लोग बदतमीज़ी करते हैं, हमें क्या करना चाहिए? || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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लोग बदतमीज़ी करते हैं, हमें क्या करना चाहिए? || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: मुझे ये जानना था कि ऐसा क्यों होता है कि हर मालिक चाहते हैं कि उनके एम्प्लॉईज़ उनके ग़ुलाम ही रहें। मतलब आप सैलरी दे रहे हो, कोई भी काम कर रहा है तो उस हिसाब से क्यों नहीं रहता, उनको क्यों हमेशा यही रहता है कि हम उनको आगे रह-रहकर उनसे बात करें या उनसे गुड मॉर्निंग करें, ये करे वो करें? उनके अन्दर ये भाव क्यों रहता है कि अगर हम एम्प्लॉई हैं, तो हम एम्प्लॉई के जैसे ही रहें?

आचार्य प्रशांत: हमारे घरों में सब काम करने वाले लोग लगे रहते हैं, वो भी तो काम ही कर रहे हैं न; मेहनत करते हैं उसका पैसा लेते हैं, उनमें से कितनों को हम अपने सामने, बग़ल में बैठा लेते हैं? बहुत कम होता है। अब तो फिर भी थोड़ा होना शुरू हो गया है, लोगों को इतनी जागरुकता आ गयी है, नहीं तो कहाँ करते थे?

और आमतौर पर जो लोग घरों में लगे होते हैं न, कई बार तो ये बेचारे जातियों में भी तथाकथित निचली जातियों से होते हैं। ग़रीब तो होते ही हैं, जातिगत आधार पर भी वो शोषित होते हैं। कई बार दिखता है कि सीधे इनको झारखंड या छत्तीसगढ़ से, हो सकता है ये शेड्यूल ट्राइब (पिछड़ी जाति) हों, वहाँ से लाया गया है।

मैंने देखा है, रेस्तराँ में हम बैठे होते हैं, और मियाँ बीवी और परिवार बैठकर खाना खा रहा होगा और एक लड़की होगी—प्रैम (छोटे बच्चे की बग्गी) बोलते हैं न उसको—तो वो प्रैम में बच्चे को लेकर उधर खड़ी हुई है; आपने भी देखा होगा।

मियाँ-बीवी मौज कर रहे हैं और वो एक लड़की है और वो लड़की भी कई बार पन्द्रह-सत्रह साल की होती है, बस आमतौर पर लड़कियाँ ही होती हैं। और कुछ एकदम वहाँ पर प्रत्यक्ष चिन्ह, टेल्टेल साइंस उपस्थित होते हैं।

वो लड़की ग़रीब होगी ही, वो तो है ही; वो रंग से साँवली होगी काफ़ी या काली होगी; शरीर से वो दुबली-पतली होगी। मियाँ-बीवी अक्सर थोड़े गोरे जैसे होते हैं। एकदम साफ़ होता है कि ये क्या यहाँ पर गणित है। मियाँ-बीवी खा पी रहे हैं वो बच्चे को लेकर वहाँ खड़ी हुई है। हम नहीं करते क्या ये सब, हम क्यों करते हैं?

जैसे हम करते हैं, वैसे हमारा बॉस हमारे साथ करता है। आपके घर में ये मेहरी आती होंगी, ये सब आती होंगी, आपका उनसे कितना प्रेमपूर्ण और समानता का व्यवहार रहता है, बताइए न? वो भी तो सिर्फ़ एम्प्लॉईज़ ही हैं; जैसे आप एम्प्लॉईज़ हैं कहीं पर, वैसे ही वो आपके एम्प्लॉई हैं। आप बताइए आपका उनसे क्या व्यवहार रहता है?

