लड़कियों की ज़िंदगी इसलिए है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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लड़कियों की ज़िंदगी इसलिए है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा प्रश्न महिलाओं से सम्बन्धित है, रेप (बलात्कार) से सम्बन्धित। तो अभी जैसे ये कानून में बदलाव हुआ है कि लड़कियों की उम्र अठारह से इक्कीस कर दी है शादी की। तो इसमें काफ़ी नेता और समाज के लोग भी ये कह रहे हैं कि इससे अब आने वाले समय में रेप के मामले ज़्यादा बढ़ जाएँगे। तो मैं इसपे थोड़ा स्पष्टीकरण चाहती हूँ और ये भी है कि मतलब ये पैट्रीआर्कल सोसायटी (पितृसत्तात्मक समाज) से महिलाएँ कैसे मुक्त हो सकती हैं? क्योंकि बोला जाता है कि फाइनेंशियल फ्रीडम के ज़रिए हो सकती हैं वो इससे मुक्त। पर जो लड़कियाँ आर्थिक रूप से आत्म निर्भर भी होती हैं, मैं उनको भी देखती हूँ, उनका भी बन्धन रहता है घर से, समाज से। कृपया इस बात पर।

आचार्य प्रशांत: ये बन्धन कभी किसी बाहर वाले से नहीं रहता। बन्धन हमेशा आन्तरिक ही होता है। और महिलाओं की मुक्ति हो या पुरुष की मुक्ति, आवश्यक है मनुष्य की मुक्ति। महिला जब तक अपनेआप को महिला मानकर मुक्ति की कोशिश करेगी, उसको मुक्ति मिल ही नहीं सकती क्योंकि महिला होना ही उसका बन्धन है। पुरुष जब तक अपनेआप को पुरुष मानकर मुक्ति की कोशिश करेगा, उसे मुक्ति मिल ही नहीं सकती क्योंकि पुरुष होना ही उसका बन्धन है। तो महिला मुक्ति, ये बात ही अपनेआप में एक पैराडॉक्स (विरोधाभास) है। इस बात में ही एक आन्तरिक विरोधाभास है।

मनुष्य की मुक्ति हो सकती है, महिला की नहीं हो सकती। मनुष्य की हो सकती है, पुरुष की नहीं हो सकती। आप अपनेआप को महिला मानते ही रहोगे तो कौनसी मुक्ति? मनुष्य की मुक्ति कैसे होती है? उसके बोध के बढ़ने से, उसकी कामनाओं के कम होने से, उसके विवेक के जगने से। महिलाओं की मुक्ति भी वैसी ही होगी।

महिलाओं और पुरुषों की मुक्ति के रास्ते कुछ अलग-अलग नहीं हैं। समझ रहे हो बात को? अगर एक व्यवस्था चल रही है समाज में, हमें ये कहने में बड़ी सुविधा रहती है कि पुरुष शोषक है और महिला शोषित है पर मैं फिर भी ये कहता हूँ, ‘आपकी मर्ज़ी के बिना आपका शोषण नहीं हो सकता।’ नहीं तो आप उस व्यवस्था में रुकेंगे ही नहीं, आप वहाँ से भाग जाएँगे। अगर इतनी बड़ी संख्या में महिलाएँ एक व्यवस्था में भागीदार बनी हुई हैं तो कहीं न कहीं, उनको या तो ये बता दिया गया है या उन्होंने सीख लिया है कि उस व्यवस्था में उनके लिए भी कुछ लाभ है। ये भावना ही बन्धन है। तुमने अभी कहा कि लड़कियाँ होती हैं जो कमा भी रही होती हैं, आर्थिक रूप से स्वतंत्र भी होती हैं लेकिन फिर भी वो बन्धन में होती हैं। क्या तुम्हें इसी बात से नहीं दिख जाता है कि बन्धन आन्तरिक हैं।

आप ख़ुद कमा-खा रहे हो, आप अपने घर में रह रहे हो, ख़रीद के या किराये पर रहकर, आपके पास अपना मोबाइल फ़ोन है, अपना नंबर है, अपनी गाड़ी है, बन्धन कहाँ से आ गया? क्या कर रहा है कोई? आपको ज़बरदस्ती पकड़ करके आपके पाँव में बेड़ियाँ डाल रहा है? नहीं, ऐसा तो नहीं होगा।

ज़रूर कहीं-न-कहीं स्वेच्छा शामिल है इस बन्धन में, ज़रूर कहीं-न-कहीं स्वार्थ शामिल है इस बन्धन में वरना कोई कैसे आपको बन्धक बना लेगा? पैट्रीआर्की कब की ध्वस्त हो गयी होती यदि महिलाओं को साफ़ दिख गया होता कि इसमें उनका शोषण हो रहा है। ज़रूर बहुत सारी महिलाएँ हैं जिन्हें दिखता है या लगता है कि पैट्रीआर्की में उनका हित है इसीलिए तो पैट्रीआर्की चल रही है। भूलिए नहीं कि दुनिया की आधी आबादी है महिलाओं की। कैसे कोई व्यवस्था चल सकती है जिसमें आधी आबादी का शोषण हो रहा हो? वो आधी आबादी जो है वो स्वयं भी भागीदार है। इसी को मैं कह रहा हूँ आन्तरिक बन्धन। पैट्रीआर्की इज़ अ ज्वाइंट प्रोजेक्ट ऑफ द मैन एंड द वुमन। पैट्रीआर्की इज़ नॉट अ टिरैनिकल इंपोजिशन ऑफ द मैन अपोन द वुमन। (पितृसत्ता स्त्री और पुरुष की संयुक्त परियोजना है। पितृसत्ता स्त्री पर पुरुष का अत्याचारी विरोध नहीं है।) हालाँकि विक्टिम कार्ड (पीड़ा का बहाना) खेलना हमें अच्छा लगता है। हम कहना चाहते हैं कि आदमी ने ज़बरदस्ती औरत को बन्धक बना लिया। मैं निवेदन करूँगा कि इस बात की हम थोड़ा और निकटता से जाँच-पड़ताल करें।

मनुष्य ही है न स्त्री भी! आपको अगर मुक्ति चाहिए ही होगी, तो आप कह देंगी, ‘मैं बन्धन नहीं स्वीकार करूँगी। जान दे दूँगी, ग़ुलामी नहीं चाहिए।’ पर जिसको आप बन्धन कह रही हैं, उसमें बहुत सारी सुख-सुविधाएँ हैं इसीलिए वो बन्धन चलता आ रहा है। उन सुख-सुविधाओं का लालच छोड़ना ही मुक्ति है, महिला के लिए भी, पुरुष के लिए भी, मनुष्यमात्र के लिए।

यूँ ही पुरुष किसी महिला का शोषण नहीं कर लेता, बदले में उसे कुछ देता भी है। शोषण के बदले में आपको जो कुछ मिल रहा है, जिसदिन आपके मन में उसका लालच ख़त्म हो गया, शोषण एक दिन नहीं टिकेगा। और यदि शोषण के बदले में आप कुछ न कुछ ले ही रही हैं, ग्रहण कर रही हैं या वसूल रही हैं, तो शोषण हुआ कहाँ? फिर तो ख़रीद-फ़रोख्त हुई, लेन-देन हुआ, व्यापार हुआ। लेन-देन को शोषण तो नहीं बोला जाता न, या बोला जाता है? बल्कि ये तो एक तरह से बेईमानी की बात हो जाएगी कि आप लेन-देन भी करें और ये भी कहें कि देखो, मेरे साथ अत्याचार हो रहा है। कि आप दुकान पर जाएँ, आप सौ रुपये देकर के कोई चीज़ ख़रीदें और फिर कहें, ‘देखो, मेरे सौ रुपये लूट लिये गए।’ हाँ, आपसे सौ रुपये ज़रूर लिये गए लेकिन बदले में जो माल लिया आपने, उसका क्या?

