प्रश्नकर्ता: क्या खोज रहे हैं हम?
आचार्य प्रशांत: ये जितना कुछ हम देखते हैं, ये जो कुछ भी हम अनुभव करते हैं, सुनते हैं, इसका अनुभव हमें यूँ ही नहीं हो रहा। थोड़ा ग़ौर करेंगे तो आपको भी दिखेगा। कुछ भी आपको व्यर्थ ही नहीं दिख रहा, अकारण ही नहीं अनुभव हो रहा। कोई भी ध्वनि, कोई भी स्पर्श, कोई भी विचार आप तक निष्प्रयोजन ही नहीं पहुँच रहा। हम अपने सब अनुभवों में कुछ खोज रहे हैं। वास्तव में ये कहना भी ठीक नहीं है कि हम अनुभवों में कुछ खोज रहे हैं, चूँकि हम खोज रहे हैं इसलिए हम अनुभव ले रहे हैं।
बात समझिएगा। चूँकि हम खोज रहे हैं इसलिए हम अनुभव ले रहे हैं। सब अनुभव किसके होते हैं? अनुभवों के लिए क्या चाहिए? विषेयता, जो हम हैं ही। और क्या चाहिए अनुभवों के लिए? विषय। चूँकि हम खोज रहे हैं इसीलिए एक विषय से दूसरे विषय तक भटकते रहते हैं। भाई, खोजना है तो कहाँ खोजोगे? किसी विषय में ही खोजोगे न? मुझे कुछ खोजना है तो कहाँ खोजूँगा? या तो उस कमरे में खोजूँगा, या उस कमरे में खोजूँगा, अपनी जेब में खोजूँगा, किसी और से जाकर कुछ पूछूँगा, छत पर खोजूँगा, नीचे खोजूँगा। यही सब तो करूँगा। तो खोजने के लिए क्या चाहिए? विषय। और जिस भी विषय के पास जाओगे वो विषय तुम्हारा क्या बन जाता है? अनुभव। जेब में हाथ डाला कुछ अनुभव होगा, छत पर जाओगे कुछ अनुभव होगा, एक कमरे में जाओगे कुछ अलग अनुभव होगा, ये सब होता है न?
चूँकि हम खोज रहे हैं इसीलिए हमें अनुभव हो रहे हैं — समझिएगा — चूँकि हम खोज रहे हैं इसीलिए हमें अनुभव हो रहे हैं। तो सब अनुभवों के आधार में खोज बैठी हुई है। और सारे अनुभव कहाँ पर हैं? इस जगत में। माने जगत के आधार में ही खोज बैठी हुई है, किसकी? जो हमें चाहिए। उसी को अन्तिम लक्ष्य कह लो, उसी को सत्य कह लो, उसी को शान्ति कह लो, चाहो तो उसको आत्मा या परमात्मा कह लो। इसलिए उसको कहा जाता है जगतकर्ता। उसी के लिए ये पूरा जगत है।
और जगत क्या है? एक सतत् गतिशीलता। जगत चल रहा है न? तो इसलिए उसको बोलते हैं 'जगत-कर्ता'। जगत में जो भी कुछ हो रहा है, हम कहते हैं, 'वो कर रहा है'। वो नहीं कर रहा, कर हम ही रहे हैं पर हम ही उसके लिए हैं तो हमारे सारे काम भी उसके लिए हैं। तो इसलिए उसको कह देते हैं — जगत-कर्ता। ऐसे कह दो कि जगत में जो कुछ चल रहा है उसका नाम है बेचैनी। और ये सारी बेचैनी किसके लिए है? चैन पाने के लिए है, तो तुम चैन को कह सकते हो कि वो बेचैनी-कर्ता है।
जगत में जो कुछ चल रहा है वो क्या है? बेचैनी। और ये सारी बेचैनी किसलिए है? चैन पाने के लिए है। तो एक काव्यात्मक तरीक़े से ऐसा कह सकते हो न कि जो चैन है वो बेचैनी-कर्ता है। सारी बेचैनी को चैन ही चला रहा है, क्योंकि सारी बेचैनी चल रही है चैन तक पहुँचने के लिए। तो इस अर्थ में उसको कह देते हैं जगत-कर्ता, कि वो जगत का करतार है, वो इसको चला रहा है। क्योंकि ये चल ही रहा है उस तक पहुँचने के लिए, बिना किसी अपवाद के। तुम किसलिए चल रहे हो, बताओ? कौन है जो किसी और मंज़िल तक पहुँचने के लिए चल रहा है? जो आदमी जिधर को भी चल रहा है उस तक ही पहुँचने के लिए चल रहा है, फ़र्क नहीं पड़ता है कि कौन है।
दो लोग हैं, एक दाएँ जा रहा है एक बाएँ जा रहा है, हमें लगेगा विपरीत जा रहे हैं, विपरीत नहीं जा रहे हैं। दोनों का लक्ष्य एक ही है, दोनों की बुद्धि बस अलग-अलग है। एक को लग रहा है दाएँ जाकर मिल जाएगा, एक को लग रहा है बाएँ जाकर मिल जाएगा। तो हमें लगता है — देखो, हर इंसान की दुनिया में अलग-अलग चाहत है, ऐसा वैसा है। नहीं, कुछ नहीं है। मूल चाहत एक है, क्या? स्थिरता, शान्ति, अन्त, विश्राम, चैन। समझ में आ रही है बात?
