प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सब कहते हैं कि सबसे ताक़तवर रिश्ता माँ-बाप और बच्चों का होता है लेकिन अगर मैंने माँ-बाप को न पसन्द आने वाली लड़की से शादी करने का फैसला लिया तो वो रिश्ता भी तोड़ देते हैं। तो फिर इस रिश्ते का क्या अर्थ है? और अगर इसका ऐसा ही है तो फिर हम ये सब जो रिश्ते बनाते हैं, ये क्यों बनाते हैं? मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा कि जीवन है क्या?
आचार्य प्रशांत: तुम्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा होता तो तुम पहली बात ये क्यों लिखते कि सबसे ताक़तवर रिश्ता माता-पिता और बच्चों का होता है, तुम्हारा सवाल तो उसी मान्यता पर आधारित है। तुमने इतना तो समझ ही लिया है कि लोग जो बोलते हैं, ठीक ही बोलते हैं, या कम-से-कम आंशिक रूप से ठीक बात है कि सबसे ताक़तवर रिश्ता माँ-बाप और बच्चों का होता है।
वो बात माने बैठे हो लेकिन अब, जब दुनिया को देख रहे हो तो अनुभव तुम्हें कुछ और ही हो रहा है। तुम्हें तो ये पता था कि माँ-बाप और बच्चों का सबसे स्वस्थ, सुन्दर और ताक़तवर रिश्ता होता है और अब तुम पा रहे हो कि किसी लड़की वग़ैरा को पकड़ा है तुमने, शादी-वादी करना चाहते हो तो वही माँ-बाप अब तुम्हारी गर्दन पकड़ रहे हैं। तो परेशान हो, कह रहे हो, ये तो बात नहीं समझ में आ रही। बात क्या नहीं समझ में आ रही?
तुम्हारी मान्यता ही ग़लत थी। तुम काहे को मान रहे थे कि माँ-बाप और बच्चों का रिश्ता बड़ा स्वस्थ, सुन्दर, मज़बूत और सशक्त होता है? वो वैसा ही होता है जैसा होता है, क्या है उसमें? कोई इसमें गुत्थी नहीं है, गर्दन तो तुम्हारी पकड़ेंगे ही। जब तुम पैदा हुये थे, तब भी तुम्हारी गर्दन ही पकड़कर बाहर निकाला था। शुरुआत ही वहाँ से होती है। ये तुमको हैरानी किस बात की है, मैं तो इसपर हैरान हूँ।
एक गड्ढा है; यूँही गड्ढे बहुत होते हैं और तुम उसके किनारे बैठकर के सिर धुन रहे हो कि कुँए में जल नहीं है तो तुम पगले हो! किसने तुमसे कह दिया कि ये कुँआ है? और किसने तुमसे कह दिया कि इसमें शीतल जल होना चाहिए? तुम्हारी तकलीफ़ ये है कि तुम माने बैठे थे कि इन गड्ढों में तो शीतल जल होता है। अरे! उनमें होता ही नहीं है और ऐसा नहीं कि तुम्हारे ही गड्ढे में नहीं है, किसी के गड्ढे में नहीं होता।
हाँ, कुछ लोगों को संयोगवश कभी ये जाँचने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती कि उन गड्ढों में जल है या नहीं है; उन्हें जाँचने की ज़रूरत नहीं पड़ती तो वो अपनेआप को बहलाये रहते हैं, वो अपनेआप को फुसलाये रहते हैं कि मेरे गड्ढे में तो बहुत जल है, मेरे रिश्ते तो बड़े मीठे, बड़े सुन्दर और बड़े मज़बूत हैं। वो मीठे, सुन्दर और मज़बूत अभी लग ही इसीलिए रहे हैं क्योंकि उनकी परीक्षा नहीं हुई है। जिस दिन परीक्षा हो जाएगी उस दिन तुम भी श्यामलाल के साथ बैठोगे, दो गड्ढे अगल-बगल, और दोनों कह रहे हैं कि मेरे कुँए में जल नहीं। ये कुॅंआ है? इसमें कोई गहराई है? इसमें जल निकलेगा?
