क्या कोई माँसाहारी होकर भी आध्यात्मिक हो सकता है? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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क्या कोई माँसाहारी होकर भी आध्यात्मिक हो सकता है? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। क्या कोई माँसाहारी होकर भी आध्यात्मिक हो सकता है? और अगर कोई शाकाहारी नहीं, तो क्या वो ख़ुद को आध्यात्मिक भी नहीं बोल सकता?

आचार्य प्रशांत: बोलने को तो कोई कुछ भी बोल सकता है, जो बोलना है बोलो, मुँह तुम्हारा है। बोलने से क्या हो जाता है? एक ख़्वाहिश दिख रही है मुझे यहाँ पर; हड्डी चबाने की और साथ-ही-साथ ये घोषणा करने की कि मैं तो साहब बड़ा आध्यात्मिक हूँ।

तुम्हारी ख़्वाहिश है, पूरी कर सकते हो। लोग तरह- तरह की तमन्नाएँ पूरी करते रहते हैं, तुम ये वाली भी कर लो कि एक हाथ से किसी नन्हे पशु की गर्दन मरोड़ रहे हो और दूसरे हाथ में माला फेर रहे हो। एक हाथ में किसी बेज़ुबान जीव का ख़ून लगा हुआ है और दूसरे हाथ से तिलक कर रहे हो, टीका- चन्दन।

जो करना चाहो तुम कर सकते हो, लोगों ने पता नहीं क्या- क्या किया है, और वो सब करने के बाद भी उन्होंने अपनेआप को धार्मिक-आध्यात्मिक क्या, गुरु भी बोल दिया है, अवतार भी बोल दिया है। लेकिन सच दूसरी चीज़ होती है, सच का हमारे दावों, हमारे कथनों, हमारे वादों से बहुत कम सम्बन्ध होता है। अध्यात्म के मूल में करुणा होती है। करुणा अपने प्रति, करुणा सारे संसार के प्रति। अपने प्रति अगर करुणा नहीं होगी तो तुम अपने दु:ख को शान्त करने कैसे निकलोगे, बोलो?

अध्यात्म किस चीज़ का विज्ञान है? अध्यात्म दु:ख के पार जाने का विज्ञान है। हम शोक में जीते हैं, हम तनाव में जीते हैं, हम चिड़चिड़े रहते हैं, हम क्रोधित रहते हैं, हम चिंतित रहते हैं और अपनी ये दशा हमसे झेली नहीं जाती।

ये दशा लगभग सभी की होती है पर कुछ ही लोग होते हैं जिन्हें अपने प्रति इतनी करुणा, इतना प्रेम होता है कि वो कहते हैं कि इस दशा की चिकित्सा करने के लिए मुझे जो क़ीमत चुकानी पड़े, जो साधना करनी पड़े, मैं करूँगा। ऐसे लोग आध्यात्मिक हो जाते हैं, बात समझ में आ रही है?

तो अध्यात्म के मूल में क्या है? अपनी ही दशा के प्रति करुणा। जैसे कि तुमने अपनेआप को ही घायल, बीमार, चिंतित, शोकाकुल देखा, ज़मीन पर पड़े देखा और तुम कह रहे हो, ‘ये आदमी बहुत बुरी हालत में है, इसको मदद चाहिए, इसका ठीक होना ज़रूरी है’। समझ रहे हो?

तुमने अपनेआप को ही देखा कि ये आदमी बहुत ख़राब हालत में है और चूँकि तुम प्रेम करते हो स्वयं से, तो तुमने अपनी हालत को ठीक करने के लिए जो भी कदम आवश्यक थे वो उठाए। ये अध्यात्म है, स्वयं की आंतरिक चिकित्सा करने की कोशिश को, कला को, साधना को, विज्ञान को अध्यात्म कहते हैं।

अब जो निकलता है अपने दु:ख के उन्मूलन के लिए, जो कहता है कि मेरी हालत बड़ी ख़राब है, मैं तड़प रहा हूँ भीतर से, मुझे ठीक करना है स्वयं को। उसे बीमार के पास जाना पड़ता है, बीमार कौन है? वो ख़ुद। अगर आपको किसी की चिकित्सा करनी है तो उसकी नब्ज़ टटोलनी पड़ेगी न, उसका माथा छूना पड़ेगा न, तापमान लेना पड़ेगा। उसका ख़ून कैसा है, उसका जिगर कैसा है, हृदय कैसा है, धड़कन कैसी है, इन सब बातों का माप, हिसाब लेना पड़ेगा न।

