प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या सांसारिक रहकर भी आध्यात्मिक हो सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: अध्यात्म अपनेआप में आनंद है। और आनंद जानते हो क्या है? आनंद सुखों का परमसुख है। तभी तो मैं कह रहा हूँ कि आध्यात्मिक आनंद में जो लीन है, वो हर दुख को मौज में झेल जाता है। तुम छोटा-मोटा सुख लेकर करोगे क्या? तुम्हें परमसुख कितना मिला, गौरसे समझो! उसकी पहचान ही यही है कि तुम अब कितना दुख पी पाते हो। नीलकंठ महादेव को जानते हो न? वो इतने परमसुख में हैं, इतने परमसुख में हैं, कि कंठ में क्या धारण करे हैं?
श्रोतागण: विष
आचार्य प्रशांत: और विष भी हल्का-फुल्का नहीं, कौनसा विष है? यही कुम्भ वाला विष। प्रयाग में कुम्भ तो मना रहे हो ये कुम्भ, अमृत का कुम्भ था और इस अमृत के कुम्भ से पहले क्या निकला था? हलाहल विष। उसको कौन धारण करे बैठा है?
श्रोतागण: शंकर ।
आचार्य प्रशांत: महादेव बैठे हैं। वो मौज में बैठे हैं, वो हाय-हाय नहीं कर रहे हैं, (हाथों से अभिनय करते हुए) तीती लग गयी! तुम काली मिर्च ले लेते हो तो कहते हो, पानी देना, पानी देना। और वो इतना ज़हर अपने भीतर लिये बैठे हैं, उन्हें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ रहा। ये आनंद का कमाल है। जो आनंदित होता है वो अपने भीतर ज़हर लिये बैठे रहता है, जीता जाता है मौज में। आनंद तुम्हारा कितना गहरा है, इसकी पहचान ही इसी से कर लेना कि तुम कितना दुख पी जाते हो? जो जितना दुख पी जाये, वो उतना आनंदित। और पूरी दुनिया को पता होगा तुम्हीं दुख पी सकते हो। तो देव, दानव सब विष लेकर के पहुँचे महादेव के पास, कि पूरी दुनिया भस्म हुई जाती है। ये ज़हर निकला है मंथन से, कृपया कुछ करें इसका। वो बोले, लाओ, इधर लाओ, वो पी ही गये। पूरी दुनिया जान जाएगी कि जब दुख आये तो किसके पास जाना है, पूरी दुनिया को पता होगा कि विष किसको पिलाना है? तो ये तुमको दुनिया की ओर से तोहफ़ा मिलेगा, उपहार, कि सारी दुनिया ला-लाकर अपना ज़हर तुम्हें दे देगी। गुरु और क्या करता है? तुम अपना सारा ज़हर लाकर के उसको सौंप देते हो। वो पी जाता है। और तुम कौनसी भेंट चढ़ाते हो, यही तो है। और तुम्हारे साथ भी यही होगा। ऐसा परमसुख जो सब दुखों पर भारी पड़े। अब तुम दुख के सामने ताता-थैया नहीं करोगे कि दुख आ गया और तुमने रोना शुरू कर दिया। "साथी मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है? दुख तो अपना साथी है।” अब दुख साथी है। दुख साथी है, हम मौज में हैं। अध्यात्म उनके लिए नहीं है जो दुख से भाग रहे हैं। आध्यात्मिक आदमी को तो मैं कह रहा हूँ, दुख और मिलता है। लो! तुम्हें तो दुख से मुक्ति चाहिए थी। ये तो गड़बड़ हो गयी। कल पता नहीं कितने लोग यहाँ बैठे हों कितने नहीं? कुम्भ उल्टा पड़ गया।
श्रोतागण: हँसते हुए।
