प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या वृत्तियों से पूर्ण मुक्ति संभव है?
आचार्य प्रशांत: एक भ्रांति है जिसका निवारण आवश्यक है। भ्रांति यह है कि मनुष्य जीव कभी भी अपनी मूल-वृत्ति से समूल मुक्त हो सकता है। हम सबकी इच्छा रहती है कि किसी ऐसी प्रक्रिया से गुज़र जाएँ जो हमें एक-बारगी ही सदा के लिए मुक्ति दे दे।
अभी, विशाल जी (एक श्रोता) ने जैसी अपनी इच्छा अभिव्यक्त की, कि एक बार में ही क्लींजिंग (सफ़ाई) पूरी हो जाए। वैसा नहीं हो सकता। कुछ है आपकी हस्ती में, कुछ है आपके देहयुक्त होने में जो देह के रहते बना ही रहेगा। देह है तो वह है। देह ही क्यों है? देही के बिना देह का होना संभव नहीं। कोई तो है न जो देहधारी है? कोई तो है न जो देह से संयुक्त हुआ बैठा है? कोई तो है न जो देह को पकड़े हुए है? कोई तो है न, देह की ओर उँगुली करके, इशारा करके कहता है, “यह मैं हूँ”? तो जब तक देह है, तब तक वह भी है। वास्तव में वह पहले है, देह बाद में है। देह का होना उसकी उपस्थिति का सबूत है।
देह का होना ही उस ‘मैं’ वृत्ति के होने का सबूत है जो देह को अपना नाम देती है, जो देह को चोट लगने पर कहती है, “मुझे कष्ट हुआ,” जो देह की सुरक्षा की ख़ातिर शंकित रहती है। तो यह तो बात बड़ी मज़ेदार हो गई, अहम् का सीधा संबंध देह से है। तो जैसे देह से संबन्धित बहुत सारे काम तुम जीवन भर करते ही रहते हो—जीव है तो जीवन है, जीवन माने जीव की उपस्थिति—जीवन रहते बहुत सारे काम हैं जो तुम लगातार करते ही रहते हो, इसी तरीक़े से जब तक जीवन है, तब तक तुम्हें आध्यात्मिक प्रक्रिया का भी पालन करना पड़ेगा, वह कभी निपट नहीं जाने वाली।
और देखो कि निपटाने की कितनी जल्दी है हमको। यह बात मीठी भी है और डरावनी भी। मीठी इसलिए है क्योंकि आध्यात्मिक प्रक्रिया को जल्दी से निपटा देने की आतुरता यह बताती है कि मुक्ति के कितने प्यासे हो तुम। तुम कहते हो कि मुक्ति की प्रक्रिया को जल्दी से पूरा कर दीजिए ताकि हम पूरी तरह मुक्त ही हो जाएँ।
तो मैंने कहा यह बात मीठी है और मैं यह भी कह रहा हूँ कि निपटाने की जितनी हड़बड़ी में हो तुम, वह बात डरावनी भी है। डरावनी क्यों है? डरावनी इसलिए है क्योंकि तुम कभी नहीं कहते की जल्दी से कुछ ऐसा कर दीजिए कि रोज़ भोजन करने की अनिवार्यता ख़त्म हो जाए, भोजन भी देह से संबन्धित है न? तुम कभी नहीं कहते कि जल्दी से कुछ ऐसा कर दीजिए कि साँस लेने का बोझ ख़त्म हो जाए, साँस भी देह से संबन्धित है न?
