प्रश्नकर्ता: कबीर साहब के एक दोहे पर स्पष्टीकरण चाहते हुए पूछ रहे हैं, चौबीस वर्षीय प्रश्नकर्ता हैं। आचार्य जी प्रणाम, आज यह दोहा गाने का अवसर मिला तो पूरे दिन इसी को गुनगुना रहा था।
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप। जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप।
~ कबीर साहब
इस दोहे पर समझना चाह रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: देखो, तुम्हारी जो प्रकृति होती है, प्राकृतिक वृत्ति होती है वो बदला लेने की होती है। माफ़ी का विधान हमारे शरीर में नहीं निहित है। जंगल से आये हैं हम, बहुत बार समझाता हूँ न। और जंगल में माफ़ी का चलन होता नहीं, जंगल तो सज़ा देता है अगर दे सके तो। सामने वाला बहुत ही पहलवान है, तो फिर तो सज़ा दे नहीं सकते।
पर जंगल का, हमारे इस शरीर का, प्रकृति का रिवाज ये है कि अगर बस चले, अगर जान हो, ताकत हो तो जिसने तुमको दुख दिया है तुम पलटकर के उसको बराबरी का दुख दो, बल्कि और ज़्यादा दुख दो; जंगल ऐसे चलता है।
बात समझ में आ रही है?
जंगल ऐसे क्यों चलता है, क्योंकि जंगल में सब पशु ही हैं। अगर एक पशु तुम पर एक बार हमला कर रहा है, तो इसका मतलब उसका शरीर प्रकृति द्वारा संस्कारित है तुम पर हमला करने के लिए।
बात समझ रहे हो न?
उदाहरण के लिए, तुम किन्हीं ऐसे दो पशुओं को ले लो जिनकी अक्सर शत्रुता ही दिखाई देती है। साँप और नेवला ले लो, ठीक है? नेवले ने अगर एक बार साँप पर हमला करा है और साँप बच गया, तो नेवला दोबारा क्या करेगा, फिर हमला करेगा। फिर बच गया साँप किसी तरीके से, नेवला तिबारा क्या करेगा, फिर हमला करेगा।
तो प्रकृति ने साँप में ये वृत्ति पहले ही भर दी है कि भाई तुम पर अगर नेवला हमला करे और अगर तुम्हारा बस चले, तो उसका काम तमाम कर देना, क्योंकि उसको छोड़ दोगे तो तुम्हें कोई लाभ नहीं होना है।
नेवले ने तुम पर हमला करा और तुमने उसको छोड़ दिया दया इत्यादि दिखाकर के, तो इससे कोई लाभ नहीं होना है तुमको, बल्कि तुम्हारी शारीरिक हस्ती ही खतरे में पड़ जानी है। और साँप अपनी दृष्टि में क्या है, अपनी शारीरिक हस्ती के अलावा कुछ भी नहीं। साँप के लिए उसका कुल अस्तित्व क्या है, साँप का शरीर। और नेवला साँप के शरीर का दुश्मन।
बात समझ रहे हो?
तो साँप की तो कुल हस्ती ही इस पर निर्भर करती है कि वो नेवले को जल्दी-से-जल्दी निपटा दे। तो इसीलिए प्रकृति ने हमें दया का भाव दिया ही नहीं है, जहाँ तक प्रकृति का बस चला है। जंगल में अच्छा यही होता है कि आप अपने शत्रु को जल्दी-से-जल्दी खत्म करते चलें या सज़ा देते चलें। क्योंकि आप अगर उसे सज़ा नहीं देंगे, तो वो आपको सज़ा देगा।
और अगर आपने उसको माफ़ कर भी दिया, तो इससे उसके इरादों में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा, क्योंकि वो है क्या, पशु ही है। वो इस बात का आपको बिलकुल श्रेय नहीं देने वाला, वो अनुगृहीत नहीं होने वाला, उसकी वृत्तियों पर कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला, कि आपने उसको माफ़ कर दिया।
तो ये कारण है कि ज़्यादातर लोग बदले की भावना में बड़ा जलते हैं। वो व्यर्थ ही नहीं जलते, कारण है क्यों जलते हैं, क्योंकि बदला जंगल में सहयोगी होता था, लाभप्रद होता था अपने शारीरिक अस्तित्व को बनाये रखने में। दूसरा तुम्हें मारे, उससे पहले तुम दूसरे को मार दो। और जिसने तुम पर एक बार हमला किया है वो तुम पर बार-बार हमला करेगा, क्योंकि यही उसका रिवाज है।
तो अगर तुम्हारा बस चलता हो तो उसको जड़ से मिटा दो, ऐसा जंगल में चलता है। हम भी जंगल से आये हैं इसीलिए ऐसी ही बात हमारे भी शरीर में भरी हुई है, एन्कोडेड (सांकेतिक शब्दों में लिखित) है, हम शारीरिक रूप से संस्कारित हैं, हार्ड वायर्ड (यन्त्रस्थ) हैं, कंडीशन्ड (अनुकूलित) हैं। है न?
