आचार्य प्रशांत: केला तक तो खाते हो तो छिलका उतारकर खाते हो और बातें किसी की यूँही समूची निगल लेते हो, बिना देखे कि इसमें क्या लगा है। डॉक्टर हैं, बच्चों को समझाते होंगे सब्जी भी पहले रगड़-रगड़ कर धोना, छिलका उतारना, फिर पकाना और बातें कीचड़ मेंं लथपथ हो तो भी खा जाना। ना उनको धोना, ना परखना, ना जाँचना कि कहीं सड़ी तो नहीं है, कहीं इनमें कीड़े-ही-कीड़े तो नहीं लगे हुए, कैसी भी बातें खा लेते हो।
शरीर की बीमारी की चिकित्सा फिर भी आसान है। गंदा पानी पी लिया, ठीक है, दवा दे देंगे बच जाओगे। गंदी वाणी सुन ली, अब तुम्हें कौन बचाएगा? बहुत सतर्क रहो कि कानों से, आँखों से क्या प्रवेश कर रहा है मन में। दूसरों को तो बस यही बताते रह गए कि पानी उबालकर, छानकर पीएँ; और वाणी, वो तो कैसी भी आती रहे सुने जाओ। कान में क्या शब्द पड़ रहा है इसके प्रति बहुत सतर्क रहो। ये धारणा मत रखना कि, "सुनने में क्या जाता है।" जो मूर्खता के सिद्धांत चल रहे हैं बाज़ार में, उनमें एक ये भी है "सुनो सबकी, करो मन की।" जिस भी पगले ने ये दिया है उसे नहीं पता कि सुनना ऐसी चीज़ नहीं होती जिस पर तुम अपना नियंत्रण रख सको। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा सुनते-सुनते तुम कब बह जाओगे। तुम तो यही सोच रहे हो कि तुम बड़े अधिकारी हो, बड़े ताक़तवर हो, तुम तो बस सुन रहे हो।
"हम्म, हम्म, अभी हम सुन रहे हैं!"
तुम जो सुन रहे हो वो तुम्हारे मन पर निरंतर कब्ज़ा भी कर रहा है। तुम जो सुन रहे हो वो तुम होते जा रहे हो। इतना आत्मविश्वास मत रखो, ये अति तुम्हें भारी पड़ेगी।
जैसे ऐसा हो नहीं सकता कि तुम प्रदूषित हवा में साँस लो और तुम्हारे फेफड़ों पर असर ना पड़े, वैसे ही ऐसा हो नहीं सकता कि तुम मैली-कुचैली वाणी सुनो और तुम्हारे मन पर असर ना पड़े। असर पड़ेगा। तो ये सिद्धान्त मत बघारो कि सुनो सबकी। जिसकी सुन रहे हो तुम उसके ग़ुलाम होते जा रहे हो। मत सुनो सबकी। और आगे कह देते हैं करो मन की। अरे! मन की नहीं करनी है, रब की करनी है क्योंकि मन तो बनता ही सुनी-सुनाई बातों से है। जब तुम कह रहे हो, "सुनो सबकी करो मन की", तो वास्तव में तुम कह रहे हो, "सुनो सबकी और जो सुना हो वही कर डालो क्योंकि मन तो वही हो गया जैसा सुना उसने।"
या तो उस स्थिति पर पहुँच जाओ जहाँ अब बोध इतना प्रबल हो गया है और श्रद्धा इतनी अटल हो गई है कि कुछ भी सुनोगे तुम्हें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ेगा; पर ऐसे तुम हो क्या? कहिए डॉक्टर साहब, ऐसे हो गए हैं क्या? कि हिमालय हो गए, अब कोई हिलाकर दिखा दे हमें; ऐसे हो गए? ऐसे तो हुए नहीं हो। तुम तो उल्टी-पुल्टि सुनोगे तो मन में पचास तरीके के विकार आ जाएँगे, तो मत सुनो अभी।
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