और जैसा ठीक आपका व्यवहार रहता है उनके साथ, वैसा ही फिर आपके बॉस का आपके साथ रहता है। आपकी जब घर वाली बाई आपसे छुट्टी माँगती है आप कैसे व्यवहार करते हो, बताओ? वैसे ही आप जब अपने बॉस से छुट्टी माँगने जाते हो, वो भी वैसे ही व्यवहार करता है और बिलकुल उसी कारण से वैसा व्यवहार करता है।

वो घर में जो आपके खाना बनाने वाली दीदी लगी होती है, वो खाना जब ख़राब बना देती है तो आप उससे कैसा चेहरा करके बात करते हो? जैसा चेहरा आप करते हो, आपका बॉस भी आपके साथ वैसा ही चेहरा कर देता है।

और जिस दिन आप अपने घर वाले नौकर से या काम वाली दीदी से तमीज़ से बात करना शुरू कर दोगे न, उस दिन आप अपने बॉस की बदतमीज़ी भी बर्दाश्त करना बन्द कर दोगे। मामला दोनों तरफ़ का है।

भारत में जो चला है, इसको विद्वानों ने कहा है ग्रेडेड एक्सप्लॉयटेशन। हर जाति से ऊपर की भी कोई जाति होती है, और वो उसको इसलिए झेल लेता है कि क्योंकि उससे नीचे की भी कोई जाति होती है। यहाँ कोई जाति ऐसी नहीं है जिसके नीचे कोई जाति न हो।

तो वो ऊपर की जातियों का सारा व्यवहार झेल जाता है, कहता है, ‘नीचे वाले तो हैं, इनको लगाऊँगा।‘ और जो एकदम सबसे नीचे वाले लोग हैं उनके पास भी एक जाति तो है ही, उसे औरत जात बोलते हैं। जो एकदम सबसे ज़्यादा अति दलित होगा उसके पास भी घर में बीवी तो है न? तो इसलिए आप सब झेल जाते हो।

नानक साहब सिखाते हैं “निर्भय निर्वैर” — जो दबेगा नहीं वो दबाएगा नहीं। जो दबेगा नहीं वो दबाएगा नहीं। जो डरेगा नहीं वो डराएगा नहीं। जब तक आप दूसरों को डरा रहे हो, आपको कोई हक़ नहीं है ये कहने का कि कोई मुझे क्यों डराता है। आप उस व्यस्था में बराबरी के भागीदार हो।

दिल को टटोलिएगा, ऑटो वाले से और ऊबर (टैक्सी कंपनी) वाले आपका व्यवहार थोड़ा अलग हो जाता है। सड़क किनारे वो जो सब्जी वाली बैठी होती है, और मेगामार्ट में भी आप जब सब्जी ख़रीदते हो, आपका व्यवहार अलग हो जाता है।

अब हो सकता है न होता हो पर पहले वो जो भारी सब्ज़ी मंडियाँ लगा करती थीं सब शहरों में, वहाँ ऐसा होता ही नहीं था कि मोल-भाव न करो आप। उसने अगर बोल दिया दस रुपये तो आप बोलोगे-ही-बोलोगे आठ रुपये। बताओ ऐसा आप कौनसे मेगामार्ट में बोलते हो? वहाँ तो वो लिख देते हैं, ये रहा करेला और ये रहा इसका दाम, वहाँ चिपका देते हैं, कौनसा मोलभाव करते हो आप, बताओ?

एयरलाइंस की टिकट में आपने कब नेगोशिएशन (मोलभाव) करी थी, बताना? ऑटो वाले से आप नेगोशिएट न करो, हो नहीं सकता। फ़ाइव स्टार होटल में चले जाते हो, आपका व्यवहार देखा है कैसा हो जाता है? जैसे अभी-अभी टीचर्स ने आपको गुड मैनर्स (शिष्टाचार) सिखा कर भेजे हों सारे।

वहाँ वो जो दरवाज़े पर लम्बा-चौड़ा दरबान खड़ा रहता है न, आप उससे ज़्यादा वेल मैनर्ड (शिष्ट) हो जाते हो। जैसे ही वो आपको बोलता है नमस्ते, आप उससे ज़्यादा झुककर, ‘जी नमस्ते’। और यही ढाबे पर जाते होते हो तो बोलते हो, ‘चल चवन्नी प्लेट लगा’। आप नहीं बोलते पर मतलब समझो, भाव तो वही है।

