क्या पूजा या कीर्तन आवश्यक हैं?

Acharya Prashant

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क्या पूजा या कीर्तन आवश्यक हैं?
जो आवश्यक है उसके साथ रहो। पूजा आवश्यक है, पूजा का कोई विशिष्ट रूप आवश्यक नहीं है। भजना आवश्यक है, भजन का कोई विशिष्ट प्रकार आवश्यक नहीं है। लेकिन ये बात भी समझना कि विशिष्ट प्रकारों से वही छूटते हैं जिनके मन में भजन गहराई से प्रवेश कर गया हो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बिना पूजा के या बिना कीर्तन के क्या हम उस रास्ते पर चल सकते हैं? जैसे किसी को अंदर से पूजा या कीर्तन नहीं स्वभाविक आता है, तो क्या उस रास्ते पर हम चल सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: देखो! सारे रास्ते ऊपर-ऊपर से अलग दिखते हैं, थोड़ा नीचे जाओगे तो एक होते हैं। कोई आवश्यक नहीं है कि कोई उस तरह की पूजा या कीर्तन करे ही जैसा कि परंपरागत तौर पर होता आया है।

एक उपनिषद है- आत्मपूजा उपनिषद, उसको पढ़ना। आकार में बहुत ही छोटा उपनिषद है, एक-पन्ना दो-पन्ना बस। उससे पूछोगे तो वो कहेगा, दीप क्या है, मैं बताता हूँ। भीतर की ज्योत का जलना दीपक है। तो पूजा में तुम जो कुछ करते हो, उसका असली अर्थ उसमें लिखा हुआ है। वो कहता है, बाहर-बाहर तुम जो कुछ कर रहे हो, उसके अत्यांतिक अर्थ हैं। वो अत्यांतिक अर्थ महत्वपूर्ण है। बाहर की रवायत उतनी कीमती नहीं है।

तुम्हें क्या लगता है, तुम यहाँ बैठे हुए हो, तुम पूजा नहीं कर रहे हो? तुम्हें क्या लग रहा है, मौन में कीर्तन नहीं होता? तो पूजा और कीर्तन अगर तुम्हें सुहाते नहीं हैं, तो उसकी एक बड़ी वजह ये हो सकती है कि तुम्हें उनका वो रूप नहीं सुहाता जो तुम परंपरागत तरीके से देखते आए हो। पर आवश्यक थोड़े ही है कि उनका वही रूप हो।

जो आवश्यक है उसके साथ रहो। पूजा आवश्यक है, पूजा का कोई विशिष्ट रूप आवश्यक नहीं है। भजना आवश्यक है, भजन का कोई विशिष्ट प्रकार आवश्यक नहीं है। लेकिन ये बात भी समझना कि विशिष्ट प्रकारों से वही छूटते हैं जिनके मन में भजन गहराई से प्रवेश कर गया हो।

कबीर को ये कहने का हक़ है कि, 'मैं अब राम का नाम भी नहीं लेता, राम मुझे भजते हैं।' कबीर को यह कहने का हक़ है कि,

'सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पाँऊ विश्राम।' 'पूजा करूँ न जप करूँ, मुँह से कहूँ न राम। सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पाँऊ विश्राम।।'

कबीर तो कह रहे हैं, मैं पूजा, जप-वप कुछ नहीं करता, न मुँह से राम बोलता हूँ, न सुमिरन करता हूँ। मैं उसका सुमिरन नहीं करता, वो मेरा सुमिरन करता है।

'सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पाऊँ विश्राम।'

वो तो छोड़ो कि मैं बैठा-बैठा राम भजूँ, राम अब भजते हैं मुझे। और अब भूलना मत कि कबीर से ज़्यादा राम को किसी ने भजा नहीं। राम के अलावा कबीर ने किसी का नाम लिया? जब तुम उतना नाम ले लेते हो राम का, तब तुम्हें ये कहने का हक़ मिल जाता है कि अब मुझे राम को नहीं भजना, अब राम मुझे भजेंगे। ऐसे नहीं कि कोई भी आकर के कह दे कि, 'देखो! कबीर ने भी तो कहा था, पूजा-अर्चना जप-तप से कोई फ़ायदा नहीं है।' ये कहने का हक़ कबीर को है, तुम कबीर नहीं। तुम्हारे तो कबीरत्व पर अभी लाख पर्दे पड़े हुए हैं। बात समझ रहे हो?

