
प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, मेरा प्रश्न लद्दाख से है। सोनम वांगचुक जी क्लाइमेट चेंज के ऊपर एक क्लाइमेट फास्ट कर रहे हैं, और ये मुद्दा इतना महत्त्वपूर्ण है, जहाँ पर वो पृथ्वी के साथ जो भी कुछ हो रहा है, उसको लेकर जागरूकता बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। पर मैं देख रहा हूँ, कि उनके सारे एफ़र्ट्स के बाद भी उन्हें आम आदमी से इतना समर्थन नहीं मिल रहा है। तो ऐसा क्यों है?
आचार्य प्रशांत: आम आदमी को पहले पता तो होना चाहिए न कि क्लाइमेट क्राइसिस पूरी है क्या? तब समर्थन देगा न। वो जो कर रहे हैं सोनम वांगचुक जी, वो तो एक मुद्दे पर कर रहे हैं। उस मुद्दे से जब इस देश के आम आदमी का कोई रिश्ता ही नहीं है, तो लोगों की नज़र में ये एक छोटी-सी बात है।
वैसे भी लद्दाख दूर-दराज़ का इलाका है, आबादी भी वहाँ बहुत कम है, एक छोटे शहर जितनी पूरे लद्दाख के विस्तार की आबादी है। आम आदमी को अगर पता हो कि दुनिया में अगर अभी लगभग आठ-सौ करोड़ लोग हैं, और उसमें से तीन-सौ करोड़ लोग हैं वर्तमान में ही, जिनको ठीक खाना नहीं मिल पाता है। दो-सौ-चालीस करोड़ लोग ऐसे हैं जिनको खाना मिल भी पाएगा, कुछ निश्चित नहीं होता है, मिल गया तो ठीक है, नहीं मिला तो नहीं। और लगभग अस्सी-नब्बे करोड़ लोग ऐसे हैं जो अनिवार्यतः भूखे सोते हैं।
ये बात आम आदमी को पता है क्या? इसका क्लाइमेट से क्या रिश्ता है, अभी बताऊँगा। आठ-सौ करोड़ की दुनिया की आबादी, उसमें से तीन-सौ करोड़ लोग ऐसे हैं जिनको खाना मिल तो रहा है पर वो खाना पोषण में कमजोर है, ठीक-ठाक नहीं है। वो खाना खाकर के आप एक स्वस्थ ज़िंदगी नहीं जी सकते। दो-सौ-चालीस करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनका पक्का नहीं होता कि उन्हें खाना मिलेगा भी कि नहीं मिलेगा, और अस्सी-नब्बे करोड़ ऐसे हैं जिनका पक्का होता है कि इन्हें खाना नहीं ही मिलना है। और क्लाइमेट चेंज से जो प्रमुख फसलें हैं सबकी-सब गेहूँ, चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, इनकी यील्ड में पंद्रह से पच्चीस प्रतिशत की कमी आनी है। और ये सारी की सारी कमी जाकर किनके ऊपर टूटेगी? उन्हीं के ऊपर जिनकी परचेज़िंग पावर, ख़रीद पाने की क्षमता सबसे कम है।
साधारण डिमांड एंड सप्लाई का नियम तो जानते हो न? जब किसी चीज़ की सप्लाई कम होती है, तो उसका प्राइज़ बढ़ जाता है। जब प्राइज़ बढ़ेगा, तो कौन नहीं ख़रीद पाएगा? अमीर लोग? जो गरीब है वही नहीं ख़रीद पाएगा। और जो गरीब है, वे वैसा है जो अभी ही खाने को नहीं पा रहा। और जो दुनिया के अस्सी-नब्बे करोड़ लोग हैं न, जो रोज़ भूखे सोते हैं, इनमें से एक बहुत बड़ा हिस्सा भारत में है। और यही लोग, हमारे भारतीय लोग ही, जो या तो भूखे सो रहे हैं, या जिनको खाने की आपूर्ति की भी कोई गारंटी नहीं है, या जिनको खाना मिलता तो है पर ऐसा नहीं होता कि उसमें सब पोषक तत्व हों, इन्हें ही कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा कि क्लाइमेट के साथ क्या होने जा रहा है।
“अरे होगा कोई आमरण अनशन कर रहा होगा, हमें क्या लेना-देना?” तुम्हें ये लेना-देना कि तुम भूखे मरने वाले हो क्लाइमेट चेंज से। खेतों में फसलें उगनी बंद होने वाली हैं, और जिनकी वजह से खेतों में फसलें उगनी बंद होंगी, उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। उनके पास बहुत पैसा है। अपनी आमदनी का वो खाने पर एक या दो प्रतिशत खर्च करते हैं बस, उनके पास इतना पैसा है। वो दो प्रतिशत पहले खाने पर खर्च करते थे, अब तीन प्रतिशत खर्च कर लेंगे, उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।
खाने पर सबसे ज़्यादा अपनी आमदनी के अनुपात में व्यय गरीब आदमी करता है। अमीर आदमी अपनी आमदनी का एक या दो प्रतिशत खाने पर खर्च करेगा, और गरीब आदमी अपनी आमदनी का साठ-सत्तर प्रतिशत लगाता है खाने पर। जब खाना महँगा हो जाएगा, क्योंकि आपूर्ति कम हो जाएगी, तो इन गरीबों का क्या होने वाला है? हम तो वैसे भी इस बात पर बड़ा फ़ख़्र अनुभव करते हैं न कि भारत में इतने करोड़ लोगों, कितने? अस्सी करोड़ हैं न? अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त खाना दिया जाता है। ये वो लोग हैं जिनके पास खाने के पैसे नहीं हैं।
हमारी दो-तिहाई आबादी ऐसी है जिसके पास ठीक से खाने के पैसे नहीं हैं, और क्लाइमेट चेंज की गाज सबसे ज़्यादा इन पर गिरने वाली है। लेकिन इनको झुनझुना थमा दिया गया है, तमाम तरह के मनोरंजन दे दिए गए हैं, धार्मिक कलाबाज़ियाँ दे दी गई हैं, तो इन्हें फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा कि भविष्य इनके लिए कितना भयावह है। और ये भविष्य भयावह किनके कारण होने जा रहा है? उनके कारण होने जा रहा है, जिनके पास पहले ही पैसा है, और जो और पैसे की हवस में लद्दाख जैसी जगहों का दोहन करना चाहते हैं।