जिस दिन आप चवन्नी का शोषण करना बन्द कर दोगे, उस दिन आपका बॉस भी आपका शोषण करना बन्द कर देगा। और चवन्नी क्यों शोषण बर्दाश्त कर रहा है? क्योंकि चवन्नी के घर पर दस पैसे की उसकी बीवी है, वो सारा शोषण जाकर उस पर निकाल देता है।

सबको कुछ-न-कुछ मिला हुआ है। तो वो दस पैसे वाली को क्या मिला हुआ है, वो क्यों झेलती है? उसको धर्म मिला हुआ है। उसको बताया गया है तू ये सब झेल लेगी तो तू पति-परायण, ईश्वर-परायण, पतिव्रता कहलाएगी, और तुझे अगले जन्म में रानी बनने का सौभाग्य मिलेगा। तो वो इसलिए झेल लेती है सबकुछ। और तू ये सब अगर नहीं झेलेगी तो अगला जन्म छोड़ दे, इसी जन्म में समाज द्वारा बहिष्कृत हो जाएगी। तो वो इसलिए झेल लेती है सबकुछ।

आजकल ये मुझ पर अपनी ओर से बड़ी एक तोहमत लगाते हैं, बड़ा भरी इल्ज़ाम! कहते हैं, ‘ये वामपंथी है, ये वामपंथी है, आचार्य नहीं ये वामपंथी है।’ मैं कहता हूँ अगर मैं वामपंथी हूँ तो तुम्हारे सारे उपनिषद् फिर वामपंथ के हैं। मैं तो वही बोल रहा हूँ जो मुझे वेदान्त ने सिखाया है, अगर मैं वामपंथी हूँ तो पूरी सनातन धारा ही वामपंथी है। फिर तुम बताओ तुम कौन हो? जो सनातनी है वो तो वही बात बोलेगा जो मैं बात बोल रहा हूँ। ये बात तुम्हें वामपंथ की लगती है, तो फिर सनातन ही वामपंथ है।

जैसे ही बात करो शोषित, शोषक और शोषण की, ये तुरन्त मुझे बोलना शुरू कर देते हैं ‘ये तो वामपंथी है, ये तो वामपंथी है।’ भई, मुझे तो मेरे सन्तों ने यही सिखाया है कि अत्याचार नहीं झेलना है, न करना है, न होने देना है। तो मैं तो सन्तों की बात कर रहा हूँ, तो फिर तो सारे सन्त भी वामपंथी थे।

बिलकुल ऐसा हो सकता है कि उपनिषदों में जो लिखा है वही असली वामपंथ है, क्यों नहीं हो सकता? और तुम फिर जिस परम्परा का पालन कर रहे हो, तुम बताओ वो कौनसी है, वो कौनसा पंथ है? जाकर ऋषियों पर भी इल्ज़ाम लगाओ न फिर वामपंथी होने का। सारे ऋषियों से बोलना कि तुम वामपंथी हो।

मैं उपनिषदों के ऋषियों की बात कर रहा हूँ, इधर-उधर के जो तुमने टटपूंझिए पकड़ लिये हैं, और उनको ज़बरदस्ती ऋषि बोल रहे हो, उनकी नहीं बात कर रहा। मैं बात कर रहा हूँ कपिल मुनि की, मैं बात कर रहा हूँ ऋषि अष्टावक्र की, मैं योगवाशिष्ठ के ऋषि वशिष्ठ की बात कर रहा हूँ, याज्ञवल्क्य ऋषि की बात कर रहा हूँ, ऋषि उद्दालक की बात कर रहा हूँ, मैं नचिकेता की बात कर रहा हूँ; ये सब फिर वामपंथी हुए।

और सब सन्त वामपंथी हैं। कबीर साहब हों कि नानक साहब हों, सब वामपंथी हुए। रैदास हों कि दादू दयाल, सब वामपंथी हो गये। श्रीकृष्ण भी वामपंथी हो गये, अब क्या करें? भगवद्गीता से बचकर कहाँ जाओगे? अगर समझी होती भगवद्गीता तो मुझे अनाप-शनाप नहीं बोलते।