जब कबीर की तरह अनंत बार राम भज लेना, राम, राम, राम, राम, तब कहना- मुँह से कहूँ न राम। कबीर कह रहे हैं, मुँह से कहूँ न राम। क्यों? क्योंकि अब उन्हें मुँह से राम कहने की ज़रूरत नहीं है, अब वो राममय हो गए हैं। अब हृदय में राम हैं, अब जीवन में राम हैं। तो मुँह से क्या करना है राम-राम कहकर? बोरियत है, ऊब वाली बात हो गई ये तो। इतना तो कह दिया राम, अब राम ख़ून बन के बह रहे हैं। वो स्थिति आ जाए फिर पूजा-अर्चना सब त्याग देना। उस स्थिति से पहले थोड़ा सावधान रहना। ऐसा न हो कि तुम पूजा के रूपों के साथ कहीं पूजा ही त्याग दो।

लेकिन तुम्हारी ऊब को मैं समझता हूँ। पूजा के जो प्रचलित रूप हैं, वो हैं ही ऐसे कि उनसे ऊब हो जाए। चार लोग परिवार के रोज़ शाम को खड़े हो गए हैं और ‘ऊँ जय जगदीश हरे’ कर रहे हैं। जिसमें ज़रा भी प्रज्ञा होगी उसको ज़रा वितृष्णा उठेगी। वो कहेगा, ये चल क्या रहा है! रोज़ यहाँ खड़े हो जाते हो, एक आँख से टीवी देख रहे हो और दूसरी आँख से कह रहे हो, ‘ऊँ जय जगदीश हरे’।

इसका फिर समाधान ये नहीं है कि तुम पूजा को त्याग दो। इसका समाधान ये है कि तुम पूजा के परिष्कृत रूप निकालो। तुम पूजा में सावधानी से और निष्ठा से प्रवेश करो। तुम्हें पूजा से समस्या नहीं है, तुम्हें उस पूजा से समस्या है जो नक़ली है। तो समाधान ये है कि तुम असली पूजा में उतरो। नक़ली से असली पूजा में आओ और फिर असली पूजा में रहते-रहते एक दिन ऐसा आ जाएगा कि कबीर हो जाओगे और फिर किसी पूजा की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी; फिर जीवन ही पूजा हुआ।

अभी तो तुम तलाशो की असली पूजा क्या है? असली ध्यान क्या है? जिस देवता के सामने खड़ा हूँ, उसे वास्तविक रूप से कैसे समर्पित होऊँ? अभी तो तुम ये तलाशो। ‘ऊँ जय जगदीश हरे’ से अगर तुम्हें ऊब उठती है तो भली बात, उठनी ही चाहिए।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कर्म ही पूजा है, हम सुनते आए हैं हमेशा से। तो क्या अपने कर्म को या जो भी मेरे ज़िम्मेदारियाँ हैं, उनको अच्छे से अच्छा करके मैं उस रास्ते पर...।

आचार्य प्रशांत: (टोकते हुए) ज़िम्मेदारियों को कर्म नहीं कहते। कर्म का मतलब होता है कि तुम्हारा कर्म तुम्हारा नहीं रहा, तभी तो पूजा हुआ। पूजन में अपने पास रखते हो या परमात्मा को समर्पित करते हो?

प्रश्नकर्ता: परमात्मा को।

आचार्य प्रशांत: तो तुम्हारी ज़िम्मदारियाँ पूजा कैसे हो गईँ? तुम्हारी ज़िम्मेदारियाँ तो बंधन हैं तुम्हारा। परमात्मा ने तो समझाया है कि अपनी सारी ज़िम्मेदारियों को छोड़कर एक ज़िम्मेदारी मान बस, मेरे पास आना।

कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, अपने सारे धर्मों को भूल अर्जुन! और बस एक मेरी शरण में आ जा। सर्वधर्म का परित्याग कर, ठीक यही उनके शब्द हैं। सारे धर्मों का परित्याग कर और मेरी शरण में आजा। और जब मेरी शरण में आएगा तो मैं तुझे बताऊँगा कि अब कैसे जीना है। और जब तक तू अपने हिसाब से अपने कर्तव्य चलाता रहेगा तब तक फँसा रह उसी में।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥18. 66॥ ~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्य्याय १८ , श्लोक ६६

आचार्य प्रशांत: कर्म ही पूजा का अर्थ ये थोड़े ही है कि तुम जिन घटिया कर्मों में लगे हो, उन्हीं में लगे रहो, ये कहकर कि मैं तो पूजा कर रहा हूँ। ये तो पागलपन हो गया। सत्य के पास जाओ, शांति के पास जाओ, उनको अपनी प्राथमिकता बनाओ और सत्य को, शांति को तय करने दो कि अब तुम्हारे कर्तव्य क्या होंगे। उन्हें तय करने दो। शांति प्रथम कर्तव्य है, उससे बड़ा कर्तव्य कोई नहीं।

(बीच में प्रश्न करने वाले, प्रश्नकर्ता से कहते हुए) थोड़ा धीरज धरा करो। बोलो।

प्रश्नकर्ता: इश्वर की शरण में जाने का यर्थाथ मतलब क्या है?