जैसे हसदेव का जानते हो न, वहाँ क्यों काटे जा रहे हैं जंगल? जंगल इसलिए थोड़ी काटे जा रहे हैं कि धूप नहीं आती थी, ठंड बहुत लगती थी जंगल काट दो, धूप आएगी! वहाँ इसलिए काटा जा रहा है कि नीचे खनिज हैं, मिनरल्स हैं, वो निकालना है। वैसे ही लद्दाख में भी कुछ क्षेत्र हैं जो मिनरल-रिच हैं। इसीलिए लद्दाख को स्वायत्तता नहीं दी जा रही है।
वो कह रहे हैं कि “भाई, हमें देखने दो, हमारी जगह है, हमें इसका क्या करना है।” वो कह रहे हैं, “नहीं, हम देखेंगे।” जो दोहन करेंगे वहाँ जाकर उन मिनरल्स का, उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, वो भूखे नहीं मरने वाले। लेकिन जो बेक़सूर है, गरीब है, वो भूखा मरने वाला है क्लाइमेट चेंज की वजह से। ये बात हमें समझ में नहीं आ रही है।
भाई, फसलें एक निश्चित तापमान पर होती हैं और फसलें एक निश्चित गर्मी-पानी के पैटर्न में होती हैं। ये नहीं जानते हो क्या? खड़ी फसल पर पानी पड़ जाए तो क्या होता है? और जिन दिनों में बीज डलना है और बुआई होनी है, उन दिनों में अगर पानी पड़ जाए तो क्या होता है? और पानी न पड़े तो क्या होता है? ये सब नहीं जानते हो क्या? वो पूरा जब वेदर पैटर्न डिसरप्ट हो जाएगा, तो कौन-सी फसल होने वाली है? 365 में से 314 दिन एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स के थे पिछले साल भारत में — 365 में से 314 दिन! (सोर्स: डाउन टू अर्थ)। माने, एक भी दिन ऐसा नहीं था जब देश में कहीं न कहीं कोई एक्सट्रीम वेदर इवेंट न हुआ हो।
एक्सट्रीम वेदर इवेंट क्या होता है? दो तरीके का होता है, एक होता है टेम्परेचर का, एक होता है प्रेसिपिटेशन का, टेम्परेचर और रेनफॉल। उसमें आप फिर साथ में साइक्लोन वग़ैरह भी जोड़ सकते हो। या तो गर्मी बहुत ज़्यादा है कहीं न कहीं, या बारिश बहुत ज़्यादा या बहुत कम हो रही है कहीं न कहीं, या फिर कहीं पर ज़बरदस्त आँधी-तूफ़ान चल रहा है, इसमें फसलें होंगी? पर आम आदमी को बात समझ में नहीं आ रही है, आम आदमी मनोरंजन में व्यस्त है। आम आदमी भी दूसरे मुद्दे, कह रहे हैं, “चुनाव आ रहा है, चुनाव आ रहा है,” और तमाम तरह के टीवी में आ रहे हैं मनोरंजन, वो देखने हैं।
मैंने खाने की बात करी, अभी ये जब हम भूखे लोगों की बात कर रहे हैं, बड़ा एक रोचक, ट्रैजिक, लेकिन रोचक आपके सामने आँकड़ा रख रहा हूँ। दुनिया में क़रीब पचास-साठ करोड़ बच्चे हैं जो कुपोषित हैं। उन पचास-साठ करोड़ में दस-बीस करोड़ ऐसे हैं, या आठ-दस करोड़, जिनको वेस्टेड कहते हैं। कुपोषित हैं उन्हें स्टंटेड वाले बोल देते हैं, और जो उनसे भी गई-गुज़री हालत में होते हैं, उन्हें बोलते हैं वेस्टेड (सोर्स: वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन)।
और जितने वेस्टेड बच्चे दुनिया में हैं, लगभग उतने ही ओबीज़ और ओवरवेट बच्चे भी हैं। माने, एक तबका है जिसके पास इतना ज़्यादा है कि उसके बच्चों की समस्या ये है कि ऐसे मोटे-मोटे थुलथुल शरीर निकल रहे हैं, और एक बहुत बड़ा तबका है जिसके बच्चों के पास खाने को नहीं है। जिनके पास खाने को नहीं है, उनकी तादाद बढ़ती ही जाएगी, बढ़ती ही जाएगी। ये जिन भूखे लोगों की मैंने बात करी न, आपको क्या लगता है, दुनिया ज़्यादा प्रॉस्परस हो रही है, समृद्ध हो रही है? जिन भूखे लोगों की मैंने बात करी, पिछले पाँच साल में ही उनकी तादाद में बीस करोड़ की वृद्धि हो गई है। दुनिया में भूखों की संख्या बढ़ती जा रही है, और उसका बहुत बड़ा कारण क्लाइमेट चेंज है। हम भूखे मर रहे हैं, हमारे भाई-बहन भूखे मर रहे हैं, और उसका कारण क्लाइमेट चेंज है। और हम उसकी बात भी नहीं करना चाहते!
ये मैंने अभी खाने की चीज़ों की बात करी, अब पीने की चीज़ पर आ जाओ, पानी। दुनिया के सौ शहर हैं जिनमें एक्सट्रीम वाटर स्कार्सिटी होने वाली है, वो जो बेंगलूरु में अभी देख रहे हो न, हाँ वो चीज़ (सोर्स: डाउन टू अर्थ)। और उनमें से तीस शहर भारत में हैं, और भारत के तीस शहरों में बेंगलूर का नंबर तो टॉप-10 में आता भी नहीं है, या शायद दसवें नंबर पर होगा, देख के बोलना।
और हमें होश नहीं है, हम सिर्फ़ भूखे ही नहीं, प्यासे मरने वाले हैं। और अगर इस बात के लिए कहीं कोई आंदोलन हो रहा है, तो हमारे कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही। ठीक बोल रहा हूँ?
प्रश्नकर्ता: इस लिस्ट में दसवें नंबर पर है, पर इसके अलावा भारत के तीस शहर हैं इसमें। मैं इनके नाम लूँ अभी यहाँ पर?
