आचार्य प्रशांत: शादी की बात करी तुमने, शादी न अच्छी है न बुरी है। बिलकुल साफ़-साफ़ देखो शादी का मतलब क्या होता है। हटाओ शब्दों को, रस्मों को, रिवाजों को, मान्यताओं को। जीवन का अर्थ, मैंने कहा, वो है जो चौबीस घंटे तुम अनुभव कर रहे हो। तो शादी का क्या अर्थ हुआ? शादी का अर्थ हुआ कि अब तुम चौबीस घंटे अपने जीवन में एक अन्य व्यक्ति की मौजूदगी अनुभव करोगे।
विवाहोत्सव तो एक दिन का ही होगा न, एक रात के फेरे, एक रात की दावत, अरे चलो दो-चार रातों की। फिर तो सब बीत जाना है, एलबम बस बचेगा। उसके बाद जीवन भर के लिए तुम्हारे साथ अब क्या है?
बिलकुल ज़मीन पर आकर देखो। ये सब छोड़ो कि रिश्ते स्वर्ग में बनते हैं और सात जन्म का बंधन है, इत्यादि, इत्यादि। ये सब बातें हटाओ, ज़मीनी अनुभव क्या होने वाला है तुम्हारा? अनुभव ये होगा कि फेरों से पहले तुम तुम थे, कुछ लोग थे तुम्हारे जीवन में। और फेरों के बाद, अब तुम ने चौबीस घंटे के लिए किसी को अपने जीवन में जगह दे दी है। और वो जो जगह है वो तुम्हारे अनुसार धर्म-सम्मत है, समाज-सम्मत है, परिवार-सम्मत है, तो वो जगह देने के बाद जगह तुम छीन भी नहीं सकते।
विवाह का मतलब हुआ कि अब कोई है जो तुम्हारे ही बिस्तर पर सोएगा। बिलकुल फर्श की बात कर रहा हूँ, हटाओ आसमानों की रूमानी कल्पनाएँ। कोई है जिसके साथ अब भोजन करोगे-ही-करोगे। एक तरह की अनिवार्यता है। बाहर हो तो अलग बात है, नहीं तो करोगे-ही-करोगे। कोई है जिसको अब तुम्हें समय देना ही पड़ेगा और नहीं समय दोगे तो जवाबदेही होगी, उत्तरदायी हो जाओगे, हमें समय क्यों नहीं देते। कोई है जिसके साथ घूमना ही पड़ेगा।
ले-देकर के सारी बात बैठी संगत की। विवाह का मतलब हुआ कि तुमने अब जीवन में किसी एक व्यक्ति की अनिवार्य संगत आमंत्रित कर ली, ठीक? यही हुआ न। अब एक चेहरा है जिसको देख ही रहे हो तुम चौबीस में से बारह घंटे नहीं तो अठारह घंटे। अब ये होकर रहेगा, उस चेहरे से अब तुम पीछा नहीं छुड़ा सकते। विवाह का ये मतलब होता है कि तुम्हारी ज़िंदगी में एक चेहरा अब अनिवार्य रूप से शामिल हो गया। तुम्हें उस चेहरे को अब देखना-ही-देखना है। सोते भी देखोगे, जगते भी देखोगे, खाते देखोगे, नहाते देखोगे, देखते ही जाओगे।
और संगत का तुम जानते ही हो मन पर क्या असर होता है। गुरुओं ने बार-बार समझाया है, मैंने भी बार-बार कहा है कि अगर कोई एक चीज़ है जो जीवन को स्वर्ग या नर्क बना सकती है तो वो संगत है। सुसंगति कर ली तो धरा पर ही स्वर्ग है, कुसंगति कर ली तो इससे बड़ा नर्क दूसरा नहीं। विवाह का मतलब है इतनी गहरी संगत कि शयन कक्ष तो शयन कक्ष है, शौचालय भी एक ही रहेगा। कल्पना में ही अनुभव कर लो, ये होने जा रहा है।
