प्रश्नकर्ता: आज तक मैं जिन चीज़ों को ख़ुद के लिए सही समझ रहा था, आपको सुनने के बाद समझ आया कि वे अस्थायी हैं। कृपया मुझे उन चीज़ों की तरफ़ बढ़ने का रास्ता बताइए जो स्थायी हैं, जो मुक्ति की ओर ले जाती हैं।
आचार्य प्रशांत: ये बात मैंने बहुत-बहुत बार बोली है। मुक्ति तक जाने का सबका अलग-अलग रास्ता होगा, क्योंकि सब अलग-अलग ही हैं। ये अलग-अलग होना, ये पृथकता, ये पार्थक्य, यही तो जीव की पहचान है। झूठी हो, दुखदायी हो, लेकिन जीव की पहचान तो यही है। जीव का मतलब क्या है? जीव का मतलब ये कि तुम्हारा नाम रमेश और इनका नाम सुरेश (दो भिन्न व्यक्तियों की ओर इशारा करते हुए)।
तो पृथकता ही जीव का प्राथमिक लक्षण है न, कि वहाँ सब खंडित होता है।
इनको अभी मैं यहाँ से चॉक मारूँ तो इनको लगेगी, इनको नहीं लगेगी न? इसी को कहते हैं जीव-जगत, जहाँ सब अलग-अलग हैं। इनकी भूख इनकी भूख है, उनकी भूख तो नहीं हो सकती। वो सुन रहे हैं तो उनको समझ में आ रहा है। उनको समझ में आने से उनको समझ में तो नहीं आ सकता (भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की ओर इशारा करते हुए)।
तो संसार में जीव, और सब जीव अलग-अलग, ये सत्य नहीं है, पर यही जीव की पहचान है। ये जो खंडित संसार है जिसमें सबकुछ विविध है, सबकुछ अलग-अलग है, एक पेड़ है दूसरा पेड़ है, एक बादल है दूसरा बादल है, एक कंकड़ है दूसरा कंकड़ है, कुर्ता अलग है, पजामा अलग है। हर चीज़ क्या है? अलग-अलग है।
यहाँ वस्तुएँ हैं और वस्तुओं का मतलब ही होता है — एक वस्तु अलग, दूसरी वस्तु अलग। तो ऐसा है हमारा संसार और ऐसा है जीव, हर जीव दूसरे से अलग है। तो हर जीव ने जब अपनेआप को अलग माना हुआ है, तो उसने अपने बन्धन भी अलग माने हुए हैं।
मूलतः सब बन्धन एक हैं, और नीचे जाओगे तो मूलतः कोई बन्धन है ही नहीं (आचार्य जी मुस्कुराते हुए)। जैसे कि पेड़ की पत्तियों को गिनना शुरू करो तो बहुत सारी दिखायी देंगी, ठीक। अलग-अलग हैं — पत्तियाँ हैं, शाखा है, प्रशाखा है, टहनी है — सब अलग-अलग हैं। नीचे जाते हो तना एक दिखायी देता है, और नीचे जाते हो तो दिखायी देता है जड़ भी एक है, और नीचे जाते हो तो कहते हो, ‘अरे! जड़ भी नहीं है, पेड़ ही नहीं है। (आचार्य जी मुस्कुराते हुए)’
तो सब जीव अलग-अलग हैं, जीवों के बन्धन भी अलग-अलग हैं। और जो, और नीचे चला गया वो कहेगा, ‘कोई बन्धन है ही नहीं।’ ये लेकिन वही कह सकता है जो पहले ये कह दे, ‘मैं हूँ ही नहीं’; जब तुम कह दो, ‘मैं नहीं हूँ’, तभी तुमको ये कहने का अधिकार मिला कि बन्धन भी नहीं हैं।
तो हर जीव को अपनी ही बात का सम्मान करते हुए अपने व्यक्तिगत बन्धन पहचानने पड़ेंगे, ठीक वैसे जैसे तुम कहते हो कि मैं एक पृथक व्यक्तित्व हूँ, कहते हो न? वैसे ही तुमको अपने पृथक व्यक्तिगत बन्धन भी पहचानने पड़ेंगे कि तुम्हारे जीवन में कौनसे व्यक्तिगत बन्धन हैं।
