क्यों हमेशा बंधनों में पाए जाते हैं हम? || आचार्य प्रशांत, दार्शनिक रूसो पर (2020)

Acharya Prashant

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क्यों हमेशा बंधनों में पाए जाते हैं हम? || आचार्य प्रशांत, दार्शनिक रूसो पर (2020)

आचार्य प्रशांत: पहला सवाल, यूरोपियन दार्शनिक जाँ जाक रूसो का प्रसिद्ध कथन है- “मनुष्य मुक्त पैदा होता है किन्तु हर जगह वह बेड़ियों में जकड़ा हुआ है (मेन इज़ बोर्न फ्री, बट एवरीवेयर ही इज़ इन चेन्स)” कृपया इसको समझायें।

भारत की और पश्चिम की दृष्टि अलग रही है। पश्चिम ने बाहर की ओर देखा है और बाहर के जगत में बड़ी खोजें की हैं, तरक्की की है। पश्चिम के अनुसार अन्धकार भी बाहर है और ज्ञान भी बाहर है, बेड़ियाँ भी बाहर हैं और मुक्ति भी बाहर ही है। अन्दर क्या है यह जानने में पश्चिम में विशेष रुचि दर्शायी नहीं है। दर्शायी भी तो बहुत आगे तक नहीं बढ़ा वह।

तो रूसों के इस कथन को इसी आधार पर समझना होगा। रूसो देख रहे हैं कि आदमी की परतन्त्रता का, बेड़ियों का प्रमुख कारण समाज है। तो उन्होंने उसी मुताबिक अपने कथन में आपके सामने एक नक्शा रख दिया है। जो कहता है कि जो नवजात शिशु है वो तो मुक्त है, स्वतन्त्र है, मेन इज़ बोर्न फ्री। लेकिन फिर वो जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे समाज की रीतियों, व्यवस्था, प्रथाओं, शिक्षा, संस्कारों की बेड़ियों में जकड़ता जाता है, ऐसा खाका खींच रहे हैं रूसो। भारत ने ऐसा नहीं देखा। भारत सामाजिक रूढ़ियों को या विचारों, परम्पराओं, संस्कारों को दूसरे स्थान का बन्धन या समस्या समझता है। भारत ने ये जाना कि आदमी की प्रथम समस्या स्वयं आदमी ही है। हमारे भीतर ही हमारा सबसे बड़ा शत्रु बैठा हुआ है। भारत की आँखों से देखें तो जो नवजात पैदा हो रहा है वो मुक्त नहीं है। रूसो कह रहे हैं न “मेन इज़ बोर्न फ्री।” नहीं, भारतीय दर्शन ऐसा नहीं कहता, वेदान्त के ऋषि ऐसा नहीं कहते। वेदान्त के अतिरिक्त, दर्शन की जो अन्य शाखाएँ हैं वो भी ऐसा नहीं कहतीं, भारतीय दर्शन की बात कर रहा हूँ।

भारत ने जाना है कि जो बच्चा पैदा हो रहा है वो अपने भीतर सम्पूर्ण अहम् वृत्ति लिये हुए है बीज रूप में और यही जो वृत्ति है उसकी गुलामी का, दासता का, बन्धनों का, सब समस्याओं, दुखों का मूल कारण है। जब अहम् वृत्ति वो अपने अन्दर लेकर ही पैदा हो रहा है, तो हम कैसे कह सकते हैं कि मनुष्य मुक्त पैदा होता है। यही जो भीतर की अहम् वृत्ति है ये आगे चलकर के फिर अहंकार की तमाम शाखाएँ, प्रशाखाएँ, फल-फूल, पत्तियाँ बनती हैं और तमाम तरीक़ों से फिर हम पाते हैं कि इंसान अब समस्याओं में है।

समझिएगा बात को, अगर हम ये कहें भी कि समाज व्यक्ति को गुलाम बनाता है तो समाज व्यक्ति को कैसे गुलाम बना लेगा अगर व्यक्ति के भीतर कुछ बैठा नहीं है गुलाम बनने को तैयार, राज़ी, सहमत। आप कहेंगे, ‘व्यक्ति के भीतर जो गुलामी के लिए सहमत होकर के बैठा है उसको भी समाज ने तैयार किया है शिक्षा संस्कार देकर-के’, अच्छा ठीक है। समाज अगर ये शिक्षा भी दे रहा है कि आप अपने भीतर गुलामी की भावना को प्रविष्ट कराएँ, तो भी आवश्यक है न कि आपके भीतर कोई बैठा हो जो गुलामी की उस शिक्षा को स्वीकार करने को तैयार हो। आप कहेंगे, ‘नहीं भीतर कोई है ही नहीं, बस बाहर से जो आ रहा वो भीतर डाला जा रहा है।’