जगत में कुछ भी ऐसा है जो स्थिर है, हिल ही नहीं सकता?
प्र: नहीं।
आचार्य: इसीलिए कभी परमात्मा को इस जगत का कभी आधार बोलते हैं और कभी इसकी धुरी भी बोलते हैं। धुरी समझते हो? ऐक्सिस। कि वो स्थिर है और उसके इर्द-गिर्द सबकुछ घूम रहा है। कभी उसको केन्द्र बिन्दु भी बोल देते हैं, कुछ भी बोल देते हैं। पर कुछ भी बोला जाए, भाव यही है कि उसके होने से सबकुछ घूम रहा है। जैसे पंखा है, पंखे की धुरी है, वो घूमती है कभी? लेकिन उसके होने के कारण पंखा घूमता रहता है। और धुरी भी घूमना शुरू कर दे तो क्या होगा? तुम घूमोगे जल्दी से, भागोगे — 'भागो यहाँ से कमरा छोड़ो, यहाँ पंखा ही घूम रहा है।'
धुरी स्थिर है तो पंखा कितनी मस्ती में घूमता रहता है न? पंखा इतनी गति करता है, डर लगता है कभी? क्यों? धुरी स्थिर है न? इसी तरीक़े से जो लोग सच्चाई को समझते हैं उन्हें कभी डर नहीं लगता। वो कहते हैं, 'सबकुछ हिल-डुल रहा होगा, धुरी तो स्थिर है न? हमारा कुछ नहीं बिगड़ेगा।' जब तक पंखे की धुरी स्थिर है, ये जो ब्लेड्स हैं — ब्लेड को तलवार भी बोला जाता है वैसे, तलवार के लिए एक नाम है ब्लेड। हम कह देते हैं कि इसकी ये पंखुड़ियाँ हैं, पंख हैं पर वो ब्लेड्स हैं, ब्लेड्स। वो काट सकती हैं पर किसी को नहीं काटतीं। क्यों नहीं काटतीं? क्योंकि धुरी स्थिर है। तो ऐसे वो जगत-कर्ता है, सबकुछ उसी के इर्द-गिर्द है, सबकुछ उसी के लिए है। सबकुछ उसी तक पहुँचने के लिए है। समझ में आ रही है?