तुम कभी नहीं कहते कि देह से जुड़े हुए जितने रिश्ते-नाते हैं, जल्दी से कोई ऐसी प्रक्रिया कर दीजिए कि वो सारे रिश्ते-नाते चले ही जाएँ, कभी नहीं कहते न? तो देखो अपने चित्त को कि देह से जुड़ी बाक़ी जितनी बातें हैं, उनको तो तुम लिए-लिए फिरने के लिए ख़ूब तैयार हो, इसलिए यह बात डरावनी है।
आध्यात्मिक प्रक्रिया को लेकर कहते हो, “गुरुवर, कृपा करिए कि एक बार में ही यह ख़त्म हो जाए।” और अध्यात्म का संबंध भी देहभाव के मिट जाने से ही है; अध्यात्म का संबंध भी इस तरह से देह से ही है। अध्यात्म को तो चाहते हो जल्दी से पूरा हो जाए और देह से जुड़े बाक़ी जितने काम हैं, उनको तुम मज़े में करे जाते हो, क्योंकि उनसे तुमने अब तादात्म्य बना लिया है, उनमें तुमको अब रस आने लगा है।
और इसीलिए तुम्हारी जो पहली माँग है, वह पूरी नहीं होगी क्योंकि दूसरी का तुम्हारा कोई इरादा नहीं है। पहली क्या है? आध्यात्मिक मुक्ति, जिसको तुम कहते हो कि मुक्ति मिले। और दूसरी बात क्या है? लोक से मुक्ति। तुम लोक से मुक्ति नहीं चाहते, तुम किसी आध्यात्मिक तल पर, किसी आध्यात्मिक आयाम में मुक्ति के आकांक्षी हो। यह कैसे होगा, बताओ मुझे।
तुम आध्यात्मिक मुक्ति के आकांक्षी हो, यह बड़ी मीठी बात है, बड़ा प्रिय लगा सुनने में, लेकिन आध्यात्मिक मुक्ति होती क्या है? आध्यात्मिक मुक्ति यही तो होती है कि देह के जो पचड़े-लफड़े हैं, ये जो पचास तरीक़े के संकट, झंझट हैं, जिनमे तुम व्यर्थ सिर खपा रहे हो, इनसे आज़ाद हो जाओ। इनका नाम तुम कभी नहीं लेते। यह इच्छा कभी नहीं व्यक्त करी कि यह सब ख़त्म हो। हाँ, यह ज़रूर कह दोगे कि “गुरुवर, आध्यात्मिक मुक्ति, जो कुछ भी होती हो, कुछ होती होगी बड़ी हसीन-सी चीज़, वह एक बार में मिल जाए, तीन दिन के शिविर में तुरंत प्राप्त हो जाए।”
बात समझ में आ रही है?
वह तीन दिन में प्राप्त नहीं होगी। जब तक शरीर है, तब तक व्यायाम करना पड़ता है न? बोलो। जब तक शरीर है, उसे भोजन देते हो न? देते हो न? तो जिस दिन तक शरीर है, उस दिन तक तुमको साधना भी करनी पड़ेगी। जल्दी फ़ुर्सत नहीं पाने वाले बच्चू। तुम कोई जुगाड़ चाहते हो? वह नहीं मिलेगा। और न तुम यह कह सकते हो कि हमने तो बड़ा व्यायाम किया है बीस साल, तो अब बिलकुल नहीं करेंगे, अब हमारी पूर्ण निवृत्ति हो गई है व्यायाम से। अब तो हम बस बैठ करके खाएँगे।
तुम बीस साल के पहलवान हो सकते हो, बीस साल तक तुमने ख़ूब वर्जिश की है, तन का ख़ूब ख़्याल रखा है और बस दो-चार साल उसके बाद घर पर बैठ जाओ और खाओ, क्या होगा? किया होगा बीस साल जो किया होगा; शरीर मिट्टी हो जाएगा। यही बात आध्यात्मिक साधना के साथ भी लागू होती है, तुम ऐसा ही मानो।
वृत्ति का हमला चूँकि प्रतिदिन है, इसीलिए साधना भी प्रतिदिन चाहिए। अरे! प्रतिदिन ही क्यों है! वृत्ति का हमला चूँकि निरंतर है, इसीलिए साधना भी प्रतिपल चाहिए, अहर्निश चाहिए। इस प्रक्रिया का कोई पूर्ण विराम नहीं होता; उस पर तो पूर्ण विराम तभी लगेगा जब तुम पर विराम लग जाए। और तुम पर विराम लगने नहीं वाला, जब तक तुम ज़मीन पर चल रहे हो, फिर रहे हो, साँस ले रहे हो, खा रहे हो।
मुक्ति को कोई बिंदु या पल मत मानो। मुक्ति को कोई पड़ाव मत मानो। मुक्ति को कोई मंज़िल मत मानो, कोई घटना मत मानो। उसे किसी विशेष शुभ दिवस का मोहताज मत बना दो। मुक्ति को एक बड़ी आनंदप्रद, अनंत यात्रा जानो। वह यात्रा ऐसी नहीं है जिसके अंत में मुक्ति है; वह यात्रा ही मुक्ति है।
तो मुक्त कौन?
