
प्रश्नकर्ता: सर, मैं उत्तर प्रदेश से आता हूँ, यहाँ पर सरकारी नौकरी करता हूँ। अगर मेरी धड़कन बढ़ जाए और मैं न बोल पाऊँ, तो थोड़ा समय दीजिए। इसका कारण ये है कि मेरे लिए सेलिब्रिटी फिगर हैं आप, इतने करीब से मैंने कल्पना भी नहीं की थी। ये एक कारण है कि शायद, जबकि मैं अपने ऑफिस में ऑपरेटर भी रहा हूँ, मतलब मंच-संचालन भी कर लेता हूँ, फिर भी कहीं-न-कहीं थोड़ी-सी घबराहट जैसी हो गई। फर्स्ट ऑफ़ ऑल, थैंक यू सर। ये मेरे लिए आशीर्वाद है, और इतने इज़िली से अवेलेबल रहे।
मेरा प्रश्न पिछले डिस्कशन से था। ये प्रश्न उस किताब से भी आया था, जो चैप्टर सिक्स था “स्लीप वॉकिंग थ्रू लाइफ़।” वहाँ पर जो डिस्कशन हुआ था, वो स्क्रिप्ट मतलब, हम किसी लिखी गई कहानी के हिसाब से या स्क्रिप्ट के हिसाब से अपना जीवन जीते हैं।
तो उसमें जब वो डिस्कशन हो रहा था, तो एक पिंजरे में जिस चिड़िया की बात हो रही थी। चर्चा में आपने कहा कि पिंजरे की चिड़िया को आकाश के प्रति कितना प्रेम है, ये इस पर डिपेंड करता है कि वो कितना सैक्रिफाइस या क्या कीमत देना चाहती है। लेकिन मेरा प्रश्न ये था कि अगर उस चिड़िया ने आकाश देखा ही न हो, तो वो कैसे अपनी कीमत डिसाइड दिखाए?
आचार्य प्रशांत: लव फॉर द स्काई एग्ज़िबिट्स इट्सेल्फ़ डिसगाइज्ड फॉर द केज। आकाश से प्रेम कितना है, ये कभी सीधे अभिव्यक्त नहीं होता। बिल्कुल ठीक कहा, आकाश उस चिड़िया ने नहीं, किसी ने नहीं देखा। सत्य देखने की चीज़ होती ही नहीं है, तो कौन देख लेगा? सत्य ऐसी चीज़ थोड़े है कि जाकर देख आओगे, अनुभव कर आओगे। पर उस अदृश्य के प्रति प्रेम होता है, वो प्रेम अभिव्यक्त कैसे होता है? पिंजरे के प्रति नकार से। आपमें पिंजरे को लेकर जितना विरोध उठता है, वही सूचक है कि आपमें आकाश को लेकर प्रेम कितना है।
आकाश को कोई भी प्रत्यक्ष प्रेम नहीं कर सकता, क्योंकि आकाश प्रत्यक्ष है ही नहीं। प्रत्यक्ष माने, प्रति-अक्ष, अक्ष – आँख, आँख के सामने। आकाश है ही नहीं, वो ऐसी चीज़ ही नहीं है कि आँख के सामने आ सके।
आकाश से कोई प्रत्यक्ष प्रेम नहीं कर सकता। आकाश से प्रेम है कि नहीं, वो बस इसी से पता चलेगा कि पिंजरे को देखकर आग उठती है कि नहीं, पिंजरे के प्रति विरोध, विद्रोह उठता है कि नहीं। वही प्रेम का सूचक है।
श्रोता: हाँ, लेकिन जब हम उसकी कीमत चुकाने के लिए आगे बढ़ते हैं, और वो कीमत जब हमारा पूरा जीवन या पूरा अस्तित्व ही जा रहा हो, मतलब हमारा वर्तमान, परिवार, घर, या जो कुछ हम कर रहे हैं वो सब कुछ एक साथ छूट रहा हो, मतलब उसके आस-पास की कीमत हो, तो शायद घबराहट जैसी होती है।
आचार्य प्रशांत: पर इतना तो आपने अभी देखा ही नहीं है न कि आप सब छोड़ दोगे। जो इतना देख लेता है, उसका सब छूट जाता है। सीइंग इज़ बीइंग। ये तो अभी आप बस हवाई उड़ा रहे हो कि सत्य की तरफ़ जाऊँगा तो घर-परिवार, मेरी पूरी हस्ती, मेरा पूरा इतिहास, मेरा घर, ज़मीन, परिवार, सब छूट जाएगा। इतना बड़ा तुमने क्या देख लिया कि सब छोड़ना पड़ेगा? इतना बड़ा तो अभी तुमने कुछ देखा ही नहीं है, और देख लिया होता तो छूट गया होता।
भाई, किश्तों में ही सही, कीमत अदा कर दो। अभी तो तुमने बहुत छोटी-सी चीज़ देखी है, तो उसकी तुम्हें छोटी ही कीमत देनी पड़ेगी। तुम वो छोटी-सी किश्त भी नहीं देना चाहते हो, लेकिन कहते ऐसे हो जैसे पता नहीं क्या, तुम्हारा घर, ज़मीन, जायदाद, मियाँ-बीवी, बच्चे, सब कुछ माँग लिया जा रहा हो।
बड़ी कीमत बड़ी चीज़ की माँगी जाती है, वो बड़ी चीज़ तो तुमने कोई देखी ही नहीं है अभी तक। छोटी चीज़ की छोटी-सी किश्त दे दो, इतना काफ़ी है। और जब वो छोटी किश्त दे देते हो, तो स्पष्ट होना शुरू होता है कि सौदा मुनाफ़े का है। किश्त चुकाई है, कुछ ऐसा पाया है कि मुनाफ़े का है।
तो फिर दिल थोड़ा कड़ा करते हो, कहते हो, ज़्यादा बड़ा देकर देखते हैं अब। पहली बार ₹10 दिया था, तो बदले में ₹20 मिला। इस बार ज़रा ₹100 देकर देखते हैं, और ज़्यादा मिलेगा, ₹200। फिर ₹100 देते हो, फिर मिलता है। तो ऐसे-ऐसे करके, उत्तरोत्तर, प्रोग्रेसिवली, आदमी छोड़ता है। लेकिन जिन्हें नहीं छोड़ना होता, वो ऐसी बात कर सकते हैं कि “सत्य के लिए तो अरे, सब कुछ छोड़ देना होता है न!”