अब पारमार्थिक बन्धन तो होते नहीं, बन्धन तो सब व्यक्तिगत ही होते हैं, तो तुम पहचानो तुम्हारे क्या बन्धन हैं। कामी का बन्धन काम है, लोभी का बन्धन लाभ है, ज्ञानी का बन्धन ज्ञान है, अज्ञानी का बन्धन अज्ञान है, धनी का बन्धन धन है, निर्धन का बन्धन निर्धनता है। तुम्हारा क्या बन्धन है वो पहचानो, और वही तुमको बताएगा कि मुक्ति की तरफ़ तुम्हारा व्यक्तिगत रास्ता कौनसा है।
चूँकि बन्धन व्यक्तिगत है, इसीलिए मुक्ति की तरफ़ बढ़ने का तुम्हारा रास्ता भी व्यक्तिगत ही होगा। और अब, मज़ेदार बात सुनो, इसी व्यक्तिगत रास्ते को श्रीकृष्ण कहते हैं ‘स्वधर्म’। स्वधर्म — सार्वजनिक धर्म नहीं, संस्थागत या आयोजित धर्म नहीं — स्वधर्म तुम्हारा अपना धर्म। तुम्हारा अपना धर्म क्यों? क्योंकि वो तुम्हारे अपने बन्धनों से निकला है।
मुक्ति की ओर तुम्हारा व्यक्तिगत रास्ता ही स्वधर्म कहलाता है।
तो तुम्हारी ज़िन्दगी में क्या बन्धन हैं, उन्हें पहचानो न पहले। अर्जुन का बन्धन था मोह, तुम्हारा क्या बन्धन है? पहचानो और उसको काटो। पहचान लिया तो समझ लो नब्बे पर्सेन्ट तो काम हो ही गया। उसके बाद बन्धन काटना विशेष दुखदायी नहीं रहता।
अब सामने बहुत लोग बैठे हों और उसमें कोई प्रश्न करे, कि गुरुवर मुक्ति का रास्ता बतायें, तो ये प्रश्न विचित्र है। इसीलिए मैं विधियाँ नहीं देता, क्योंकि एक विधि सब पर चल ही नहीं सकती। जब तुम्हारा मूल दावा ही यही है कि तुम सब अलग-अलग हो, पृथक-पृथक हो, तो सबको फिर मैं एक विधि कैसे दे दूँ?
एक विधि थोड़ा उपयोगी हो सकती है। आप स्वाध्याय करोगे, वो विधि सबके लिए उपयोगी है, एक सीमा तक। हठयोग करोगे, वो विधि भी उपयोगी है सबके लिए, एक सीमा तक। प्राणायाम करो, एक सीमा तक सबको लाभ होगा।
और बहुत सारी विधियाँ हैं, वो सबको लाभ देंगी, पर एक सीमा तक। उसके आगे तो सबको अपना-अपना रास्ता ख़ुद बनाना होगा, चुनना नहीं बनाना होगा बेटा, और वो मेहनत करनी पड़ेगी, वो दायित्व उठाना पड़ेगा।
तुम चाहो कि तुमको बनी-बनायी, पैकेज्ड रेडीमेड विधियाँ मिल जाएँ, तो ऐसा नहीं होता। वैसे भी डब्बाबन्द भोजन सेहत के लिए कुछ ख़ास अच्छा नहीं होता। ताज़ा-ताज़ा तैयार हुआ हो तो क्या बात है, और ठीक तुम्हारे स्वाद और सेहत को ध्यान में रखकर व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे लिए तैयार हुआ हो तो और भी अच्छा।
तो तुम्हारा स्वाद क्या है, तुम्हारे व्यक्तिगत शरीर की ख़ास आवश्यकताएँ क्या हैं, इसको ध्यान में रखकर अपने लिए माल पकाओ, वही तुम्हारे लिए सर्वश्रेष्ठ रहेगा। नहीं तो फिर वही होगा कि जाकर किसी भी ढाबे में बैठ गये, बोल रहे हैं, ‘दाल-मखनी’, और वहाँ इतनी सारी पकी हुई है, अब वो कोई ख़ास तुम्हारे लिए थोड़े ही बनी है। हाँ, खा लोगे, भूख ख़त्म हो जाएगी, आगे बढ़ जाओगे, लेकिन उसमें वो बात नहीं जो बात हो सकती थी।
क्या पता तुमको पंचमेल दाल भाती हो, क्या पता वही तुम्हारे लिए सर्वाधिक उपयुक्त हो, कि पाँच तरह की दाल ली जाएँ, उनको एक ख़ास अनुपात में मिलाया जाए, उनको एक ख़ास तापमान तक पकाया जाए, और उसी से तुम्हें लाभ होना हो। लाभ तुम्हें उससे होना हो और ढाबे में मिल रही है सिर्फ़ दाल तड़का और दाल-मखनी, अब तुम करोगे क्या? तो ये जो प्रचलित विधियाँ हैं मुक्ति की, ये सब दाल-मखनी हैं। इनसे थोड़ी देर के लिए पेट तो भर जाएगा, पर पेट निकल भी आएगा; कुछ लाभ होगा, कुछ नुक़सान भी होगा।