तो महिलाओं को अपनेआप से ईमानदारी से पूछना पड़ेगा, ‘माल नहीं ले रही हो क्या?’ मैं कह रहा हूँ वो माल इस लायक़ नहीं है कि उसके लिए अपनी आज़ादी बेच दो। तुरन्त उस माल का लोभ त्याग दो। और वो माल ज़रूरी नहीं है कि स्थूल ही हो। मैं रुपया-पैसा-सोना-चाँदी भर की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं भावनात्मक सुरक्षा की भी बात कर रहा हूँ। वो जो भाव होता है कि कोई मेरा केयर टेकर (ख़याल रखने वाला) हो, कोई केयरगिवर (देखभालकर्ता) हो, एक बॉडीगार्ड (अंगरक्षक) की तरह कोई साथ हो — ये भाव त्याग दो, मुक्ति मिल जाएगी। फिर किसी पुरुष की हिम्मत नहीं होगी महिला का शोषण करने की।

आ रही है बात समझ में?

प्र: सर, और ये जो अभी नया कानून..

आचार्य: ये मुझे समझ में नहीं आया, अठारह से इक्कीस होने में बलात्कार क्यों बढ़ जाएगा?

प्र: सर, वो बोल रहे हैं कि देर से शादी होगी तो..

आचार्य: तो? ये लेट कैसे है? अठारह से इक्कीस लेट हो गया?

प्र: सर, नेता भी काफ़ी विरोध कर रहे थे।

आचार्य: नेताओं को जो चाहिए होगा, मुझे नहीं पता। पर ये पहले तर्क समझ में आये तब न उसका मैं कुछ खंडन भी करूँ। ये तर्क ही नहीं समझ में आ रहा है कि अठारह से इक्कीस हो जाएगी तो? ये ऐसी सी बात है कि महिलाओं की विवाह की उम्र अठारह से इक्कीस कर दी तो इस साल मॉनसून (वर्षाकाल) जल्दी आएगा, कैसे? (श्रोतागण हँसते हुए)

कुछ तुम तुक बिठाओगे, तब तो मैं उसका खंडन भी करूँ। कोई तुक ही नहीं है इसमें। ये क्या बात है?

सबसे ज़्यादा बलात्कार तो शादी के बाद होते हैं। आप कह रहे हैं, ‘कुँवारी रह जाएगी तो बलात्कार बढ़ जाएगा।’ कुँवारी न रह गयी होती, शादी कर ली होती फिर जो बलात्कार होता, उसका क्या? सबसे ज़्यादा बलात्कार तो पति ख़ुद करते हैं। बलात्कार वही थोड़ी है वो जो तुम पढ़ते हो सड़कों में कि सड़क पर बलात्कार हो गया, कोई अनजान आदमी ले गया, उसने कर दिया। दिन-रात बलात्कार तो पति करता है। तो कुँवारी रह जाएगी तो बलात्कार होगा। शादी के बाद नहीं होता है?

प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। सर मेरा क्वेश्चन (प्रश्न) उनके क्वेश्चन से कन्टिन्यूएशन (विस्तार) में है। आपने उनसे कहा कि जो महिलाएँ हैं उन्हें अपनी ये जो टेंडेंसी (प्रवृत्ति) है, डिपेंड (निर्भर) होने की, डिपेंडेंसी वाली जो टेंडेंसी है, उसको छोड़ना है।

सर, ये टेन्डन्सी मैंने काफी कुछ अपने में भी नोटिस (ख़बर) की है। मैंने इसके लिए काफी सारी चीज़े की। आपके विडियोज़ देखे, आपकी जो बुक है 'अकेलापन और निर्भरता', वो किताब भी पढ़ी, उसपे नोट्स बनाए, काफी सोचा भी इस बारे में और इस चीज़ को ले के ये जो अटैचमेंट (अनुरक्ति) और डिपेंडेंसी वाली जो चीज़ है, इसको लेकर काफी दुख भी मुझे मिला है अपने जीवन में, जब मैंने अपने रिश्तों में अटैचमेंट रख लिया या डिपेंड हो गयी पर इतना सब होने के बाद भी कहीं न कहीं मैं देखती हूँ कि ये चीज़ मुझमें से जा नहीं रही है और न ही ये कम हुई है।

मैं इसके लिए क्या करूँ? क्योंकि जब ऐसा कुछ हो जाता है, ये मुझ पे इतना असर डालता है, मेरा काम, मेरी पढ़ाई, सब कुछ इस चीज़ की वजह से अफेक्ट (प्रभावित) हो जाता है, जैसे ही थोड़ा भी कुछ ऐसे होता है कुछ निकट सम्बन्धों में। तो मैं इसके लिए और क्या करूँ?

आचार्य: निकट सम्बन्ध ढंग के बनाओ। निकट सम्बन्ध ही ऐसे बनाओ जो निर्भरता से मुक्ति देते हों। देखो, हमने कहा था न अभी कि जैसा शरीर होता है, वैसी चेतना होती है। स्त्री और पुरुष का शरीर अलग-अलग होता है। तो उनकी चेतना में भी कुछ अन्तर होता है। स्त्री सम्बन्धों में थोड़ी ज़्यादा रूचि रखती है पुरुष की अपेक्षा। ये शारीरिक बात है क्योंकि प्रकृति ने ही उसको ऐसा बनाया है कि उसे कम से कम एक सम्बन्ध में तो रूचि रखनी ही पड़ेगी। कौनसा सम्बन्ध? अपने बच्चे के साथ। एक दूसरे जीव को आप अपने शरीर के ही भीतर रख रहे हैं लम्बे समय तक तो उससे सम्बन्ध में रुचि तो रखोगे ही न! नहीं तो वो जीव मर जाएगा। रुचि नहीं रखोगे तो उसको पालोगे-पोसोगे भी नहीं, देखभाल नहीं करोगे ठीक से, वो मर जाएगा। तो प्रकृति ने ही स्त्री को ऐसा बनाया है कि उसकी सम्बन्धों में थोड़ी ज़्यादा रूचि रहती है।

फिर क्या करें? यही करें कि फिर जब सम्बन्ध बनाना ही है तो ढंग के बनायें न। ऐसे से सम्बन्ध बनाओ जो सम्बन्ध से मुक्ति दिला दे। यही तरीक़ा है।

और दूसरी बात और समझिएगा — ये जो परनिर्भरता महिलाओं में इतनी पायी जाती है, ये बहुत ज़्यादा प्राकृतिक भी नहीं है। जितनी प्राकृतिक है, हमने उसकी बात कर ली। पर बहुत ज़्यादा ये प्राकृतिक भी नहीं है, ये ज़्यादा सामाजिक है। जंगल में ऐसा होता है क्या कि शेरनी घर में बैठती है और शेर उसके लिए शिकार लेकर आता है? शेरनी भी बराबर का शिकार करती है, अपने लिए ख़ुद कमाती है। ठीक?