आचार्य प्रशांत: इश्वर की शरण में जाने का मतलब है कि मेरी प्रथम वरीयता शांति है। मेरी प्रथम वरीयता ये नहीं है कि इसका हुकुम बजाऊँ कि उसका भला करूँ। मेरा पहला काम है कि जिधर सच्चाई दिखे उधर को जाऊँ। जिधर शांति दिखे और मौन दिखे और सरलता दिखे उधर को जाऊँ। उस पर मुझे कोई सौदा नहीं करना, कोई समझौता नहीं करना।

और जब उधर को जाऊँगा तो फिर वो मुझे बता देगा कि अब किधर जाना है, आगे क्या करना है। पर मेरा काम है उसके पास जाना, फिर वो मुझे जिधर को दौड़ाएगा उधर को दौड़ जाऊँगा। और फिर दौड़कर फिर उसी के पास जाऊँगा। जैसे नौकर करता है।

मालिक के पास जाएगा, मालिक कहेगा, चल अच्छा, जा वहाँ से चाय ले आ! तो चाय ले आया। फिर खड़ा हो गया, जी हुजूर! उसने कहा अब चल ये कर दे! तो ये कर दिया। अब लगने को ऐसा लग सकता है कि नौकर बहुत सारे काम कर है, पर वह वास्तव में क्या कर रहा है?

प्रश्नकर्ता: एक काम।

आचार्य प्रशांत: एक काम कर रहा है। और वो एक काम क्या है?

प्रश्नकर्ता: मालिक की आज्ञा मानना।

आचार्य प्रशांत: मालिक की आज्ञा मान रहा है बस। तो ऐसे ही जीओ। ऊपर-ऊपर से लगे कि तुम बहुत सारे काम कर रहे हो पर अंदर-अंदर तुम बस एक काम कर रहे हो।

प्रश्नकर्ता: परिष्कृत का अर्थ?

आचार्य प्रशांत: पूजा के परिष्कृत के रूप का अर्थ हुआ परिष्कृत मन से पूजा में उतरो।

प्रश्नकर्ता: परिष्कृत?

आचार्य प्रशांत: साफ़, रिफाइन्ड।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक सवाल मैंने पूछा था परसो, कि दो सही में से एक को कैसे चुनें? आपने कहा, दो सही नहीं होते, अगर दो सही हैं तो मैं ग़लत हूँ। मैंने काफ़ी विचार भी किया इसके उपर तो सही बात है, दो सही नहीं हो सकते, एक ही सही होगा। वो हमें पहचानना है कि इनमें से कौन सा सही है और कौन सा ग़लत। इसकी पहचान कैसे करी जाए कि कौन सा ग़लत है, किसको छोड़ना है? और कौन सा सही है?

आचार्य प्रशांत: अपने आप को छोड़ना है। तुम्हारी पहचान अगर इतनी काबिलियत रखती तो तुमने कब का पहचान लिया होता। तुम अभी भी पहचानने की विधि मांग रहे हो। पहचानने वाले को बदलने के लिए राज़ी नहीं हो।

ये ऐसे सी बात है कि जैसे बिलकुल पीया हुआ ड्राइवर हो, और तुम उससे कहो कि, 'भाई! तू ठुकेगा।' तो बोले, अच्छा ठीक है! मैं दाएँ चला जाता हूँ। वो रास्ता बदलने को तैयार है, ख़ुद को बदलने को तैयार नहीं है। वो पीये-पीये बाएँ जा रहा था, तुमने कहा, तू ठुकेगा। तो उसने क्या अक़्ल लगाई है कि मैं पीये-पीये, दाएँ चला जाता हूँ। जैसे दाएँ जाएगा तो नहीं ठुगेगा।

वो रास्ता बदलने को तैयार है, ख़ुद को बदलने को तैयार नहीं है। तुम्हारी भी यही हालत है। हम कैसे पहचाने? तुम पीये हुए हो, तुम दाएँ गए, तुम नहीं पहचान पाए; तुम बाएँ जाओगे, तुम पहचान लोगे? और तुम ये दंभ छोड़ने को तैयार नहीं हो कि मैं पहचान सकता हूँ। ये दंभ तुम्हारा पूरा है कि पहचानूँगा तो मैं ही। तुम ये मानने को तैयार नहीं हो कि मैं जैसा हूँ, ऐसे तो काम चलेगा ही नहीं। मेरे विचार, मेरा विश्लेषण, इनमें मूल में कुछ गड़बड़ है। और इस गड़बड़ का नाम है, 'मैं'।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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