तुम मुझे ये बता दो, दुनिया में क्या कोई भी खाद्य पदार्थ है जो सबको लाभ ही देता हो? और क्या दुनिया में कोई भी खाद्य पदार्थ है जो सबको नुक़सान ही देता हो? पानी तक लोगों को नुक़सान करता है। कुछ शरीर ऐसे होते हैं, कुछ शारीरिक अवस्थाएँ ऐसी होती हैं जिसमें पानी तक लेने की मनाही होती है, कहा जाता है, ‘पानी कम पीना।’ किडनी इत्यादि का रोग हो तो पानी भी ज़हर है तुम्हारे लिए। और कुछ रोग ऐसे होते हैं जिसमें ज़हर अमृत है तुम्हारे लिए, उसमें ख़ासतौर पर तुमको थोड़ा-थोड़ा ज़हर दिया जाता है, कि यही तुम्हारे रोग का इलाज है।
तुम कहते हो, ‘सेब खाना बड़ा अच्छा रहता है, सेब खाने से डॉक्टर दूर रहता है, ”एन एप्पल अ डे कीप्स डॉक्टर अवे”।’ पर मुझे बताना कि दुनिया में जितने लोग हैं क्या सबके लिए सेब सेहतमंद है? क्या सबके लिए सेब स्वास्थ्यप्रद है? बहुत लोग होंगे जो अगर सेब खाएँगे तो बीमार पड़ जाएँगे, बहुत लोग हो सकते हैं जिन्हें सेब से एलर्जी हो। एलर्जी तुम्हें किसी भी चीज़ से हो सकती है। आटे से भी एलर्जी हो सकती है।
तो ये जो तुम मुक्ति के सार्वजनिक रास्ते पूछते हो कि ध्यान की कोई प्रचलित विधि बता दीजिए, मुक्ति का कोई जनरल रास्ता बता दीजिए, ये ऐसा ही है कि तुम कहो, ‘दाल-मखनी।’ कुछ भी नहीं है जो सबके लिए ठीक है और कुछ भी नहीं है जो सबके लिए ख़राब है। तुम्हें तो कोई चाहिए जो तुमसे इतना प्रेम करता हो, और वो तुम भी हो सकते हो जो स्वयं से इतना प्रेम करते हो, कि तुमको वो ख़ास तुम्हारे लिए वो दे दे, जो तुम्हें चाहिए।
प्र२: आचार्य जी, माया कहाँ से आती है? क्या माया कभी नहीं मिटती?
आचार्य: देखिए, ये नहीं पकड़ पाएँगे आप कि माया कौन है, कहाँ से आयी है, कब वार कर रही है। उसका तरीक़ा होता है, अपनेआप को ऐसे माहौल में डाल दीजिए जहाँ माया छटपटा जाए।
जैसे कि मान लीजिए आपका कपड़ा है, उसमें कुछ कीटाणु, विषाणु चिपक गये — बैक्टीरिया (जीवाणु), जर्म्स — या आपने कुछ खा लिया ऐसा जिसमें बैक्टीरिया इत्यादि अन्दर पहुँच गये। वो आपको नहीं पता कि अन्दर कहाँ बैठे हैं। लेकिन अगर आप एक लगातार ऐसी दवा ले रहे हैं जो आपकी प्रतिरक्षा को, आपकी प्रतिरक्षा तन्त्र को, आपकी इम्यूनिटी को मज़बूत रखती है, तो आपको ये जानने की ज़रूरत नहीं है कि बैक्टीरिया यहाँ बैठा है, कि यहाँ बैठा है, कि यहाँ बैठा है, कि यहाँ से वार कर रहा है (शरीर के विभिन्न अंगों की ओर इशारा करते हुए)। वो कहीं भी होगा, आपने कुछ ऐसा ले लिया है कि बैक्टीरिया अब जहाँ भी होगा वहीं छटपटाकर मरेगा।
तो आप अगर ये कहोगे कि मैं पता कैसे करूँ, तो पता करना तो बड़ा मुश्किल है, क्योंकि ये सब कीटाणु-जीवाणु दिखायी तो देते नहीं हैं, ये तो चुपचाप भीतर प्रवेश कर जाते हैं — माया, चुपचाप भीतर चली गयी, न दिखायी दी, न उसका कुछ पता चला। तो ये माँग करेंगी आप कि हमें पता चले कि माया कहाँ है, कब है, तो ये मुश्किल है। कभी पता चलेगा भी, लेकिन अधिकांशतः पता नहीं चल पाएगा, वो बड़ी सूक्ष्म है, झीनी माया। उसकी काट का तरीक़ा ये है कि उसका सेवन करते रहो जिसे माया झेल ही नहीं सकती।