आचार्य प्रशांत: हाँ, कम से कम जो पहले पाँच हैं, उनके तो लो।
प्रश्नकर्ता: जयपुर, इंदौर, ठाणे, वडोदरा, श्रीनगर। और इसके अलावा फिर बाक़ी अन्य राज्यों से भी अलग-अलग शहर हैं।
आचार्य प्रशांत: हम भूखे और प्यासे, दोनों मरने वाले हैं। बस ये है कि जिनके पास पैसा है, वो कहेंगे, “चलो, पानी की बोतल हज़ार रुपए की भी आ रही है, तो ले लेते हैं।” गरीब क्या करेगा? और भारत देश तो अभी भी गरीबों का ही है। फिर याद करिए कि अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त खाना दिया जा रहा है, माने सब गरीब हैं। इनका क्या होने वाला है? हमें कुछ समझ नहीं आ रहा, हमारा क्या होने वाला है। हमें तरह-तरह के नशे दे दिए गए हैं, उनमें धुत हैं हम।
क्लाइमेट चेंज के इतने तरह के उपद्रव हैं, ऐसे-ऐसे परिणाम हैं, मुझे समझ में नहीं आता मैं कौन-सा छोर पकड़ूँ, कहाँ से बात शुरू करूँ, किधर को ले जाऊँ। सूखने से पहले बाढ़ आएगी, क्योंकि जब ग्लेशियर पिघलेगा तो पहले-पहल क्या आता है? तो पहले तो बाढ़ आएगी, फिर एकदम पूरा सूखा पड़ जाना है।
जिस लद्दाख की वहाँ पर बात हो रही है, भाई, वो हिमालय का हिस्सा है। जब ग्लेशियर पिघलेगा तो पहले-पहल क्या होगा? भारत की एक-सौ-पचास करोड़ की आबादी में से आधी से ज़्यादा जो हिमालयन रिवर्स हैं, उन पर आश्रित है, पूरा उत्तर भारत। और ज़्यादातर उत्तर भारत की नदियाँ हिमालय से ही अपना पानी पाती हैं। जब इतनी तेज़ी से ग्लेशियर पिघलेगा तो बाढ़ आएगी, और उसके बाद? कुछ नहीं। अपनी नदियाँ देखने को तरस जाओगे, नदियाँ नहीं हैं। और बहुत आगे की हम बात नहीं कर रहे, ये बात हम अभी की कर रहे हैं। ये सब कुछ अगले कुछ सालों में, कुछ दशकों में होने जा रहा है।
लद्दाख में ग्लेशियर्स के पिघलने के कारण जो वहाँ की झीलें और तालाब हैं, वे ख़तरनाक स्तर तक भर गए हैं। जब उतना भर जाते हैं तो फटते हैं, और जब फटते हैं तो निचले इलाक़ों में बाढ़ आती है। वैसे ही कुछ हुआ था कुछ साल पहले, कितने साल पहले, आप देख लीजिएगा, कि वहाँ पर एक भारी झील भर गई थी। तो इन्होंने ही, सोनम वांगचुक ने कहा कि एक दूसरे तरीके से इसमें साइफ़निंग कर देते हैं पानी की। सरकार मानी नहीं, सरकार ने उसमें ब्लास्ट कर दिया, ब्लास्ट कर दिया, नीचे खूब तबाही आई। फसलें उड़ गईं, पुल उड़ गए, जान-माल, हर तरह की तबाही हुई।
फिर बाद में सिक्किम में वैसे ही स्थिति आई, तो इनको बुलाया गया। उनको कहा गया कि “आप जिस साइफ़निंग की बात कर रहे हो, कर दीजिए, ताकि जल-स्तर थोड़ा कम हो जाए तो बच जाएँ हम।” बात समझो, आप नहीं समझ सकते कि कितनी बर्फ़ जमा है ये हिमनदों में। इन्हें हिम-नद बोलते हैं, कि एक नदी में कुल जितना पानी हो सकता है, उतना पानी एक ग्लेशियर में है, हिमनद। और वो पानी जब पिघलेगा, तो क्या होगा? कैसी तबाही आएगी? और वो पिघल रहा है, और उसके पिघलने से, मैं आपसे पहले भी बता चुका हूँ कि एक बहुत गंदा फीडबैक साइकिल शुरू होता है।
बर्फ़ का रंग सफ़ेद होता है, बर्फ़ पर जब धूप पड़ती है तो बर्फ़ उसको वापस रिफ़्लेक्ट कर देती है। लेकिन जैसे-जैसे बर्फ़ पिघलती जाती है, और बहुत तेज़ी से पिघल चुकी है, पिघल रही नहीं है, पिघल चुकी है। वैसे-वैसे बर्फ़ के नीचे की जो मिट्टी और चट्टानें हैं, वो एक्सपोज़ होते जाते हैं, और वो सूरज की रोशनी को सोखते हैं। बर्फ़ नहीं सोखती, वो सोखते हैं। जब वो सोखते हैं, तो गर्म होते हैं। गर्म होते हैं, तो बर्फ़ और पिघलती है। जब बर्फ़ और पिघलती है, तो रॉक्स और ज़्यादा एक्सपोज़ होती हैं। जब रॉक्स और ज़्यादा एक्सपोज़ होती हैं, तो वो और ज़्यादा सनलाइट ऐब्ज़ॉर्ब करती हैं। जब वो और ज़्यादा सनलाइट ऐब्ज़ॉर्ब करती हैं, बर्फ़ और पिघलती है। बर्फ़ और पिघलती है तो और ज़्यादा रॉक्स एक्सपोज़ होती हैं। ये एक ऐसा नेगेटिव फीडबैक साइकिल चलता जाता है।
और वही जो पानी है, जो पिघल रहा है, जब उस पर धूप पड़ती जाती है और तापमान बढ़ता जाता है, तो पानी क्या बन जाता है? भाप, वाटर वेपर, H₂O। और H₂O अपने आप में ग्रीनहाउस गैस होती है। ग्रीनहाउस गैस कोई सिर्फ़ कार्बन डाइऑक्साइड थोड़ी ही होती है। कार्बन डाइऑक्साइड से कहीं ज़्यादा बड़ी ग्रीनहाउस गैस मीथेन है, N₂O, H₂O, ये सब ग्रीनहाउस गैसेज़ हैं।
ओशन्स हमारे कार्बन सिंक्स हुआ करते थे, वो अब कार्बन सिंक्स की जगह कार्बन एमिटर्स बन गए हैं। क्योंकि पानी कार्बन डाइऑक्साइड को सोखता है, लेकिन उनका तापमान इतना बढ़ गया है कि अब वो कार्बन एमिटर्स होते जा रहे हैं। ये है एसिडिफ़िकेशन ऑफ़ ओशन्स। बात कुछ समझ में आ रही है?