भाई, ये तुम कहाँ से उठा लाए? तुम्हें क्या पता सब छोड़ देना होता है? तुम्हें कैसे पता सब छोड़ देना होता है?
और फिर कह रहा हूँ, कि वो सत्य के इतने सम्मुख हो जाएँ, इतने निकट हो जाएँ कि उनको दिख ही जाए कि इसके लिए सब छोड़ देना होता है, वो छोड़ेंगे नहीं, उनसे तत्काल छूट जाएगा। और बाक़ी सब ऐसे ही हैं, बस वाक्-प्रपंच है, बातें हैं कि ये छोड़ना होता है, वो छोड़ना होता है। कुछ नहीं। तुम छोटी शुरुआत कर लो, उतना पर्याप्त होगा। ठीक है? छोटी शुरुआत कर लो। कोई नहीं कह रहा, सरकारी नौकरी छोड़ दो। तो तुम अभी छोटी शुरुआत कर लो, घूस लेना छोड़ दो उतना ही बहुत है। या और इधर-उधर के जो कुछ काम करते हो जो छोड़े जा सकते हों, तुम वहीं से शुरुआत कर लो।
मैं नहीं कह रहा आप लेते हो, पर मतलब ये है कि, समझ रहे हो न बात को? कि जो चीज़ें ऐसी हैं, जहाँ से शुरुआत कर सकते हो, छोटी किश्त, आप वहाँ से शुरुआत करो।
प्रश्नकर्ता: टच कर दीजिए।
आचार्य प्रशांत: कर दिया, पर मज़ा तुम्हें तभी आएगा जब तुम ख़ुद को टच करोगे।
प्रश्नकर्ता: सर, आपके गले मिल सकता हूँ?
आचार्य प्रशांत: कुछ है नहीं मेरे गले में, पर मिल लो।
प्रश्नकर्ता: जब से आपसे जुड़ा हूँ, आपको देखा है, आपने मुझे खुले सोच पाने की हिम्मत दी है। इससे पहले जब भी मैं कभी सोचता भी था कुछ चीज़ों के बारे में, सोचने पर ही डर लगने लगता है। तो अब मैं देखता हूँ कि एट लीस्ट सोचने में मुझे डर नहीं लगता। वो चीज़ें अपने मन में इतनी गहरी बैठ जाती हैं।
आचार्य प्रशांत: वो हिम्मत मैंने नहीं दी है, वो तुम्हारी अपनी है, भाई। हिम्मत तुम्हारी अपनी है। तुम उसका इस्तेमाल नहीं कर रहे थे, तुम उसका सम्मान नहीं कर रहे थे, लेकिन वो चीज़ तुम्हारी ही है।
ये सब चीज़ें इतनी अपनी होती हैं न, इतनी निजी, इतनी आत्मिक होती हैं कि ये कोई आपको बाहर से नहीं दे सकता। ये पेन नहीं है, चश्मा नहीं है, शर्ट नहीं है कि कोई बाहर से आकर आपको तोहफ़ा दे देगा, या कि भेंट या अनुग्रह नहीं हो पाता। ये अपनी ही चीज़ होती है, बस ये है कि आपके पास है, पर आप उसको रखे बैठे हो। या तो डर रहे हो, या कुछ भूल गए हो। कई कारण होते हैं।
कई बार तो घर में ही कुछ रखे होते हो, भूल जाते हो अपने घर में है, तो लगता है कि है ही नहीं। ऐसा भी होता है न, घर में कोई चीज़ है, पर भूल गए। अब जब भूल गए, तो लगता है नहीं है। कई बार होता है अपने पास कोई चीज़ है, पर उसका इस्तेमाल करने से डर लग रहा है। है न? तो कई बार है, पता भी है, इस्तेमाल करने में डर नहीं लग रहा, पर दूसरी चीज़ को इस्तेमाल करने में ज़्यादा लालच है, तो दूसरी चीज़ को इस्तेमाल कर रहे हैं, इसकी उपेक्षा कर रखी है। तो कई तरह की संभावनाएँ, स्थितियाँ होती हैं कि हम अपनी ताक़त को सक्रिय नहीं करते।
अधिक से अधिक मैं ये कर सकता हूँ कि आपको बता सकता हूँ कि हर तरह की कमजोरी ग़ैर-ज़रूरी है। मैं आपको ताक़तवर नहीं बना सकता। मैं बस ये कह सकता हूँ कि आप जिस कमजोरी को पकड़कर बैठे हो, वो आपका स्वभाव नहीं है, और इस कमजोरी को पकड़ने में आपका कोई लाभ नहीं है। मैं आपको अधिक से अधिक बस कह सकता हूँ कि ख़ुद को देखो, तुम कमजोर नहीं हो। बाक़ी ताक़त भी आपकी है, दृष्टि भी आपकी है, जीवन भी आपका है, ज़िम्मेदारी भी आपकी है। मैं बस कुछ बातें बोल सकता हूँ, बाक़ी सब आपको ही करना है। ठीक है?