हम विवाह आदि का निर्णय लेते समय इतना साफ़-साफ़ और इतनी गहराई से कभी सोचते नहीं। हमारे लिए चीज़ें अधिकांशतः बस एक रूमानी कल्पना होती हैं। संगति से ज़्यादा ताक़तवर प्रभाव हमारी ज़िंदगी में दूसरा नहीं होता और अगर किसी की तुम चौबीसों घंटे अनिवार्य संगति कर रहे हो, तो ये बहुत-बहुत बड़ा निर्णय है।
यहाँ बैठे हो, इस अवसर को ही हमने नाम दिया है सत्संग का। समझाने वालों ने बार-बार यही समझाया है कि एक ही संगति करने योग्य है सत्य की, बाक़ी सब संगतियाँ व्यर्थ ही हैं। बल्कि वो तुम्हारे लिए बड़े कष्ट का कारण बनेंगे, ख़ासतौर पर अगर संगति ऐसी हो कि वो की ही गयी है शरीर को केंद्र में रखकर। जब संगति के केंद्र में ही देहभाव हो तो वो संगति सुसंगति तो नहीं कहला सकती न, या क्या कहलाएगी? विवाह तुम इसलिए तो करते नहीं कि मुक्ति प्राप्त होगी। अगर विवाह तुम इसलिए कर रहे होते कि मुक्ति प्राप्त होगी तो सबसे बड़ा समर्थक विवाह का मैं ही होता, मैं कहता जाओ करो।
मुक्ति को ध्यान में रखकर, मुक्ति को केंद्र में रखकर, अगर तुम संगति कर रहे हो किसी की — जब ये निर्णय हम ले रहे होते हैं, इन निर्णयों के केंद्र पर, भाव क्या बैठा होता है, इच्छा क्या बैठी होती है, ये सब जानते हैं। विवाह के क्षण में यदि पता हो तुम्हें कि कामसुख कभी उपलब्ध होने वाला नहीं तो क्या तब भी हामी भरोगे?
विवाह करते वक़्त कितनी बार ये जाँचते हो कि जिसके साथ अब समय गुज़ारने जा रहे हो उसकी सत्यनिष्ठा कितनी है? आदर्श कुछ भी हो, यथार्थ हमें पता है। चेहरा देखते हैं न, शरीर देखते हैं न, ठीक है उसके अतिरिक्त भी कुछ देख लेते हैं, पर कितनी ज़्यादा प्राथमिकता रहती है चेहरे की और शरीर की। जो सम्बन्ध शुरू ही इस आधार पर हुआ हो, वो मुक्ति का वाहक तो नहीं बनेगा, कि बनेगा?
सुसंगति उसे ही कहते हैं न जिसके होने से अंधेरा मिटे, बादल छँटे, बंधन कटें। अगर इन लक्ष्यों को ध्यान में रखकर के विवाह कर रहे हो तो ज़रूर करो। पर सच-सच बता देना कितने लोगों का विवाह करते समय लक्ष्य यह होता है कि विवाह करेंगे तो भ्रम मिटेगा, आंतरिक अंधेरा कटेगा, बोध उठेगा, मुक्ति आएगी। अगर ये लक्ष्य है तुम्हारा तो मैं कह रहा हूँ ज़रूर करो विवाह, पर ये लक्ष्य है क्या?
एक व्यक्ति बहुत कुछ हो सकता है, वो वास्तव में होता क्या है ये तो निर्भर इसपर करेगा कि तुम उसके पास जा किस मंशा से रहे हो। कोई होगा बहुत बड़ा वैज्ञानिक, उसकी भी पत्नी ने उससे इसलिए तो नहीं विवाह किया था कि विज्ञान सीखेगी या किया था? तो पत्नी के लिए तो वो वैज्ञानिक पति भी एक देह मात्र ही है न। तुम्हारी पत्नी बहुत ज्ञानी हो, बड़ी भक्त हो, तो भी तुम उससे इसलिए तो विवाह नहीं करते न कि शास्त्र सीखोगे और भक्ति सीखोगे? इस रिश्ते की संरचना, इसकी डिजाइन ही कुछ ऐसी है कि तुम दूसरे को देखते ही प्रथमतया शरीर की ही भाँति हो। वो और कुछ भी हो सकता है, पर वो बाद में होगा। सबसे पहले तो वो शरीर ही है न दृष्टि में तुम्हारी।