सच को माया नहीं झेल सकती। तुम सच का सेवन करते रहो, वो जहाँ भी होगी — कान के अन्दर होगी, बाल में छुपी बैठी होगी, दाँत में घुसी होगी, तलवे में बैठी होगी — वो जहाँ भी होगी तुम्हारे तन्त्र में, वो वहीं ख़त्म हो जाएगी। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा, वो ख़त्म हो गयी। जैसे तुम्हें उसके आने का पता नहीं चला, वैसे ही तुम्हें उसके ख़त्म होने का भी पता नहीं चलेगा। ठीक है, तुम्हें कोई झंझट ही नहीं, तुम्हें पता भी नहीं चला और उसकी सफ़ाई हो गयी।
तुम तो बस वो करो जो तुम्हें करना है; तुम सच का सेवन करते चलो लगातार। सच का सेवन करते चलो, वो जहाँ कहीं भी सिस्टम में होगी, वो अपनेआप साफ़ हो जाएगी। और दूसरा काम भी होता है उसमें, तुम्हारे तन्त्र में जो ऐसी चीज़ें होंगी जिन्हें ताक़त ग्रहण करनी चाहिए, अगर तुम सच का सेवन कर रहे हो, तो वो चीज़ें अपनेआप प्रबल होती रहेंगी। माया मिटती रहेगी और करुणा बढ़ती रहेगी, प्रेम बढ़ता रहेगा, सहृदयता बढ़ती रहेगी, चेतना बढ़ती रहेगी। और जैसे तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और माया मिटती रहेगी, वैसे ही तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम्हारे भीतर प्रेम बढ़ता रहेगा, करुणा बढ़ती रहेगी।
कभी कोई और आकर तुम्हें बताएगा कि आपका व्यवहार बहुत बदल गया है, अब आप बड़े कॉम्पैशनेट (करुणामय) हो गये हो। आप कहोगे, ‘अरे! ये कैसे हो गया, मैंने ऐसा योजना बनाकर तो नहीं किया, मैंने ऐसा जान-बूझकर तो नहीं किया। मैंने तो कोई प्रोजेक्ट कॉम्पैशन चलाया नहीं कि छः महीने में मुझे अपने कॉम्पैशन के स्तर को दूना करना है, तो मेरा कॉम्पैशन , मेरी करुणा इतनी बढ़ कैसे गयी।’
वो ऐसे ही होता है, जो सच का सेवन कर रहा है, चुपचाप उसके भीतर करुणा बढ़ जाती है, और चुपचाप उसके भीतर माया घट जाती है। तो आप न करुणा पर ध्यान दो, न माया पर ध्यान दो, आप तो सच के सेवन पर ध्यान दो, सबकुछ अपनेआप ठीक हो जाएगा, पूरा तन्त्र स्वस्थ रहेगा।
लेकिन इसी में ख़तरा भी है, समझना अब, अध्यात्म एलोपैथी की तरह नहीं है, आयुर्वेद की तरह है। एलोपैथी में ख़ास बीमारी के लिए ख़ास इलाज होता है। जितनी तरह की बीमारियाँ, उतनी तरह की दवाइयाँ। आयुर्वेद इतना ज़्यादा भेद नहीं करता।
उदाहरण के लिए त्वचा रोग है आपको, तो ऐसा नहीं होगा कि अगर डेढ़ सौ तरह के त्वचा रोग होते हैं, तो उनके लिए डेढ़ सौ अलग-अलग तरह की दवाइयाँ हैं। दवाइयाँ कुल होंगी दस-पन्द्रह ही तरीक़े की। और आपको कोई भी त्वचा रोग हो, उन्हीं दस-पन्द्रह दवाइयों में से दो-चार आपको लिख दी जाएँगी। वो कहेंगे कि आपके रक्त को शुद्ध किया जाना ज़रूरी है, या भीतर ताप बहुत बढ़ा हुआ है उसको घटाना ज़रूरी है, या कफ की समस्या है उसको ठीक करना है — वात, पित्त, कफ — तो वो इसी भाषा में बात करेंगे।