ये समाज ने आपको सिखा दिया है कि आपका काम है घर देखना और कोई आएगा और कमा के लाएगा इत्यादि-इत्यादि। हाँ, कुछ हद तक ऐसा ज़रूर है कि शेरनी भी जब गर्भ की उन्नत अवस्था में होती है तो वो भी शिकार नहीं कर सकती। तो बस कुछ दिनों के लिए वो भी आश्रित होती है। पर उतना ज़्यादा परनिर्भरता प्रकृति में मादाओं की देखने को नहीं मिलती जितनी मनुष्यों में स्त्रियों की देखने को मिलती है। मनुष्य की स्त्री तो पूरी ही आश्रित होकर जीती है। बहुत सारी स्त्रियाँ, सभी नहीं। इतनी परनिर्भरता प्रकृति ने भी नहीं सिखायी। इतनी परनिर्भरता तो हमको समाज ने सिखायी है।

तो समाज की वैसी सीख से बचना है और जो भी वैसी सीख ग्रहण कर ली है, अब उसका खंडन कर देना है, नेति-नेति कर देनी है। ‘जी, ये तो नहीं मानते।‘ और प्राकृतिक कारणों से महिलाओं को जो परनिर्भरता झेलनी भी पड़ती रही हो, अब विज्ञान और प्रौद्योगिकी का युग है, अब उतनी भी परनिर्भरता की आवश्यकता नहीं है। आपका अगर छोटा बच्चा भी है तो भी ज़रूरी नहीं है कि आप काम न कर पायें। इंटरनेट है, ऑनलाइन है, बहुत तरीक़े के काम हैं। आपको किसी पर निर्भर होने की कोई आवश्यकता है ही नहीं।

ये आदर्श बड़ा बेढंगा, विकृत आदर्श है। समाज ने आपके भीतर डाल दिया है कि महिला का जीवन तभी पूरा होता है जब उसके बगल में एक पुरुष चल रहा हो। पुरुष के मन में भी ऐसी चीज़ डाली जाती है कि जीवन में एक महिला का होना आवश्यक है लेकिन इन दोनों की तुलना में पुरुष तो फिर भी एक बार को स्वीकार कर लेता है ब्रह्मचारी होना, ब्रहमचारिणी आपने कम सुनी होगी। पुरुष तो एक बार को अपने जला ले हाथ-वाथ दो चार रिश्तों में तो उसके बाद जान जाता है कि ये चीज़ ही गड़बड़ है। ‘नहीं चाहिए, ज़िन्दगी भर को नहीं चाहिए।‘ महिला कहीं-न-कहीं बड़ी इच्छुक रहती है एक रिश्ता बनाने को। ज़रूरी नहीं है कि वो रिश्ता सेक्शुअल (यौन सम्बन्धित) ही हो। वो रिश्ता ऐसा भी हो सकता है कि अपने बेटे या बेटी से बहुत मोह हो गया। पर मोह वाली बात उसमें रहती है।

रहिए आप, निर्भर मत हों कम से कम। और जैसा मैंने कहा, मैं फिर दोहराऊँगा, मत अपनी फेमिनिन आइडेंटिटी (स्त्री पहचान) को बहुत ज़ोर दें। इंसान बोलें अपनेआप को, इंसान बोलें। बार-बार अपनेआप को महिला बोलकर के, नारी या फीमेल (स्त्री) या वुमन बोल-बोलकर, आप एक ग़लत आइडेंटिटी को री-इनफोर्स (सुदृढ़) करती हैं क्योंकि शरीर है न महिला का? जब आप कहती हैं, ‘मैं महिला हूँ।‘ तो आपने अपनेआप को किससे बिलकुल जोड़ दिया? शरीर से। और ये देहभाव ही मूल बन्धन होता है।

देखिए, अधिकांश पुरुष तो महिलाओं से बस अपना मतलब निकालने की फ़िराक में रहते हैं। तो वो तो ये चाहेंगे ही कि आप अपने नारी लक्षणों को और ज़्यादा उभारें। वो तो चाहेंगे ही कि आप बाल लम्बे करें, दिन-रात साज-सज्जा-श्रृंगार करें, कामोत्तेजक कपड़े पहनें, वो सारे काम करें जो महिला को पुरुष से एकदम अलग दिखाते हैं क्योंकि इसी में उनकी यौनेच्छा शान्त होती है, पुरुषों की। तो वो तो चाहेंगे ही कि आपकी जो फेमिनिन आइडेंटिटी है, वो बिलकुल प्रबल रहे क्योंकि आप जितने ज़बरदस्त तरीक़े से वुमन्ली (स्रैण) रहेंगी, मैन (नर) को उतना ज़्यादा सेक्शुअल प्लेज़र (यौन सुख) मिलेगा।

तो इसके लिए वो क्या करते हैं? इसके लिए वो आपकी फिर तारीफ़ें करते हैं। आप जितनी वुमन्ली होती हैं, वो उतनी ज़्यादा ग़ज़लें लिखेंगे आपकी तारीफ़ में।

मुक्ति में निहित है इन सब चीज़ों से मुक्ति — तारीफ़ों की आकांक्षा से मुक्ति, किसी ने थोड़ा सा कुछ अच्छा बोल दिया तो इतरा जाने की वृत्ति से मुक्ति, लगातार दूसरों की नज़रों से स्वीकृति पाने की इच्छा से मुक्ति, आईने से मुक्ति। दो-दो तीन-तीन घंटे आईने के सामने, उससे मुक्ति चाहिए क्योंकि आप दर्पण में, पहली बात, अपनी देह को देख रही होती हैं, और दूसरी बात, आप अपनी देह को पुरुष की दृष्टि से देख रही होती हैं। पहली बात, देह भाव बढ़ रहा होता है क्योंकि दर्पण में देह दिख रही है, दूसरी बात कहीं न कहीं आप अपने शरीर को देख रही होती हैं कि ये पुरुषों के लिए आकर्षक बना है या नहीं।

मेरी इस बात से, मुझे मालूम है, बहुत महिलाएँ नाराज़ होंगी और कहेंगी, ‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं। हम तो बस अपने लिए सजते-सँवरते हैं।‘ जब भी मैं कहता हूँ, ‘इतना सजना-सँवरना क्यों?’, वो कहती हैं, ‘हमें अच्छा लगता है, हम किसी के लिए सजते-सँवरते नहीं, हम तो अपने लिए करते हैं।‘ अब वो तो आप जानें, आपका ईमान जाने कि आपकी बात में कितनी सच्चाई है। मुझे जो लगता है मैं कहे देता हूँ, बाकी अगर आप वाकई अपने ही लिए सजते-सँवरते हैं या अपने ही लिए कामोत्तेजक कपड़े पहनते हैं तो बहुत अच्छी बात है, फिर मैं कुछ नहीं कहता, आपसे कुछ नहीं कह रहा।

तो इन सब चीज़ों से, जो नारीत्व के सिम्बल बन गये हैं, प्रतीक बन गये हैं, उनसे ज़रा बचकर रहिए। कि एक विशेष तरह की चाल, या मिस यूनिवर्स का चयन हो रहा है तो उसमें एक बिकीनी राउंड होगा। ये क्या है? कि नारी वही अच्छी है जो बिकीनी में अच्छी लगे? इससे बचकर रहिए, यही तो ग़ुलामी है।