तो फिर तो आपने मनुष्य को प्राणहीन, चेतनाहीन कर दिया, आपने मनुष्य को एक खाली डिब्बा बना दिया जिसमें जो कोई जो कुछ भी डाल रहा हो वो डलता रहेगा और अगर मनुष्य खाली डिब्बा ही है, चेतना का कोई स्थान ही नहीं तो बाहर भी फिर जो लोग हैं वो भी खाली डिब्बे हैं, वो भी खाली डिब्बे हैं, वो किस प्रेरणा के वशीभूत किसी और को गुलाम बनाएँगे और अगर मनुष्य खाली डिब्बा ही है उसके पास कोई मौलिक चेतना है ही नहीं, तो फिर वो दुख का अनुभव भी नहीं करेगा न। लेकिन हम तो पाते हैं कि आदमी दुख का तीव्र अनुभव करता है।

तो पश्चिम की इसमें जो दृष्टि रही है, वो कोई विशेष उचित नहीं कही जा सकती। दृष्टि का यही अन्तर फिर आगे चलकर के पूर्व और पश्चिम के जीवन के अन्तर के रूप में सामने आता है। पूर्व जानता है कि सारी समस्याएँ, सारे दुश्मन दिखायी बाहर देते हैं लेकिन सबसे बड़ा दुश्मन वास्तव में बैठा भीतर ही है। भीतर ही है कोई, जो बाहर तमाम समस्याएँ खड़ी करता है, भीतर अगर कोई न हो समस्याओं को खड़ा करने वाला तो बाहर तमाम तरह की स्थितियाँ होंगी, समस्याएँ नहीं। कौन है भीतर जो बाहर की किसी स्थिति को समस्या का नाम देता है, सारी समस्याएँ किसके लिए हैं, ‘फॉर हूम’।

अगर हम ये कहें भी कि समाज ने व्यक्ति को दास बना लिया तो भी हमें यह पूछना पड़ेगा न कि जो दास बना उसने दासता स्वीकार क्यों करी क्योंकि जब तक आप दासता स्वीकार नहीं कर रहे आप दास तो हुए नहीं। तो किसको दोष दें? उसको जो बाहर से आप पर दासता चढ़ाना चाहता है या उसको जो भीतर तैयार बैठा है दास बन जाने के लिए और अगर भीतर कोई गुलाम हो जाने के लिए तैयार बैठा है तो बाहर वो अपने मुताबिक स्थितियाँ खोज लेगा, मिलेंगी नहीं तो निर्मित कर लेगा।

तो इसीलिए पूर्व की, विशेषकर भारत की, कोशिश रही स्वयं को जीतने की। उन्होंने कहा दुश्मन जब अपने अन्दर बैठा है तो फिर लड़ाई भी अपने अन्दर करनी है न। पश्चिम को ये बात समझ में ही नहीं आयी कि समस्या की मूल जड़ आदमी के भीतर है उसकी अहम वृत्ति। तो पश्चिम ने अपनी सारी लड़ाइयाँ बाहर लड़ीं।

अन्तर समझ में आ रहा है?

अब इसमें ज़्यादा सही नज़र तो भारत की ही है, लेकिन उस नज़र में एक खतरा है, बहुत बड़ा। आदमी की जैसी प्राकृतिक संरचना है उसकी सारी इन्द्रियाँ प्रमाणयुक्त तरीके से सिर्फ़ बाहर ही देख सकती हैं। कम-से-कम एक व्यक्ति बाहर क्या देख रहा है अपनी इन्द्रियों से इसका प्रमाणिक तौर पर सत्यापन कोई दूसरा व्यक्ति तभी कर सकता है जब देखी जा रही चीज़ बाहर की हो।

मैं समझा देता हूँ। दीवार पर पंखा टँगा हुआ है, ठीक है। ये बात मैं कह सकता हूँ और इस बात में बहुत गुंजाइश नहीं है कि मैं झूठ बोल दूँ, क्यों? क्योंकि वो बाहर की चीज़ है, उसमें मैं झूठ बोलूँगा तो आप मेरी बात को सत्यापित नहीं करेंगे, मेरी बात से सहमत नहीं होंगे, गवाही नहीं देंगे।

समझ में आ रही है बात?