हम पचास काम कर रहे हों, हम कुछ कर रहे हों, हम पानी का बिल जमा करने जा रहे हैं, हम नल की टोंटी ठीक कराने जा रहे हैं, हम नयी शर्ट खरीदने जा रहे हैं, हम टूटा चश्मा ठीक कराने जा रहे हैं, हम शादी करने जा रहे हैं, हम किसी की शवयात्रा में जा रहे हैं, वास्तव में हम जा एक ही तरफ़ रहे हैं, किस तरफ़? जिधर हमें लगता है कि हमें शान्ति मिलेगी, उधर ही तो जाते हो न? तो वास्तव में सारी गति किसकी तरफ़ है? शान्ति की तरफ़। ठीक है? तो वो जगत-कर्ता है। और उसको कहा दैदीप्यमान परमात्मा। दैदीप्यमान क्या होता है? प्रकाशित, स्व-प्रकाशित। जो आप अपना प्रकाश हो, जिसको किसी बाहर की रोशनी की ज़रूरत नहीं है, जो चाँद जैसा नहीं है कि सूरज की रोशनी से चमकता हो। जो स्व-प्रकाशित है, दैदीप्यमान। बाक़ी सब क्या है इस पृथ्वी पर, इस पूरे ब्रह्मांड में? सबका प्रकाश किसी वजह से है और इसीलिए किसी का भी प्रकाश सतत् नहीं है।
पृथ्वी पर जो धूप आती है वो कहीं और से आती है। चाँद को जो रोशनी मिल रही है वो कहीं और से मिल रही है। और तो और सूरज की रोशनी भी उसकी अपनी नहीं है, अपनी होती तो छिन क्यों जाती! हमसब जानते हैं कि सूरज ठंडा हो रहा है, हमसब जानते हैं कि एक दिन सूरज बुझ जाएगा। क्योंकि सूरज के पास भी ईंधन है और ईंधन सीमित है। वो हीलियम जब पूरी भस्म हो जाएगी उसके बाद थोड़े ही तुम्हें सूरज से रोशनी मिलने वाली है। वहाँ पर भी एक चल रहा है फ्यूजन रिएक्टर , और रिएक्टर को क्या चाहिए होता है? ईंधन, फ्यूल। वहाँ फ्यूल क्या है? हीलियम। वो जल रही है, रोज़ जल रही है, एक दिन पूरी जल जाएगी तो सूरज ही बुझ जाएगा।
यहाँ कुछ भी वास्तव में प्रकाशित नहीं है, यहाँ पर सबका उधार का प्रकाश है, या यहाँ पर सबका चुक जाने वाला प्रकाश है, ख़त्म हो जाने वाला प्रकाश है। 'वह अकेला है जिसका अपना प्रकाश है।' क्या प्रमाण है इस बात का? ये प्रमाण है कि जो भी हमें यहाँ प्रकाश दिखता है — प्रकाश माने अनुभव, आँखें प्रकाश में ही देख पाती हैं न? तो प्रकाश नहीं, तो अनुभव नहीं। यहाँ हमें जो भी कुछ अनुभव होते हैं उसी की ख़ातिर होते हैं तो उसको फिर कह दिया जाता है कि वो लाइट है। देखा है न?
धर्मग्रंथों में, आध्यात्मिक तल पर अक्सर सत्य को प्रकाश बोल देते हैं, रोशनी बोल देते हैं। कभी कह देते हैं, लेट देयर बी लाइट (रोशनी होने दो)। कभी हमसे शास्त्र कहते हैं कि "तमसो मा ज्योतिर्गमय"। ये क्यों? ज्योति क्यों बोल देते हैं? ये लाइट का कहाँ से उल्लेख आ जाता है? इसीलिए आ जाता है। वो है जो हमारी इन्द्रियों को ताक़त देता है। इन्द्रियों के पास ताक़त उधार की है जैसे चन्द्रमा के पास रोशनी उधार की है। वो है जो आँखों को देखने की ताक़त देता है ताकि आँखें उस तक पहुँच पाएँ। लेकिन ये आँखें पगली हैं, उस तक पहुँचने की बजाय इधर-उधर भटकती रहती हैं। समझ में आ रही है बात?
ये आँखें प्रकाश के स्रोत तक पहुँचने की जगह दर्पणों में जाकर के उलझ जाती हैं। ऐसी सतहों में जाकर उलझ जाती हैं जहाँ पर प्रकाश मात्र परावर्तित हो रहा है। इसको लगता है कि यही तो है, रोशनी यहीं से आ रही होगी क्या पता! जैसे कि कोई चाँद को पूजने लगे सूरज को भूलकर के कि 'आहा! हा! क्या चाँद की रोशनी है!' पर चाँद के पास कुछ नहीं है रोशनी के नाम पर। तो स्रोत है वो (परमात्मा), सब अनुभवों का स्रोत है वो, सब अनुभवों का अन्त भी है वो। वहीं से सब अनुभव आते हैं और उसी के लिए सब अनुभव आते हैं। बीच का जो सारा खेल है वो बस एक उलझाव मात्र है, अगर उस खेल को समझे नहीं। समझ गये तो फिर ठीक है, आनन्द ले लेते हैं उसका। बहुत कम लोग हैं जो समझ पाते हैं, उलझकर ही रह जाते हैं। उन्हें याद ही नहीं रहता कि कहाँ से आये हैं, न उन्हें ये याद रहता है कि कहाँ को जा रहे हैं। बीच में ही उनको लगता है कि बहुत सारे दीये हैं, मोमबत्तियाँ हैं, चाँद है, तारे हैं; 'आहा!हा-हा! कितना प्रकाश है!' समझ में आ रही है बात?
