क्यों लगता है सब ख़त्म हो गया? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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क्यों लगता है सब ख़त्म हो गया? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्नकर्ता: कभी-कभी जीवन में ऐसा लगता है कि सब ख़त्म हो गया है। इस स्थिति को क्या कहते हैं? इसे कैसे दूर करें?

आचार्य प्रशांत: सवाल है कि, "जीवन में कभी-कभी या अक्सर ऐसे क्षण आते हैं जब दिखाई पड़ता है कि सब ख़त्म हो गया, आशा चुक सी जाती है, तब क्या करें?"

तुम्हारी किस्मत अच्छी है, सौभाग्य है कि तुमको ये क्षण आते हैं। इससे पता चलता है कि अभी पूरी तरह मुर्दा नहीं हो, पता चलता है कि अभी भी थोड़ी संवेदना बची हुई है। ज़्यादातर लोग इतने बेहोश हो जाते हैं, करीब-करीब मुर्दा, कि उनको ये भी प्रतीत नहीं होता कि सब ख़त्म हो रहा है, सब ख़त्म हो ही चुका है। वो झूठे सपनों में जिए जाते हैं।

तो तुम्हारे साथ तो अभी बड़ी अच्छी घटना घट रही है। धन्यवाद दो अस्तित्व को, कि अभी ये सब तुम्हारे साथ हो रहा है। लेकिन अगर ये होता ही रहा और तुम चेती नहीं, तो कुछ समय में ये होना बंद हो जाएगा। मुक्तिबोध की एक पंक्ति है:

“मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं”

बड़े फायरब्रांड कवि थे मुक्तिबोध। तो कह रहे हैं कि एक पुकार उठती है और पुकार बड़े कष्ट की ही होती है कि, "ये क्या हो रहा है? ये ज़िन्दगी कहाँ जा रही है?" जीवन लगातार एहसास कराता है अपने खाली होने का, अपने सूनेपन का, अपने अर्थहीन होने का।

पर ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम उस पुकार को सुनो या ना सुनो, और नहीं सुनोगे तो वो पुकार खो जाएगी। कुछ दिनों में वो पुकार आनी बंद हो जाएगी। तुमको ऐसा लगने लगेगा कि सब कुछ ठीक है, सब सामान्य है। पर सब सामान्य नहीं हो गया है, सब ठीक नहीं हो गया है, इतना ही हो गया है कि तुम सुन्न पड़ गए हो।

शरीर के किसी हिस्से पर जब बहुत ज़ोर से चोट लगती है, तो ऐसा भी होता है कि वो सुन्न पड़ जाए और दर्द का एहसास भी बंद हो जाए। दर्द का एहसास नहीं हो रहा है, इसका अर्थ ये नहीं है कि सब ठीक है। इसका अर्थ यही है कि बीमारी और गहरी हो गई है।

तुम सड़क पर चलते लोगों को देखो, उनकी शक्लों को देखो, उनके जीवन को देखो, उनके हाव-भाव को देखो, अपने आस-पास के समाज को देखो, और तुम्हें साफ़-साफ़ दिखाई देगा कि सब बीमार हैं। सब बुरी तरह से बीमार हैं।

घरों को देखो, परिवार को देखो, जाकर दफ्तरों में देखो, और तुमको उनकी आँखों में बीमारी के अलावा कुछ और दिखाई देगा नहीं। डर दिखेगा, चिंता दिखेगी, संदेह दिखेगा, बोरियत दिखेगी। पर तुम उनसे पूछो कि, “क्या हुआ, क्या तकलीफ है?” तो वो कहेंगे “तकलीफ? सब कुछ अच्छा है। मैं तो एक बड़ा सामान्य आदमी हूँ, मैं तो एक ढर्रे की ज़िन्दगी बिता रहा हूँ।”

और इनके आस-पास आने वालों से पूछोगे तो वो कहेंगे, “हाँ, हाँ बिलकुल ठीक है। एक सामान्य जीवन बिता रहा हैं ये। रोज़ सुबह घर से निकलता है, ऑफिस (दफ्तर) आता है, ठीक -ठाक कमा रहा है, घर जाता है जहाँ बीवी, एक-दो बच्चे हैं और बस ये ही इसका जीवन है। चल रहा है और सब लोग इसको मान्यता देते हैं।”

पर तुम जानोगे, अगर तुम ग़ौर से देखोगे, तो समझोगे कि कहीं-न-कहीं कोई गड़बड़ है, कोई बड़ी गड़बड़ है। सबसे बड़ी गड़बड़ है कि उसे अब ये गड़बड़ का एहसास होना भी बंद हो गया है। वो वेल एडजस्टेड हो गया है।

कृष्णमूर्ति ने कहा था – “अगर तुम एक बीमार समाज से पूरी तरह एडजस्टेड हो गए हो तो इससे ये बिलकुल सिद्ध नहीं होता कि तुम स्वस्थ हो।"

इससे यही सिद्ध होता है कि तुम भी उतने ही बीमार हो, बल्कि शायद और ज़्यादा।

तो इसीलिए मैंने कहा था कि सौभाग्य है तुम्हारा कि तुमको वो क्षण आते हैं, घबराहट के, जब अचानक सब काला दिखाई देने लगता है। और मैं प्रार्थना करता हूँ कि वो क्षण यहाँ बैठे सभी लोगों को आया करें, और बहुत ज़्यादा आया करें।

तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ। ये तुम्हारे स्वास्थ के लिए ही प्रार्थना कर रहा हूँ। आवश्यक है कि वो क्षण आएँ, आवश्यक है कि हम देख पाएँ कि जिन ढर्रों पर हम चल रहे हैं, वो बड़े अँधेरे रास्ते हैं, कहीं को नहीं जाते, और उनमें हमें कष्ट के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा।

आवश्यक है कि हम देख पाएँ कि हम सुबह से लेकर शाम तक जो कुछ भी करते हैं, उसमें हमारी हालत क्या रहती है, हमारा मन कहाँ रहता है और हम कर क्या रहे होते हैं। बहुत ज़रूरी है कि हमें ये समझ में आए।

जो आदमी सपने में है, वो अपने सपने की मौज लेता ही रहेगा। लेकिन जीवन तुम्हें हमेशा सपने में रहने देगा नहीं। वो बीच-बीच में तुम्हें सत्य के सामने खड़ा करेगा ही, और सत्य तुम्हें रगड़ देगा, ठोकरें देगा। वो क्षण होता है जब तुम्हें दिखाई देता है कि तुम जिन कल्पनाओं में जी रहे थे वो झूठी थीं।

जीवन खुद ऐसे अवसर पैदा करता है, जब तुम्हें दिखाई दे जाए कि हम जिन कल्पनाओं में जी रहे हैं, वो झूठी हैं। हम जिन धारणाओं के आधार पर आगे बढ़े जा रहे हैं, उन धारणाओं में कुछ रखा नहीं है। जो विश्वास मैंने बचपन से पाल रखें हैं, संसार को जैसा मैं समझ रहा हूँ, वो वैसे हैं ही नहीं। जीवन ठोकर देता है, तुम्हें एहसास देता है और इसलिए एहसास कराता है कि जग जाओ। पर हम जागते तब भी नहीं हैं।

किसी ने कहा है कि हर आदमी कभी-न-कभी सत्य से टकराता ज़रूर है, लेकिन अधिकतर लोग, सत्य से टकराने के बाद बस उठते हैं और ऐसा अभिनय करते हैं कि जैसा कुछ हुआ ही नहीं। कोई ठोकर लगी ही नहीं, और अपनी पुरानी ही दिशा में वापस चल देते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो सत्य से ठोकर खाने के बाद जाग जाएँ।

तुम्हें ये जो अनुभव होता है ये सत्य की ठोकर है। ये अनुभव तुम्हें इसलिए होता है ताकि तुम जग सको। धन्यवाद दो अस्तित्व का कि तुम्हें ये अनुभव होता है। अस्तित्व को अभी तुमसे कुछ उम्मीद है, इसीलिए तुम्हें ये ठोकर दे रहा है।

जिनको ठोकर मिलनी ही बंद हो गईं हैं, वो तो कहीं के नहीं बचे, और अब हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिनको ये ठोकर मिलनी अब बंद हो रही होंगी। जिनको लग रहा होगा, ऐसे ही है, बस ये ही है। “मुझे पता चल गया है कि जीवन क्या है। मैं सब समझ गया हूँ” – इन लोगों को अब ठोकर नहीं लगती।

ठोकर समझ लो तुम्हारे उस शुभचिंतक की तरह है जो तुम्हें जगाने आया है। जो तुमसे कह रहा है कि उठो। और जब भी कोई तुमको गहरी नींद से उठाए तो थोड़ी बेचैनी होती है, थोड़ी झुंझलाहट होती है। होती है कि नहीं होती है?

और जो कोई तुम्हें उठाए, वो तुम्हें कोई बहुत प्रिय नहीं लगता। तुम सो रहे हो, बढ़िया हो, और कोई आ रहा है, और तुम्हें उठा रहा है कि, “उठो!” तुम खिसिया जाओगे। ये उठने का संकेत है। उठ जाओ। सच्चाई को देखो। अपनी मान्यताओं के खोखलेपन को देखो।

जीवन तुमसे कह रहा है कि अपने से पूछो कि, “क्या मैं इन सब शब्दों के अर्थ को समझती हूँ? शिक्षा, काम, पैसा, कॅरिअर, प्रेम, परिवार, जीवन, मृत्यु।” और इन्हीं पर तुमको चलना है। दिन-रात तुम सोच इन्हीं के बारे में रहे हो। इनके अतिरिक्त और कुछ नहीं सोच रहे हो। पर क्या इनको जानते हो?

जीवन तुमसे ये सवाल पूछ रहा है। उत्तर दो। तुमने कभी जानना चाहा है कि पैसे का अर्थ क्या है? क्या काम पैसे के लिए किया जा सकता है? जीवन में पैसे का क्या महत्व है? जीवन क्या है? तुमने अपने आप से कभी पूछा कि धर्म क्या है? मनोरंजन क्या है?

अभी त्यौहार आ रहा है। घरों की तरफ भाग रहे हो। तुमने अपने आप से पूछा कि ‘त्यौहार’ शब्द का क्या अर्थ है? मनोरंजन का मतलब क्या है? इन्हीं पर जीवन बिता रहे हो, पर इनके बारे में जानते कुछ नहीं। और जीवन तुमको चेतावनी दे रहा है कि ये मत करो। अवसर खोते जा रहे हो, समय तुम्हारे हाथ से फिसला जा रहा है। जीवन तुम्हें बस चेतावनियाँ दे रहा है। उन चेतावनियों को सुनो।

एक-एक क्षण जो तुम बिना सुने बिता रहे हो, तुम अपने ही और बड़े दुश्मन होते जा रहे हो। कोई और नहीं है तुम्हारा दुश्मन, तुम्हीं हो अपने दुश्मन।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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