तो जब एक आदमी बाहर की खोज पर निकलता है, बाहर की कोई बात कहता है, तो उसके लिए ईमानदारी अपरिहार्य हो जाती है, उसे ईमानदार होना पड़ेगा। आप कह दें कि मैंने आसमान में अभी- अभी एक दूसरा सूरज खोज निकाला है तो आपकी बात कोई कुबूलेगा ही नहीं। तत्काल सौ आवाज़ें उठेंगी आपको झूठा करार देंगी। आप तुरन्त अपने स्वप्नलोक से बाहर आ जाएँगे, जगना ही पड़ेगा, झूठ टूट जाएगा आपका।

तो पश्चिम जब बाहर की दिशा में अनुसन्धान करने निकला तो उसके लिए ईमानदारी अपरिहार्य हो गयी, अनिवार्य हो गयी क्योंकि बाहर जो एक व्यक्ति देख रहा है, वो चीज़ दूसरा भी देख सकता है। बाहर जो बात कही जा रही है उसको प्रमाणित किया जा सकता है वस्तुनिष्ठ, ऑब्जेक्टिव तरीकों से, फॉल्सिफाई भी किया जा सकता है, अप्रमाणित भी किया जा सकता है। आपने कुछ बोला, मेरे पास पूरा अधिकार है और पूरा अवसर है कि मैं आपकी बात को गलत साबित कर दूँ।

उदाहरण के लिए आप बोलें कि साहब ये जो आपके गिलास में पानी रखा है, ये तो पच्चीस डिग्री पर ही भाप बन जाता है। मेरे लिए बहुत आसान है जाँचना और तत्काल प्रमाणित कर देना कि आपकी बात ठीक नहीं है साहब, पच्चीस डिग्री पर तो भाप बन नहीं रहा।

भारत जिस यात्रा पर निकला वो अन्दर की है, वहाँ कोई वस्तुगत तथ्य होते नहीं, कोई ऑब्जेक्टिव फैक्ट्स नहीं होते वहाँ पर, वहाँ जो मामला है भीतर का है। वहाँ चूँकि मामला भीतर का है तो इसलिए बेईमानी की गुंजाइश बढ़ जाती है। एक वैज्ञानिक प्रयोग कर रहा है करेन्ट पर, पदार्थ पर, एटम्स पर, वेव्स पर, मॉलीक्यूल्स पर। वो जो बात बोलेगा वो किसी वैज्ञानिक पत्रिका में, रिसर्च जर्नल में छपेगी और उसके साथ के लोग वैज्ञानिक समुदाय के लोग, पियर्स, उस बात को देखेंगे उसका रिव्यू कर देंगे और ये सम्भव है।

आपने कोई बात कही, आपने अमेरिका में बैठकर शोध किया था, जर्मनी में बैठा हुआ कोई दूसरा वैज्ञानिक आपकी बात को परख सकता है, सही या गलत है या नहीं जाँच सकता है और जो भी बात निकली उसकी पुष्टि वो पत्रिका के अगले संस्करण में छाप देगा।

लेकिन आप आन्तरिक यात्रा पर निकले हैं, अब आन्तरिक जगत में एटम्स, मॉलीक्यूल्स, वेव्स और करेन्ट तो होते नहीं। आन्तरिक जगत में आप किसकी खोज में निकलते हो? आन्तरिक जगत में आप देखने निकलते हो मोह कहाँ से उठता है, घृणा क्या है, भय क्या है, लोभ क्या है, मद क्या है, मात्सर्य क्या है। व्यक्ति को ये जितने अनुभव होते हैं उनका अनुभोक्ता कौन है, ये जितने विचार और भावनाओं की तरंगे उठती हैं उनका स्रोत क्या है। ठीक है।

ये जितनी बाहर शान्ति है, अशान्ति है उसके पीछे क्या कोई बिलकुल मौन बिन्दु है भीतर, आप ये खोजने निकलते हो और जिसको अब आप खोज रहे हो वो बिलकुल भी वस्तुगत नहीं है, ऑब्जेक्टिव नहीं है। वो खोजने वाले की नज़र पर निर्भर करता है। वो सब्जेक्टिव है। आपके अलावा कोई और आकर-के प्रमाणित नहीं कर सकता, जाँच नहीं सकता, सत्यापित नहीं कर सकता कि आपने जो बात बोली है वो जायज़ है कि नहीं, खरी है कि नहीं।