कानून तक ये कहता है कि अगर कुछ महीनों तक या साल भर दैहिक सम्बन्ध नहीं बन रहे तो कानूनन तुम सम्बन्ध-विच्छेद कर सकते हो, तलाक़ ले सकते हो। कानून तक इस बात को मानता है कि इस रिश्ते के मूल में सबसे पहले देहभाव बैठा है। तुम जाकर के न्यायालय में यह साबित कर दो कि छः महीने से तुम्हारे और तुम्हारी पत्नी के बीच में शारीरिक सम्बन्ध नहीं है। न्यायालय सहमत हो जाएगा, कहेगा ठीक है तलाक़ हो सकता है।
आप कुछ भी हो सकते हो ऊँचे-से-ऊँचे। पत्नी बड़ी विदुषी है, उसका विदुषी होना तुम्हारे लिए बाद में आएगा। सबसे पहले क्या देखोगे उसमें? देह ही देखोगे। पति बड़ा चित्रकार है, बड़ा ज्ञानवान है, बड़ा कोई खिलाड़ी है, कोई राजनेता है, कुछ भी हो सकता है; लेकिन पत्नी के लिए सर्वप्रथम वो एक देह है। बाक़ी सब चीज़ें भी वह है, पर बाद में।
बहुत ऊँची तुम्हें कोई मिल रही हो पत्नी, बहुत-बहुत ऊँची, प्रकांड अर्थशास्त्री हो तुम्हारी पत्नी। दुनिया के किसी ऊँचे बैंक की गवर्नर (नियंत्रक) हो, उससे बढ़िया इकोनॉमिस्ट (अर्थशास्त्री) पूरी दुनिया में न हो। पर अगर वो कहे कि मैं तुमसे विवाह इस शर्त पर करूँगी कि दैहिक सम्बन्ध नहीं रहेगा तो कर लोगे शादी? उसका इकोनोमिस्ट होना तुम्हारे लिए दो कौड़ी की बात हो जाएगी। तुम कहोगे होगी बहुत बड़ी इकोनामिस्ट अगर सेक्सी (कामोत्तेजक) नहीं है तो शादी कैसी। बोलो, इस सम्बन्ध का जब आधार ही देह है तो ये सम्बन्ध कहाँ से तुम्हें मुक्ति दे देगा? ये सम्बन्ध तुम्हें वही देता है जो इसके आधार में है। देह पर आधारित सम्बन्ध है तो कई और देहें पैदा हो जाती हैं। जहाँ से शुरू किया वही मिल जाता है। जो बोया, वही काट लेते हो।
हाँ, कोई स्त्री, कोई पुरुष इस नाते साथ-साथ रहना चाहें कि एक-दूसरे की संगति में दोनों के मन का बोझ उतर जाता है, दोनों एक अपूर्व हल्कापन अनुभव करते हैं, एक के होने से दूसरे को कुछ ऐसा समझ में आ जाता है जो पहले नहीं समझ में आता था, एक की उपस्थिति दूसरे के प्राण को ही प्रकाश से भर देती है, तो फिर उनकी संगति शुभ कहलाएगी। अब वो विवाह करें कि न करें, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उनके मन में आये तो ले लें फेरे, मन में न आये तो यूँही मित्रवत साथ-साथ रहें। ये विवाह हुआ कोई विवाह, ये बनी बात! क्योंकि इसमें स्त्री और पुरुष के साथ रहने का आधार यह नहीं है कि आओ अब सामाजिक अनुमति मिल गयी है तो काम का खेल खेलेंगे, परिवार बढ़ाएँगे, बच्चे पैदा करेंगे, ये आधार नहीं है अब।
अब आधार दूसरा है। अब आधार यह है कि तुम होते हो तो ज़िंदगी रौशन हो जाती है। और रौशन ऐसे नहीं हो जाती कि वासना के फूल खिलते हैं, रौशन ऐसे हो जाती है कि बोध चमकता है। रौशन ऐसी हो जाती है कि दिमाग पर तमाम जो उलझन, झंझट अक्सर छाये रहते हैं वो हट जाते हैं। तब बनी बात, ये हुए असली पति-पत्नी!