जब समानता की बात आती है तो आत्मा से बड़ी समानता कोई हो सकती है? जितनी तुम्हारी असमानताएँ हैं, सब मिथ्या हैं — यही तो वेदान्त है और क्या है? सब असमानताएँ मिथ्या हैं, तुम सब समान ही नहीं हो, समान से आगे तुम सब एक हो। सब आत्मा मात्र हो।

अब बताओ और क्या करें असमानताओं का? और जैसे ही बोलो कि सब समान हैं, सब एक हैं, ये चिल्लाने लग जाते हैं, वामपंथ-वामपंथ। तो इनके अनुसार तो सबसे बड़ी वामपंथी बात क्या है? सत्य! क्योंकि सत्य तो एक होता है, सत्य तो असमान नहीं हो सकता। समानता तो सबका आदर्श रही है। जब भी किसी का शोषण हुआ है, तो जीवन को समझने वाले किसी भी व्यक्ति को ये बात नागवार रही है।

जर्मनी के नीत्शे को नाज़ी पार्टी ने अपना आदर्श बना लिया, और वो ज़बरदस्त राइट विंग (दक्षिण पंथी) है, नाज़ी पार्टी। उन्होंने नीत्शे को अपना आदर्श बना लिया यहाँ तक की द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब उन लोगों पर ट्राइल हुए जिनकी वजह से, जिनके द्वारा जो सैद्धान्तिक प्रेरणा दी गयी उसकी वजह से विश्वयुद्ध हुआ दूसरा, तो उसमें नीत्शे का भी नाम आ गया नीत्शे की मौत के कई दशकों बाद।

अब नीत्शे मर चुके हैं पर नीत्शे को अपराधी ठहराया गया कि इसी के कारण विश्वयुद्ध हुआ है, क्यों? क्योंकि नीत्शे को पकड़ लिया था नाज़ी पार्टी ने। और ये वही नीत्शे हैं जो बेहोश हो गये थे जब इन्होंने एक घोड़े को कोड़ा खाता देखा था। एक आदमी अपने घोड़े को मार रहा था, नीत्शे बेहोश हो गये देखकर ये।

कौनसी जागृत चेतना अत्याचार और शोषण बर्दाश्त कर सकती है, बोलो? राइट विंग हो, लेफ्ट विंग हो, क्या फ़र्क पड़ता है? जो शोषण न बर्दाश्त करे वो सच्चा आदमी है। अब तुम उसको दक्षिण पंथी बोलो, वामपंथी बोलो, कोई पंथी बोलो क्या अन्तर होता है इससे? वो सच्चा आदमी है, बस बात ख़त्म।

कहीं कोई किसी जानवर को मार रहा था, कहते हैं कि घाव रामकृष्ण परमहंस की पीठ पर पड़ गये। कोई जानवर था या कोई व्यक्ति रहा होगा, कुछ भी। क्रोंच रुदन सुनकर के वाल्मीकि ने रामायण लिख दी।

पक्षियों का जोड़ा था, एक पक्षी उनमें से नहीं रहा तो दूसरा रोने लग गया ज़ोर-ज़ोर से, और इतना वो उससे विदग्ध हो गये बिलकुल, कहते हैं, उसी से रामायण उपज आयी।

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।

~ सुमित्रानन्दन पंत

दूसरे के दर्द से जो द्रवित न हो जाए उसको इंसान भी कैसे बोलें? वामपंथी-चरमपंथी-दक्षिणपंथी तो छोड़ दो। आप जब पूछ रही हो कि आपका बॉस आप पर क्यों अत्याचार करता है, आप जानवरों पर अत्याचार क्यों करती हो? और कितने तरीक़ों से नहीं करते? जिस दिन आप दूसरों को दुख देना छोड़ दोगे न, उस दिन आपको दुख मिलना भी बन्द हो जाएगा।

