लड़कियाँ तो नासमझ हैं || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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लड़कियाँ तो नासमझ हैं || आचार्य प्रशांत (2020)

आचार्य प्रशांत: (प्रश्न पढ़ते हुए) आपका एक वीडियो हाल में प्रकाशित हुआ, शीर्षक था - 'बहन की इतनी फ़िक्र'। मुझे बात जँची नहीं। देखिए, सब लड़कियाँ बुद्धिमान और विवेकी नहीं होतीं। वो फँस सकती हैं और बहक सकती हैं। पिता और भाई को उनकी शादी-इत्यादि तय करनी चाहिए वर्ना वो लिव-इन वगैरह ग़लत संबंध बना लेंगी।

बताओ, कौन सी उपाधियों से विभूषित किया जाए तुमको? क्या सवाल भेजा है। "लड़कियाँ विवेकी नहीं होतीं। अगर बाप-भाई उनकी शादी नहीं तय करेंगे, तो बहक जाएँगी, लिव-इन वगैरह करनी शुरू कर देंगी। बुद्धि ज़रा कम होती है इनमें। स्त्री जात है, कहाँ अपना भला-बुरा देख सकती है? तो इसीलिए जैसे एक जानवर को ज़रूरत होती है कि उसके गले में रस्सी डालकर के उसका मालिक उसे घर तक ले आए और घर बदले तो एक घर से दूसरे घर तक ले जाए, गले में रस्सी डाल करके, उसी तरीके से बाप और भाई तय करेंगे कि बहन, स्त्री, बेटी, पत्नी, ये सब किस तरीके की ज़िंदगी जिएँ, कहा आएँ, कहाँ जाएँ, किससे विवाह करें।"

वाह बेटा! कैसे तुमने तय कर लिया कि तुम्हारा विवेक तुम्हारी बहन के विवेक से ज़्यादा है? कौन से मीटर पर तुमने विवेक का स्तर नापा था? हमें भी चाहिए वो 'विवेको-मीटेर'। अध्यात्म के क्षेत्र में क्रांति हो जाएगी। तुम करा लेना पेटेंट, तुम्हें मुनाफा भी होने लगेगा─'विवेको-मीटेर'। और उस 'विवेको-मीटेर' पर ये भी दिखा देना कि कैसे स्त्रियों का औसत विवेक पुरुषों के औसत विवेक से कम है, दिखा देना। अब बेईमानी कर रहे हो तो कम से कम चोरी-छुपे करो। ये तुमने क्या धौंस-पट्टी चला ली है कि बेईमानी खेल रहे हो, वो भी खुलेआम और फिर तुम्हारी धकड़ई इतनी चढ़ गई कि वो बेईमानी तुम मुझे सवाल में भी लिखकर भेज दोगे, चुनौती की तरह?

अध्यात्म का मतलब समझते हो? अध्यात्म का मतलब होता है कि लिंग एक तरह का आवरण मात्र है, तुम्हारी सच्चाई के ऊपर। पुरुष होना तुम्हारी एक कामचलाऊ पहचान है, तुम्हारा आखिरी सच नहीं। और महिला होना, स्त्री होना यह भी किसी की कामचलाऊँ पहचान है, उसका आखिरी सच नहीं। और तुम कह रहे हो कि "नहीं, स्त्री को तो बिलकुल एक अलग दृष्टि से देखो, उसके लिए तो अलग नियम-कायदे चलाओ, उसके ऊपर पुरुष का वर्चस्व होना चाहिए। बेचारी के पास बुद्धि-विवेक थोड़ा कम होता है न?"