पुरुष एक इंसान ही भर है। उसको बहुत महत्व नहीं दे देना चाहिए। जैसे किसी भी इंसान का मूल्यांकन किया जाना चाहिए, वैसे ही पुरुष का भी। किस आधार पर? चेतना के आधार पर। ऊँची चेतना का है तो सम्मान दीजिए, नहीं तो लात मारिए। उसको अपनी ज़िन्दगी का केन्द्र मत बना लीजिए। किसी भी सम्बन्ध को, कोई भी सम्बन्ध आपकी ज़िन्दगी का केन्द्र नहीं बन जाए।

वो सारे काम अपने जीवन में लाइए जिनसे ऊँचे विचार बढ़ते हैं, मन में सफ़ाई आती है, दृष्टि में पैनापन आता है। अच्छी, ऊँची किताबें पढ़िए, दुनिया में खूब भ्रमण करिए, अलग-अलग लोगों को, उनके देशों, संस्कृतियों को समझिए, अपनी सीमाओं को चुनौती दीजिए। कलाओं में, खेलों में महारत हासिल कीजिए। इन सब चीज़ों को जीवन में महत्व दीजिए, सम्बन्धों भर को नहीं। रिलेशनशिप, रिलेशनशिप, रिलेशनशिप (सम्बन्ध, सम्बन्ध, सम्बन्ध)।

मैं एक उदाहरण दिये देता हूँ, मेरे पास प्रश्न महिलाओं से भी आते हैं, पुरुषों से भी आते हैं। ये जो रिलेशनशिप शब्द है, इसको लेकर के ज़्यादा प्रश्न महिलाओं से ही आते हैं। पुरुषों से भी आते हैं, पर थोड़े कम। यदि कोई महिला प्रश्न पूछ रही है तो ज़्यादा सम्भावना होगी कि वो प्रश्न रिलेशनशिप से सम्बन्धित होगा। ये रिलेशनशिप चीज़ को इतनी तवज्जो देना ही बन्द कर दीजिए। कौनसी रिलेशनशिप? काहे की रिलेशनशिप? दुनिया में और बहुत अच्छे-अच्छे काम हैं करने को। यही थोड़े ही है कि किसी इंसान को बिलकुल खोपड़े पर बैठा लिया है और फिर परेशान हो रहे हैं। कोई व्यक्ति विशेषकर कोई पुरुष, आसानी से आपकी ज़िन्दगी न बन जाए कि यही तो है, यही तो है, ये नहीं रहा तो मेरा क्या होगा, जान दे दूँगी। इस लायक़ कोई पुरुष नहीं होता। इस लायक़ बस वही होता है जिसे अध्यात्म में सत्य बोलते हैं या मुक्ति बोलते हैं। उसी को जीवन का केन्द्र बनाइए।

प्र: सर, मेरा प्रश्न अहंकार से रिलेटेड (लगकर) था। तो जैसे अहंकार भी प्रकृति का ही एक, प्रकृति ही है। तो फिर इसका मतलब क्या जानवरों में भी अहंकार पाया जाता है?

आचार्य: हाँ, होता है, हाँ।

प्र : तो फिर उनको भी?

आचार्य: उनके अहंकार में लेकिन क्षमता नहीं होती है कि वो देह के अलावा किसी और चीज़ से अपनेआप को जोड़ दें।

प्र: फिर पीड़ा और दुख उनको भी अनुभव होता है? फिर अध्यात्म की उनको भी ज़रूरत होती होगी।

आचार्य: उनको जब दुख लगता है तो उन्हें बस सुख चाहिए होता है, उन्हें मुक्त कभी नहीं चाहिए। उनके अहंकार में और मनुष्य में, ये अन्तर है। जानवर को अधिक से अधिक सुख चाहिए, मनुष्य को मुक्ति चाहिए।

प्र: चेतना तो उनके पास भी है न?

आचार्य: उनकी चेतना सीमित है उनके शरीर से। कल हमने चेतना के बारे में क्या कहा था? शरीर क्या है? मम्मी। चेतना क्या है उसका? बच्चा।

तो जैसा शरीर होता है, चेतना वैसी होती है? जानवरों का शरीर कुछ इस तरह का है कि उनकी चेतना मुक्ति माँगती नहीं। उनकी चेतना अधिक से अधिक बस सुख माँगती हैं। कोई जानवर नहीं तड़पेगा कि मैं कहाँ सांसारिक भवसागर में फँसा हुआ हूँ। हाँ, जानवर ये ज़रूर तड़पेगा कि वो घास क्यों नहीं मिल रही मुझे, हरी-हरी। उसे सुख चाहिए, मुक्ति नहीं। मुक्ति बस मनुष्य की चेतना माँगती है।

प्र: जी, धन्यवाद।

प्र३: आचार्य जी, नमस्ते। मेरा प्रश्न ये है कि आजकल स्त्रियाँ भी आगे बढ़ रही हैं कमाने के क्षेत्र में। तो पहली चीज़ अब ये सामने आयी है कि अगर स्त्री किसी पुरुष से ज़्यादा कमा रही है तो उसपे बहुत सारी चीज़ें थोप दी जाती हैं। स्त्री आर्थिक रूप से आज़ाद होना चाहती है तो वो कमा रही है लेकिन अब पुरुष क्या करने लगे हैं कि अपनी महत्वाकांक्षा उसपर थोपने लगे हैं। ‘अच्छा ठीक है, तुम कमा रही हो तो अब तुम मेरे माँ-बाप की भी इच्छाएँ पूरी करोगी, मेरी इच्छाएँ भी पूरी करोगी और तुम्हारा जो व्यक्तिगत है वो तो है ही तुम्हारा। ये होने लगा है अब।

आचार्य: नहीं, नहीं, समझा नहीं मैं। कैसे हो जाएगा ये? कैसे होने लगा है ये? कोई एक निकम्मा आदमी है जो ठीक से कमाता भी नहीं है, वो कैसे आपके ऊपर कुछ आदेश थोप सकता है?

प्र: अगर आप नहीं करते हैं, तो फिर आपसे कहा जाता है कि..

आचार्य: तो यही तो बन्धन है न कि उसने जो कुछ कहा वो आपको बड़ा लग गया। यही तो बन्धन है। आप भी तो कुछ बोल सकती थीं, उसको काहे नहीं लगा? और उसने जो बोल दिया, आपको बहुत लग गया कि अरे-अरे! इसने बोल दिया। अब बोल दिया तो बोल दिया, उसका मुँह है, कुछ भी कर सकता है।

प्र: नहीं, इसमें बात ये आ जाती है कि तुम्हें गुरूर है, तुम्हें घमंड आ गया है।

आचार्य: आप भी कह दीजिए, ‘तुममें भी गुरूर है।’ बोल ही तो दिया न कि गुरूर है, घमंड है। उसने बोल दिया, आपका मन हो सुनिए, नहीं मन हो, मत सुनिए।

प्र: तो मैं यही पूछना चाह रही थी कि अगर वो स्त्री नहीं करना चाहती है, जैसा पुरुष कह रहा है, तो क्या वो वाक़ई घमंडी है?

आचार्य: आपको नहीं पता?