ये तो यूँही है, खड्डा बोलते हैं इसको। इसमें कभी जल अगर भर भी जाता है तो इसका जल नहीं होता, वो ऊपर से बरसा है। कुछ दिन के लिए इसमें दिखायी देता है और फिर सूख जाता है। जो ऊपर से बरसता है वो जल जब खड्डे में भरता है तो जल नहीं कहलाता, कीचड़ कहलाता है। कुँए में ऊपर से नहीं आता, कुँए में अन्दर से आता है। कुँए में बाहर से नहीं आता पानी, कहाँ से आता है? अन्दर से आता है; उसमें से फिर निकाल लो, उसे फ़र्क नहीं पड़ता, वो फिर भर लेगा। और गड्ढे का पानी निकाल लिया तो, गायब। तुम्हारी तकलीफ़ ये है कि तुम्हें सिखा दिया गया है कि गड्ढा बड़ा गहरा है, अनन्त सागर से अपने प्राण और पोषण लेता है, जलनिधि से इसमें जल की आपूर्ति होती है।
ऐसा ही है बेटा! ‘माँ-बाप और बच्चे’, क्या माँ-बाप और बच्चे? लड़का-लड़की पन्द्रह साल के हुये नहीं कि माँ-बाप बन सकते हैं, फिर? बहुत अक्ल जाएगी उनमें? अब ये जो बच्चा पैदा हुआ है उसको सिखाएँगे कि हम देवी-देवता हैं, हमने पैदा किया है। वो देवी-देवता ने नहीं पैदा किया, वो पैदा इसलिए हो गया था क्योंकि देवीजी बहकी हुई थीं और देवता जी ठरके हुए थे। पर ये बात कभी किसी बच्चे को आज तक बतायी नहीं गयी है कि बेटा तू हमारी भूल का अन्जाम है, बेटा चाहते तो हम यही थे कि तू पैदा ही न हो पर पता ही तीसरे-चौथे महीने में चला, तबतक बहुत देर हो चुकी थी।
तुम्हें क्या लगता है, दुनिया की पिचानवे प्रतिशत आबादी परमात्मा से की गयी प्रार्थनाओं का नतीजा है? वो हवस के एक क्षण की पैदाइश हैं सब, बीस में से उन्नीस लोग। और बाद में पता चलता है, जब देवीजी जाकर देवता जी को बताती हैं, सुनो जी! दो महीने बीत गए हैं, कुछ हुआ नहीं; तो देवता जी, बिलकुल हक्के-बक्के। पर अब बात ज़ाहिर हो गयी है, सामाजिक मान्यता का भी प्रश्न है, सम्मान वग़ैरा की बात है तो कहते हैं, अब कोई बात नहीं, आने दो, आ ही जाए। और जो बाकी पाँच प्रतिशत होते हैं वो आयोजित होते हैं। वो ऐसे आयोजित होते हैं कि लड़के की चाह है, तो चलो फ़लाने तरह का आसन लगाकर के करते हैं, उससे लड़का पैदा होगा।
पाँच-सात लड़कियों का पहले गर्भ में ही वध कर देते हैं; तबतक लड़कियों का गर्भ में वध करते रहो जबतक पता न चल जाए कि इस बार लड़का है, फिर उसको पैदा होने दो। जानते हो, एक बहुत विचित्र और भयानक अनुपात में घरों का आख़िरी बच्चा लड़का होना तय होता है। जिन भी लोगों के तीन-चार बच्चे हों, उसमें जाकर के यूँही एक सर्वेक्षण कर लेना, तुम पाओगे कि ऐसा बहुत ज़्यादा हो रहा है कि जो आख़िरी बच्चा है वो लड़का है। ये क्या चक्कर है? तुमने सोचा नहीं? ऐसा कैसे हो रहा है कि आख़िरी बच्चा लड़का निकल रहा है? क़ायदे से तो ये होना चाहिए था कि फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी परसेंट। (पचास-पचास प्रतिशत)
