ऊँचे-ऊँचे संकेत मिले, ज्ञान के साथ प्रेम आता ही आता है। जो ज्ञानी पूर्वज थे हमारे, उन्होंने हमारे प्रेम में हमें उच्चतम ग्रंथ दिए, पर हम ऐसी नालायक संताने निकले हैं कि देखो हमने क्या का क्या बना दिया। क्या हमें दिया गया था? क्या विरासत थी और हमने उसका क्या कर डाला है! जो देवी स्वयं प्रकृति हैं, महामाया हैं उनके पर्व पर तुम और ज़्यादा जानवरों को काटते हो। ये बुद्धि है तुम्हारी? जो सबकी माँ है, उनके शिशुओं को तुम उनके पर्व के नाम पर काट रहे हो और फिर चाह रहे हो माँ प्रसन्न हो जाए। बड़े हैवी ड्राइवर हो।
तो बड़ा विविड, बड़ा विषद वर्णन है वहाँ पर कि कैसे फिर शेर ने जाकर के किस राक्षस की गर्दन तोड़ी और कैसे मारा। वो मूर्खों के मन में डर का संचार करने के लिए ही है। ये जो तुम कर रहे हो न यही हश्र होना है तुम्हारा। एक हाथ काटा कि दो हाथ काटा और सिर काटा, तब भी मान नहीं रहा था। जहाँ-जहाँ उसके ख़ून की बूंद पड़ती थी, वो फिर खड़ा हो जाता था। तो एक साथ इतनी देवियाँ खड़ी हो गईं और लपलपाती जीभ। वो जो नीचे बैठा हुआ है, उसको तुम क्या सोच रहे हो वो महिषासुर है? महिष माने क्या होता है? तो वो हम ही हैं, पशुता। जो पुराना हम में, जो पाश्विक वृत्तियाँ बैठी हुई हैं। पशु नहीं, पशुओं से तो माँ को प्रेम है। इंसान की पाश्विक वृत्ति का दमन करना होता है। तो फिर ऐसे (देवी हाथ में शस्त्र उठाती हैं) ले, मर!
और हम सोचते हैं कि इन्हीं पाश्विक वृत्तियों के और नंगे प्रदर्शन का नाम है त्योहार मनाना। हमें माफ़ी मिलेगी, माँ क्षमा करेंगी? और फिर हमें ताज्जुब होता है कि जीवन में दुःख क्यों है। माँ को इतना रुष्ट करोगे तो जीवन में दुःख नहीं रहेगा तो क्या रहेगा। संकेतों से भरी पड़ी ये पूरी दुर्गा सप्तशती, शब्द में, पाँत में, श्लोक में, हर जगह सब कुछ सांकेतिक है। हम इतनी बार चर्चा कर चुके हैं, उस पर कितने घंटों तो हमने बात करी है, एक-एक श्लोक पर बात करी है। वो समझना ही है इन नौ दिनों का सदुपयोग। आ रही है बात समझ में?
और छोटा या दबा हुआ या हीन मत अनुभव करिएगा कि दुनिया ऐसे कर रही है, मैं नहीं कर रही। माता आप पर ही प्रसन्न होने वाली हैं। सही काम करने में लज्जा कैसी, ग्लानि कैसी।
एक सज्जन आए, बोले, “अरे माँ भी तो मांस खाती हैं और मदिरा पीती हैं।” तो मैंने चिन्हित करके, लिख करके बताया कि श्लोक है, साफ़-साफ़ पढ़ो। क्या कह रही है सप्तशती? सप्तशती कह रही है, असुरों का मांस खाती हैं और उनके रक्त को मदिरा की तरह पीती हैं। ये नहीं कहा जा रहा है कि तुम भी मांस खाओगे तब जाके नवदुर्गा मनेगी। मुर्गे और बकरे का मांस थोड़ी खा रही है माँ! असुरों का मांस खा रही हैं। और वो बात भी सांकेतिक है कि असुरों का संहार किया जा रहा है।
माँ कोई मिथिकल कैरेक्टर नहीं हैं, इतना ही समझ लोगे तो पर्याप्त होगा। माँ कोई मिथिकल कैरेक्टर नहीं हैं, ये समूची प्रकृति, ये अस्तित्व, पूरा ब्रह्मांड जिसमें दृश्य और दृष्टा दोनों शामिल हैं, इसी को कहा जाता है माँ। और चूँकि वो बड़ी माँ हैं तो, माने एक तो होती हैं जिन्होंने इस व्यक्तिगत शरीर को, एक व्यक्ति मात्र को जन्म दिया, तो उनको हम क्या कहते हैं? माँ, माताजी। तो इसीलिए, क्योंकि वो ब्रह्मांड की ही जन्मदात्री हैं, तो उनको हम क्या बोलते हैं? बड़ी माँ। अगर इतना भी समझ लोगे कि माता से आशय क्या है, तो बहुत तरह की मूर्खताओं और अंधविश्वास से बच जाओगे।