प्र: मुझे नहीं पता क्योंकि साथ ही में बहुत सारी ऐसी भी स्त्रियाँ हैं जिनसे जब ये बात की जाती है, तो वो बोलती हैं कि अरे, तुम कमा रही हो तो क्या? पुरुष पुरुष होता है, तुम्हें उसका ऑर्डर (हुक्म) मानना ही चाहिए। साथ में ये भी होता है।

आचार्य: इसी को मैं कह रहा था, ये बन्धन है।

प्र: अगर मैं खिलाफ़ खड़े हो रही हूँ तो दूसरा कुछ और बोल रहा है।

आचार्य: पैट्रीआर्की इसलिए नहीं चल गयी कि पुरुष शोषण करना चाहता था, पैट्रीआर्की इसलिए भी चल गयी क्योंकि स्त्री शोषित होने में ही अपना स्वार्थ देख रही थी। भले ही वो झूठा स्वार्थ हो। भले ही उस स्वार्थ में उसे कोई वास्तविक लाभ न होता हो, पर उसे ये पट्टी पढ़ा दी गयी थी कि तुम्हारा हित इसी में है कि जो पुरुष कहे, सुन लो। और कुछ हित मिलता होगा। क्या हित मिलता था? कि फिर पुरुष केयरगिवर (देखभालकर्ता) हो जाता था, वो कहता था, ‘मैं तेरी सुरक्षा करूँगा। घर में रहेगी तो चार दीवारें दूँगा जिसके भीतर तू सुरक्षित रहेगी। घर से बाहर निकलेगी तो मैं चौकीदार-पहलवान की तरह चलूँगा साथ रह के, अंगरक्षक।’ और स्त्री कहती थी, ‘ठीक है, बढ़िया है। मुश्टंडा मिल गया।’

उसने बोल दिया तो बोल दिया। मैं समझना चाहता हूँ, आप किसकी सुन रही हैं? पहले तो फिर भी ये ठीक है कि वो कमाता वगैरह था तो भई, उसकी कुछ धोंस चलती थी तो सुननी पड़ेगी। अब तो वो प्रमाणित निखट्टू है। उसकी सैलरी-स्लिप (वेतन पर्ची) बताती है वो क्या है आर्थिक तौर पर, और फिर भी वो आकर कह रहा है, ‘तुम ये करोगी, तुम वो करोगी।‘ ऐसो को बोलते हैं ‘शू!’

नहीं, ये कोई काल्पनिक बात नहीं कह रही हैं। बहुत कम ऐसा होता होगा कि बैंकिंग का पासवर्ड पतिदेव के पास न होता हो। बहुत कम ऐसा होता होगा कि डेबिट कार्ड या क्रेडिट कार्ड पतिदेव न रखते हों, अकाउंट भले ही इनका हो, माने महिलाओं का।

क्यों दिया? अब वो धोखे से ले गया तो ब्लॉक करा दो। नहीं, दिया क्यों?

‘वो हमें प्यार है न।’ तो कर लो प्यार! इसका तो फिर कोई इलाज नहीं है। जब चेतना इतनी सक्षम ही नहीं है कि वो प्रेम और अप्रेम में अन्तर जान सके तो ताज्जुब क्या है कि बन्धन मिलते हैं। मोह को या वासना को प्रेम समझोगे तो ज़िन्दगी में बन्धन नहीं मिलेंगे तो क्या मिलेगा?

दुनिया की कोई ऐसी सर्विस नहीं है जो पैसे से अब नहीं ख़रीदी जा सकती। पतिदेव किसलिए चाहिए, बताओ? वो जितनी तरीक़े की सेवाएँ प्रदान करते थे पत्नी को, उनमें से अधिकांश अब पैसे से ख़रीदी जा सकती हैं। तो डर क्यों रही हो अब?

प्र: एक ये चीज़ भी होती है मेरे साथ कि अब आप आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, अब तो ज़्यादातर ये हो जाता है कि आप कई मायनों में स्वतंत्र हैं। कहीं भी आ-जा सकती हैं, अपना डिसिशन (फ़ैसला) ज़्यादातर ख़ुद ले सकती हैं। तो अब पुरुष ये बोलना शुरू करते हैं कि हाँ..

आचार्य: अरे! फिर बोलना शुरू कर दिया? कोई कुछ भी बोल सकता है, आपने सुना क्यों? बोलने पर उसका अधिकार है। आपने क्यों सुना? बात उसके बोलने की नहीं है, बात आपकी भावना की है। आपकी भावना ही यही है — मेरा प्यारा पति, उसकी तो सुननी होगी न!

प्र: नहीं सुननी, पर ये स्थिति कैसे संभालनी है कि अगर वो यही लग रहा है कि..

आचार्य: नहीं संभालना है। कोई कुछ बोल रहा है, आपको संभालना क्या है उसमें? बोलने दो। संभालना माने क्या होता है? अरे! बोल रहा है तो बोलने दो, संभालना क्या है? कोई कुछ बोल रहा है, आपको संभालना क्या है उसमें? ये बात ही कल्पना में नहीं आ रही न कि कोई अगर बोल रहा है तो उसे बोलने दिया जा सकता है, छोड़ दो। अभी छुट्टा है, बोल रहा है। थोड़ी देर में थक जाएगा, नहीं बोलेगा। ये बात ही नहीं समझ में आ रही क्योंकि भाव ये है कि कोई हमें गन्दा-गन्दा न बोले। ये भावुकता ही तो आपको कहीं का नहीं छोड़ती न।

जब भावना बढ़ जाती है तो विचारों की स्पष्टता पर कोहरा छा जाता है। जब भावुकता बढ़ी होती है न तो आप कुछ साफ़-साफ़ देख-सोच-समझ नहीं पाएँगी। लेकिन भावुकता को तो महिलाओं को बता दिया गया है कि उनकी पहचान है। वो महिला ही क्या जिसमें भाव न हो! तो पट से आँसू गिरता है। कुछ होगा, तुरन्त रोना शुरू हो जाएगा, बुरा लगना शुरू हो जाएगा। ‘अरे! किसी ने हमें ऐसा बोल दिया।’

पुरुष फ़ायदा उठा लेते हैं। वो ये बोल-चाल प्रूफ (अभेद्य) होते हैं। वो तो एक-दूसरे से बात भी करते हैं तो गाली देकर ही करते हैं। उन्हें आप कुछ बोलकर के लज्जित नहीं कर पाएँगी। उनके कानों को तो आदत है गाली ही खाने की। छठी-आठवीं में लड़का पहुँचता है और वो बोलचाल से बिलकुल ऊपर उठ जाता है। (श्रोतागण हँसते हुए) आप उसे कुछ भी बोलती रहिए, उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा क्योंकि जो भद्दे से भद्दा बोल हो सकता है, उसको वो रोज़ खाता-पीता है।

आपको बता दिया गया है कि आपकी गरिमा ही इसी में है कि कोई आपको बुरा-बुरा न बोले, तो आपकी इसी झूठी गरिमा का लोग फ़ायदा उठाते हैं। वो कहते हैं, ‘देखो, अगर तुमने हमें पैसे नहीं दिये तो हम तुम्हें बुरा-बुरा बोलेंगे।’ तो आप बोलती हैं, ‘हौ! बुरा-बुरा बोल देगा? पैसे दे दो इसको, नहीं तो बुरा बोल देगा।’

प्र: कोई अपनेआप को ही बुरा बोलने लगे कि हाँ, मैं तुम्हारी ज़िन्दगी में मायने नहीं रखता। मैं ये हूँ, मैं वो हूँ। मैं ज़हर खा लूँगा, मैं मर जाऊँगा।

आचार्य: अरे! कुछ भी बोले, उसका मुँह हैं। वो कुछ भी बोल सकता है। उसका मुँह है, उससे बोल भी सकता है, ज़हर भी खा सकता है, उसका मुँह है। एक तरफ़ वो चाह रहा है आपका पैसा खा जाए, दूसरी तरफ़ वो चाह रहा ज़हर खा ले। जो पैसा खाना चाहता है वो ज़हर खाएगा कभी? उसको बोलिए, ‘तू तो इतना भी नहीं कमाता कि ज़हर खाएगा। वो भी मेरे ही पैसे से खाएगा।’ (श्रोतागण हँसते हुए)