भाई, लड़के और लड़की दोनों के पैदा होने की सम्भावना बराबर की होती है, एक बटा दो और एक बटा दो, पर ये ऐसा कैसे हो जाता है कि आख़िरी बच्चा दो-तिहाई या तीन-चौथाई लड़का ही होता है? ये एक बटा दो इतना बढ़ कैसे गया? वो ऐसे ही बढ़ गया कि पूरी कोशिश की गयी थी कि लड़की आये न। पर कभी-कभार पूरी कोशिशों के बावज़ूद भी वो जिद्दी आ जाती है, वो हठी है, वो मान नहीं रही, वो पैदा हो गयी और जब वो पैदा हो गयी तो उसको बताया जा रहा है, ‘माँ देवी है, बाप देवता है।’
और ये नहीं बताऍंगे कि मिलकर हम तेरा क़त्ल कर देना चाहते थे गर्भ में ही, कर नहीं पाये और न कभी लड़के को ये बताया जाएगा कि बेटा! तू पाँच लड़कियों के क़त्ल के बाद पैदा हुआ है और न ये बताया जाएगा कि उनका क़त्ल इसलिए किया गया क्योंकि हमें दहेज का लालच था। तीन लड़कियाँ पहले पैदा हो चुकी थीं, पता था कि इनके साथ तो घर से बाहर जाएगा मामला, धन। तो कुछ वापस भी आये तो इसके लिए हवस थी, एक लड़के की। और ये भी था कि हमारे बाद दुकान में कौन बैठेगा।
तुम हो कहाँ! तुम ये सवाल पूछ रहे हो, पता नहीं तुम अभी बाप बने हो या नहीं, तुम ही बन जाओ बाप। और ऐसे तो हो तुम जो सवाल पूछ रहे हो; बाप बन जाओगे फिर लड़के से कहोगे, मेरे पाँव छूओ! मैं ही परमात्मा हूँ। फिर उसे पिक्चर दिखाओगे, जिसमें शाहरुख खान बोल रहा होगा कि भगवान ख़ुद ज़मीन पर नहीं आ सकता, इसलिए वो माँ भेज देता है। और तुम कहोगे, 'ये देखो, ये है ब्रह्मवाक्य।'
विरले होते हैं वो माँ-बाप जो वास्तव में माँ-बाप कहलाने के योग्य हों। असली माँ-बाप वो हैं जो लड़के को सिर्फ़ देह न दें, उसे ये भी समझा दें कि वो देह नहीं है। आपने बच्चा पैदा किया, आपने देह पैदा कर दी और आप दिन-रात उसमें देहभाव ही भरे जा रहे हो। असली माँ-बाप वो हैं जो बच्चे को देह दें और फिर उसे देहभाव से मुक्ति भी दें। ऐसे माँ-बाप करोड़ों में एक होते हैं। हाँ, उन माँ-बापों और बच्चों के बीच में जो रिश्ता होता है वो दैवीय होता है, उस रिश्ते को प्रेमपूर्ण कहते हैं।
वो असली माँ-बाप हैं और फिर उनका बच्चा असली बच्चा है और बाक़ी सब मामला नकली है; तुम किन झंझटों में फँसे हो? और जो असली माँ-बाप होंगे, उन्हें इस बात से नहीं फ़र्क पड़ेगा कि तुम किससे शादी कर रहे हो कि नहीं कर रहे हो। वो कहेंगे कि हमने एक शारीरिक रूप से स्वस्थ लड़के को पैदा किया और फिर उसे मानसिक रूप से भी स्वस्थ बना दिया, अब वो अपनी ज़िन्दगी के निर्णय लेने में क़ाबिल है, सक्षम है, अगर हमें ही ये सब तय करना है कि वो किससे शादी करेगा और किससे नहीं करेगा तो फिर तो हमने एक अपाहिज पैदा किया है।
