प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अध्यात्म में जाना है कि सुख-दुःख, लाभ-हानि, अनुकूल-प्रतिकूल, जन्म-मरण; यह सब भाग्य के अधीन है। मेरे अनुभव से जब भी मैंने अपनी बुद्धि से कुछ चुनाव किया, वो ग़लत ही निकला। अब तो अपनी बुद्धि और चुनाव से भरोसा उठ गया है।
तो अगर सब कुछ भाग्य के ही अधीन है, तो क्या हमें अपनी ओर से जीवन को दिशा-निर्देश नहीं देना चाहिए? कृपया समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: जो कुछ बाहर से आ रहा है, वो तो भाग्य के ही अधीन है। आप उस पर कोई नियंत्रण नहीं कर सकते। तो सुख-दुःख, लाभ-हानि, अनुकूल-प्रतिकूल, जन्म-मरण, जाहिर सी बात है कि ये सब तो बस संयोग है। इन पर हमारा क्या बस? इसका अर्थ यें नहीं है कि किसी भी चीज़ पर आपका बस नहीं है। इस श्लोक में (यहाँ पर) बस ये गिनाया गया है कि किन-किन चीज़ों पर आपका बस नहीं है, ताकि आप उन पर नियन्त्रण करने की व्यर्थ कोशिश छोड़ दें।
भाई! जिस चीज़ पर नियंत्रण किया ही नहीं जा सकता, उसको नियंत्रित करने की आप कोशिश करेंगे तो अपना समय, ऊर्जा सब खराब ही करेंगें न। इसलिए बताया गया है कि देखो तुम इन चीज़ों को रोकने की कोशिश मत करना। हमें नहीं पता कि हवा कब बहने लग जाएगी। हमें नहीं पता कि पेड़ की चिड़िया कब चहचहा उठेगी। हम नहीं जानते कि कब बारिश हो जाएगी।
इन बातों पर नियंत्रण करने की कोशिश मत करो, हालाँकि इन चीज़ों पर नियंत्रण करने की कोशिश हमारी बहुत रहती है, क्योंकि उससे हमें सुरक्षा की एक झूठी भावना मिलती है।
आदमी जीवन भर इन्हीं चीज़ों पर तो किसी तरह का बस पाना चाहता है न। मौत से बच जाऊँ। सुख पर अपना एक शाश्वत नियंत्रण कर लूँ। दुःख से किसी तरह बचे रहने की आश्वस्ति पा लूँ। आदमी उन चीज़ों को नियंत्रित करना चाहता है, उस आयाम में सुरक्षा पाना चाहता है, जहाँ किसी तरह की सुरक्षा हो नहीं सकती। आदमी वहाँ पर सातत्य पाना चाहता है, जहाँ किसी तरह का कोई सातत्य हो नहीं सकता। अगर आप इस झूठी कोशिश से बच जाएँ, तो फिर आप अपनी ऊर्जा वहाँ लगाएँगे, जहाँ पर आपकी ऊर्जा फलदायी होगी। प्रकृति का, संयोग का, भाग्य का, बाहरी दुनिया का, स्वामी आप कभी नहीं बन सकते। लेकिन आप अपने स्वामी बन सकते हैं। तो इन पंक्तियों का अर्थ ये है कि ग़लत जगह कोशिश करना छोड़ो, सही जगह कोशिश करो।
दुनिया को नहीं जीत सकते तुम, ख़ुद को जीत सकते हो। कोशिश तुम्हारी लेकिन पहले यही रहती है कि दुनिया को जीत लूँ। बिना ये जाने कि तुम दुनिया को जीतने के लिए इतने आतुर हो ही रहे हो क्योंकि तुमने ख़ुद को नहीं जीता है।
तुम्हारा मन एक बेलगाम घोड़ा है और वो बेलगाम घोड़ा दुनिया भर में घूमना चाहता है, इसीलिए तुम दुनिया को जीतना चाहते हो। तो, कोशिश करनी है, ख़ुद को जीतने की। कोशिश करनी है स्वयं पर नियंत्रण पाने की। और स्वयं पर नियंत्रण पाने का अर्थ होता है, स्वयं का विर्सजन। उसके अलावा ख़ुद को नियंत्रित करने का कोई तरीक़ा नहीं होता।
सुख-दुःख आते रहेंगे, तुम नहीं रोक सकते। तुम उसको ज़रूर साध सकते हो, जो भीतर सुख-दुःख का अनुभव करता है। फिर उसके लिए सुख भी बाहरी चीज़ हो, दुःख भी बाहरी चीज़ हो। अगर तुमने उसको साध लिया। अगर तुमने उसको सही सीख, सही प्रशिक्षण दे दिया तो!
अनुकूल-प्रतिकूल भी बाहर से आता रहेगा। तुम होओगे भी कितने बड़े खिलाड़ी। कोई इस तरह का निश्चित नहीं है कि बाहर तुम्हारे लिए चीज़ें अनुकूल ही बना पाओगे तुम। तुम होओगे भी कितने बड़े काबिल, कितने बड़े विद्वान कितने भी गुणी। लेकिन तुम बाहर अपने लिए अनुकूलता ही निर्मित कर लोगे, ऐसा कुछ निश्चित नहीं है। हाँ! एक चीज़ निश्चित हो सकती है कि बाहर अनुकूल हो कि प्रतिकूल हो भीतर तुम कूल-कूल हो। ये कर सकते हो!
बाहर सर्दी है, गर्मी है, भीतर तो हम निरन्तर शीतल ही रहते हैं। बाहर का मौसम कैसा भी है, भीतर एक शान्ति रहती है, एक मौन रहता है। बड़ा आनन्द रहता है।
ये बात यहाँ पर समझायी गयी है। ये श्लोक (बात) भाग्यवादिता का नहीं है। ये तुमसे ये नहीं कह रहा कि सबकुछ भाग्य भरोसे छोड़ दो। बल्कि ये तो तुमको ज़बरदस्त प्रयत्न करने की सीख दे रहा है। बस ये तुमसे कह रहा है कि ग़लत दिशा में प्रयत्न मत करना।
ग़लत दिशा कौनसी होती है? जब तुम चाहते हो दुनिया को बस में करना। दुनिया को बस में करना ऊर्जा का दुरुपयोग है। स्वयं को बस में करना ऊर्जा का सदुपयोग है। इसमें आगे की कहानी ये है, जब तुम स्वयं को बस में कर लेते हो। तब तुम ये भी जान जाते हो कि अब तुम्हें दुनिया में किस दिशा में श्रम करना है। लेकिन तुम्हारे श्रम की पहली दिशा आन्तरिक होनी चाहिए, अन्तर्गामी होनी चाहिए।
तुम्हारी पहली कोशिश ये होनी चाहिए कि तुम भीतर की तरफ़ जाओ, अन्दर को श्रम करो। जिसने अपने ऊपर काम कर लिया, अपने ऊपर मेहनत कर ली। अब वो दुनिया में भी सार्थक काम कर पाएगा। लेकिन जो अपने ऊपर मेहनत करे बिना, दुनिया को जीतने निकल पड़ा, वो अपने ऊपर भी हार पाएगा, और दुनिया से भी हार जाएगा। वो दोनों तरफ़ से हरंता होगा।
पहले अपने आप को जीतो, ताकि सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल, लाभ-हानि ये सब तुम्हें, एक से हो जाएँ। फिर तुम अपने आप ही विश्वजीत हो जाओगे।