और आप अक्सर पाएँगे कि आपको जो नुस्ख़ा लिखकर दिया गया है और दूसरे व्यक्ति को, जो त्वचा रोगी है, उसको जो नुस्ख़ा लिखकर दिया गया है, उसमें समानता भी है, कुछ भेद भी होंगे लेकिन काफ़ी समानता भी होगी। क्योंकि वहाँ बात हो रही है पूरे तन्त्र को शुद्ध करने की, आयुर्वेद इस दृष्टि से आगे बढ़ता है।
एलोपैथी यह नहीं कहता कि पूरे तन्त्र को शुद्ध करना है। वहाँ आप कहेंगे कि साहब, चेहरे पर बार-बार मुँहासे होते हैं, तो मुँहासे पर लगाने की क्रीम दी जाएगी। जहाँ मुँहासा है वहाँ क्रीम लगा दो — लोकल सॉल्यूशन।
आयुर्वेद में ऐसा कम ही होगा कि आपको वहाँ पर (मुँहासे पर) लगाने के लिए कुछ दे दिया गया है। अब मुँहासा मुँह पर है और जो चीज़ दी गयी है वो पीने की है, तो वो पेट में जा रही है। पेट से वो कहाँ जा रही है? वो रक्त में जा रही है। और रक्त कहाँ जा रहा है? अरे! रक्त तो नखशिख पर्यंत पूरे शरीर में जा रहा है। और ये बात आपको विचित्र लगेगी, आप कहेंगे, ‘मुँहासा कहाँ है, यहाँ गाल में ज़रा सा, तो वो दवा फिर मेरे हाथ में क्यों जा रही है?’ वो दवा आपके हाथ में भी तो पहुँच गयी न? आपकी एक-एक कोशिका में पहुँच गयी वो दवा। ये आयुर्वेद का तरीक़ा है, यही अध्यात्म का तरीक़ा है।
नतीजा, नतीजा ये होता है कि आप किसी सरकारी अस्पताल चले जाइए तो वहाँ पर एलोपैथी विभाग भी होते हैं, आयुर्वेदिक भी होते हैं, यूनानी भी होते हैं, होम्योपैथिक भी होते हैं। सबसे लम्बी लाइन आप कहाँ देखते हैं? एलोपैथी में, क्योंकि वहाँ बिलकुल साफ़ होता है कि ये दवा ली और ये लाभ हुआ। आयुर्वेद में ये साफ़ नहीं होगा, क्योंकि वहाँ जो आप दवा ले रहे हैं, उसके बहुत लाभ हैं और छुपे हुए लाभ हैं।
अब हो सकता है कि आपने दवाई ली हो मुँहासे की; आप गये हो वैद्य के पास, चिकित्सक के पास, आपने कहा कि साहब, मुँहासे होते हैं। उसने आपको मुँहासे की दवाई दी, लेकिन उस दवाई से आपकी आँखों की रोशनी बेहतर हो गयी, बिलकुल हो सकता है ऐसा।
लेकिन आप उस चिकित्सक को इस बात का श्रेय ही नहीं देंगे कि उसने आपकी आँखों की रोशनी ठीक कर दी, क्योंकि ये तो आपने माँगा ही नहीं था। आपने क्या माँगा था? मुँहासा ठीक कर दो। लेकिन वो जो दवाई दे रहा है वो आपके पूरे तन्त्र को ठीक कर रही है, लेकिन धीरे-धीरे ठीक कर रही है।
एलोपैथी में दो दिन लगाओगे, लाभ दिख जाएगा। आयुर्वेद दो दिन में तो मुश्किल से ही लाभ देगा, दे भी सकता है, लेकिन सम्भावना यही है कि दो महीने लगाओ, और परहेज़ करते जाओ, करते जाओ। एलोपैथी तो परहेज़ भी नहीं माँगती!
बहुत लाभ होंगे, पूरा तन्त्र ही साफ़ हो जाएगा, पर धीरे-धीरे। वो तो लाभ होंगे ही जो तुमने माँगे, पर वो भी लाभ हो जाएँगे जो तुमने नहीं माँगे, कि गये थे मुँहासे के इलाज के लिए और बालों में रौनक आ गयी (आचार्य जी मुस्कुराते हुए), ऐसा बिलकुल होता है। गये थे मुँहासे के इलाज के लिए और बालों में रौनक आ गयी, ऐसा हो सकता है। या गये थे मुँहासे के इलाज के लिए और भूख खुल गयी, ऐसा हो सकता है।
तो अध्यात्म ऐसा ही है। एक चीज़ माँगो, पचास चीज़ें मिलेंगी, पर सब धीरे-धीरे और छुपे-छुपे।