प्र२: आचार्य जी, अभी पैट्रीआर्की पर बात हुई और पहले तो मैं जितनी महिला प्रश्नकर्ता रहीं इस मु्द्दे पर, मैं उनसे क्षमा माँगूंगा कि उन्होंने बहुत ही बेदम तर्क जो हैं रखे हैं यहाँ पर। और मैं जहाँ तक समझता हूँ, कुछ दमदार तर्क तो मैं ही रख सकता हूँ कम से कम।

पैट्रीआर्की की जो समस्या को जहाँ तक मैंने ऑब्जर्व (निरक्षण) किया है, वो ये है कि चाहे महिला इन्डिपेन्डेन्ट (स्वतंत्र) भी क्यों न हो मगर कुछ नैचरल फैक्टर्स (प्राकृतिक कारक) हैं जैसे प्रेगनेंसी (गर्भावस्था) हो गया, जो उनके इन्डिपेन्डेन्स (स्वतंत्रता) में थोड़ा बाधा पैदा करता है। इसके अलावा जो एक आपने कहा जैसे कि अगर ऊँची चेतना का पुरुष नहीं है तो लात मारो उसे। ये वाली चीज़, ये इस तरह का काम, अगर कोई पुरुष करता है तो उसके पास एक बैकअप (पूर्तिकर) है। उसकी जो पैतृक सम्पत्ति है, वो है उसके पास। लेकिन ये चीज़ महिलाओं के केस (मामले) में जो है हम नहीं देख पाते उतना क्योंकि अगर महिला अपने पति को लात मार दे तो पति की पैतृक सम्पत्ति पे तो उसको ज़्यादा कुछ मिलना नहीं है और जो उसके पिता की सम्पत्ति है, उसपर उसके भाई का हक होता है। तो ये समस्या…

आचार्य: मुझे नहीं लगता है यहाँ जितने भी लोग बैठे हैं, चाहे महिलाएँ हैं या पुरुष हैं, उनके लिए पैतृक सम्पत्ति कोई बड़ा मुद्दा है। आज का जो भी युवा है जो बाहर निकला है काम करने के लिए, वो ये हिसाब-किताब तो कर ही नहीं रहा है कि बाप की जायदाद मुझे कब मिलेगी? तो ये पैतृक सम्पत्ति की बात नहीं है। अगर हम बात कर रहे हैं एक महिला की जो आर्थिक रूप से स्वावालंबी है तो उसके पास अपने पैसे हैं न? नहीं है पैतृक सम्पत्ति तो क्या करना है? लड़कों के पास पैतृक सम्पत्ति होती है, वो मिल जाती है क्या? आपमें से कितनो को मिल गयी है पैतृक सम्पत्ति? पैतृक सम्पत्ति अभी इन्हें मिलेगी बीस साल बाद और रिलेशनशिप वाले सारे लफड़े-झगड़े हैं अभी। तो उनमे पैतृक सम्पत्ति कहाँ से एक फैक्टर बन गयी? वो नहीं होती है। वो जो वजह है जिसके कारण महिलाएँ निर्भर ही रह जाती हैं दूसरे पर, वो है प्राकृतिक भावुकता जिसे ग़लत शिक्षा और विकृत कर देती है। आध्यात्मिक शिक्षा सब तरह के झूठे ज्ञान से मुक्ति दिला देती है और उसी से स्त्रियों-पुरुषों दोनों की मुक्ति हैं। लड़के हैं, बैंगलोर में जा के नौकरी कर रहे हैं, बदायूँ में उनका घर होगा, उनको महीनों में एक बार विचार नहीं आता होगा अपनी पैतृक सम्पत्ति का। सॉफ्टवेयर में बैंगलोर में कोई काम कर रहा है, वो ये थोड़ी विचार कर रहा है कि गांव में जो मेरा घर है, वो कब बिकेगा और उससे कब मुझे कुछ पैसे मिल जाएँगे?

तो अभी जो बातचीत हो रही है, उसमें जो मुददे हैं वो थोड़े अलग हैं। मुद्दा मूल रूप से यह है कि हमने जिस चीज़ को स्त्रीत्व का गौरव बना लिया है, वास्तव में वही चीज़ स्त्रीत्व का बन्धन है। जो महिला जितनी कोमल हो, हम कह देते हैं उतनी अच्छी है। और इस बात को महिलाओं ने भी आत्मसात कर लिया, ये बन्धन है। जो जितनी भावुक हो, हम उसको कह देते हैं उतनी महान वगैरह है। इस बात को महिलाओं ने भी आत्मसात कर लिया, ये बन्धन है।

भावुकता, कोमलता, पराश्रेयता इनमे कोई गौरव नहीं हैं। जिन चीज़ों में किसी पुरुष का गौरव है, उन्हीं चीज़ों में किसी महिला का भी गौरव है। वो साझी बात है क्योंकि दोनों साझे तौर पर मनुष्यमात्र हैं। ज्ञान में पुरुष का भी गौरव है, ज्ञान में ही महिला का भी गौरव है। निर्भयता में पुरुष का गौरव है, निर्भयता में ही स्त्री का भी गौरव है। ऐसा नहीं है कि पुरुष का गौरव है निर्भयता में और स्त्री का गौरव है गोरे गालों और लम्बे बालो में। ये बहुत ख़तरनाक बात हो जाती है लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसी ही बात चल रही है, कि लड़के को तो हम कहते हैं बहादुर बनो और लड़की को कहते हैं सुन्दर बनो। ये बन्धन है।

लड़के के लिए जितना ज़रूरी है बहादुर होना, लड़की का भी गौरव बहादुरी में ही है। तो बहादुरी ही सीखे वो। ग़लत मूल्य डाल दिए गये हैं दोनों ही लिंगों में। इसी की वजह से दोनों का ही बन्धन है।

प्र २ : आचार्य जी, स्वावलम्बी होने की आपने बात कही कि स्वावलम्बी बनें तो मेरा कहना वही था कि स्वावलम्बन जो है, दोनों के लिए एक जैसा प्रैक्टिकली (वास्तव में) होता नहीं है, विशेषकर गर्भधारण के बाद।

आचार्य: देखो, गर्भधारण कोई इतनी बड़ी चीज़ नहीं है। अपनी अस्सी साल की उम्र में वो, आज की बात कर रहा हूँ, एक या दो बार गर्भधारण करेगी। उसके लिए तुम उसकी पूरी ज़िन्दगी ही बन्धक रख दोगे क्या? और जो अभी युग है, उसमें तो सभी को घर बैठना पड़ा। कोविड आ गया, पुरुष घर पे नहीं बैठे थे क्या? पुरुष-स्त्री सब बराबर हो गये, सब वर्क फ्रॉम होम (घर से काम) ही थे। तो गर्भधारण इतनी अब कौन सी खौफ़नाक बात हो गयी कि उसके लिए स्त्रियों को एकदम अलग प्रकार से देखा जाए।