आचार्य प्रशांत: हम तो अमृत के लिए आये थे, कि अमृत टपकता है कुम्भ में। और इन्होंने तो बता दिया कि जिसको अमृत मिल गया अब वो विष धारण कर लेगा। यही बिलकुल सटीक बात है- अमृत तुम्हें कितना मिला है ये निर्धारित ही इसी से होगा। उसकी परख, उसकी जाँच, परीक्षा ही इसी से होगी कि तुम अब ज़िन्दगी का ज़हर कितना पी पाते हो। आम आदमी ज़िन्दगी के ज़हर से थर्राता है, भागता है, रोता है, भगोड़ा। आध्यात्मिक आदमी ज़हर आमन्त्रित करता है। कहता है, लाओ, अपना तो पिया ही है, दुनिया का भी पिएँगे। ऐसा ज़हर भी पी लेंगे जिससे हमारा कोई व्यक्तिगत वास्ता नहीं है। तुम गये थे सागर मंथन करने तुम्हें ज़हर मिल गया है, वो भी हमें दे दो, हम पी लेंगे। इसी को करुणा कहते हैं, कि जो अध्यात्म में प्रवेश करेगा उसमें करुणा जाग्रत हो जाएगी। वो दूसरों का दुख भी पी लेगा। इन दो चीज़ों की आध्यात्मिक आदमी को कभी कमी नहीं होती- एक आनंद और दूसरा दुख। भरपूर मिलते हैं। (श्रोता हँस पड़ते हैं) देखो! कभी ऐसा होता है कि मैं बताता कि दुख भरपूर मिलता है और ये इतनी ज़ोर से हँसता। ये आनंद है कि खबर आयी अभी-अभी कि दुख भरपूर मिलता है और तुम हँस पड़े, ये आनंद है। जब भरपूर दुख की खबर भी तुम्हें हँसा जाए तो जान लेना कि आनंदित हो, बढ़िया है न! कि कोई ज़हर लेकर आया है तुम्हारे द्वार और तुम उसका स्वागत कर रहे हो। कैसा लगा? मौज आयी कि नहीं आयी? सुख तो छिछोरी बात होती है, टुच्ची। असली शान तो इसमें है, दुख पी जाने में। अब बोलो, सुख चाहिए कि दुख?
श्रोतागण: दुख चाहिए।
आचार्य प्रशांत: ज़रा चौड़ में बोलो! ऐसे क्या घबरा रहे हो। बोलो।
श्रोतागण: हमें तो दुख चाहिए।
आचार्य प्रशांत: हाँ! प्रार्थना यही करो कि इस काबिल बनाओ हमें कि दुख को हँसते-हँसते पी जाएँ, हमें कोई अंतर ही न पड़े। फिर आकर के अपनी समस्याएँ नहीं बताओगे मुझे। फिर कहोगे, समस्याएँ तो बहुत हैं, हम मस्त हैं। हमारी तो बात ही कुछ ऐसी है कि हम ज़रा बेशर्म हैं।
श्रोतागण: (हँसते हुए दोहराते हैं) बेशर्म हैं।
आचार्य प्रशांत: ज़िन्दगी लात तो बहुत मारती है पर लाज हमें आती नहीं। कबीर साहब कहते हैं कि माया ऐसी ही है, आगे से मारती है सींग और पीछे से मारती है लात। तो अगर उसके आगे पड़े तो मारेगी सींग और अगर पीछे पड़े तो मारेगी लात। यही खबर भेजा करो कि दुनिया लात तो बहुत मार रही है पर लाज हमें आती नहीं।
श्रोतागण: बेशर्म हैं।
आचार्य प्रशांत: हम बेशर्म हैं। क्योंकि हमें ये उम्मीद ही नहीं है कि इस दुनिया से, सींग और लात के आलावा भी कुछ मिल सकता है। झूठी उम्मीदें पालना हमने छोड़ दिया। हमें तो ताज्जुब तब होता है, जब दुनिया प्यार से बुलाए और रिझाए। कहते हैं-“कुछ गड़बड़ है, आज ये कैसे हो गया?”
अध्यात्म अपनेआप में आनंद है। और आनंद जानते हो क्या है? आनंद सुखों का परमसुख है। इन दो चीज़ों की आध्यात्मिक आदमी को कभी कमी नहीं होती- एक आनंद और दूसरा दुख। भरपूर मिलते हैं।