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लड़ना तभी सार्थक जब भीतर शान्ति हो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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लड़ना तभी सार्थक जब भीतर शान्ति हो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

आचार्य प्रशांत: सिर्फ एक ध्यानस्थ आदमी ही प्रेम जान सकता है। वही स्रोत है, वहाँ से ही सब कुछ निकलता है। ये जो लाल खड़े मैदान हैं न, मैदान में बड़ी लड़ाईयाँ होती हैं। लड़ाई में वही खड़ा रह सकता है, जो अंदर से शांत हो।

बाहर की गहरी अशांति वही झेल सकता है जो भीतर से पूर्णतया शांत हो।

फिर से बोलो, बाहर की गहरी अशांति कौन झेल सकता है?

प्रश्नकर्ता: जो भीतर से शांत हो।

आचार्य प्रशांत: और याद रखना संसार लगातार अव्यवस्थित ही है। संसार का अर्थ ही होता है — अव्यव्स्थ। हम कोशिश करते हैं उसपर व्यवस्था लगाने की परन्तु वो फिर भी अव्यवस्थित ही रह जाता है। तो कोई ये सोचे की दुनिया में व्यवस्था आ जाए तो दुनिया में नहीं आएगी। व्यवस्था कहाँ होती है? यहाँ(मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए)। संसार में अव्यवस्था और यहाँ (मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए) पर व्यवस्था। दुनिया में अशान्ति और यहाँ(मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए) पर?

प्रश्नकर्ता: शान्ति।

आचार्य प्रशांत: कोई सोचे की यहाँ(सिर की ओर इशारा करते हुए) पर सुकून तब आएगा जब दुनिया में सुकून आ जाएगा तो उलटी गंगा बहा रहा है, ऐसा नहीं होता। दुनिया में कभी सुकून नहीं आएगा, दुनिया में सदा मतभेद रहेंगे। आज तक रहे हैं, आगे भी रहेंगे। जिस दिन सारे मतभेद खत्म हो गए, उस दिन दुनिया खत्म हो जाएगी। दुनिया चल ही इसलिए रही है क्योंकि मतभेद है। दुनिया बढ़ ही इसीलिए रही है क्योंकि बेचैन है। दुनिया का जो पूरा प्रवाह है, वो बेचैनी का प्रवाह है।

कोई कुछ भी क्यूँ करता हैं? उसे कुछ पाना है। हाँ, जिसने जान लिया कि कुछ नहीं पाना, वो तो ठहर जाता है न। ट्राफिक क्यूँ चल रहा है? लोगों को कहीं पहुँचना है। जिसने जान लिया कहीं पहुँचने को कुछ है नहीं, वो तो रुक जाएगा!

तो दुनिया में सदा गतिविधि बनी रहेगी, स्थिरता यहाँ(मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए) रहेगी। दुनिया में लगातार क्या बना रहेगा?

प्रश्नकर्ता: प्रवाह, गतिविधि।

आचार्य प्रशांत: प्रवाह। स्थिरता, यहाँ(मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए) रहेगी।

प्रश्नकर्ता: उल्टा जो लोग अपने जीवन में कुछ करना चाहते हैं, उनके दिमाग में स्थिरता नहीं होती, वही तो उनको प्रेरित करके रखता है, आगे के लिए।

आचार्य प्रशांत: होती है। जो भी जीवन में कुछ करना चाहता है, वो जीवन में कुछ नहीं पाएगा क्योंकि उसको लग रहा है जीवन में कुछ करने लायक है। एक दूसरे तरह का आदमी होता है, जो कहता है जीवन में कुछ करना नहीं है, जीवन में होने देना है। प्रवाह, वहाँ भी दिखाई देगा पर वो प्रवाह बिलकुल अलग तरीके का होगा। अब वो अव्यवस्थित को व्यवस्थित बनाने की कोशिश नहीं करेगा, वो उस अव्यवस्था से खेलेगा।

समझो बात को! हमारी सारी कोशिश होती है अव्यवस्था को व्यवस्था बनाने की, हमारी सारी कोशिश होती है, सुरक्षित हो जाने की। हमें जब डर लगता है तो हम क्या हो जाते हैं?