हाँ, उसे थोड़ा सन्देह ज़रूर हो सकता है। आप कह रहे हैं कि ‘मैं भीतर गया और मुझे अथाह मौन का सागर मिल गया।’ और आपकी हालत देखकर के उसको थोड़ा शक ज़रूर हो सकता है कि इस व्यक्ति की आँखों में देखकर के ऐसा लगता तो नहीं कि इसको अथाह मौन उपलब्ध हुआ है लेकिन फिर भी वो बिलकुल आश्वस्त होकर आपकी बात को ठुकरा नहीं सकता, ठुकराना चाहे भी तो उसके पास कोई प्रमाण नहीं होगा। कम-से-कम उसके पास कोई वस्तुगत, ऑब्जेक्टिव प्रमाण नहीं हो सकता, तो बेईमानी की आशंका बढ़ जाती है।

तो भारत ने जो रास्ता लिया उसमें जो चीज़ खोजी जा रही है, वो ज़्यादा सही है, ज़्यादा खरी है। आप क्या खोज रहे हो? आप मनुष्य की दासता, मनुष्य के बन्धन का मूल कारण खोज रहे हो ताकि आप उससे मुक्त हो सको। लेकिन उस रास्ते पर खतरा ये है कि वहाँ कोई और नहीं आएगा, आपकी ईमानदारी की जाँच-पड़ताल करने। आप ईमानदार हो तो अपने लिए हो और नहीं हो तो आप सारे जगत में ढिंढोरा पीट सकते हो, ‘मैं तो भीतर गया और मैंने बड़े-बड़े अमोल हीरे-मोती पा लिये हैं’ और आप अपने मुँह से ये घोषणा कर सकते हो कि सब निधियाँ, सब रतन मुझे मिल गये भीतर। ये हुआ है।

तो कहना मुश्किल है कि भीतर की खोज भारत का सौभाग्य रही कि दुर्भाग्य। चाहता तो हूँ कि यही कहूँ कि बहुत बड़ा सौभाग्य है ये, कि बिलकुल सही दिशा में भारत ने खोज करी। लेकिन ज़मीनी हकीकत ये है कि चन्द लोग ही हुए हैं जो भीतर की दिशा में गये हैं और पूरे तरीके से ईमानदार रहे हैं, बाकी तो सिर्फ़ पाखंड और आडम्बर रहा है।

आँखें बन्द कर लो और कर दो घोषणा कि अभी-अभी ध्यान में मुझे देवी-देवता उपलब्ध हो गये, कोई जाँच सकता है? कहो, कोई जाँच सकता है क्या? आँखें बन्द कर लो, ध्यान लगा लो और कह दो कि मैंने विजय हासिल कर ली है अब भय पर, जाँचा जा सकता है क्या? और कोई जाँचने के लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न भी कर दे जिसमें आपको भयभीत होना पड़े, तो उस स्थिति के बाद आप कह दो, ‘मैं भयभीत हो थोड़े ही रहा था, वो तो मैं बस भय का प्रदर्शन कर रहा था, ऊपर-ऊपर से स्वांग कर रहा था, भीतर-भीतर तो हम अकर्ता हैं। ऊपर-ऊपर से हम ऐसा दर्शा रहे थे जैसे हम जीवन के इस खेल में, प्रकृति के रंगमंच पर सहभागी हैं लेकिन भीतर तो हम बस साक्षी हैं। कह दो उससे कि बाहर सहभागिता है और भीतर साक्षित्व है।’

अब वो बेचारा आकर-के सिद्ध भी कर गया कि अभी मैंने आपको ज़रा सी धमकी दी थी तो आपके चेहरे का रंग उड़ गया था, हक्के-बक्के रह गये थे, साँप सूँघ गया था, हमने देखा और हमने रिकॉर्ड भी किया है, ये देखिए — ये रिकॉर्डिंग है, देखिए आपके कैसे पसीने चू रहे हैं, तो जहाँ वो रिकॉर्डिंग दिखायी जाए,तहाँ तुम ये कह दो कि ‘ये तो सब बाहर-बाहर हो रहा है, भीतर तो हम हर तरह के भय से अस्पर्शित थे भीतर तो हम आत्मा मात्र हैं, साक्षी मात्र हैं’ और ये खूब हुआ है।

बात समझ में आ रही है?