तो जो व्यक्ति आध्यात्मिक होता है, जो कहता है कि मुझे अपनेआप को ठीक करना है क्योंकि प्यार करता हूँ अपनेआप से। उसे अपना तापमान लेना पड़ता है, कौन सा तापमान? आंतरिक तापमान। उसे अपनी नब्ज़ लेनी पड़ती है, कौन सी नब्ज़? आंतरिक नब्ज़। उसे अपने हृदय की धड़कन गिननी पड़ती है, उसे अपने फेफड़ों का हाल जानना पड़ता है।

ये सब प्रतीक हैं, अर्थ समझ रहे हो न? हृदय कौन सा हृदय? ये वाला हृदय नहीं ये जो माँस का हृदय है, ये नहीं। ये वाले फेफड़े नहीं, माने अंदर जो कुछ चल रहा है उसे उसका परीक्षण करना पड़ता है।

जैसे तुम जाते हो पैथोलॉजी में, वहाँ पर अपना ख़ून देकर के आते हो। उससे इतने तरह की फिर रिपोर्ट आ जाती हैं, वैसे ही अध्यात्म में मन की जाँच होती है। जैसे पैथोलॉजी में जाँच होती है ख़ून की और शरीर के अन्य हिस्सों की, द्रव्यों की, पदार्थों की। वैसे ही अध्यात्म में किसकी जाँच होती है? मन की जाँच होती है।

और फिर वहाँ जो कुछ ऊँच-नीच पता चलती है, तुम कहते हो; अरे, अरे, अरे, अरे, अरे, बड़ी गड़बड़ हो गई, इतनी ऊँच-नीच चल रही है। और वो भी इतने प्यारे जीव के साथ। वो प्यारा जीव कौन है? तुम ख़ुद हो। तो मुझे ये ही ऊँच-नीच ठीक करनी है। लेकिन इस प्रक्रिया में साथ-साथ एक दूसरी घटना हो जाती है वो घटना ये हो जाती है कि जब तुम अपनी जाँच-पड़ताल, अपना परीक्षण कर रहे हो, तो तुम्हें पता चलता है कि अरे! मैं और ये जो दुनिया के बाकी जीव हैं, ये बहुत अलग हैं ही नहीं। बात समझ में आ रही है?

जैसे कि कोई इस ग़ुमान में रहता हो कि मैं तो साहब बड़ा श्रेष्ठ आदमी हूँ। मैं किसी दूसरी नस्ल का ही आदमी हूँ। पहले चलता था ऐसा; नस्लवाद ख़ूब चलता था, रंगभेद ख़ूब चलता था। तो बहुत सारे लोग, ज़्यादा नहीं आज से पचास-सौ साल पहले तक भी एक बेहतर, शुद्ध ख़ून की भी बात करते थे। वो कहते थे कि हम ज़रा बेहतर ख़ून के आदमी हैं। वो कहते थे हमारी नस्ल ही दूसरों की नस्ल से ज़रा श्रेष्ठ है। बात समझ में आ रही है? वो कहते थे कि ये देखिए साहब, हमारा ये ख़ून है। अभी भी कुछ लोग इस तरह की बात कर देते हैं नासमझी में वो कहते हैं, “हमारा ऐसा ख़ून है”।

फिर जब चिकित्सा शास्त्र ने थोड़ी तरक्क़ी की और उस तरक्क़ी की ख़बर आम जनमानस में प्रचलित होने लगी तो वहाँ पता चला कि भाई अमीर हो कि गरीब हो, ईसाई हो कि यहूदी हो, एशियाई हो कि अफ्रीकी हो कि यूरोपियन हो ख़ून तो सबका एक जैसा होता है और ख़ून में जो अन्तर होते हैं वो अन्तर इस बात पर निर्भर ही नहीं करते कि आप स्त्री हैं कि पुरुष है, एशियाई हैं कि अफ्रीकी हैं, ईसाई हैं कि यहूदी हैं। बात समझ में आ रही है?