प्रश्नकर्ता: सुरक्षित।

आचार्य प्रशांत: असुरक्षा से सुरक्षा की और भागते हैं। यह जो दूसरा आदमी होगा, जिसकी तुम बात कर रही हो, यह जब असुरक्षित होता है तो क्या करता है? जब वो पाता है असुरक्षा को, तो पहली बात तो वो समझ लेता है की दुनिया का मतलब ही है असुरक्षा तो ये सुरक्षा की कोशिश नहीं करता क्योंकि दुनिया में कोई सुरक्षा नहीं है। अरे! शरीर में कोई सुरक्षा नहीं है, उड़ जाना है, खत्म हो जाना है। तो यह दुनिया में कोई सुरक्षा नहीं पाता है। इसे पता ही है दुनिया का मतलब है असुरक्षा, अव्यवस्था; ये उन असुरक्षा के साथ खेलना शुरू कर देता है।

तो प्रवाह इसका भी होता है। पर इसका प्रवाह असुरक्षा से सुरक्षा की तरफ़ नहीं होता। इसका प्रवाह होता है, उन असुरक्षा से खेलने का। ये कहता है की ये असुरक्षा तो है। दुनिया ऐसी ही है, मैं इसके साथ खेल रहा हूँ। मुझे असुरक्षा से डर ही नहीं लग रहा।

ये क्या है(ग्लास की ओर इशारा करते हुए)? बम है! आज कल लिक्विड बम(तरल बम) भी आया करते हैं। इसीलिए आजकल हवाईअड्डे पर क्या नहीं हुआ करते? पानी की बोतलें! पानी की बोतल की भी अलग से जाँच होती है और लाने भी नहीं देते हैं शायद आज कल। तो तरल बम भी आते हैं और इसके(ग्लास की ओर इशारा करते हुए) अंदर हो सकता है की कोई रसायन भरा हो और मुझे बता दिया गया हो कि ये बड़ी खतरनाक चीज़ है, तो मैं क्या करूँगा इससे?

प्रश्नकर्ता: डरूँगा।

आचार्य प्रशांत: किधर को भागूँगा? डर से किसकी तरफ भागूँगा?

प्रश्नकर्ता: सुरक्षा की तरफ।

आचार्य प्रशांत: और ये द्वैत है। मुझे लग रहा है, यहाँ पर डर है और कहीं पर सुरक्षा है। ये जो दूसरा आदमी है, यह जानता है की डर हर जगह है, मैं भाग कर जाऊँगा कहाँ। अपना मन तो साथ ही लिए हुए हो न, शरीर तो साथ ही लिए हुए हो न। जहाँ शरीर है, वहीँ मौत का खतरा है। इससे(ग्लास की ओर इशारा करते हुए) यही डर है न, की ये(ग्लास की ओर इशारा करते हुए) फटेगा तो शरीर मर जाएगा। इससे(ग्लास की ओर इशारा करते हुए) दूर भाग सकता हूँ, शरीर से दूर भागूँगा क्या? शरीर जहाँ है, वहीं मौत का खतरा है।

बात को समझो! मौत का खतरा सिर्फ़ मुर्दे को नहीं है। क्या मुर्दे को मौत का खतरा है? मुर्दा राख़ हो गया, अब उसे मौत का खतरा है? जिस दिन तक शरीर है, उस दिन तक मौत का खतरा है के नहीं है?

प्रश्नकर्ता: है।

ये जो दूसरा आदमी है, ये समझ जाता है की इस दुनिया में सुरक्षा कहीं है ही नहीं। तो ‘असुरक्षा’ से ‘सुरक्षा’ की ओर भागना ग़ैर मतलब है।

YouTube Link: https://youtu.be/UuuIWMVWu8w

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