जो मुक्ति की यात्रा पर चल रहा है।
अमुक्त कौन? बद्ध कौन?
जो ठहर गया।
और तुम अक्सर बड़ी उलटी बात करते हो, तुम कहते हो, “काश! कि मुक्ति मिल जाए, ताकि ठहर जाएँ।” न, जो ठहर गया, वह तो बंधन में फँस गया। ठहरना नहीं है, चलते रहना है। मुक्ति की ओर चलते रहना है, मुक्ति की यात्रा में, फिर समझना, मंज़िल नहीं है मुक्ति, यात्रा ही है मुक्ति। इसीलिए आनंद यात्रा में ही है। आमतौर पर तुमको आनंद मिलता है मंज़िल पा लेने पर, पर मुक्ति की यात्रा विशेष है, उसमें चलते रहने में आनंद है। जो चल रहा है, वह आनंदित है। जो किसी भी भ्रमवश रुक गया, जिसने यह मान लिया कि वह तो अब मुक्त हो ही गया, वही फँसा।
तो दो तरह के लोग हैं जो फँसते हैं, एक वो जो यात्रा शुरू ही नहीं करते, क्योंकि कहते हैं कि “अरे! मंज़िल ही बड़ी दूर है, कैसे मिलेगी हमको, हम तो छोटे आदमी हैं।" और अब तुम्हें ताज़्ज़ुब होगा लेकिन सुनो, वो भी बराबर के फँसते हैं जो घोषणा कर देते हैं कि “हमें तो मुक्ति मिल गई और अब हम रुक जाएँगे।”
अगर कभी भी तुम्हें यह धारणा हो गई, कभी भी तुमने यदि यह मान लिया, यह गर्व कर लिया कि तुम तो मुक्त हो ही गए, वही पल तुम्हारे सबसे कड़े बंधन का होगा। मुक्ति उनकी है जिन्हें मुक्ति प्यारी है, मुक्ति उनकी है जो मुक्ति में चल रहे हैं लगातार मुक्ति की ओर। इस वाक्य पर बहुत ग़ौर करो। आमतौर पर जब तुम किसी दिशा में जा रहे होते हो, तो जब तक पहुँचे नहीं, तब तक पाया नहीं, ठीक? तुम एक पेड़ की दिशा में जा रहे हो जिस पर सेब लगा हुआ है, जब तक पेड़ तक पहुँचे नहीं, तब तक सेब पाया नहीं।
मुक्ति की यात्रा दूसरी है। इसमें तुम प्राप्ति में चलते हो प्राप्ति की ही तरफ़। तुम कहोगे कि अगर प्राप्ति पहले से ही है, तो प्राप्ति की तरफ़ क्यों जा रहे हैं! यह यात्रा ऐसी ही है। ग़ौर करो, ध्यान करो, विचार करो कि इस बात का अर्थ क्या है।
तुम मुक्ति में चलते हो मुक्ति की तरफ़, तुम प्राप्ति में चलते हो प्राप्ति की तरफ़, तुम अनंतता में चलते हो अनंतता की तरफ़, तुम पूर्णता में चलते हो, पूर्णता की तरफ़, तुम आनंद में चलते हो, आनंद की तरफ़। बस रुकना नहीं है। न तो यह कह देना है कि अभी व्यस्त हूँ, यह यात्रा कर नहीं सकता, न यह कह देना है कि मेरी यात्रा पूरी हो गई। चलते रहना है, चलते रहना है।
जो कह देते हैं कि मैं व्यस्त हूँ, अभी चल नहीं सकता, वो संसारी कहलाते हैं। है न, कि वो रोज़ के ही काम-धंधों में ऐसे पचे हुए हैं कि कहते हैं कि “हमें इस यात्रा के लिए तो फ़ुर्सत ही नहीं है।” उन बेचारों पर तो इल्ज़ाम लग जाता है कि तुम कैसे लोग हो, आत्मा-परमात्मा की तुम्हें कोई सुध ही नहीं है, तुम घर-दुकान में ही फँसे हुए हो, बराबर के ही दोषी वो भी हैं जो कह देते हैं कि “बच्चा! हमारी यात्रा आज से दस वर्ष पहले समाप्त हो चुकी है।"