आप अगर आज जो महिलाएँ हैं, जो प्रोफेशनल (पेशेवर) काम कर रही हैं उनको देखेंगे तो उनमें बहुत सारी ऐसी होती हैं जो प्रेगनेंसी आदि के समय भी बस कुछ महीनों की छुट्टी लेती हैं। पूरी छुट्टी शायद एक या दो महीने की और वर्क फ्रॉम होम भी बस दो या तीन महीने का। फिर वो खुद ही अपने काम पे वापस भी आ जाती हैं। तो प्रेग्नन्सी अब उतना बड़ा मुद्दा नहीं रह गयी है कि हम कहें कि देखो, महिला तो अलग होती ही है क्योंकि उसे प्रेग्नेंट होना पड़ता है।

आपको ऐडवेंचर (साहसिक काम) वगैरह का बहुत शौक होता है, आप पुरुष हैं। आप चढ़ रहे थे पहाड़ पे, गिर गये, दो-चार हड्डी टूट गयी छः महीने तो आप भी दफ़्तर नहीं जा सकते। छः महीने आप भी नहीं दफ़्तर जा सकते, छः महीने वो भी नहीं दफ़्तर जा सकती। ऐसी कौन सी बड़ी बात हो गयी, बोलो, कि हम कहें कि वो तो बिलकुल ही अलग है, बिलकुल ही असहाय है क्योंकि प्रेग्नेंट होती है तो इसीलिए उसको तो परआश्रित रहना ही पड़ेगा। उतना ज़्यादा तो अब प्रेग्नन्सी होती भी नहीं है, इतनी अक्ल आ गयी है उनको, कि पहले होता था हर साल स्त्री गर्भवती ही पड़ी होती थी। गांव-गांव में ऐसे ही रहता था। जब भी जाओ वो लगातार गर्भ से ही होती थी। एक बच्चा हुआ नहीं कि दूसरा आ गया। अब कहाँ ऐसा होता है?

देखो, पुरुष और स्त्री के भेद पर बहुत ज़ोर मत डालो। उनमें जो चीज़ साझी है, उस पर ज़ोर डालो। उन दोनों में ही मनुष्य की चेतना साझी है और उन दोनों के ही जीवन के लक्ष्य साझे हैं। लड़का-लड़की दोनों पैदा मुक्ति मात्र के लिए ही होते हैं। और ये बात बिलकुल ठीक है, दोनों के शरीरों में अन्तर होता है, दोनों की वृतियों में थोड़ा अन्तर होता है पर वो अन्तर इतना बड़ा भी नहीं है कि उसके लिए एक लिंग को बिलकुल ही हम अलग-थलग कर दें या घर में रख दें।

प्र ३: प्रणाम, आचार्य जी। अभी स्त्रियों के बारे में बात चल रही थी तो उससे मुझे मेरी बड़ी बहन और उनकी पाँच साल की बेटी है, उसकी याद आ गयी। छोटी सी लड़की है वो और उसके बारे में चिंता ये लगी रहती है कि इतनी सी उम्र में उसका उसकी देह के प्रति जो आकर्षण है, मतलब बार-बार जो ब्यूटी प्रोडक्ट्स यूज़ (सौंदर्य उत्पादों का उपयोग) करना और शीशे में अपनेआप को निहारते रहना तो ये देख के बड़ी चिंता होती है। सुधारने की कोशिश भी करता हूँ उसे पर आख़िरकार गुस्सा ही होता है। तो उस छोटी सी बच्ची के लिए क्या किया जा सकता है कि वो, मतलब क्या उसमें वैराग्य जगह जगाया जा सकता है या उसकी रुचि आध्यात्मिकता की तरफ़ बढ़ाई जा सके क्योंकि उनके परिवार में, मतलब मेरी बहन का जो ससुराल है, उसमें आध्यात्मिकता की तरफ़ इतनी रुचि नहीं है वहाँ किसी की। तो उसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ? और वो मतलब आती भी ननिहाल सिर्फ़ छुट्टियों में ही है तो इतना इंटरैक्शन (परस्पर प्रभाव डालना) भी नहीं रहता है।

आचार्य: तुम्हें समय चाहिए होगा। कुछ भी करने के लिए तुम्हें उसके साथ रहना होगा। तो तुम्हें स्थितियाँ थोड़ी उलटनी-पलटनी पड़ेंगी। आप ये नहीं कह सकते कि आपको एक बच्चे की ज़िन्दगी ही बचानी है और बस कोई साधारण सा आसान या सस्ता तरीक़ा मिल जाए जिससे ये हो जाए। अगर पाँच की उम्र में ही वो ऐसी हो गयी है कि कॉस्मेटिक्स (सौंदर्य उत्पाद) की ओर उसका रुझान हो गया है, आईने के सामने खड़ी रहती है, देह से ही ज़्यादा उसका नाता बैठ गया है तो इसका मतलब है कि वो बड़े घातक परिवेश में पल रही है। तो उसको बचाने के लिए अगर मुझसे पूछो तो पहला काम तो ये है कि जितना समय वो उस माहौल से दूर गुजारे, उतना अच्छा। और ये प्रबन्ध करना पड़ेगा कि वो जहाँ भी रहती है वहाँ से थोड़ा दूर रहा करे, अगर लगातार नहीं तो कम से कम कुछ समय तक क्योंकि पाँच वर्ष की है, ये सब सीखा है उसने, दो साल के तो कोविड के ही हो गये तो बाहर गयी नहीं होगी, घर पे ही सीख रही है ये सबकुछ, वो घर ही गड़बड़ है। तो पहले तो उस घर की ही नेति-नेति करो।

प्र ३: मोबाइल की वजह से ज़्यादातर।

आचार्य: वो घर वाले ही तो दे रहे है न मोबाइल? या उस पूरे घर को ही तुम्हें शिक्षित करना पड़ेगा। या कम से कम उस घर में जिस व्यक्ति का उस बच्ची के ऊपर सर्वाधिक प्रभाव है, उस व्यक्ति को तुम्हें ठीक करना पड़ेगा।

किसी को बचाना, किसी को जन्म देने बराबर होता है। बहुत मेहनत लगती है। उतनी मेहनत करने की तैयारी होनी चाहिए। उतनी मेहनत तो देखो प्रेम ही करवाता है।

प्र ३: वो भी कोशिश करी थी पर वो इतने जड़ हो चुकें हैं कि उनको बदलना ही इतना मुश्किल है।

आचार्य: लड़-भिड़ कर उठा लाओ बच्ची को, और क्या? यही है और क्या है, मतलब और क्या? उसको वहाँ छोड़ोगे तो उसको ऐसे ही तहस-नहस कर देंगे।

प्र ३: एक और सवाल था। मेरी माँ हैं, वो गवर्नमेंट (सरकारी) टीचर है और मेरे पिताजी हैं वो रिटायर्ड (सेवानिवृत्त) अधिकारी रह चुके हैं। तो मेरी माँ का रूटीन (नियमित कार्यक्रम) ऐसा होता है कि सुबह उठे और गीता का पाठ किया, सेवा-पूजा करी और फिर स्कूल में ड्यूटी (कर्तव्य) पे चले गये। और पिताजी का भी लगभग ये रहता है - सुबह उठे, ध्यान किया, सेवा-पूजा करी और फिर वही अपने काम से निकल गये। तो मतलब आपको मैं सुनता हूँ, उन्हें पता है, कोई उनको ऐसा ऐतराज नहीं हैं पर मैं जब आप की बातें उन्हें सुनाता हूँ और कहता हूँ कि आप भी इसे अप्लाई (लागू) करो तो वो कहते है कि भई, हम इसमें ठीक हैं। तू तेरी सुनता रह उन्हें पर हमें ये ज्ञान मत बाँट। और वो इतना कॉन्फिडेंटली (भरोसे से) बोलते हैं और मतलब ज़िन्दगी में वो अपनी परेशानियों से भी इतना जल्दी ऊपर उठ जाते हैं कि मुझे लगता है कि क्या कहूँ अभी मैं? ' आचार्य: तुम क्यों उन्हें ये सब बताना चाहते हो, अगर वो अपनी परेशानियों से आसानी से ऊपर उठ ही जाते हों, सब उनका ठीक ही चल रहा है, तुम क्यों उनके पास व्यर्थ ज्ञान लेकर चले जाते हो?