आन्त्रप्रेन्योरशिप (व्यवसाय) के नाम पर एक-से-एक कम्पनियाँ आ रही हैं जो आपके घर पर ताज़ा-ताज़ा मॉंस सप्लाई करती हैं, और उनकी आमदनी बढ़ती जा रही है, उनका मार्केट बढ़ता जा रहा है। कौन ख़रीद रहा है उनसे माल? आप ही तो ख़रीद रहे हो।

और फिर आप कहते हो, ‘मेरा बॉस मेरे से बदतमीज़ी क्यों करता है?’ उसने तो बदतमीज़ी करी, आपने तो उस बकरी की खाल उतार दी। सन्त कबीर कहते हैं, बकरी ने इतना ही करा था कि घास चर ली थी, बकरी ने तो बस घास चरी थी; तो मौलवी से बोलते हैं कि मुलाना तूने उसकी खाल उतार ली, जबकि बकरी ने बस घास चरी थी। तो अब तू बता अब तेरा क्या-क्या उतरेगा जो तूने अब ये बकरी अब ज़िबह करी है?

कहते हैं कि बकरी ने सिर्फ़ घास खायी थी, तो उसकी खाल उतर गयी, और तूने बकरी खायी है तो अब बता तेरा क्या होने वाला है? और मौलानाओं पर खूब तंज कसे हैं सन्त कबीर ने। बोलतें हैं, ‘बता किस ख़ुदा का फ़रमान आया था, कैसे हलाल हो गया ये मामला?’

कुछ इस तरह से है कि खात रही बस घास को ताकी काढ़ी खाल; कुछ ऐसे है, गा लीजिएगा। हाँ, पूरा भजन है एक, “पंडित बकरिया काहे मारी, पंडित बकरिया काहे मारी, दान खाती पानी पीती कौन गुनाह कर डारी।” तूने काहे मारी वो बकरिया!

उस समय का बनारस, वहाँ बोलते थे कौन तुर्क, कौन हिन्दू, माने कौन मुसलमान कौन हिन्दू, सब लगे हुए थे जीव हत्या करने में। और जो मेरी उनमें गहरी श्रद्धा है, मेरा इतना जो उनसे हार्दिक प्रेम है, उसकी एक वजह ये भी है। सब सन्तों में शायद वो अकेले हैं जिन्होंने मनुष्यों के अलावा हर प्राणी के लिए बोला है और बहुत बुलन्दी के साथ बोला है। नहीं तो अध्यात्म के क्षेत्र में आप आमतौर पर पाते हो कि मनुष्य योनि की मुक्ति के लिए बातें करी जाती हैं।

सन्त कबीर ने सबके लिए बात करी, उन्होंने बकरी, हिरणी, मुर्गी सबके लिए — “पीर सबन की एक है हिरणी मुर्गी गाय।“ अब दूसरी फिर से मुझे साखी याद नहीं है, मिले तो गाइएगा। तो जब हिरणी, मुर्गी, गाय को आप दुख देते हो, तब आप नहीं सोचते हो कि आपको भी कोई दुख देगा? और जिस सिद्धान्त के आधार पर आप अपने से कमज़ोर को सता लेते हो, उसी सिद्धान्त के आधार पर जो आपसे बलवान है वो आपको सता लेता है।

तो ग़लत वो सिद्धान्त है न? ये थोड़ी है कि आपके ऊपर वो सिद्धान्त लग गया तो ग़लत हो गया। वो सिद्धान्त आप किसी पर भी लगाओगे तो ग़लत है। आप अर्थव्यवस्था को देखिए — आप बोलते हो, ‘प्रगति हो रही है, प्रगति हो रही है।’

कल मैं आ रहा था वही रात में वही पिक्चर देखकर। तो नवरात्रि के दिन चल रहें हैं, वहाँ एक के बाद एक क़तारें लगी हुई थीं, ये बड़े-बड़े इन्होंने टेम्पो और वो कर लिये हैं, मिनी ट्रक; और उसमें अपना बजाते हुए रात भर, तीन-चार बजे रात में पूरी इन्होंने रोड पर अपना ऐसे यात्रा श्रृंखला निकाल रखी थी। मैं उनको देख रहा था, ज़्यादातर ग़रीब लोग थे, ग़रीब और बेरोज़गार।