मन जगत है, हृदय मन का आख़िरी और शुद्धतम छोर है। मन जो इधर-उधर भाग रहा है वही मन जब अपनी मंज़िल पर पहुँच जाता है उसको हृदय बोलते हैं। मन जब तक बहका हुआ है उसको बोलते हैं ‘मन' और मन जब होश में आ गया, समझदार हो गया, थोड़ा जग गया तो उसको बोलते हैं ‘हृदय'। मन जब तक बहका हुआ है, उसे क्या नहीं मिलेगा? चैन नहीं मिलेगा। मन जब शान्त हो गया, माने हृदय बन गया तो उसको चैन मिल जाएगा, इसीलिए परमात्मा को ही हृदय बोल देते हैं।
मन जब तक बहका हुआ है उसे चैन मिलता नहीं है, वही मन जब सुलझ गया और शान्त हो गया तो उसको चैन मिल जाता है। मन की सुलझी हुई अवस्था को ही कहते हैं ‘हृदय'। मन और हृदय कोई अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं। मन ही जब पूर्णतया सुलझ जाता है, शान्त हो जाता है तो उसको कहते हैं ‘हृदय' और मन शान्त होगा ही कब? जब मन को वो मिल गया जो उसे चाहिए था। क्या चाहिए था? चैन। तो इसीलिए हृदय का ही दूसरा नाम 'चैन' है, हृदय का ही दूसरा नाम 'सत्य' है। तो ऐसे कह देते हैं कि वो परमात्मा हम सबके हृदय में रहता है। इसका मतलब ये नहीं है कि यहाँ (हृदय की ओर संकेत) रहता है, इसका मतलब ये है कि अगर मन सुलझ जाएगा तो परमात्मा मात्र बचेगा तुम नहीं बचोगे। मन सुलझा माने अहम् अब गया। अहम् गया तो परमात्मा मात्र बचा।
इन बातों को बहुत सूक्ष्म तरीक़े से पढ़ना होगा अन्यथा तुम इसमें फिर कितना भी उलझ सकते हो, कोई अन्त नहीं है। बार-बार अपनी छाती ठोककर कह सकते हो कि परमात्मा यहाँ बैठा है, यहाँ बैठा है। यहाँ कहीं नहीं बैठा है। बार-बार कह सकते हो कि सत्य तो प्रकाश है न, सत्य तो प्रकाश है न! और समझोगे ही नहीं कि यहाँ पर दीये या मोमबत्ती के प्रकाश की बात नहीं हो रही है, यहाँ पर अनुभव की बात हो रही है, जैसे कि प्रकाश में ये आँखें कुछ भी अनुभव कर पाती हैं। तो अनुभव की बात हो रही है कि सब अनुभव परमात्मा के लिए ही हैं। और परमात्मा से मेरा मतलब कोई ऊपर की चीज़ नहीं है, परमात्मा माने आत्मा ही। एक ही सत्य है, पाँच-सात नहीं होते कि एक को एक नाम दो, एक को कोई और नाम दो, एक को फिर कोई और नाम दो।
उस सत्य का ही नाम आत्मा होता है। और वो आत्मा चूँकि परम है, अल्टिमेट है तो इसीलिए उस आत्मा को ही कह देते हैं ‘परमात्मा'। जो कुछ भी तुम्हारे पास है उसका पूरा उपयोग करना है उसे जानने के लिए। और इधर-उधर की व्यर्थ बातों में उलझने के लिए नहीं तुमको ये संसाधन मिले हैं। मन, बुद्धि, स्मृति, तमाम तरह का सामर्थ्य, बाहुबल, तुम्हारी सारी सम्पदाएँ, ये मनुष्य जन्म; ये तुम्हें इसलिए नहीं मिला है कि पड़ोसी के घर में आज क्या पक रहा है ये जानते रहो। तुम्हें क्या जानना है? तुम्हें सच्चाई जाननी है। कढ़ी-पकौड़े में मिर्च कितनी डली है ये जानकर तुम्हें कुछ नहीं मिल जाएगा। लेकिन हमारी रुचि यही सब जानने में रहती है। हम क्या जानना चाहते हैं ये जानना है तो अख़बारों को देख लो, समझ जाओगे हम क्या जानना चाहते हैं। देखते हो न क्या छपता रहता है? जो हम जानना चाहते हैं वही छपता रहता है और जो चीज़ जानने योग्य है वो अख़बारों में नदारद रहती है। चूँकि अख़बारों में वो चीज़ नदारद रहती है इसलिए हमारे जीवन से चैन नदारद रहता है। समझ में आ रही है बात?