लेकिन आदमी में और जानवर में कुछ तो अन्तर होता है। क्या अन्तर होता है, जानवर सिर्फ़ और सिर्फ़ क्या है, शरीर है। हम शरीर से आगे के भी कुछ हैं और शरीर से आगे का जो है वो बदला लेकर तात्कालिक रूप से तो ठंडा हो जाता है, लेकिन अन्दर-ही-अन्दर और दहक जाता है।
जब आप किसी से बदला ले लेते हो, क्षमा नहीं करते उसको, तो कुछ तो मन ठंडक मनाता है, है न, कि बदला ले लिया और मन को ज़रा ठंडक मिली। पर वो ठंडक बड़ी अल्पकालीन होती है।
जल्दी ही आप पाते हो कि कोई और आकर आपको फिर से परेशान कर रहा है और आप फिर बदला लेने के लिए आतुर हो रहे हो। इतना ही नहीं, आपने जिससे बदला लिया है उसकी ओर से अब कोई और आ रहा है आपसे बदला लेने के लिए। और ये सब चल जाता है। मन को जो वास्तव में चाहिए, वो मन को मिलता नहीं है बदला लेने से।
मन को जो वास्तव में चाहिए वो मन को बदला लेने से मिलता नहीं है, तो सन्तों ने कहा, ‘जानवरों पर छोड़ दो ये सब तुम रंजिशें, द्वेष-भाव इत्यादि, तुम क्षमा सीखो।’
तो कबीर साहब हों या अष्टावक्र मुनि हों, वो बार-बार क्षमा पर बड़ा ज़ोर देते हैं और दया पर बड़ा ज़ोर देते हैं। कहते हैं, 'छोड़ो न, कष्ट नहीं दो किसी को, कोई लाभ नहीं होने वाला है इससे।'
बात समझ में आ रही है?
इसमें वो दूसरे भर के ही लाभ की बात नहीं कर रहे हैं, इसमें वो आपके भी लाभ की बात कर रहे हैं सर्वप्रथम। आपको लाभ नहीं होना। लोग सोचते हैं, ‘मैं उसको क्यों छोड़ दूँ?’ उसको इसलिए छोड़ दो, क्योंकि उसको छोड़ने में तुम्हारा ही फ़ायदा है।
जिसको तुम अभी पीट सकते हो, उस पर थोड़ी दया दिखा दो, छोड़ दो। जिसने तुम्हें नुकसान भी पहुँचाया है, उसे माफ़ कर दो, छोड़ दो। उसको तो जो फ़ायदा होगा सो होगा, यकीन करो तुम्हें ज़्यादा फ़ायदा हो जाना है, इसलिए उसको छोड़ दो।
इसी बात को दूसरे तरीके से बताता हूँ। जिसने तुमको चोट पहुँचायी, उसने तुमको इसीलिए चोट पहुँचायी न कि तुम्हें वो चोट पहुँचाए और तुम आन्तरिक रूप से आहत हो जाओ। वो दुश्मन बनकर यही तो चाह रहा है कि तुम्हारा कोई नुकसान कर दे और उस नुकसान की वजह से तुम दुखी हो जाओ, तड़पो। यही चाह रहा है न वो? वो दुश्मन बनकर आया है और यही चाह रहा है।
तो दुश्मन को तुम्हारा करारे-से-करारा जवाब क्या हो सकता है, उसके उद्देश्य को पूरा मत होने दो।
वो सोच रहा था कि वो तुमको गाली दे देगा और तुम तड़पोगे। तुम उस गाली का अपने ऊपर असर ही मत होने दो, ये लो। तो ‘दया’ बदला लेने का बड़ा अच्छा तरीका है। तूने बड़ी ज़ोर लगायी, तूने बड़ी मेहनत की, तूने बड़ा खेल रचा कि मैं तड़पूँ, परेशान हो जाऊँ, दुखी हो जाऊँ, लेकिन मुझ पर तो कोई असर ही नहीं पड़ा, तेरी सारी मेहनत बेकार गयी। नुकसान किसका हुआ? देख मैंने बदला ले लिया। तू जो चाहता था वो तो हुआ ही नहीं, तो जीता कौन? मैं।
जो अपना मालिक हो गया, उसे कौन अब आहत कर सकता है। हाँ, दुनिया इतना कर सकती है कि आपके शरीर को घाव दे दे, शरीर को पकड़ ले, बीमारी भी ऐसा कर सकती है, लेकिन आपकी चेतना पर दाग धब्बा लगा दे, ऐसा दुनिया का बल नहीं। वो तो तभी होता है जब आप बड़ी रुचि ले लो ये दागदार खेलों में। आप अगर रुचि ही न लो, तो बाहर-बाहर आपके चोट पड़ती रहे, दाग-धब्बे लगते रहें, भीतर आप पूर्णतया साफ़ रहोगे।
इसी का नाम क्षमा है, इसी का नाम दया है, इसी का नाम वैराग्य, साक्षित्व है, यही अध्यात्म का फल है; यही दुख से मुक्ति है।
बात आ रही है समझ में?