जिन ऋषियों ने उपनिषद् दिए थे हमें, उन्होंने कहा था हमसे कि "जब तक तुम अपने-आप को कुछ भी मान रहे हो, तुम बंधन में हो।" और यह बात उन्होंने जितनी पुरुषों से कही थी, उतनी ही स्त्रियों से भी कही थी। उन्होंने ये थोड़े ही कहा था कि "पुरुष ही आत्मा है और स्त्री आत्मा नहीं है, स्त्री तो देह है।" पुरुष अगर आत्मा है तो स्त्री भी बराबर की आत्मा है। बल्कि कई मायनों में स्वयं को आत्मा जानना पुरुष के लिए थोड़ा कठिन हो सकता है, स्त्री के लिए थोड़ा आसान भी हो सकता है। स्त्री के पास अपनी चुनौतियाँ, अलग चुनौतियाँ हैं। वो चुनौतियाँ अलग ज़रूर हैं, स्त्री का रास्ता अलग ज़रूर हैं, लेकिन उसके लिए मंजिल, पुरुष की अपेक्षा कुछ ज़्यादा दूर नहीं हो गई।

ये कौन से पैमानों का इस्तेमाल करके तुम बता रहे हो कि 'पुरुष तो स्त्री की अपेक्षा श्रेष्ठ होता ही होता है'? बताओ कौनसा पैमाना है? आध्यात्मिक तो बिलकुल नहीं हो सकता है। और कौन सा पैमाना है? शरीर की ताकत को छोड़ दो अगर, सीधा-सीधा जो बाहुबल होता है, उस एक पैमाने को छोड़ दो अगर तो उसके अलावा मुझे बता दो कि स्त्री तुमसे किस मामले में कमज़ोर है? कैसे तुम को हक मिल गया उसके जीवन पर छा जाने का, चौधरी बन जाने का, एकदम मालकीयत झाड़ने का, बताओ? और जहाँ तक शरीर की भी बात है─ हाँ बिलकुल बाहुबल में, मसल पावर में वो तुमसे ज़रूर कमज़ोर है, लेकिन जीती वो तुमसे ज़्यादा है। तो कहीं न कहीं, उसके शरीर में कुछ खासियत ज़रूर है कि दुनिया भर में स्त्रियाँ, पुरुषों की अपेक्षा दो साल-पाँच साल ज़्यादा जीती हैं। बहुत सारी बीमारियाँ स्त्रियों को कम होती हैं और युद्धों में स्त्रियों की रुचि ज़रा कम रहती है। उनकी युद्धों में रुचि भी कम रहती है और युद्धों में मारी भी कम जाती हैं। और शरीर की अगर बात कर रहे हो तो सहनशक्ति, शारीरिक तौर पर भी वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है कि स्त्रियों में थोड़ी ज़्यादा होती है।

अगर तुम मानसिक क्षमताओं की बात करो, तो बता दो कौन सी मानसिक क्षमता है जिसपर पुरुष वर्ग इतना दंभ कर रहा है, बताओ? कौन सा ऐसा क्षेत्र है मानसिक गतिविधि का जिसमें तुम यह निष्कर्ष निकाल सकते हो कि "स्त्री तो पुरुष की बराबरी कर नहीं सकती"? बराबरी नहीं कर सकती? थोड़ा अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाओ, आँख खोलकर के देखो, वो आगे निकली जा रही है। आगे निकल गई। तुम इसी दंभ में बैठे रह जाओ कि "हम तो पुरुष हैं"।

समझ में कुछ आ रही है बात?

और मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम्हारी बहन से ग़लती नहीं हो सकती। तो ग़लती करना भी इंसान का हक है न? तुम नहीं करते ग़लतियाँ? उसे भी करने दो। तुम ग़लती करो, तो इसको बोलोगे कि "ये तो सीखने के लिए ज़रूरी होता है, इस अनुभव का इस्तेमाल करके हम आगे बढ़ेंगे जीवन में।" और स्त्री ग़लती कर जाए तो तुम कहोगे "ये देखो, अब इसे सज़ा मिलनी चाहिए।" तुमने ग़लती करी तो वो एक तरीके से तुम कहते हो तुम्हारे पक्ष में जाती है कि "मैंने ग़लती करी है, अब मैं अपने अनुभव का लाभ उठाऊँगा।" तुम कहते हो "अब जब मैं अगला कदम उठाऊँगा, अगला प्रयोग करूँगा, तो शून्य से नहीं करूँगा, अनुभव से करूँगा। ग़लती का अनुभव है न मेरे पास?" तो ये बात अपने पक्ष में तुम ले जाते हो कि "मैंने ग़लती करी, देखो अब मैं बेहतर इंसान बनूँगा।" तो बहन को भी ग़लती कर लेने दो न, वो भी बेहतर इंसान बनेगी। बिलकुल हो सकता है कि तुम जिस चीज़ के लिए बहुत व्यग्र हो रहे हो कि वो शादी किससे करेगी, संबंध किससे बनाएगी, बिलकुल हो सकता है कि वो किसी ग़लत आदमी का चुनाव कर ले, कर लेने दो न। तुम भी तो अपने लिए कोई पत्नी चुनोगे। क्या आश्वस्ति है कि तुम बिलकुल सही महिला को चुनोगे शादी के लिए? तुम नहीं ग़लती कर सकते? जैसे तुम ग़लती करोगे वैसे ही उसको कर लेने दो।

देखो, गुलामी हमेशा जोड़े बनाकर चलती है। माने? जब तुम किसी को गुलाम बनाते हो, अपने आधीन करते हो, तो ऐसा नहीं होता कि एक मालिक बनता है और एक गुलाम बनता है। एक गुलाम बनता है जब, तो दो गुलाम बनते हैं। गुलाम हमेशा जोड़ों में बनते हैं। तुमने किसी को गुलाम बनाया नहीं कि तुमने अपने लिए भी गुलामी स्वीकार कर ली। अपने लिए तो तुम मुक्ति के बड़े इच्छुक रहते हो न? और भूल ये कर जाते हो कि दूसरों को गुलाम बना लेते हो। जिसको तुमने किसी भी तरीके से दबा दिया, कुचल दिया, जिसके गले में तुमने पट्टा डाल दिया, वो अब तुम्हें भी गुलाम बनाएगा। एक बार तुम ये करने लग गए कि तुम किसी व्यक्ति के जीवन पर इतने छा गए कि उसके सारे निर्णय तुम लेने लग गए, वो व्यक्ति तुम्हें माफ़ तो करेगा नहीं, पुरुष हो चाहे स्त्री। वो भी फिर किसी न किसी तरीके से तुम्हारे जीवन पर छाएगा, तुम पर नकेल कसेगा। तुमने अपने लिए गुलामी तैयार कर ली, जैसे ही तुमने किसी और को गुलाम बनाया।

तो अगर अपनी स्वतंत्रता चाहते हो, व्यक्तिगत रूप से और अगर अपनी मुक्त चाहते हो आध्यात्मिक रूप से, तो कभी किसी के जीवन में व्यर्थ हस्तक्षेप मत करो। तब तक किसी को रोको-टोको नहीं जब तक तुमको बहुत ही ज़बरदस्त और प्राणघातक खतरा ना दिखाई देता हो। और उस पर भी अगर सामने वाला व्यक्ति वयस्क हो, तो उसे सलाह भर दो, वर्जनाएँ मत लगाओ। अगर दिखाई ही दे कि कोई वास्तव में ग़लती करने जा रहा है तुम्हारी दृष्टि में, तो भी अगर सामने वाला वयस्क है तो चढ़ मत बैठो उसपर, सलाह भर दो। और भूलो नहीं कि ग़लती करना भी मनुष्य होने के अनिवार्य अधिकारों में से एक है।

एक सुन्दर कविता है जिसमें कवि या कवियत्री, देवताओं को संबोधित करके कहते हैं कि "अरे, तुम्हारे जगत में रखा क्या है? वहाँ तो सब कुछ बिलकुल पूर्ण है, आदर्श है, पर्फेक्ट है। जगत तो हमारा सही है जहाँ पर हम दो-चार दिन को फूल की तरह खिलते हैं और फिर मिट भी जाते हैं।" और आखिरी पंक्ति कुछ इस तरह से है, अभी कविता मुझे याद नहीं आ रही है, आप लोग सर्च (खोज) करेंगे तो मिल जाएगी।