पर ऐसे पति-पत्नी देखने को ही नहीं मिलते। देखने को इसलिए नहीं मिलते क्योंकि विवाह पूर्व हम कभी ऐसा रवैया रखते ही नहीं, ऐसा हम चाहते ही नहीं कि पत्नी के रूप में मित्र मिल जाए, कि गुरु मिल जाए। बल्कि जाओगे लड़की देखने, कोई लड़की मिल गयी जो गुरुओं सी बातें करे तो सबसे पहले भागोगे। कहोगे कि गुरु गुरु होता है, पत्नी पत्नी होती है। 'पत्नी अगर इतनी साध्वी हो गयी तो वैवाहिक जीवन में फिर रस कहाँ रह जाएगा। अध्यात्म और शास्त्र और सत्य की बातें, हम कहेंगे कि शोभा देती हैं सत्संगों में, घर में तो मज़ा तभी आता है जब ज़रा छौंक लगे।
पत्नी ऐसी मिल गयी जो घर में भी ग्रंथों की और शास्त्रों की चर्चा कर रही है तो फिर वो कुलबुला मज़ा कैसे आएगा कि ओ जी सुनो जी, और वो रोमांस और वो फ़िल्मी अंदाज़ और वो नखरे और वो अदाएँ फिर उनका रस कैसे मिलेगा। तो विदुषी पत्नी नहीं चाहिए। थोड़ी तो सेक्सी होनी चाहिए न, शास्त्र वग़ैरा ठीक है मंदिर गुरुद्वारे के लिए, घर में तो कार्यक्रम दूसरा होना चाहिए। शयन कक्ष और पूजा कक्ष एक ही थोड़े ही होते हैं।'
जो कुछ भी करने जा रहे हो, इरादा क्या है? चाह क्या रहे हो? जीवन में किसको लिए आ रहे हो, यह तो बताओ। और जो तुम्हें ज़ोर देकर कहते हों कि कर लो विवाह आदि, उनसे भी पूछ लो कि विवाह माने क्या। ठीक-ठीक क्या करवाना चाहते हो तुम मेरे साथ? क्या करवाना चाहते हो? मेरे मन, मेरे जीवन में तुम किसी का प्रवेश करा देना चाहते हो, किसका? संतों का प्रवेश हो समझ में आता है, शास्त्रों का प्रवेश हो समझ में आता है, गुरु का प्रवेश हो समझ में आता है, किसी हितैषी मित्र का प्रवेश हो समझ में आता है। पर हे माता जी, पिताजी, आप किसका प्रवेश करा रहे हो मेरे जीवन में और किसलिए? आप भी समझा दो थोड़ा।
समझ में आ रही है बात?
इसमें कोई हानि (at 21:31) नहीं है कि किसी स्त्री के जीवन में कोई पुरुष आ जाए या किसी पुरुष के जीवन में कोई स्त्री आ जाए, इसमें कोई बुरा नहीं हो गया। पर क्यों आ रहा है? यह सवाल तो पूछना पड़ेगा न, और उसके आने का असर क्या पड़ेगा? ये सवाल तो पूछना पड़ेगा न या नहीं पूछना है? यूँही किसी को अपने कमरे में घुसेड़ लोगे? मज़ाक की बात है? तुम ने किसी को अपने बिलकुल अंतरंग क्षेत्र में साधिकार प्रवेश दे दिया है, प्रवेश मात्र ही नहीं, साधिकार, हक़ के साथ; किसको और क्यों? किसकी भलाई है इसमें? अगर भलाई हो तो निसंदेह आगे बढ़ो, भलाई न हो तो ज़ाहिर सी बात है आगे मत बढ़ो।
बात न नैतिकता की है न बात नियमों की है। प्रदीप (प्रश्नकर्ता), अध्यात्म में कोई नियम नहीं है जो कहता हो कि शादी मत करना। अध्यात्म को शादी से कोई लेना-ही-देना नहीं है। अध्यात्म का लेना-देना किससे है? सत्य से। तो अध्यात्म सीधे कहता है कि तुम्हारा विवाह अगर तुम्हें सत्य की ओर बढ़ाएगा तो ज़रूर करो और तुम्हारा विवाह अगर तुम्हें भ्रमों और बंधनों की तरफ़ ढकेल देगा तो तुम मत करो। करना हो तो करो, न करना हो तो न करो। अध्यात्म को विवाह में कोई रुचि ही नहीं है।
वो तो एक ही कसौटी पर कसता है तुम्हारे हर निर्णय और हर कर्म को कि तुम्हारे इस निर्णय से, तुम्हारे इस कर्म से जीवन में शांति और मुक्ति आएँगे या उपद्रव और बंधन आएँगे। विवाह मात्र के निर्णय की बात नहीं है।
तुम्हें अगर यह निर्णय करना हो कि फ़लानी दुकान खोलूँ की न खोलूँ, पढ़ाई किधर को आगे बढ़ाऊँ, किस शहर में बसने जाऊँ, कोई बात पूछूँ कि न पूछूँ, किसी जगह पर क्या कहना उचित है, क्या कहना उचित नहीं है? तुम्हारे हर सवाल का जवाब अध्यात्म एक ही कसौटी से दे देगा। क्या है वो कसौटी? जो करने जा रहे हो, जो कहने जा रहे हो, जहाँ बसने जा रहे हो, जो निर्णय लेने जा रहे हो, उस निर्णय से अगर 'उसके' क़रीब आते हो तो ज़रूर लो वो निर्णय, और उस निर्णय से अगर उससे दूर जाते हो, तो तौबा-तौबा।
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