काश कि और हों असली माँ-बाप। काश कि माँ-बाप जानें कि असली अर्थ क्या होते हैं जन्म देने के। कामक्रीड़ा हो गयी, उसके बाद माँ के गर्भ से शिशु का जन्म हो गया, इसको जन्म नहीं बोलते हैं। ये काम तो कोई भी कर लेता है। एक पागल आदमी और एक पागल औरत भी बच्चे को जन्म दे सकते हैं। बिलकुल विक्षिप्त हों आदमी-औरत दोनों, वो भी जन्म दे लेंगे, तो? सारे जानवर जन्म देते हैं बच्चों को, तो? पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, मछली, पक्षी सब जन्म देते हैं बच्चों को, तो? कुछ नहीं रखा जन्म देने में, जन्म देने भर से रिश्ते में कोई जान नहीं आ जाती। मैं प्रार्थना करता हूँ कि और-और-और बहुत ज़्यादा ऐसे माँ-बाप हों जो जन्म देने का वास्तविक अर्थ समझें और अपने बच्चों को वास्तव में जन्म दे पायें; सिर्फ़ शारीरिक जन्म नहीं।
प्र२: आचार्य जी, क्या आप समझा सकते हैं कि द्रष्टा, दृश्य, दर्शन एक क्यों कहे जाते हैं अद्वैत वेदान्त में? या ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय ये तीनों एक क्यों कहे जाते हैं?
आचार्य: इसका उत्तर अभी थोड़ी देर पहले ही दिया था मैंने, चेतना कैसे अपने दो खंड करती है और एक खंड को नाम देती है ‘मैं’ का, दूसरे को नाम देती है ‘संसार’। तो मैंने द्वैत से आपको समझाया था, ये जो द्वैत है ये वास्तव में त्रैत होता है। क्योंकि आप होते हो ‘द्रष्टा’, सामने होता है ‘दृश्य’, और ये जो द्रष्टा द्वारा दृश्य को देखने की घटना घट रही होती है इसको कहते हैं ‘दर्शन'। ठीक है?
इसी तरीक़े से आप होते हो ‘ज्ञाता’, जिसको आप देख रहे होते हो वो कहलाता है ‘ज्ञेय’ और ज्ञाता-ज्ञेय के मध्य जो रिश्ता होता है उसको कहते हैं ‘ज्ञान'। ज्ञाता, ज्ञेय का संज्ञान ले रहा है, ये रिश्ता है। तो द्वैत ही त्रैत है। दो की बात करो तो दो हैं, द्वैत है और उसमें ये भी जोड़ दो कि इन दो में रिश्ता क्या है तो उसी को कहते हैं त्रैत। ठीक है?
तो आप पूछ रहें हैं कि अद्वैत वेदान्त इन तीनों को एक क्यों बोलता है? क्योंकि विभाजन ही नकली है; तुमने दो बना दिये हैं, जहाँ दो थे नहीं। तुम संसार को अपने से अलग समझ रहे हो, जबकि संसार कुछ और नहीं है, तुम्हारा ही प्रक्षेपण है। समझना बात को, इसका अर्थ ये नहीं है कि वो दीवार तुम्हारी आँखों से निकलकर के वहाँ खड़ी हो गयी है; तुम्हारी आँखों से निकलकर दीवार नहीं खड़ी हो गयी है लेकिन वो दीवार द्विआयामी इसलिए है क्योंकि तुम्हारी आँखें या तो दो आयाम देख सकती हैं या तीन आयाम।
तुमने कभी कोई दीवार देखी है जो पाँच आयामों में हो? दुनिया में तुम्हें जो कुछ भी दिखता है, वो कितने आयामों में है? तीन, क्यों? क्योंकि तुम इस तरीक़े से अभिकल्पित हो, संरचित हो, डिज़ाइन्ड हो कि तुम सिर्फ़ देख ही सकते हो त्रिआयामी वस्तुओं को। तो दुनिया में तुम्हें सबकुछ कैसा दिखायी देता है? त्रिआयामी। दूसरी बात, जो वस्तुएँ तुम्हें दिखायी देती हैं, उनको तुम कभी मात्र वस्तुओं की तरह देखते नहीं, उनमें हमेशा तुम अर्थ भरते हो और वो अर्थ वस्तुओं के नहीं हैं, तुम्हारे हैं।