तो दया कोई बस नीति नहीं होती, दया बस संस्कारों की बात नहीं होती, दया में बहुत गहरा आध्यात्मिक सूत्र छुपा हुआ है। दया कमज़ोरों का काम नहीं है, क्षमा करने के लिए बहुत बड़ा जिगर चाहिए।
और वास्तविक क्षमा तब होती है जब क्षमा करने की ज़रूरत ही नहीं पड़े, क्योंकि क्षमा करने की ज़रूरत तो तब पड़ेगी न, जब हमें चोट लगेगी। चोट तो हमें लगी ही नहीं, तो हम तुम्हें माफ़ किस बात पर करें।
देखो, कितना मज़ा आएगा! किसी ने कुछ नुकसान कर दिया, अपशब्द बोल दिये, कुछ कर दिया, फिर उसको चार-छः महीने बाद पछतावा हो। और अपनी दृष्टि में वो ये सोच रहा है कि मैंने तो बड़ा नुकसान कर दिया है, बड़ा घाव दे दिया है। और वो चार-छः महीने बाद आये और आपके सामने खड़ा हो जाए और कहे कि गलती हो गयी थी, माफ़ कर दीजिए। और आप उसकी ओर देखें और पूछें, ‘वो तो सब ठीक है, पर आप हैं कौन?’
जितना व्याकुल वो आदमी इस बात से नहीं होता कि आप कह देते कि तुझे माफ़ कर दूँ, कमीने! ले थप्पड़। इस बात से उस पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता, वो इस बात के लिए तैयार होकर आया था। लेकिन उसकी बुनियाद हिल जाएगी, उसकी चूलें हिल जाएँगी जब आप कहेंगे कि बट हू आर यू, डू आइ नो यू (लेकिन तुम हो कौन, क्या मैं तुम्हें जानता हूँ)। तुम इतने बड़े हो नहीं, न तुम्हारे द्वारा दी गयी चोट इतनी बड़ी है कि वो मेरी शान्ति से बड़ी हो जाए? मैं तुम्हें याद क्यों रखूँ, तुम हो कौन? मुझे मेरे राम याद हैं, मुझे चोट लगी ही नहीं।
मुझे बड़ी चोट लगी होती तो मैं तुम्हें बड़ा याद रखता। दिन-रात चोट दुखती, और जितनी बार चोट दुखती उतनी बार मुझे तुम्हारा नाम याद आता, तुम्हारा चेहरा कौंधता। पर चोट तो मुझे लगी ही नहीं, तुम हो कौन? ये उस व्यक्ति पर आपका बदला भी होगा और ये उस व्यक्ति पर आपका उपकार भी होगा। आपने उसको बहुत बड़ी सीख दे दी, आपने उसको जीने का एक नया तरीका सिखा दिया। आपने उसको बता दिया कि चोट देने और चोट खाने के खेल से आगे भी कुछ और है। और वो जो चोट देने और चोट खाने के खेल से आगे है, वहाँ बड़ी आज़ादी है, बड़ा उल्लास है और बड़ी ताकत है, बड़ा अनूठापन है, बड़ी बादशाहत है। कुछ सीखकर जाएगा वो।
आप जिससे बदला लेते हैं, आप उसे और ज़्यादा वो बना देते हैं जिससे आपको बदला लेना पड़ा। आपकी नज़र में वो बुरा आदमी था, तभी आपको बदला लेना पड़ा न। उससे बदला लेकर आप उसे और ज़्यादा बुरा ही बना देते हैं। क्योंकि अब आपने बदला ले लिया है, अब वो क्या करेगा? वो कहेगा, ‘पिछली बार दो मारे थे इनको, इस बार चार मारूँगा।’
आपने उसे और ज़्यादा वही बना दिया, जिससे अब पुनः बदला लेने की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन जब आप बदला नहीं लेते, जब आप छोड़ देते हो तो आप उसे बहुत ताकतवर सन्देश भेज रहे हो — तुम बदल जाओ, मैं तुमसे बदला नहीं ले रहा, तुम बदल जाओ।