पानी का जल-स्तर, अब ये जो पिघला पानी है, जो ये बड़े-बड़े ग्लेशियर्स हैं, ग्लेशियर सिर्फ़ लद्दाख में नहीं हैं। हम आर्कटिक की, अंटार्कटिक की भी तो बात करेंगे। वहाँ से जो पिघलता है पानी, वो जाता है समुद्रों में और उससे समुद्रों का जल-स्तर क्या हो रहा है? बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है। आपको क्या लग रहा है? हमारे बंबई जैसे शहर बचने वाले हैं क्या? जितने हमारे तटीय शहर हैं, चेन्नई, मुंबई, इन सबकी जनसंख्या बहुत-बहुत ख़तरे में आ चुकी हैं। वो ख़तरा कहीं से टल नहीं रहा है।
2015 में पेरिस में बड़ा समझौता हुआ था, और 2015 के बाद से ग्रीनहाउस गैसेज़ का उत्सर्जन घटने की जगह और बढ़ गया है। हाँ, जिस गति से पहले बढ़ रहा था, उस गति से नहीं बढ़ रहा है, लेकिन कम नहीं हो रहा और बढ़ रहा है। आप पहले ही एक बहुत ख़तरनाक हालत में थे, आपकी हालत और ख़तरनाक हो रही है। और इसको जो वैज्ञानिक हैं, क्लाइमेट साइंटिस्ट्स वो कह रहे हैं, “वी आर एक्सेलेरेटिंग टुवर्ड्स ऑवर डूम। वी आर नॉट जस्ट मूविंग टुवर्ड्स ऑवर डेस्ट्रक्शन; वी आर एक्सेलेरेटिंग टुवर्ड्स ऑवर डेस्ट्रक्शन।”
जो क्लाइमेट गोल्स हमने अपने लिए निर्धारित किए थे, क्लाइमेट गोल ये है कि भाई हमें रोकना है 1.5 डिग्री पर, जो एवरेज राइज़ इन टेम्परेचर है उसको। 1.5 डिग्री पर अगर रोकना है तो आज आप जितना एमिशन करते हो कार्बन डाइऑक्साइड का, इससे लगभग बयालीस प्रतिशत, माने आधा करना पड़ेगा, 2030 तक।
आपको लग रहा है कोई भी सरकार दुनिया भर में गंभीर है ये करने में? 1.5 डिग्री छोड़ दो, अगर 2 डिग्री पर भी रोकना है तो आपको अट्ठाइस प्रतिशत कम करना पड़ेगा (सोर्स: द थर्ड पोल)। कम छोड़ दो, वो तो बढ़ रहा है। माइनस में जाने की जगह वो तो और प्लस में जा रहा है। लेकिन आम आदमी को इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता। आम आदमी के पास झुनझुने हैं, और न जाने वो कहाँ पर मग्न है। कौन-से उसके पास मुद्दे हैं? देखो न, टीवी में, सोशल मीडिया में कौन-से मुद्दे चल रहे हैं। उनसे क्लाइमेट चेंज की बात करो तो कहते हैं, “हा हा हा! होक्स है होक्स!” यही होंगे जो मरेंगे सबसे पहले।
पिछले चालीस सालों में हम अपनी आधी से ज़्यादा वाइल्डलाइफ़ ख़त्म कर चुके हैं, क्यों? डीफ़ॉरेस्टेशन, जो कि क्लाइमेट चेंज का एक बहुत बड़ा कारण है (सोर्स: वर्ल्ड वाइल्डलाइफ़ फंड)। आप ये समझ पा रहे हो? पृथ्वी पर जीव-जंतुओं की जितनी प्रजातियाँ हैं, उनमें से आधी से ज़्यादा हमने सिर्फ़ पिछले चालीस साल में ख़त्म कर दीं, हमेशा के लिए। वो अब कभी लौटकर नहीं आएँगी।
और ख़त्म करने की दर हर साल के साथ बढ़ती जा रही है, क्योंकि हमें अपनी आबादी बढ़ानी है। आम आदमी तो इसमें लगा हुआ है न, “मैं, मेरा घोंसला, घोंसले में मैं, मेरी चिरैया और हमारे अंडे।” इस पूरी चीज़ का सबसे बड़ा कारण है — जनसंख्या। एकमात्र कारण आप कह सकते हो, जनसंख्या ही है। बाक़ी आप रिसायकल और प्लास्टिक और इस तरह के झुनझुने बजाते रहो, उससे कुछ नहीं होगा।
मैं आपको वो दिखा चुका हूँ कि इस तरह के झुनझुने जो आप बजाते हो न, और बोलते हो, “मैं क्लाइमेट चेंज रोकने के लिए ये सब कर रहा हूँ” क्या कर रहे हूँ? कि मैं एक किलोमीटर गाड़ी कम चलाता हूँ, और मैं घर में इस तरह के बल्ब लगाता हूँ, और मैं प्लास्टिक का कम इस्तेमाल करता हूँ! इन सब कामों को मिला करके भी पाँच प्रतिशत फ़र्क़ नहीं पड़ना है। पचानवे प्रतिशत फ़र्क़ पड़ना है, आबादी से। आबादी नहीं कम होगी तो इस महाविनाश को आप नहीं रोक सकते हो।
ये जो पूरा हिमालय का क्षेत्र है, दुनिया भर के वैज्ञानिक कह रहे हैं कि ये एक इकोलॉजिकल डिज़ास्टर बन चुका है, इसलिए वहाँ पर आंदोलन हो रहा है। और सरकारें लगी हुई हैं कि नहीं साहब, अभी तो हमें और खनन वग़ैरह करने दो। जब आप खनन करते हो, उससे कार्बन निकलेगा न? आप कुछ भी कर रहे हो, कोई भी ऐक्टिविटी कर रहे हो आप, चाहे आप टूरिज़म ऐक्टिविटी कर रहे हों, तो उससे सूट निकलता है। क्या निकलता है? सूट, वो छोटे-छोटे महीन टुकड़े होते हैं कार्बन के, जैसे आपके व्हीकल के एग्ज़ॉस्ट से निकलते हैं। वो जब बर्फ़ पर पड़ेगा तो बताओ क्या होगा? वो जो सूट है, अरे जला हुआ ईंधन, धुआँ, वो जब बर्फ़ पर पड़ेगा धुआँ तो क्या होगा? बर्फ़ कैसी हो जाएगी? बर्फ़ काली होते ही क्या करेगी? हीट ऐब्ज़ॉर्ब करेगी, हीट ऐब्ज़ॉर्ब करते ही वो पूरी पिघल जानी है। ये हो रहा है लद्दाख में। लद्दाख का बहुत फ्रैज़ाइल, बहुत कह लो, कमज़ोर एक नाज़ुक इकोसिस्टम है। वो नहीं बर्दाश्त कर रहा है, ये जो चल रहा है।
हम महाविनाश की कगार पर खड़े हुए हैं, लोगों को होश नहीं आ रहा। लोग किसमें मग्न हैं कि हमें तो जीडीपी चाहिए, जीडीपी, क्योंकि विकास माने जीडीपी होता है! इस साल में ही अब, भविष्य की नहीं वर्तमान की बात, इस साल में ही भारत की जीडीपी को दस प्रतिशत की चोट पड़ी है मात्र क्लाइमेट चेंज के कारण। और आगामी वर्षों तथा दशकों में ये चोट तीस से चालीस प्रतिशत की हो जानी है। अब गिन लो कि कितने ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हो गया।
इससे जो आपकी व्यवस्था पर, शरीर पर और सेहत पर असर पड़ना है, वो मैं क्या बताऊँ! 2 डिग्री औसत बढ़ोतरी की बात हो रही है तापमान की। 2 डिग्री औसत बढ़ोतरी, और वो औसत बढ़ोतरी माने ये नहीं होगा कि दिन में और रात में सब में 2 डिग्री बढ़ जाना है। वो जो ज़्यादातर तापमान बढ़ेगा, वो दिन में बढ़ेगा। रात में लगभग उतना ही रहना है, थोड़ा-सा बढ़ेगा। इसका मतलब दिन में बढ़ेगा 4 डिग्री, और जिस दिन एक्सट्रीम वेदर इवेंट होगा, उस दिन बढ़ेगा 8 डिग्री।
उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा में 55-60 डिग्री में जी लोगे? ये बताओ, तुम्हारे ए.सी. काम करने वाले हैं? एक बार को कल्पना करके देखो, तुम्हारे ए.सी. का क्या होगा 60 डिग्री में? ए.सी. ही पिघल गया होगा। ये जो स्प्लिट ए.सी. होते हैं, उनकी जो यूनिट ऊपर रखी होती है, ऊपर जाकर देखोगे तो उसमें से धुआँ निकल रहा होगा, वो तार-वार सब पिघले पड़े होंगे। और ऊपर जा ही नहीं पाओगे, दोपहर में 12-1 बजे देखने भी नहीं जा पाओगे ऊपर कि ए.सी. काम क्यों नहीं कर रहा। ऊपर जा रहे होओगे, सीढ़ियों पर लड़खड़ा कर गिर जाओगे। वैसे भी घर में नहाने को तो छोड़ दो, पीने को भी पानी नहीं होगा। गाड़ी बाहर खड़ी होगी, जाओगे, देखोगे टायर फट चुके हैं और पिघलकर चिपक चुके हैं (सोर्स: इंडिया टाइम्स)।
क्योंकि 2 डिग्री औसत है भाई, लोग कहते हैं “2 डिग्री-2 डिग्री,” वो 2 डिग्री नहीं है, उस 2 डिग्री का मतलब है, हफ़्ते में एक दिन 8 डिग्री और प्रतिदिन 4 डिग्री। क्योंकि इक्वल राइज़ नहीं है, 2 डिग्री तो एवरेज आउट होकर हो रहा है। रात में 0 है तो दिन में 4 है, तब एवरेज 2 आएगा। और जो ये रेंज ऑफ़ टेम्प्रेचर बढ़ेगा, वो संभाल कैसे पाओगे?