तो मुझे उस चीज़ का श्रेय मत दो, जो मेरी है नहीं, जो मैंने किया नहीं। मैं बहुत छोटा आदमी हूँ, ऊँची सारी जितनी चीज़ें होती हैं, वो अपने अंदर ही होती हैं। आदमी बेटा सारे ही छोटे होते हैं। मैं ये नहीं कह रहा कि मैं तुम्हारी तुलना में छोटा हूँ, मैं कह रहा हूँ, आदमी ही छोटा होता है। ठीक है? तो
जो अच्छी, ऊँची, अनंत बात होती है, वो अपनी ही होती है, अपने भीतर की होती है, और उससे संबंध बनाने की ज़िम्मेदारी ख़ुद की होती है।
कोई दूसरा आकर बस कुछ इशारे करेगा, कुछ ये-वो, थोड़ा-सा कहेगा “देखो-देखो, उधर देखो।” वो एक चलता है न मीम, “उधर देखो, उधर देखो।” तो वैसे ही मैं भी आकर रात में 10:30 बजे बार-बार बोलता रहता हूँ, “देखो-देखो, ख़ुद को देखो।” आईना देखो, इससे ज़्यादा मैं क्या करूँगा? मैं जोकर हूँ, मैं तुम सबका जोकर हूँ।
प्रश्नकर्ता: एक्चुअली आचार्य जी, मैं बचपन से बहुत ज़्यादा सवाल पूछता था, पर महसूस ये करता था कि जब भी मैं पूछता हूँ, तो लोग, मोस्टली पता नहीं होता, तो वो दबा देते हैं। फिर मैं उसके बाद अग्रेसिव हो जाता था। या तो मैं उनको अथॉरिटी मानने से ही पूरा इंकार कर देता, कि बातें न सुनूँ। इसलिए मुझे स्कूल में वो बहुत ही बोलते थे, “अच्छा स्टूडेंट है।” पर मैं बिलकुल कभी अच्छा स्टूडेंट नहीं रहा।
आपके आगे आके बोल रहा हूँ, बट मैं कभी स्कूल में होमवर्क नहीं करता था, कि वो दे देते थे, “ये रट के आओ।” मुझे रटना बिल्कुल पसंद नहीं था। वहाँ से मैं ख़ुद पढ़ने की कोशिश कर रहा था। ऐसे में मुझे साइंटिफिक दुनिया की तरफ़ एक झुकाव हुआ। उसमें मुझे ऐसा लगता था कि साइंस में जो आदर्श है, कि हम दुनिया को देखेंगे तो दुनिया की तरफ़ एक सवाल या एटीट्यूड रखेंगे, कि जो भी आगे दिख रहा है, उसको पूछना कि वो है क्या। उसके बारे में जाँचना, पड़ताल करना। और वो चीज़ मुझे बहुत ज़्यादा दिलचस्प आई, फिर मैंने ये सोचा कि मैं आगे चलकर एक वैज्ञानिक बनूँगा।
साइंटिफिक दुनिया में मैं मैरी क्यूरी के जीवन से बहुत ज़्यादा प्रेरित हुआ हूँ, और डॉक्टर ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और भारतीय वैज्ञानिक डॉक्टर साहिल साह से बहुत इंस्पायर्ड हूँ।
आचार्य प्रशांत: सवाल जल्दी पूछ लेना चाहिए था। सारा समय सवाल ने ले लिया, मैं बोल ही नहीं पाया कुछ। अभी एक सेंटेंस दे रहा हूँ, एक सेंटेंस में कुछ बोल सकते हो तो बोलो।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप रीक्लेम करने की बात करते हैं। मैं साइंस को रिक्लेम करना चाहता हूँ।
आचार्य प्रशांत: करो। मस्त होकर करो, बिल्कुल करो, एकदम करो। ठीक है, अच्छा है।