क्या पकड़ना है, क्या छोड़ना है?

Acharya Prashant

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क्या पकड़ना है, क्या छोड़ना है?
इस कोशिश में मत रह जाना कि ये भी मिले और वो भी मिले। वो सम्भव यदि हो सकता है तो साधना की, और त्याग की, और तपस्या की कोई अहमियत ही न रह जाती। जो उत्कृष्ट है उसको पाने के लिए निकृष्ट को तो छोड़ना पड़ेगा। ऐसा नहीं कि तुम्हारी कुर्बानी उसके किसी काम आ जाती है। पर तुम्हारी कुर्बानी प्रतीक होती है तुम्हारे मूल्यांकन का। तुम बता रहे हो कि तुम छोड़ने को तैयार हो, तुम बता रहे हो कि तुम समझते हो किस चीज़ का क्या मूल्य है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: ए मार्शल आर्ट स्टूडेंट प्रोस्ड हिज़ टीचर विद ए क्वेश्चन, आई वुड लाइक टू इंप्रूव माय नॉलेज ऑफ़ द् मार्शल आर्ट्स। इन एडिशन टू लर्निंग फ्रॉम यू, आई वुड लाइक टू स्टडी विद अनदर टीचर इन ऑर्डर टू लर्न अनदर स्टाइल। व्हाट डू यू थिंक ऑफ़ दिस आइडिया। टीचर रिप्लायड, द् हंटर हू चेसेज़ टू रैबिट्स कैचेज़ नायदर वन। (तो एक छात्र है वो मार्शल आर्ट (युद्ध कला) सीख रहा है। जाकर अपने शिक्षक से सवाल करता है कि आप जो मुझे सिखा रहे हैं वो तो अच्छा ही है, एक अन्य शिक्षक से भी मैं कुछ सीखना चाहता हूँ, कैसा लगा मेरा विचार आपको। तो उसे जवाब मिलता है कि, वो शिकारी जो एक साथ दो खरगोशों का पीछा करता है दोनों से हाथ धो बैठता है।)

कई तलों पर इस प्रसंग की व्याख्या की जा सकती है। सबसे निचला तल तो यही है कि जो ज्ञान तुम एकत्रित कर रहे हो अगर उसकी धारा में मिलावट हो गयी। तो न इधर के रहोगे, न उधर के रहोगे। शिक्षक ने शब्द इस्तेमाल किया स्टाइल (शैली)। क्योंकि पूछा भी यही गया था एक स्टाइल आपसे सीख रहा हूँ, एक कहीं और से सीख लूँ।

जिस विधि में तुम अपने आप को पारंगत कर रहे होते हो, उस विधि के साथ पूरा न्याय करना होता है, दो नावों पर नहीं चल सकते। एक जगह से दूसरी जगह पहुँचने के कई रास्ते हो सकते हैं, पर तुम्हें चलना एक ही रास्ते पर पड़ेगा। कई रास्तों पर चलोगे एकसाथ, तो किसी रास्ते पर नहीं चल रहे, कहीं भी नहीं पहुँचोगे। किसी रास्ते पर नहीं चल रहे, और कहीं भी नहीं पहुँचोगे।

और अगर ज़रा दूसरे तल पर इस प्रसंग का अर्थ देखो तो अर्थ ये निकलेगा, कि कीमत देनी पड़ती है। कुछ है जो निसन्देह छोड़ना पड़ता है। मन को ये भी चाहिए और मन को वो भी चाहिए, दोनों मिलेंगे नहीं एकसाथ। और जीव पैदा हुए हो तुम, सीमित तुम्हारी शक्ति है, सीमित तुम्हारे पास समय है, तय करना होगा तुम्हें कि वो शक्ति, वो समय, अपनी ऊर्जा, अपने संसाधन कहाँ पर लगाने हैं, किस दिशा लगाने हैं।