प्र ३: क्योंकि मैं उन्हें जब परेशानियों से वो उठ जाते हैं पर वही है कि वो संसार की जो वापिस वही बातें होती हैं न, जैसे एक नोर्मली (साधारणतया) जो औरतें होती हैं, वो औरतों-औरतों की बातों में पड़ जाना, एक दूसरे की टांग खींचना तो ऐसी बातों में पड़ते हैं जब गुस्सा आता है कि इन बातों में क्यों पड़ना? अगर आप गीता का पाठ कर रहे हो, सेवा-पूजा कर रहे हो तो वो ही करो फिर सौ प्रतिशत।

आचार्य: नहीं तो, ये सम्भव नहीं है कि वो सांसारिक बातों में फँसे हुए हैं, लेकिन और उनको कोई और परेशानी नहीं है। उनको और गहरी परेशानियाँ भी होंगी, बिलकुल होंगे। ऐसा नहीं हो सकता है कि कोई इधर-उधर की पेट्टी , शूद्र बातों में बहुत रस रखता हो और उसके जीवन में गहरी परेशानियाँ न हो, बिलकुल होंगी। उन गहरी परेशानियों को उघाड़ दो, उन्हीं के सामने, कि ये आपकी ज़िन्दगी में दिक्कतें चल रही हैं और इसलिए आपको मदद की ज़रूरत हैं। अब कहिए तो मैं वो मदद आपको दे दूँ।

अगर रोगी को यही नहीं पता कि वह रोगी है तो वो दवाई क्यों स्वीकार करेगा? पहले तो कई बार रोगी को ये सिद्ध करना पड़ता है कि बेटा, तेरा रोग बहुत गहरा है। तब वो तैयार होता है दवाई लेने के लिए।

प्र ४: आचार्य जी, प्रणाम। हम आपको एक महीने से सुन रहे हैं और पहली बार ही शिविर में आये हैं। हमारा प्रश्न ये है आचार्य जी, क्या रोना कमज़ोरी की निशानी होती है और अगर ये कमज़ोरी की निशानी है तो इसको दूर कैसे कर सकते है? इसपर मार्गदर्शन करें।

आचार्य: रोने पर बहुत ध्यान देना कमज़ोरी है। रोना आवश्यक नहीं है कि कमज़ोरी हो। बहुत लोग प्राकृतिक रूप से ऐसे होते हैं कि जल्दी रो पड़ते हैं। पर अगर आप उस बात को बहुत महत्त्व देने लग जाओगे, अपने रोने को तो ये कमज़ोरी है। कोई आसानी से रो पड़ता है, कोई जल्दी भावुक हो जाता है, कोई ज़्यादा हँसोड़ होता है, कोई जल्दी उदास हो जाता है ये बहुत हद तक प्राकृतिक गुण हैं।

बच्चे जब पैदा होते हैं उसी समय पर उनमें भिन्नताएँ होती हैं। लेकिन आप इन भिन्नताओं को बहुत अगर कीमत देने लग जाओ तो ये कमज़ोरी है। रो भी रहे हो तो जो ज़रूरी काम है, करते रहो, रोते-रोते करते रहो। जो सही है वो बुरा लग रहा हो तो बुरा लगते-लगते भी उसको करते रहो। नींद आ रही है तो नींद में जमहाइयाँ लेते हुए, झूमते-झूमते भी जो सही काम है वो करते रहो। प्रकृति का अपना काम है, तुम्हारा अपना काम है। उसको उसका करने दो, तुम अपना करो।

प्र ४: तो फिर आचार्य जी, ऐसा क्यों होता है कि अभी हम उस स्थिति में तो पहुँचे नहीं है कि कोई चोट न लगे तो जैसे अपनों से ही कोई चोट लगती है, जैसे कि हम पिछली बार ही शिविर में आना चाह रहे थे तो हमें उम्मीद थी कि भाई साथ चलेगा क्योंकि पिताजी अकेले नहीं आने दे रहे थे, तो उसने मना कर दिया। तो इससे इतनी चोट लगी कि हमें उम्मीद ही नहीं थी कि वो मना कर देगा। तो तीन-चार दिन तक तो हम ऐसे ही रोते रहे कि हम जा नहीं पाये फिर धीमे-धीमे खुद को संभाला।

आचार्य: इसबार कैसे आये?

प्र ४: इस बार वही, लड़ के।

आचार्य: अकेले आये न?

प्र ४: अकेले तो नहीं आये। अकेले आ ही जाते लेकिन बोल दिया कि जाना है, चाहे अकेले भेजो, चाहे किसी को साथ भेजो।

आचार्य: रो लिए, गा लिए, जो भी कर लिए उसके साथ जो सही काम था अगर वो किया तो रोना-गाना चलता रहे, कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

प्र ४: तो कई बार ऐसे घर पे बोला जाता है कि बड़े कमज़ोर हो, बहुत जल्दी रो जाते हो।

आचार्य: उन्होंने बोला तो बोला, तुमने सुना क्यों? और सुन भी लिया तो सुनी हुई चीज़ का अपने ऊपर फ़र्क क्यों पड़ने दिया? जो चीज़ सही है (उसे करना है)।

प्र ४: कहीं-न-कहीं तो मन में ऐसा आ गया था मन में कि कहीं कमज़ोर तो नहीं।

आचार्य: अब लग रहा होगा कमज़ोर हो, तो हो जाओगे। मन को एकनिष्ठ रखो और उसके अगल-बगल जो कुछ चल रहा है, उसको चलने दो।

आप गाड़ी चला रहे होते हो, मंजिल की ओर जा रहे होते हो इस तरफ़ से कुछ दुकानें पीछे छूट रही हैं, इस तरफ़ से कुछ खेत पीछे छूट रहे हैं, बहुत कुछ चल रहा होता है न अगल-बगल? उसको चलने देते हैं, अपना निशाना मंज़िल है। इसी तरीक़े से कभी कुछ अच्छा चल रहा है, कुछ बुरा चल रहा है, कभी बड़ी खुशी लग रही है, कभी आँसू टपक रहे हैं कोई बात नहीं अपना काम करते रहो।

प्र ४: आचार्य जी, एक बात और पूछनी थी। क्या अपनों से कोई उम्मीद ही नहीं रखनी चाहिए? क्योंकि कितना भी कोशिश कर लो फिर भी एक न एक बनी रहती है दिल में कि कभी भी मुश्किल समय आएगा तो साथ मिलेगा।

आचार्य: साथ तो देखो, राम से ही मिलता है। और तो जहाँ भी उम्मीदें रखोगे, आज नहीं तो कल टूटेंगी।

प्र ४: तो इस चीज़ से निकलें कैसे?

आचार्य: बता तो दिया, जिससे उम्मीद रखनी चाहिए उससे रखो बस।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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