ए है, बी है, ओ है। ए, बी, ओ, कहीं भी मिल जाएँगे। एशिया में भी मिल जाएँगे, अफ्रीका में भी मिल जाएँगे, आदमी में भी मिल जाएँगे, औरत में भी मिल जाएँगे। उसी तरीक़े से आरएच फैक्टर होता है। आप ये नहीं कह सकते कि अमेरिकन में हमेशा निगेटिव ही होगा या चीनी में हमेशा पॉज़िटिव ही होगा। तो ये फिर जो रक्त सम्बन्धी श्रेष्ठता का लोगों का दावा था या विशिष्टता का जो दावा था, वो बिलकुल पंक्चर हो गया, हवा निकल गई उसकी। कैसे हवा निकली? क्योंकि परीक्षण किया गया, आदमी के ख़ून की जाँच-पड़ताल की गई। जब जाँच-पड़ताल की गई तो पता चला; एक आदमी का ख़ून जैसा है वैसा ही दूसरे आदमी का है, एक आदमी के शरीर में जो गतिविधियाँ हो रही हैं वही दूसरे आदमी के शरीर में हो रही हैं।

अब मैं अपनेआप को नस्लीय तौर पर बहुत श्रेष्ठ समझता हूँ और मैं गया अपनी जाँच कराकर आया और वो कह रहा है कि देखिए साहब, हर आम आदमी के शरीर में शक्कर का स्तर या ग्लूकोज का स्तर इतना होना चाहिए और आपका इससे ज़्यादा है अगर आपका इससे ज़्यादा है तो आपको मधुमेह है। तो आप ये उससे थोड़ी कह सकते हैं कि साहब मैं ख़ास आदमी हूँ, ये तो आम लोग होते हैं जिनकी शक्कर का स्तर सौ से नीचे होना चाहिए। मैं तो ख़ास आदमी हूँ, मेरा साढ़े तीन-सौ भी है तो ठीक है, यर आप नहीं कह सकते न?

तो जब वो जाँच होती है तो आपको साफ़ पता चल जाता है कि आपके शरीर में और दूसरों के शरीर में एकदम समानता है और दूसरों पर जो पैमाने लागू होते हैं वो आप पर भी लागू होते हैं। आप दूसरों से अलग नहीं हैं, भले ही भीतर-ही-भीतर आप कितनी ही भावना लेकर बैठे हों कि मैं तो श्रेष्ठ हूँ। समझ में आ रही है बात?

इसी तरीक़े से जब आप अपने मन की जाँच-पड़ताल करते हैं तो आपको पता चलता है कि आपके मन में जो चल रहा है, जो पक रहा है, जो चाहते हैं और जो बीमारियाँ हैं, वो ही सबकुछ दूसरों के मन में भी हैं। बिलकुल पता चल जाता है कि मैं और दूसरे अलग-अलग हैं ही नहीं, एकदम अलग-अलग नहीं हैं।

पीड़ा उसको भी होती है, पीड़ा मुझे भी होती है। मुक्ति मैं भी चाहता हूँ, मुक्ति वो भी चाहता है। जीना मैं भी चाहता हूँ, जीना वो भी चाहता है। डरता मैं भी हूँ, डरता वो भी है। प्यार मुझे भी होता है, प्यार उसे भी होता है। मैं अलग नहीं हूँ; हाँ, अहंकार को बहुत भाता है ये कहना कि मैं तो अलग हूँ, विशिष्ट हूँ पर वास्तव में मैं अलग नहीं हूँ।

जितना मैंने अपनेआप को भीतर जाकर के टटोला, जितनी छानबीन की उतना पता चला कि कहाँ अन्तर है मुझमें और तुझमें। दिखने में अलग लगते हैं जैसे कि दो लोग हों, एक पैदा हुआ हो जापान में और दूसरा पैदा हुआ हो कनाडा में। बहुत दूरी है दोनों के बीच में लेकिन जब उनके शरीर की जाँच-पड़ताल हो तो पता चले, अरे! सबकुछ एक जैसा है, एक का लीवर निकाल करके दूसरे को लगाया जा सकता है, एक की आँख निकालकर कर के दूसरे को लगाई जा सकती है, एक का ख़ून दूसरे को चढ़ाया जा सकता है, एक की किडनी दूसरे में प्रत्यारोपित की जा सकती है, एक की हड्डी भी दूसरे में लगाई जा सकती है, एक की खाल भी दूसरे में लगाई जा सकती है, और अगर विज्ञान तरक्क़ी कर जाए तो एक का मस्तिष्क भी दूसरे को लगाया जा सकता है। और अभी तक ये दोनों क्या सोचते थे कि हम तो बिलकुल अलग-अलग हैं।