पर हम अजीब लोग हैं, जो यात्रा शुरू नहीं करते, उनको तो तिरस्कृत करते हैं और जो कोई आ करके दावा कर दे कि मेरी यात्रा तो समाप्त हो गई, उनको हम ब्रह्मज्ञानी बता करके सिर पर चढ़ा लेते हैं। नतीजा? नतीजा यह है कि हममें से हर कोई जल्दी-से-जल्दी अपनी यात्रा ख़त्म करने का इच्छुक है। बात को समझो।
तुमने देखा ही क्या आज तक? तुमने यही तो देखा है न कि जिन भी लोगों ने घोषणा कर दी कि हमारी यात्रा अब समाप्त हुई, वही लोग अब सम्मान के पात्र बने, पूजनीय हो गए? यही देखा है न? आज भी जब कोई आध्यात्मिक पदवी, स्थान, सम्मान हासिल करना चाहता है तो वह सर्वप्रथम क्या घोषणा करता है? “मैं मुक्त हो गया, मेरी यात्रा पूर्ण हुई, मेरा उद्बोधन हो गया, फलानी रात को मेरा एनलाइटेनमेंट (मोक्ष) हो गया।" और जैसे ही उसने यह कहा, वैसे तुम कहने लगते हो, “आप पूज्य हुए, आप श्रद्धेय हुए, आपके चरण कहाँ हैं, श्रीमान्?”
तो फिर इसीलिए तुम्हारे मन में अपने लिए भी यही इच्छा उठती है कि जब यात्रा ख़त्म करना इतनी ऊँची बात है कि यात्रा ख़त्म करने वालों की हम वंदना करते हैं, तो काश! मेरी भी यात्रा जल्दी-से जल्दी समाप्त हो जाए। और इसीलिए फिर सवाल आया है कि “एक बार में ही अब फ़ारिग़ हो लें, निपटा ही दें। गुरुदेव, इस शिविर में कोई ऐसा बाण मारो कि तीन दिन में ही काम हो जाए।”
बात पूरी समझ में आ रही है?
देख रहे हो तुम्हारी इच्छा कहाँ से उठ रही है? यह भी देखो कि तुम्हारी यह इच्छा कहाँ से आ रही है और यह भी देखो कि तुम्हारी यह इच्छा कितनी घातक है। माया जिनको सदा के लिए बंधन में रखना चाहती है, उनके कान में फूँक आती है कि तुम मुक्त हुए।
जिस दिन तुम्हें यह लगने लग जाए न कि तुम मुक्त हुए, उस दिन सिर पीट लेना अपना।
अब बताओ, “मुक्ति चाहिए, कि यात्रा?”
प्रश्नकर्ता: यात्रा।
आचार्य प्रशांत: ठीक, करते रहो फिर।
उदयपुर से आ रहा हूँ, प्रयाग पहुँचा हूँ, ऋषिकेश जाऊँगा। वहाँ से कहीं ओर का होगा। अभी पता भी नहीं। यात्रा है, हर तल पर यात्रा है। शरीर के तल पर यात्रा है, मन के तल पर यात्रा है। यात्री हो तुम, यात्री ही रहोगे।
आँखों में और नज़र में वह बसा रहे जिसकी ख़ातिर यात्रा है, जिसकी तरफ़ यात्रा है, जिसके होने से यात्रा है, जो भीतर बैठा है तो यात्रा है। मंज़िल को हृदय में बसाकर यात्रा करते रहो, तुम मंज़िल पर ही हो फिर!