रहने दो हे देव अरे यह मेरा मिटने का अधिकार। रहने दो हे देव अरे यह मेरा मिटने का अधिकार। ~ महादेवी वर्मा

इसी तरीके से, तुम्हारी बहन भी तुमसे बोल रही है─ "रहने दो ओ भाई, अरे यह मेरा ग़लती करने का अधिकार। अगर वो अधिकार मुझे नहीं है, तो जीवन में फिर मेरी चेतना की कोई उन्नति भी नहीं हो सकती न?" और ये तो मैं तब बोल रहा हूँ न, जब बहन वास्तव में ग़लती कर रही हो। जीवन उसका है, ज़्यादा संभावना यही है कि उसके जीवन के विषय में तुम ग़लती कर रहे होगे क्योंकि तुम इस दंभ से भरे हुए हो कि "बहन से ज़्यादा होशियार और जानकार हम हैं"। जब तुम्हारा ये दंभ ग़लत है, जब बहन के बारे में तुम्हारी ये धारणा ग़लत है, तो बहन के जीवन को लेकर के जो तुम निर्णय करोगे, वो कैसे सही हो जाएँगे, बताओ? एक चीज़ जो तुममें ग़लत है, वो तो इस सवाल में ही दिख गई न? बहन को ले करके और खुद को ले करके, तुम्हारी धारणा ही मूलभूत रूप से ग़लत है। जब वो धारणा ही ग़लत है, तो तुम जब और बाकी सब निर्णय कर रहे होंगे जीवन के, चाहे अपने जीवन के, चाहे बहन के जीवन के, वो निर्णय कैसे सही हो जाएँगे?

अगर वाकई, बहन से, पत्नी से, जो भी तुम्हारे जीवन में महिलाएँ हों, उनसे प्रेम करते हो, उनके प्रति सद्भावना रखते हो, तो ये मत करो कि उनके मालिक बन गए, सुरक्षा के नाम पर उनको बांध दिया। उन्हें शिक्षित करो, उनकी ताकत बढाओ, उनके रास्ते की बाधा तो मत ही बनो कम से कम। हो सके तो ऐसा माहौल दो जिनमें उनकी चेतना खिल कर सामने आ सके, जिसमें उनके जो भी सृजनात्मक संभावनाएँ हैं, वो पुष्पित हो सकें। ये तुम्हारा फ़र्ज़ है। उनको इस लायक बनने का मौका दो कि ज़िंदगी में उन्हें किसी सहारे की ज़रूरत ना पड़े, ये तुम्हारा फर्ज़ है। ये नहीं तुम्हारा फर्ज़ है कि तुम उन्हें कदम-कदम पर सहारा देते चल रहे हो। और जहाँ वो तुम्हारा सहारा लेने से इनकार करे, वहाँ तुम ज़बरदस्ती सहारा दो। कि "मैं तो भाई हूँ न, तो मैं तो ज़बरदस्ती सहारा दूँगा।" ये फिर सहारा नहीं है, ये आधिपत्य है, ये मालकियत है।

तुम्हें बहन की सुरक्षा की चिंता है, मैं तुम्हारी भावना का सम्मान करता हूँ। पर तुम कब तक बहन की सुरक्षा कर लोगे? अंततः वो भी वैसे ही एक व्यक्ति है जैसे तुम एक व्यक्ति हो। उसे अपना जीवन अकेले ही जीना है। तुम क्या पल-पल और जगह-जगह उसके साथ हो लोगे?

तो अगर वाकई तुम बहन का भला चाहते हो तो उसे सामर्थ्यशील बनाओ, उसको आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनने दो। जितनी ऊँची से ऊँची वो पढ़ाई कर सकती है, वो करने में उसकी मदद करो। जिन सही जगहों पर उसे होना चाहिए, उन जगहों पर पहुँचने में उसकी मदद करो। और मदद नहीं भी कर सकते भैया, तो कम से कम राह का रोड़ा तो मत बनो, इतना काफ़ी है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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