तो तुमने दो काम करे, पहली बात तो तुमने एक त्रिआयामी जगत अपने चारों ओर खड़ा करा है — ये तुम्हारे जैविक संस्कार करते हैं — और तुमने दूसरा काम ये करा है कि तुमने उस त्रिआयामी जगत में बहुत सारे रंग और अर्थ भर दिये हैं। ये दोनों ही काम करा किसने है? तुमने। पर तुम्हारा दावा क्या है? कि संसार मुझसे अलग है। संसार अलग कैसे है? तुम ही उसे खड़ा करते हो फिर तुम ही उसको रंग-रोगन करते हो और फिर कहते हो कि तुमसे अलग है।
वास्तव में, दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसका सूत्र, जिसका सिरा तुम्हारे भीतर न हो। अगर तुम्हें कुछ दिखायी दे रहा है तो समझ लो कि तुम्हारे भीतर वैसा कुछ है अन्यथा वो तुम्हें दिखायी नहीं देता। जो झूठ से बिलकुल खाली हो जाता है उसे बाहर कहीं झूठ नहीं दिखायी देता। तुम जिस चीज़ से खाली हो गये वो तुम्हें बाहर दिखायी देनी बन्द हो जाएगी। ये बात दीवार पर नहीं लागू होती, पूछो क्यों? क्योंकि दीवार पदार्थ है और पदार्थ से तुम पूरी तरह खाली तो हुये नहीं। एक पदार्थ तो है ही न जिसको लेकर घूम रहे हो, कौन सा? शरीर। तो जब तक तुम्हारे पास शरीर है, तुम्हें दीवार का संज्ञान होता रहेगा।
बुद्ध भी जाकर दीवार से टकराऍंगे तो गिर जाऍंगे। तुम ये नहीं कह सकते कि दीवार तो बुद्ध ने ही प्रक्षेपित करी तो दीवार से टकराकर गिर क्यों गये। क्योंकि अभी तुम पदार्थ से मुक्त हुए नहीं हो; तुम पदार्थ से जिस दिन मुक्त हो गये, उस दिन तुम दीवार से भी मुक्त हो गये, तब तुम दीवार के आर-पार निकल जाना। ये अलग बात है कि तब दीवार के आर-पार जाने के लिए कोई बचेगा नहीं, न दीवार बचेगी और न ही इस तरह की फ़िज़ूल बात बचेगी कि हमें दीवार के आर-पार निकलना है।
तुम जिस चीज़ से मुक्त होते जाओगे, वो चीज़ संसार से गायब होती जाएगी। लेकिन संसार तथ्य रूप में, पदार्थ रूप में तबतक बचा रहेगा, जबतक तुम देह रूप में बचे हुए हो। हाँ, मन को मिटा दो तो संसार में तुमने जितने मानसिक अर्थ जोड़ दिये हैं वो सारे अर्थ हट जाएँगे, अब संसार तुम्हारे लिए सिर्फ़ वस्तुएँ रह जाएगा, तथ्य रह जाएगा, अर्थ नहीं। समझ रहे हो बात को? मन को साफ़ किया जा सकता है, मन को मिटाया जा सकता है।
जिसने मन को मिटा दिया, उसके लिए संसार के सारे अर्थ हट गये, अर्थ हट गये अर्थात्, अब न उसे कहीं पर प्राप्ति की आकांक्षा है और न वो किसी चीज़ से भय रखता है। अर्थ है ही नहीं किसी चीज़ का कुछ भी, बस चीज़ें हैं, अर्थपूर्ण चीज़ें नहीं हैं, क्योंकि अर्थ कहाँ था? मन में। और मन को हमने मिटा दिया तो चीज़ों के अर्थ भी मिट गये मन के साथ, अब बस वस्तुएँ हैं। वो वस्तुएँ कब मिटेंगी? जब शरीर मिट जाएगा।
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