पश्चिम ने एक निचले स्तर का लक्ष्य बनाया लेकिन उसने जो लक्ष्य बनाया वो था ही इस प्रकृति का, कि उसके रास्ते में बेईमानी करना, घपला करना सम्भव नहीं है क्योंकि वो लक्ष्य किधर का है? बाहर का और बाहर जो कुछ भी हो रहा है वो प्रमाणित किया जा सकता है आपके द्वारा भी और जाँचा जा सकता है दूसरों के द्वारा भी।

लेकिन आपने ये सवाल जो रखा है उसका तो उचित उत्तर यही है कि नहीं, रूसो जो कह रहे हैं वो बात बहुत समझदारी की नहीं है।

वो कह रहे हैं —“मनुष्य मुक्त होता है।” जी नहीं, मनुष्य बिलकुल मुक्त पैदा नहीं होता है। मनुष्य मुक्त पैदा नहीं होता है। मनुष्य मुक्त अगर पैदा हुआ होता तो कोई तरीका ही नहीं है कि उसकी मुक्ति आगे चलकर के दासता में परिणित हो जाती। वास्तव में बन्धन ही पैदा होते हैं, मनुष्य मुक्त क्या पैदा होगा, बन्धन ही पैदा होते हैं। जो अपनेआप को पैदा हुआ मान रहा है, जात मान रहा है, उसने बन्धन तो रच ही लिए अपने। उसकी ये धारणा ही उसका मूल बन्धन है कि वो वो है जिसने जन्म लिया। जब ये धारणा ही बन्धन है कि मैं जन्मा, तो फिर जन्मा हुआ व्यक्ति मुक्त कैसे हो सकता है। पर ये पश्चिम की दृष्टि है।

यहाँ पर सारा दोष किस पर डाला जा रहा है बन्धनों का? समाज पर। कहा जा रहा है कि देखिए बाहर फ़लाने वर्ग के लोग हैं वो आपको तमाम तरह बन्धनों में डाल देंगे, वर्ग शोषण की बात होगी। फिर कहा जाएगा देखिए बाहर इस तरीके की व्यवस्था है जहाँ पर आपको अमुक-अमुक तरीके के अधिकार नहीं उपलब्ध हैं या अमुक तरीके की आप पर ज़िम्मेदारियाँ डाल दी गयी हैं, ये आपको बन्धन में डाल देंगी।

तो सारी जाँच-पड़ताल बाहर की जाएगी। बाहर ये चीज़ है जो मुझे परेशान कर रही है, बाहर वो चीज़ है जो मुझे परेशान कर रही है और जब जाँच-पड़ताल बाहर की जाती है तो बाहर तरक्की भी होती है क्योंकि बाहर जो कुछ आपको परेशान कर रहा है उस परेशानी का निवारण करने का उपाय भी ढूँढ लेंगे। पश्चिम ने ऐसा करा भी है, बाहर जो कुछ परेशान करता है उससे निपट लिया पश्चिम ने। भीतर जो परेशान करता है उससे बिलकुल नहीं निपट पाया, तो मनोरोग तमाम तरीके के, प्रमुखतया अवसाद, कहाँ पाया जा रहा है? पश्चिम में। डरे हुए लोग, आन्तरिक अज्ञान, ये सब कहाँ मिल रहा है? पश्चिम में। ज़बरदस्त भोगवाद, ये सब कहाँ? पश्चिम में।

ऐसा नहीं कि पूर्व में नहीं है, पूर्व में भी अब खूब फ़ैल चुका है। पर पूर्व में भी जहाँ फ़ैल रहा है वो वही लोग हैं जो पश्चिम के बड़े कायल हैं। वो खाल से पुरबिया हैं और दिल से पश्चिमी हैं, उन्हें पता हो चाहे न पता हो। उन्होंने पश्चिमी दर्शन को ही आत्मसात कर लिया है, उनकी दृष्टि पश्चिमी हो चुकी है। फिर उनके साथ भी वही समस्याएँ आ रही हैं जो मूल रूप से पश्चिम की समस्याएँ हैं। विश्वास नहीं कर पाना, सहज न जी पाना, श्रद्धा की कमी, रिश्तों में टूट-फूट, दस जगह जाकर के सन्तुष्टि पाने की कोशिश, प्रकृति के प्रति कोई मैत्री भाव या करुणा नहीं, घोर माँसाहार। ये सब कुछ उसी दृष्टि से आ रहा है जिसका एक प्रतीक रूसो का उक्त कथन है कि “मनुष्य पैदा तो मुक्त होता है, पर उसके बाद वो जगह-जगह बेड़ियाँ पहना पाया जाता है।”