मैंने कहा, ‘तुम बात करते हो, ये सिक्स लेन हाईवे बना रखा है तुमने यहाँ से जो नोएडा का है; सिक्स लेन है कहीं शायद ऐट लेन भी, इनको क्या मिल रहा है? तुमने इनको झुनझुना थमा दिया है, ये रात में अपना घूम रहे हैं, इनको लग रहा है ये धार्मिक काम कर रहे हैं पर इनको सचमुच क्या मिल रहा है, बताओ तो?

ये शोषण का सिद्धान्त है जिसमें जो आर्थिक तरक़्क़ी हो भी रही है, उसका सारा लाभ बस ऊपर बैठे कुछ लोगों को मिल रहा है। ये सड़क वाले आदमी को क्या मिल रहा है?

और मुझे नहीं दिखायी दिया कि अमीर लोग उस धार्मिक यात्रा में, या जो भी वहाँ पर कार्यक्रम हो रहा था उसमें शामिल थे; अमीर लोग नहीं शामिल थे। अमीरों की तो गाड़ियाँ सरपट सड़क पर आगे भागे जा रही थीं। आप उसी अर्थव्यवस्था में भागीदार हैं न जिसमें जो जितना ज़्यादा अमीर होता है उसको उतना ज़्यादा लाभ होता है?

और जो ग़रीब है उसका ग़रीब रहना ज़रूरी है। भारत की तरक़्क़ी के लिए ग़रीब का ग़रीब रहना बहुत ज़रूरी है। नहीं तो कोई भी कम्पनी यहाँ पर क्यों आकर दुकान खोलेगी, विदेशी, मल्टीनेशनल? वो यहाँ आते हैं चीप लेबर (सस्ते मज़दूर) के लिए। मज़दूर अमीर हो गया तो चीप लेबर कहाँ से मिलेगा?

मेड इन इंडिया माल सस्ता क्यों होता है? चाईना से कम्पनियों का अब क्यों दिल उखड़ रहा है? क्योंकि चीन में अब नहीं मिलता सस्ता मज़दूर, उनके पास पैसा आ गया है। यहाँ पर सब एम्प्लॉई चीप हैं। तो सब कहते हैं यहाँ पर आकर कराओ। तो जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) बढ़ता रहे इसके लिए आपका ग़रीब रहना बहुत ज़रूरी है, कितनी अजीब बात! जीडीपी बढ़ता रहे इसके लिए आपका ग़रीब रहना बहुत ज़रूरी है।

और आपको झुनझुना मिल जाएगा जीडीपी का, आप बजाते रहोगे। आप नहीं देखोगे आपको क्या मिला? आपको मिला है प्रदूषण। वो जितनी तरक़्क़ी हो रही है, उससे जो हो रहा है वो आपको मौत मिली है, कैंसर मिला है।

और आपको मिला है, क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन), और क्लाइमेट चेंज से अमीर नहीं मरेंगे, सब ग़रीब मर रहे हैं। चाहे वो तीस्ता नदी के साथ जो हो रहा हो, चाहे वो यमुना नदी के साथ जो हो रहा हो।

अभी एक तस्वीर देखी, उसमें दिखाया कि कोई बोल रहा है, ‘देखो, ये यमुनोत्री के ग्लेशियर (हिमनद) में खड़े होकर के तर्पण-अर्पण कर रहे हैं अपने पूर्वजों को।‘ उसने व्यंग्य करा था, ग्लेशियर इसलिए बोला क्योंकि उसमें इतना मोटा झाग है, बिलकुल सफ़ेद जैसे ग्लेशियर हो। और वो बीच में खड़ा हुआ है और ऐसे अपने पूर्वजों को दे रहा है पानी, जल पिला रहा है।