सबकुछ ही आकर्षक लगता है, बहुत कुछ है जो खींचेगा। चौराहों पर चौराहे हैं, बहुत विकल्प खुले रहते हैं। हर दिशा जा नहीं सकते तुम। तो गौर से देख लो किधर को जाना है। कुछ-न-कुछ छूटेगा ज़रूर, किसी-न-किसी चीज़ का त्याग तो करना पड़ेगा, कुर्बानी तो देनी पड़ेगी। तुम गौर से देखलो तुम्हें चाहिए क्या, कीमती क्या है, मूल्य किसका है।

एक शिक्षक से सीख रहे हो तो जाहिर सी बात है कि वो कुछ सिखाएगा, एक रास्ता देगा, और उस रास्ते पर चलने पर तुम्हें कुछ दृश्य दिखाई देंगे तो कुछ दृश्यों से तुम वंचित भी रह जाओगे। और दूसरे रास्ते पर चलोगे तो वहाँ भी कुछ दिखाई देगा और कुछ होगा जिससे वंचित रह जाओगे। तुम्हें देखना होगा, निर्णय करना होगा कि क्या चाहिए, क्या कीमती है, और क्या है जिसे छोड़ना पड़ेगा ही।

एक विधि ही चलेगी, दो विधियाँ नहीं चल सकती। दो विधियों को ही कहते हैं— दुविधा। जब दो विधियाँ आ जायें सामने तो उसे कहते हैं दुविधा, और समझाने वालों ने कहा है— “दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम। दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम।”

आ रही है बात समझ में?

इस आश में, इस कोशिश में मत रह जाना कि ये भी मिले और वो भी मिले। वो सम्भव यदि हो सकता है तो साधना की, और त्याग की, और तपस्या की कोई अहमियत ही न रह जाती। जो उत्कृष्ट है उसको पाने के लिए निकृष्ट को तो छोड़ना पड़ेगा। आज सुबह हम कह रहे थे कि परमात्मा छप्पर फाड़कर देता है। पर वो भी माँगता है। वो भी कहता है कि तुम्हारे नन्ने-मुन्ने, छोटे-छोटे हाथों में जो कुछ है पहले लाकर के उसकी ज़रा कुर्बानी दे दो। ऐसा नहीं कि तुम्हारी कुर्बानी उसके किसी काम आ जाती है। पर तुम्हारी कुर्बानी प्रतीक होती है तुम्हारे मूल्यांकन का। तुम बता रहे हो कि तुम छोड़ने को तैयार हो, तुम बता रहे हो कि तुम समझते हो किस चीज़ का क्या मूल्य है।

आ रही है बात समझ में?

अध्यात्म की सारी यात्राएँ विफल बहुदा इसीलिए रह जाती हैं क्योंकि तुम्हें कुछ नया चाहिए तो है पर पुराने को छोड़ने को तुम राज़ी नहीं। तुम संचित करना चाहते हो, और खेल है सारा विसर्जन का। ऐसा नहीं कि तुम्हें परमात्मा नहीं चाहिए। ऐसा नहीं कि तुम्हें सत्य और शान्ति नहीं चाहिए। तुम्हें चाहिए पर तुम्हें अपनी पुरानी सम्पदा बचाए-बचाए सत्य की सम्पदा चाहिए। तुम कहते हो, मेरा जैसा पूरा खेल चल रहा है, मेरा जैसा पूरा संसार है वो वैसा ही बना रहे, और साथ-ही-साथ?

श्रोतागण: सत्य भी।

आचार्य प्रशांत: उसकी दौलत भी हासिल हो जाए। कोई शक नहीं इस बात में कि उसके प्रति तुम्हारा अनुराग है। चूक बस इतनी सी है कि उसको तो चाहते हो और इसको भी गँवाना नहीं चाहते। मैं इसको कहता हूँ, ‘खुदा को तो पाना है खुद को भी बचाना है, और ये दोनों काम एकसाथ हो नहीं सकते।’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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