अभी आपके शरीर की व्यवस्था एक तरह के तापमान से संतुलन बना चुकी है। वो सब जब बदल जाएगा तो कैसे जी लोगे? कितनी नई तरह की बीमारियाँ आएँगी, कभी सोचा है? कोविड जैसी हज़ारों बीमारियाँ लेकर आने वाली हैं, क्योंकि वो सब वायरस बर्फ़ के नीचे हज़ारों-लाखों-करोड़ों साल से दबे पड़े हैं, डॉर्मेंट हैं। जब वो बर्फ़ पिघलेगी तो सारे वायरस बाहर आ जाने हैं।
वायरस ऐसी चीज़ नहीं होती जिसकी कोई उम्र होती है, वायरस लगभग एक केमिकल की तरह होता है। केमिकल की कोई उम्र होती है क्या? वायरस को लिविंग-नॉन लिविंग दोनों माना जाता है, क्योंकि वो केमिकल की तरह होता है। वो करोड़ों सालों तक बर्फ़ के नीचे पड़ा रह सकता है, और जैसे ही बर्फ़ पिघलेगी वो बाहर आ जाएगा। जैसे कोरोना वायरस बाहर आ गया था उन गुफ़ाओं से, उन चमगादड़ों से।
एक कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया हिला दी, ऐसे लाखों वायरस हैं जो बाहर आने को तैयार बैठे हुए हैं। लेकिन आम आदमी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा।
आज हम कहते हैं, “अरे, वहाँ यूरोप देशों में कुछ रिफ्यूजी आ गए, बड़ी समस्या हो जाती है। अमेरिका परेशान है कि मेक्सिको और अपने बीच में दीवार खड़ी करेंगे।” ट्रंप कह रहा है, “नहीं, ये जितने हिस्पैनिक्स होते हैं, बहुत बुरे लोग होते हैं, हमें रिफ्यूजी नहीं चाहिए।” जर्मनी में, फ़्रांस में, ब्रिटेन में सबमें रिफ्यूजी बहुत बड़ा मुद्दा है। भारत में भी बहुत बड़ा मुद्दा है” रोहिंग्या। “अरे, रोहिंग्या वाले आ गए, क्यों आ गए? सी.ए.ए. का भी पूरा मुद्दा रिफ्यूजी से ही तो जुड़ा हुआ है। कह रहे हैं, कुछ रिफ्यूजी अच्छे होते हैं, उनको आने दो, उनके लिए हम एक विशेष कानून बनाएँगे। दुनिया के आठ-सौ करोड़ लोगों में से एक-सौ-बीस करोड़ लोग रिफ्यूजी होने वाले हैं। इनको कौन-सा देश रख लेगा, ये बताओ? इन्हें क्लाइमेट रिफ्यूजीज़ बोलते हैं, ये नए तरीके के रिफ्यूजी हैं, क्लाइमेट रिफ्यूजीज़।
बारह-पंद्रह हज़ार रिफ्यूजी आ जाते हैं, शरणार्थी, तो हमारी हालत ख़राब हो जाती है, हो जाती है न? और ये एक-सौ-बीस करोड़ जब बनेंगे शरणार्थी, तो पूरी दुनिया की जियो-पॉलिटिक्स का क्या होने वाला है और इससे कैसी-कैसी लड़ाइयाँ छिड़ेंगी, ये सोचो। और एक बात और समझना, जब लड़ाइयों की बात आ रही है, लड़ाइयाँ क्लाइमेट चेंज का अपने आप में एक बड़ा कारण हैं। हमने क्या कहा, जब कार्बन हवा में आता है, कार्बन माने ये जो सूट होता है। कार्बन माने छोटा कार्बन नहीं, पार्टिकुलेट मैटर नहीं, जो सूट होता है, जैसा लालटेन जलने पर देखते हो, लालटेन के शीशे पर जो इकट्ठा हो जाता है। जब बम फटता है या बम वर्षा के कारण कहीं आग लगती है, तो उस तरह की कालिमा खूब निकलेगी न। वो कालिमा क्या करती है वातावरण में? हीट को और ट्रैप करती है। इसके अलावा कार्बन डाइऑक्साइड रिलीज़ होती है, वो अपने आप में ग्रीनहाउस गैस है।
तो युद्ध अपने आप में क्लाइमेट चेंज को कॉन्ट्रिब्यूट करता है, और क्लाइमेट चेंज के कारण युद्ध और ज़बरदस्त तरीक़े से न छिड़े, ये हो नहीं सकता। सामरिक विश्लेषकों का कहना है कि बहुत संभव है कि अगले विश्व युद्ध का कारण क्लाइमेट चेंज ही हो। और अगला विश्व युद्ध बहुत दूर न हो, बस कुछ सालों या कुछ दशकों की दूरी पर खड़ा हो। कहते भी हैं न कि साहब, ज़मीन पीछे छूट गई और ऑयल भी पीछे छूट गया, अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा।
पहले दोनों विश्व युद्ध हुए थे कॉलोनीज़ के लिए, ज़मीन चाहिए, कॉलोनीज़। फिर अभी अतीत की जो बड़ी लड़ाइयाँ हैं, पिछले पचास साल की, वो ज़्यादातर हुई हैं तेल के लिए। आने वाली लड़ाई होगी सिर्फ़ और सिर्फ़ पानी के लिए। हम प्यासे मरने वाले हैं, और ये हम तब बात कर रहे हैं जब हम इस पृथ्वी की सबसे सबल प्रजाति हैं। नन्हीं गौरैया का सोचो, उसका क्या होगा? पेड़ नहीं और तापमान 55-60, उसका क्या होने वाला है एक बार को सोचो, उसका दर्द सोचो। पक्षियों का दर्द सोचो, पेड़ सारे काट दिए और तापमान कर दिया 55-60, क्या होगा उनका?