अहंकार ऐसा ही मानना चाहता है; मैं तो अलग हूँ। अलग होने में अहंकार बल पाता है, बात समझ में आ रही है? शारीरिक तौर पर भी अपनेआप को अलग मानता था। शारीरिक तौर पर हम अलग मानते थे तो फिर क्या हुआ? फिर होलोकॉस्ट (प्रलय) हुआ। होलोकॉस्ट के पीछे नस्लीय श्रेष्ठता का भाव था कि साहब हम तो अलग हैं, हम आर्यन लोग हैं, ये यहूदी लोग हैं, ये बेकार हैं और ये नस्ल ही दूसरी है।

इसी तरीके से अमेरिका में जो इतने दिनों तक ग़ुलामी की प्रथा चली उसमें भी क्या था? यही भाव कि ये जो काले लोग हैं ये तो हमसे ज़रा निम्न कोटि हैं।

मेडिकल साइंस ने ये बिलकुल प्रमाणित कर दिया कि ऐसा नहीं होता है। इसी तरीक़े से तुम्हें भीतर की मेडिकल साइंस में जाना पड़ेगा। तुम्हें भीतर जाकर के अपनेआप को टटोलना पड़ेगा कि चल क्या रहा है। उसके बाद दूसरे से अपनेआप को अलग नहीं पाओगे।

जब दूसरा वही है जो तुम हो तो दूसरे को अब बताओ कैसे मार- काट के खा जाओगे? आध्यात्मिक हो गए, अब दूसरों के प्रति हिंसा का भाव कैसे रख लोगे?

“पीर सबन की एक सी”

जानकार लोग कह गए हैं कि पीड़ा तो सभी की एक जैसी है।

“पीर सबन की एक सी मुर्गी हिरणी गाय”

कबीर साहब बोल गए हैं, बोले; आदमी हो, आगे दूसरी जो पंक्ति है साखी की उसमें कहते हैं। कहते हैं; आदमी हो, मुर्गी हो, हिरणी हो, गाय हो पीड़ा तो सभी को एक जैसी होती है। अगर तुम अपनी पीड़ा मिटाने में उत्सुक हो तो दूसरे को पीड़ा कैसे दे सकते हो? बल्कि तुम तो दूसरे की पीड़ा बर्दास्त ही नहीं कर पाओगे भले वो तुमने न दी हो। जब तुम दूसरे की पीड़ा नहीं बर्दास्त कर सकते तो दूसरे को अतिरिक्त पीड़ा कैसे दे सकते हो? प्राणघातक पीड़ा कैसे दे सकते हो?

तो ये सम्भव ही नहीं है कि कोई आदमी आध्यात्मिक हो और साथ-ही-साथ माँस चबाता हो, जानवर का ख़ून पीता हो, हो नहीं सकता। जिन लोगों को इस तरह का कोई भ्रम है, ग़लतफ़हमी है कि हम तो आध्यात्मिक हैं लेकिन साथ-ही-साथ चिकन-मटन, ख़ूब अंडा हमारा चलता है। तो वो इस ग़लतफ़हमी से बाहर आ जाएँ।

आपके पास अध्यात्म का 'अ' भी नहीं है मुझे मालूम है इससे 'अ’ से अहंकार को बड़ी ठेस पहुँचेगी। लेकिन कोई बात नहीं पहुँचनी चाहिए, झूठा अहंकार है। हम चाहते हैं हमें सबकुछ मिल जाए; एक हाथ में हमारे माँस रहे, जिससे हमारी ज़बान के स्वाद को बड़ा रस मिलता है, बड़ा मज़ा मिलता है और दूसरे हाथ में आध्यात्मिक होने का तमगा भी रहे। नहीं ये दोनों चीज़ें साथ-साथ नहीं चल सकतीं।

कोई व्यक्ति कभी ये दावा न करे कि वो पशुपीड़क होकर भी, माँसाहारी इत्यादि होकर भी आध्यात्मिक है, ऐसा सम्भव बिलकुल नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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