अब वो बदला, क्योंकि आपने नहीं लिया बदला। तुम बदला न लो, बहुत सम्भावना है कि वो बदल जाए। तुम बदला ले लो, वो बदलेगा ही नहीं।
और भी बहुत बातें हैं इससे सम्बन्धित कही जा सकती हैं, अन्तहीन हैं। एक चीज़ और आपको इसमें बताए देता हूँ। सच पर कोई आघात नहीं करता। जो ऊँची-से-ऊँची सत्ता है, कोई उससे लड़ना या उलझना नहीं चाहता। जब कोई आपको चोट पहुँचाता है न, तो वो कहीं-न-कहीं ये विश्वास पाले बैठा होता है कि आप नीचे आदमी हो।
हर इंसान किसी-न-किसी के सामने तो सिर झुकाता ही है न। सबका अपना एक व्यक्तिगत ईश्वर होता है, होता है न? उसके कई नाम हो सकते हैं, कई चेहरे हो सकते हैं, पर सबकी नज़र में कोई-न-कोई चीज़ कीमती, मूल्यवान, ऊँची ज़रूर होती है, मैं उसी को ईश्वर कह रहा हूँ। सब लोग किसी-न-किसी ऊँचाई के कायल ज़रूर होते हैं, होते हैं न? आपको जो चोट पहुँचाता है वो यही सोचकर पहुँचाता है कि आप ऊँचे नहीं हो।
आपने अगर पलटवार किया, तो वो जो सोच रहा था आपने उसी चीज़ को सही साबित कर दिया न। वो क्या सोच रहा था, कि आप ऊँचे नहीं हो। और आप उलझ गये उससे, लिपट गये उससे, मारने-पीटने लगे उसको, तो आपने यही साबित कर दिया कि वो बिलकुल सही सोच रहा था, आप ऊँचे नहीं हो।
लेकिन जब वो आपको चोट पहुँचाता है और आपकी ओर से कोई प्रतिकार आता नहीं, क्योंकि चोट आपको लगी ही नहीं, तो आपने उस व्यक्ति को क्या साबित कर दिया, कि बेटा तुम मुझे जो सोच रहे थे, मैं वो हूँ नहीं। तुम मुझे बहुत नीचा आदमी समझ रहे थे, तुम सोच रहे थे कि तुम मुझे चोट पहुँचाओगे और मैं उबल पड़ूँगा, उफन पड़ूँगा। मैं वो हूँ ही नहीं जो तुम्हें प्रतीत हो रहा है, तुमने गलत छवि बना ली मेरी। तुम मुझे बेटा आज तक समझ ही नहीं पाये, मैं चीज़ दूसरी हूँ।
प्रमाणित कर दिया आपने कि जो आप पर हमला करने आया है, वो गलत है। और बहुत स्पष्ट रूप से आपने प्रमाणित कर दिया। अब जो आप पर हमला करने आया था, वो मजबूर हो जाएगा बदलने के लिए। उसे पूछना पड़ेगा आपनेआप से कि मेरे अनुमान, मेरी गणनाएँ इतने गलत कैसे हो गये, मैंने गलत आदमी पर गोली कैसे चला दी।
मैं लोगों को इतना गलत कैसे समझ लेता हूँ, कुछ-का-कुछ कैसे मान लेता हूँ। और अगर मैं एक मामले में इतनी गलती कर बैठा, तो यह भी तो सम्भव है कि बाक़ी सब लोग भी जो हैं मेरी ज़िन्दगी में, उनको लेकर के मेरी धारणाएँ गलत हों।
अगर मैं ऊँचे को नीचा मान बैठा हूँ, तो इसका मतलब यह भी तो है कि जो नीचे हैं उनको मैं ऊँचा मान बैठा हूँ। आपने उस व्यक्ति के ज़ेहन में भूचाल खड़ा कर दिया है।
अब उसे विवश होकर के अपनी ज़िन्दगी का पुनरावलोकन करना पड़ेगा। उसे अपने पूरे संसार को ही दोबारा देखना और रखना पड़ेगा। उसे पूछना पड़ेगा, ‘क्या मैं कुछ भी जानता हूँ? क्या मैं कुछ भी सही समझता हूँ?’
ये आपका उपकार हुआ उसपर और सही बदला भी। सही बदला वो जो बदलाव ला दे। सही बदला वो जो बदलाव ला दे। कौनसा बदलाव, सतही नहीं गहरा, आन्तरिक।