और जब हम बात कर रहे थे न कि प्रजातियाँ विलुप्त हुई हैं, उनमें सबसे ज़्यादा जो प्रजातियाँ विलुप्त हुई हैं, वो हैं जो फ़्रेशवॉटर इकोलॉजी की होती हैं। अपने बच्चों को हम कौन-सी दुनिया दे रहे हैं ये? वो हमें कोसेंगे कि हमें क्यों पैदा किया, भुन-भुन के मरने के लिए, रोस्टेड टू डेथ! इसके बहुत और आयाम हैं, मैं सबके सब तो अभी एकदम स्मृति से आपको बता नहीं सकता, पर मानव गतिविधि का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो क्लाइमेट चेंज की भयानक चोट न झेलने वाला हो।
आप बताओ, ये बेचारे जो दिहाड़ी मज़दूर होते हैं, इनका क्या होगा? ये कैसे दिन में काम करेंगे? और कंस्ट्रक्शन ऐक्टिविटी तो सब दिन में ही होती है। किस तरह की हीट वेव्स चलेंगी, लू कैसी हो जानी है, कुछ समझ पा रहे हो? और समझिएगा, हमारी जो पूरी शारीरिक व्यवस्था होती है न, जैसे आप भारतीय हो, तो हमारे जीन्स बने हुए हैं एक ख़ास तरह की टेम्परेचर रेंज में रहने के लिए। जब आप उस टेम्परेचर रेंज में नहीं रहते, तो फिर आपको अतिरिक्त इंतज़ाम करने पड़ते हैं। आपको ए.सी. चलाना पड़ता है या आप किसी ठंडे देश चले गए, भारतीय कनाडा चला गया, तो वो अपने ज़्यादा मोटे कपड़े पहनेगा, गर्म।
और आप पाते हो कि जब पश्चिमी लोग भारत आते हैं, तो भारत की ठंडी में भी वो टीशर्ट पहनकर घूम रहे होते हैं, क्योंकि उनका शरीर -10, -20 के लिए अभ्यस्त हो गया होता है। भारतीय शरीर बहुत ऊँचे तापमानों के लिए अभ्यस्त नहीं है। और तन पर जब चोट पड़ती है, तो उसका असर मन पर पड़ता है। हम साइकोसोमैटिक जीव हैं, हमारी पूरी मानसिक व्यवस्था चरमरा जानी है क्लाइमेट चेंज से। क्योंकि क्लाइमेट चेंज 2 डिग्री का नहीं है, एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स का चेंज है।
हत्या, हिंसा, तमाम तरह के अपराध, बहुत-बहुत बढ़ जाने हैं। पूरी पृथ्वी को बुखार आ गया है, तप रही है। इंसान भी तपेगा, और इंसान तपेगा तो न जाने वो कितने नरकों की आग पैदा करेगा। उसमें हमारा तो जो होगा सो होगा, पृथ्वी की आधी से ज़्यादा प्रजातियाँ हम पहले ही मार चुके हैं, बाक़ी सबको हम मारकर जाएँगे। कोई मुद्दा है जो मुझसे छूट रहा है, प्रमुख?
प्रश्नकर्ता: सर, ये एक रिपोर्ट मैं पढ़ रहा था, तो उसमें हिमालय के ऊपर कुछ बात कही थी उन्होंने, तो ये सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरमेंट की स्टेट ऑफ़ इंडियन एनवायरमेंट रिपोर्ट आई थी 2024 की। तो वो बता रहे थे कि 44 % जो क्लाइमेट-रिलेटेड इंसिडेंट्स होते हैं इंडिया में, वो हिमालयन रीजन में ही होते हैं।
आचार्य प्रशांत: इसलिए लद्दाख में ये आंदोलन हो रहा है। क्लाइमेट-रिलेटेड डिज़ास्टर्स होते हैं और एक्सट्रीम इवेंट्स होते हैं, वो लगभग आधे हिमालय के ही क्षेत्रों में होते हैं। और हिमालय हमारे लिए बहुत मज़बूत और बड़ी चीज़ है, उसको हम कहते हैं उत्तरी दिशा का हमारा प्रहरी। लेकिन आप अगर जियोलॉजिस्ट से पूछेंगे तो कहेंगे, हिमालय बहुत कमज़ोर पहाड़ हैं, उन्हें बोलते हैं यंग फोल्ड माउंटेन्स। इसीलिए आप पाते हो कि उनमें भूस्खलन इतना ज़्यादा होता है, क्योंकि अभी वो कच्चे पहाड़ हैं। हिमालय अभी भी कुछ सेंटीमीटर प्रतिवर्ष उठ रहे हैं, अभी वो बन रहे हैं, अभी वो बच्चे हैं। यंग हैं, यंग फोल्ड माउंटेन्स बोलते हैं उनको, उनका निर्माण अभी भी हो रहा है। वो बहुत पुराने नहीं हैं।
अरावली के पर्वत ले लो, वो बहुत पुराने हैं, उनमें कुछ नहीं धसता। या कि आप विंध्याचल चले जाओ, वो भी पुराना। लेकिन हिमालय नया है, और हिमालय आप जानते हो न, कैसे बना है? कि एक भूखंड आकर के जो पुराना एशिया था, उससे टकरा रहा है। और जब दो ऐसे टकराते हैं, तो बीच में ऐसे हो जाएगा न, (उठ जाएगा)। ये ऐसे था, ये आया, आया ऐसे, तो ये हिमालय है। ये ऐसे आया, बहता-बहता-बहता, इससे टकराया, ये हिमालय है। हिमालय अभी बहुत कच्चा है।
उस हिमालय का क्या होगा क्लाइमेट चेंज के साथ, आप सोच लो। और आप जाकर देखो तो हिमालय में किस तरीके से पेड़ काटे गए हैं और वन-संपदा बर्बाद की गई है। और वहाँ जो कुछ भी लूटा जा सकता था, लूटा गया है। हम यहाँ बैठे हुए हैं मैदानों पर, हमें उतना अंतर नहीं पड़ता है, पर जो लोग वहाँ के वासी हैं, वो तो बिलख रहे हैं न। जोशीमठ याद है? और कुछ?