ये मिला है आम आदमी को विकास के नाम पर। अमीर वहाँ बैठकर के थोड़ी ही वो झाग में घुसे हुए हैं। और आप इस शोषणकारी व्यवस्था में बराबर की भागीदार हो इसलिए आपका बॉस आपसे बदतमीज़ी करता है।

लेकिन वो व्यक्ति खुश है, उसको लग रहा है मैंने पितरों को पानी पिला दिया। और इसीलिए फिर जो अर्थव्यवस्था में सबसे ऊँचे बैठे हैं न, वो चाहते हैं कि आप बस यही करते रहो। जो सड़क पर हो रहा था रात में तीन-चार बजे और जो यमुना में हो रहा है, आप इसी में व्यस्त रहे आओ, आपको झुनझुना मिला रहे।

वो जोश टॉक्स वाले आये, वो पूछने लग गये यूपीएससी के बारे में। एक बात जो मैं उनको बोलने से रह गया वो आपको बोले देता हूँ, ये जो दस-दस साल आप सरकारी नौकरी की तैयारी करते हो न, ये तैयारी सरकारों के लिये बहुत ज़रूरी है। ऐसे ही थोड़े ही आपको कह दिया गया है कि मेरे समय में चार अटेम्प्ट होते थे अब छः, आठ, दस पता नहीं कितने अटेम्प्ट दे दिये गये।

नहीं तो नौजवान बग़ावत कर देंगे। अभी उनको झुनझुना मिला रहता है — क्या कर रहा है? ‘अभी वो कम्पटीशन की तैयारी कर रहा है।‘ नहीं तो कोई वजह नहीं होनी चाहिए कि आप उसको दो या तीन से ज़्यादा मौक़े लेने दो। आप उसको कहते हो, ‘तू अपनी पूरी जवानी इसी में लगा दे।‘ अब कम-से-कम जवानी भर वहाँ लगा रहेगा शान्ति से, सड़क पर आकर क्रान्ति नहीं करेगा। ये बेरोज़गारी का विकल्प है सरकारी नौकरी की तैयारी। मैं उन्हें नौकरी नहीं दे सकता तो नौकरी की तैयारी दे देता हूँ! लो तुम दस साल तक नौकरी करो और कोचिंग करो!

अर्थव्यवस्था में कोई भी चीज़ अच्छी तभी मानी जाती है जब उसमें जितना जा रहा है उसमें वैल्यू एडिशन (मूल्य संवर्धन) करके उससे ज़्यादा दे, ठीक? वैल्यू एडिशन होना चाहिए, राइट! कोचिंग में वैल्यू एडिशन क्या है ये बता दो? कोचिंग न भी हो तो आइआइटी में वही सलेक्ट होंगे जिनको होना था, कोचिंग ने वैल्यू क्या ऐड करी? लेकिन पैसा सारा सोख लिया न? क्या ऐसा होता है कि कोचिंग की वजह से आइआइटी में सीटें बढ़ गयीं? नहीं।

तो वैल्यू एडिशन तो हुआ नहीं, या हुआ? कोचिंग न भी होती तो भी नब्बे प्रतिशत वही लोग सलेक्ट होते जो हुए हैं कोचिंग के बाद। कोचिंग नहीं भी होती तो भी लगभग वही लोग सेलेक्ट होते, बल्कि हो सकता है कि तब ज़्यादा मेरिटोरियस लोग सलेक्ट होते। कोचिंग की वजह से तो सलेक्शन में डिस्टॉर्शन (विकृति) आ जाता है।

जिनके पास पैसा ज़्यादा होता है वो ज़्यादा सलेक्ट होते हैं। तो कोचिंग नहीं भी होती तो भी परिणाम वही आता, कोचिंग के बाद भी परिणाम वही आया है, तो कोचिंग ने क्या करा है? सिर्फ़ पैसा चूसा है, और सरकारों को राहत दे दी है कि अब ये दस साल कोचिंग करेगा।

चारों तरफ़ तो आपके शोषण-ही-शोषण है और आपको दिखायी नहीं दे रहा है। और फिर आपको ताज्जुब हो जाता है कि बॉस आपके साथ ज़्यादती क्यों करता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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