ये बात आपको याद रहेगी अगर आप अपनेआप को बेड़ियों में पायें तो ये मत कह दीजिएगा कि ‘अरे! बेड़ियाँ पहनाने वाले तो दूसरे हैं, मेरी इस बुरी अवस्था के ज़िम्मेदार दूसरे हैं।’ नहीं ऐसा नहीं हो सकता। अगर आप बन्धन में हैं तो उस बन्धन का प्रमुख कारण आपके भीतर ही है। उस भीतरी कारण से आप निपट लीजिए, बाहरी कारण आप पाएँगे कि अपनेआप विलुप्त हो गये, उनकी कोई हैसियत ही नहीं। भीतरी कारण ऐसा है जैसे आपने अपने ऊपर शहद मल रखा हो। बाहरी कारण ऐसा है कि आपके ऊपर बाहर से दूर रास्ते तमाम तरह की मक्खियाँ, कीड़े आकर बैठ गये। ये बहुत कोई बुद्धिमानी की बात तो नहीं होगी कि आप मक्खियों से और कीड़ों से लड़ते जाएँ।

तो भारत ने कहा आत्मस्नान बाहर कहाँ जाकर के लड़ाईयाँ लड़ोगे एक-एक मक्खी से एक-एक कीड़े से, इनका कोई अन्त नहीं है। तुम अपनी लड़ाई लड़ लो, तुम अपनी सफ़ाई कर लो। इस उदाहरण में तो फिर भी शहद मला गया है खाल पर, वास्तव में हमारी हस्ती में जो शहद है, जो दुनियाभर की मक्खियों को माने, समस्याओं को, माने अवान्छित प्रभावों को आकर्षित करता है। वो खाल पर नहीं है, वो भाल पर है, खोपड़े के अन्दर है, मन में है।

समझ में आ रही है बात?

तो जब भी किसी हालत में आयें, जब भी देखें कि बाहरी ताकतें आप पर हावी हुई जा रही हैं, दोष अपने ऊपर लें। इच्छा बहुत करेगी तत्काल दूसरों पर दोष दे देने की, कि अरे, वो शोषक वर्ग है, उसने मेरे साथ बुरा किया, उसने किया, उसने किया। समझना ज़रूरी है कोई आपके साथ कुछ बुरा कर नहीं सकता बिना आपकी सहमति के। ये बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी की बात है और ये बहुत परिपक्व लोगों के लिए है कि आप कहें कि मेरी भलाई भी मुझसे है, मेरी बुराई भी मुझसे है।

उपनिषद कहते हैं कि “तुमसे बढ़कर तुम्हारा कोई मित्र नहीं और तुमसे बढ़कर तुम्हारा कोई शत्रु नहीं” अमृतबिन्दु उपनिषद है। “तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र नहीं, तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई बैरी नहीं।” पश्चिम की दृष्टि में ये बात कहीं भी नहीं है, वहाँ वही है जो रूसो कह रहे हैं कि बेड़ियाँ तुम्हें बाहर वालों ने पहना दी हैं। तुम स्वयं जिम्मेदार हो अपने जीवन के, तुम्हारी चेतना ही तुम्हारे जगत का निर्माण करती है। ये बात पश्चिम ने कभी जानी नहीं, कभी कहीं नहीं।

समझ में आ रही है बात?

इसीलिए पश्चिम की फिर सारी क्रान्तियाँ भी बहिर्मुखी रही हैं। फ़लाना तन्त्र गिरा दो, फ़लानी व्यवस्था बदल दो, राजशाही हटा देंगे, ज़ारशाही हटा देंगे, सरकार बदल देंगे, तख्ता पलट देंगे। भारत में गौर करिएगा कि क्रान्तियाँ बहुत कम हुईं, नाम मात्र, हुईं भी हैं तो बहुत छोटे-छोटे पैमानों पर ज़रा- ज़रा सी कहीं पर, कोई बड़ी क्रान्ति हुई ही नहीं।