प्रश्नकर्ता: सर, साथ में जो आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट है, वो पहली ये बता रही है कि जिस तरह से कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है, हम लोग 3 डिग्री तक के टेम्परेचर राइज़ की तरफ़ बढ़ रहे हैं। तो यहाँ पर ये बता रहे हैं कि यदि इतना टेम्परेचर राइज़ हुआ, तो नब्बे प्रतिशत हिमालयन रीजन में साल भर तक चलने वाला सूखा पड़ सकता है।
आचार्य प्रशांत: हिमालय क्या होता है, जानते हो न? हिमालय वो दीवार है जिससे टकराकर मानसूनी हवाएँ बारिश बनती हैं। इसीलिए सबसे ज़्यादा बारिश उत्तर भारत में कहाँ होती है? पर्वतों में। क्योंकि हिमालय ही वो दीवार है, आपकी बंगाल की तरफ़ से मानसून की हवाएँ आती हैं, और वो हिमालय की दीवार से टकराती हैं तो बारिश होती है पूरे उत्तर भारत में फिर। उस दीवार पर ही सूखा पड़ने वाला है, तो बाक़ी भारत का क्या होगा? सोचो। उत्तर प्रदेश का क्या होगा? बिहार का क्या होगा? हरियाणा का क्या होगा? राजस्थान में वैसे ही कुछ नहीं होता। तो पंजाब का क्या होगा? सोच लो।
हिमालय पर सूखा, अकल्पनीय बात, वो होने जा रहा है।
और है कुछ?
प्रश्नकर्ता: सर, अगर 3 डिग्री टेम्परेचर बढ़ेगा, एवरेज टेम्परेचर तो एक चीज़ है जिसकी हम बात नहीं करते, वो है पॉलिनेशन।
आचार्य प्रशांत: मैंने पढ़ा है और बहुत रिलायबल सोर्सेज़ से पढ़ा है कि ये 3 डिग्री का भी जो अंदेशा है, ये भी पार होने वाला है (सोर्स: द वर्ल्ड बैंक)। लोग 5 डिग्री तक की बात कर रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: जी, मतलब ये भी एक कन्ज़रवेटिव सीनारियो है, जो एक्स्ट्रीम सीनारियो है, वो 5 डिग्री तक जा सकता है।
आचार्य प्रशांत: 5 डिग्री तक जा सकता है।
प्रश्नकर्ता: जी, मतलब यहाँ पर जो उन्होंने स्टडी में बताया, वो ये कि यदि 3-4 डिग्री तक पहुँचेगा टेम्परेचर, तो जो पॉलिनेशन होता है, वो रिड्यूस्ड बाय हाफ, मतलब आधा हो जाएगा।
आचार्य प्रशांत: ये जो फूलों का पॉलिनेशन है, आप जानते हो न, इन सबके पास ए.सी. नहीं होते, पेड़-पौधों के पास। उनका पॉलिनेशन ही ख़त्म हो जाना है,बहुत वजहों से — पोलिन ग्रेन्स कम प्रोड्यूस होंगे, और जो एजेंट हैं पॉलिनेशन का, जब वही नहीं बचेगा तो पॉलिनेशन कहाँ से होगा? पॉलिनेशन के लिए क्या चाहिए होता है? कोई कीड़ा, कोई भौंरा। जब वही नहीं बचा है तो पॉलिनेशन कहाँ से होगा? पॉलिनेशन नहीं होगा तो तुरंत प्रजाति समाप्त।
लेकिन हम, हमारे पास बहुत सारे मनोरंजक झुनझुने हैं। हम टीवी में मुँह डाले हुए हैं, हम सोशल मीडिया में मुँह डाले हुए हैं, और जो मुद्दा ऐसा है कि महाविनाश, कि इतिहास में कभी ऐसी चीज़ नहीं हुई, उससे हम बेख़बर हैं बिल्कुल, सो रहे हैं।
अगर कुछ मुट्ठी-भर इंसान बच गए तो वो हमारी पीढ़ी से पूछेंगे, “तुम कितने बेवकूफ़ लोग थे यार! तुम राजनीति में घुसे हुए थे, तुम तू-तू मैं-मैं में घुसे हुए थे, तुम ‘ये समुदाय, उस समुदाय’ में घुसे हुए थे। तुम खेल, कॉमेडी, मनोरंजन में घुसे हुए थे। तुम इसमें घुसे हुए थे कि अभी और किस तरीके से हम बड़ी-बड़ी इमारतें बनाएँ। जब प्रलय आ रही थी, तुम ये सब मूर्खता कर रहे थे।”
हमने बहुत सारे आयामों में बात करी कि यहाँ कितना नुकसान है, वहाँ कितना नुकसान है, वहाँ कितना नुकसान है। जो कॉनफ़्लिक्ट-थ्योरी होती है स्ट्रैटेजी में, वो मालूम है क्या बोलती है? वो बोलती है, “ये सब आप अलग-अलग देख रहे हो, लेकिन जब ये सब एक साथ होते हैं, तो ये मल्टिप्लाई कर जाते हैं।”
आपने एक जगह देखा कि दस प्रतिशत नुकसान, आपने दूसरी जगह भी देखा दस प्रतिशत नुकसान है। आपने अपने-आप को क्या समझा लिया? कि साहब, इन दोनों में तो दस ही दस प्रतिशत नुकसान है। जो कॉनफ़्लिक्ट-थ्योरी होती है, वो बोलती है, ये दोनों जब एक साथ होंगे तो वो हो जाएगा 1.1², यानी 1.21, यानी 21 प्रतिशत नुकसान हो गया, वो दस नहीं, इक्कीस प्रतिशत हो गया तुरंत।
और अगर इस तरह के दो की जगह छह हो जाएँ, तो 1.1⁶ हो जाएगा, देख लो। हमने कम से कम अभी दस अलग-अलग आयामों की बात करी है। वो 1.1¹⁰ है, वो देख लो कितना होता है।
किसी में दम नहीं है कि खुल के बोल सके कि इस पूरी चीज़ का एक कारण है — जनसंख्या। उल्टे लोग अपने-अपने झुंडों की, अपने-अपने क़बीलों की तादाद बढ़ाने में लगे हुए हैं। भाई मेरे, कार्बन एमिशन इज़ प्रोपोर्शनल टू कंज़म्प्शन है। ठीक है, बहुत सीधी-सीधी इक्वेशन है समझ लो — कार्बन एमिशन इज़ प्रोपोर्शनल टू कंज़म्प्शन। मोर ऑर लेस। उसमें जो मीडिएटर होता है वो टेक्नॉलॉजी;होता है, कंज़म्प्शन विद् बेटर टेक्नॉलॉजी विल लीड टू लेसर एमिशन। लेकिन आप टेक्नॉलॉजी कितनी भी बढ़ा लो, मोटे तौर पर ये बात बिल्कुल वैलिड है कि कंज़म्प्शन इज़ प्रोपोर्शनल टू एमिशन, कार्बन एमिशन।
और कंज़म्प्शन इक्वल्स पॉपुलेशन इनटू पर-कैपिटा कंज़म्प्शन सीधी सी बात है बहुत। पर-कैपिटा कंज़म्प्शन तो बढ़ना ही है, क्योंकि पृथ्वी पर बहुत अभी गरीब लोग हैं, उनका पर-कैपिटा बढ़ना ज़रूरी है। वो तो बेचारे भूखे मर रहे हैं, उनको तो और कंज़म्प्शन चाहिए, उनको घर चाहिए, होमलेस लोग हैं, सड़कों पर सो रहे हैं। तो पर-कैपिटा कंज़म्प्शन तो बढ़ेगा ही। और अभी टोटल कंज़म्प्शन जितना है, उसके लिए कई पृथ्वियाँ चाहिए। पर-कैपिटा कंज़म्प्शन तो बढ़ेगा, तो टोटल एमिशन का क्या होगा फिर? वो बढ़ेगा ही। उसको फिर रोकने का एक ही तरीक़ा है न, क्या? पॉपुलेशन कम करो। उसके अलावा कोई तरीक़ा नहीं है।
ये हमें नहीं बात समझ में आ रही, और किसी सरकार में दम नहीं है कि ये बात खुल के बोले, कि “जनसंख्या को रोकने के अलावा कोई तरीका नहीं है महाप्रलय से बचने का।”
हम पूरी पृथ्वी को खा चुके हैं। और है कुछ?