वजह यही है, लोगों को पता था बाहर शोर मचाकर क्या होगा, बाहर आग लगाकर क्या होगा, ईमानदारी की बात तो ये है कि हम ही ज़िम्मेदार हैं। जब जाना गया कि हम ही ज़िम्मेदार हैं तो फिर जिन्हें अपना उत्तरदायित्व वाकई समझ में आया, उन्होंने अपना जीवन बदल भी डाला। क्योंकि एक बार आप जान गये कि आप ही निर्माता, निर्धाता हो अपने जीवन के तो फिर आप अपना जीवन बदल भी डालते हो बड़ी सफलता के साथ बदल डालते हो। हाँ जिन्हें शौक रहा है दूसरों पर आक्षेप करने का वो इसी के मज़े लेते रहे, दूसरों पर इल्ज़ाम लगाओ ख़ुद को पीड़ित बताओ।

ये अब काफी प्रचलित हो रहा है भारत में। यहाँ हर व्यक्ति अपनेआप को किसी-न-किसी तरीके से शोषित ही बता रहा है। सब कह रहे हैं कि हमारा शोषण हुआ है। आप मुझे एक व्यक्ति दिखा दो जो ये न कह रहा हो कि वो किसी-न-किसी तरीके के ऐतिहासिक, सामाजिक, शोषण का शिकार है, हर व्यक्ति ये कह रहा होगा।

महिलाएँ कह रही हैं हमारा तो सदियों से शोषण हुआ है क्योंकि हम बेचारी पीड़ित महिलाएँ हैं, एक जाति के लोग कह रहे हैं हमारा तो जी सदा से शोषण होता ही रहा है, एक धर्म के लोग कह रहे हैं ये देखो हमारे साथ अन्याय हो रहा है। जिनको आरक्षण मिल रहा है वो कह रहे हैं देखो हमारे साथ बहुत बुरा हुआ तभी तो आरक्षण मिल रहा है। जिनको आरक्षण नहीं मिल रहा वो कह रहे हैं देखो हमारे साथ कितना बुरा हो रहा है, आरक्षण के कारण हमारी नौकरियाँ नहीं लगती हैं, हम भूखे मर रहे हैं। हर व्यक्ति इसी बात में रस ले रहा है कि मैं तो बेचारा हूँ और मेरे साथ कुछ गलत हुआ ही हुआ है।

बात समझ में आ रही है?

बेरोज़गारी बहुत है तो जवान लोग कह रहे हैं देखो सरकार की ज़िम्मेदारी है हमें नौकरी देने की, सरकार ने हमें दी नहीं। सरकार की ज़िम्मेदारी ये भी थी कि तुमको तुम्हारे घर में बैठाकर पढ़ाती, दसवीं में तुम क्या कर रहे थे, बारहवीं में तुम क्या कर रहे थे, दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी से कह दो न। कोई नहीं कहेगा कि अपने पच्चीस साल मैंने खुद बर्बाद करे हैं। बाहर की स्थितियाँ अनुकूल हो जाएँ बहुत अच्छी बात है पर बाहर की स्थितियाँ प्रतिकूल हों और आप अपनी दुर्दशा के लिए बाहर की स्थितियों को ही दोष देते रहो, ये कोई सच्ची बात नहीं हुई।

एक ही घर के दो लड़के होते हैं या दो लड़कियाँ होती हैं। एक जीवन में हर तरीके से प्रगति कर ले जाता है दूसरा पीछे रह जाता है। ऐसा तो नहीं है कि बाहर की स्थितियाँ ही उत्तरदायी हैं और बाहर की स्थितियाँ एक सीमा तक अगर उत्तरदायी हैं भी तो तुम क्या कर लोगे बाहर की स्थितियों का। ज़्यादा नियन्त्रण किस पर है तुम्हारा बाहर की स्थितियों पर या अपने अन्दर की स्थिति पर?

कुछ विशेष हासिल नहीं होता है शिकायत कर-करके और मैं इस बात से इनकार नहीं कर रहा हूँ कि दुनिया में शोषण है, अन्याय है, उत्पीड़न है लेकिन शुरुआत आपको अपनेआप से करनी है। छाती पीटने रोने-धोने मात्र से कुछ नहीं होता, सार्थक कर्म करना होगा और इतिहास के पन्ने पलटकर देख लीजिए जिन्हें सार्थक कर्म करने थे उन्होंने तमाम तरीके के मुश्किलात के बीच भी करे।

आप भी कर सकते हैं या फिर आप कह सकते हैं कि, ‘मैं तो बेचारा, गलत हुआ है मेरे साथ।‘

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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