प्रश्नकर्ता: सर, आप जो भी बात कर रहे हैं, उससे जुड़ा एक तथ्य है, एक दिन कहलाता है, अर्थ-ओवरशूट डे कि पूरे साल का एक वो दिन, जब तक आते-आते हम पृथ्वी की उस साल की जितनी रिसोर्सेज़ थीं, वो सब हम ख़त्म कर चुके होते हैं। तो उसमें कहा जाता है कि अभी पृथ्वी का जो कंज़म्प्शन है, हम इंसानों का।
आचार्य प्रशांत: सितंबर-अक्टूबर में आ जाता है?
प्रश्नकर्ता: जी, वो अगस्त में आ जाता है, और हर बार बढ़ता ही जा रहा है।
आचार्य प्रशांत: बढ़ता ही जा रहा है। मतलब समझ रहे हो? साल भर का बजट दे रखा है पृथ्वी ने, कि साहब, इतना दिया है 31 दिसंबर तक खाना है। जितना 31 दिसंबर तक खाना है, इंसान उसको अगस्त में ही खा के ख़त्म कर देता है। तो अगस्त के बाद क्या कर रहे हो, अगस्त से दिसंबर तक? ओवर-ड्रॉ कर रहे हो, जो तुम्हें लेना नहीं चाहिए, जो तुम्हारा जायज़ हक़-अधिकार नहीं है, तुम उतना ले रहे हो।
किससे ले रहे हो जानते हो? पशु-पक्षियों से, पौधों से, पर्यावरण से, पृथ्वी को ही खा रहे हो। और ये ऐसा नहीं कि खा के निवृत्त हो जाओगे, वो कर्ज़े की तरह चढ़ता जाता है ऊपर। अधिक खाया है तो कर्ज़ की तरह चढ़ जाता है न, और वो कर्ज़ा हर साल कम्पाउंडेड इंटरेस्ट की तरह, चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ रहा है। पर हमें इसमें आधी रुचि है।
कि अगली कौन-सी मनोरंजक और उत्तेजक मूवी आ रही है, और उसमें कौन-सी कोमलांगिनी ने आइटम नंबर बताया है, और कौन-सी सेलिब्रिटी ने कितने बच्चे पैदा कर दिए, और कौन-सी सेलिब्रिटी ने नया प्राइवेट जेट ख़रीदा है, जिसमें वो कार्बन एमिट करते हुए कौन-सी जगह पर जा कर अपना फोटोशूट कर रही है। हमें इसमें ज़्यादा रुचि है, जानने में।
एक भी तुम्हारी सेलिब्रिटी है जो ये बात कर रही हो? तो तुमने उनको क्यों बना रखा है? एक भी तुम्हारा नेता है जो ये बात कर रहा हो? तुमने उनको नेता क्यों बना रखा है? एक भी मीडिया चैनल है जो ये बात कर रहा हो? नहीं तो तुम उनको देखते क्यों हो? ये सब तो पाइड पाइपर्स हैं। पाइड पाइपर ऑफ़ हैमेलिन की कहानी पता है न? वो अपनी बीन बजाते हुए जा रहा है और सारे चूहे उसके पीछे-पीछे। उसने सबको जाकर पहाड़ से नीचे गिरा दिया, सब मर गए।
वैसे ही ये सब सेलिब्रिटी आगे अपना तुम्हें सम्मोहित करने वाला, हिप्नोटाइज़ करने वाले संगीत बजाते चल रहे हैं, तुम चूहों की तरह इनके पीछे-पीछे जा रहे हो। किधर को जा रहे हो? अपनी मौत की ओर जा रहे हो इनके पीछे-पीछे।
मुझे अफ़सोस होता है जिस बात का, जो ये करतूतें कर रहे हैं, वो सबसे बाद में मरेंगे। सबसे पहले इंसानों में मरेंगे, जो सबसे गरीब हैं। इसमें सबसे पहले और सबसे ज़्यादा गरीबों पर कहर टूटेगा, और टूट रहा है। और इंसानी गरीबों से भी पहले, उन पर टूटेगा जो इंसानी गरीबों से भी ज़्यादा गरीब हैं — पशु, पक्षी और पौधे, जिन बेचारों की कोई ख़ता ही नहीं।
मैं फिर पूछ रहा हूँ, उस चिड़िया ने हमारा क्या बिगाड़ा है जो हमारी हरकतों से अब कहीं की नहीं रही? बर्बाद! पर हमारे पास हमारी कामनाएँ हैं, हमारे अरमान हैं, जो हमें पूरे करने हैं किसी भी हालत में। “मुझे तो अपने अरमान पूरे करने हैं!”
पूरा का पूरा ग्रह भेंट चढ़ गया हमारे अरमानों की। और ये अरमान ऐसी चीज़ है न, ये सब कुछ खा ले तो भी पूरे नहीं होते।
और कुछ? बहुत कुछ है अभी और! ख़ुद जाइए, देखिए, पढ़िए, समझिए। अगर इतिहास लिखने के लिए कोई बचा रहा न, तो इतिहास जवाब माँगेगा। क्या जवाब दोगे?