वो अमरत्व पाते हैं — अमरत्व कैसे पाते हैं? अगर अपने सब संसाधनों का उपयोग तुम सही दिशा में करोगे, सही जिज्ञासा में करोगे, होश बढ़ाने के लिए करोगे तो कह रहे हैं उपनिषद् कि अमर हो जाओगे। कैसे? अमर कैसे हो जाओगे? मरोगे नहीं? अभी मरे तो नहीं न? मरने की बात कौन करता है? जो ज़िन्दा होता है। जो साँस ले रहा है, जी रहा है वही मरने की बात करता है न? तो मौत क्या है ग़ौर से देखो। तुम तो मरे नहीं, तुममें से कोई भी या मैं भी, कोई भी, मरना क्या है ये कोई नहीं जानता। नहीं जानता न? मृत्यु के अनुभव से तो हममें से कोई भी नहीं गुज़रा न? तो हमारे लिए मृत्यु क्या है? अनुभव तो नहीं है, तो फिर क्या है? विचार है। मृत्यु हमारे लिए क्या है? एक कल्पना है, एक विचार है। भविष्य में बैठी हुई एक आशंका है मृत्यु हमारे लिए। है न? तो अमर हो जाओगे माने तुम्हारे लिए जो ये चीज़ है मृत्यु, ये हट जाएगी। माने क्या हट जाएगा? मृत्यु का विचार हट जाएगा, मृत्यु की कल्पना हट जाएगी।
जीने के लिए सही प्रयोजन मिल जाएगा, करने के लिए सही काम मिल जाएगा। चुनौती में रहोगे या आनन्द में रहोगे। चुनौती में हो तो भी तुम्हें इधर-उधर के विचार नहीं आते, या आते हैं? कोई बढ़िया चुनौती तुम्हारे सामने है और तुम उसका सामना कर रहे हो, तुम्हें इधर-उधर के विचार आते हैं फालतू के? नहीं आते न? तो मौत का विचार भी नहीं आएगा। वैसे ही जब आनन्द में रहते हो मगन बिलकुल, तो व्यर्थ के विचार आते हैं क्या? नहीं आते न? वैसे ही मौत का विचार भी नहीं आएगा। तो जो सही जीवन जीने लग जाते हैं वो अमर हो जाते हैं। क्योंकि मौत हमारे लिए एक विचार से अलग है क्या, बताओ तो। अनुभव तो नहीं है न मौत?
क्या है फिर से समझो। मृत्यु हमारे लिए क्या है? एक आशंका है, एक भय है, एक विचार है, एक अनहोनी है। और वो तुम्हारे लिए तभी तक है जब तक तुम उसके बारे में सोच रहे हो और तुम सोचोगे उसके बारे में तभी जब तुम्हारे पास उसके बारे में सोचने की जगह होगी। जो सही खोज में लग जाता है, जिसका मन, ध्यान, बुद्धि, जीवन ही पूरा सच को जानने में लग गया अब उसके पास स्थान कहाँ है और अवकाश कहाँ है कि वो मौत वगैरह का ख़्याल करेगा कि 'अरे! मैं सड़क पर मर रहा हूँ, कुत्ते की मौत मर रहा हूँ। मेरा शरीर जल रहा है, मेरे साथ ऐसा हो रहा है, मैं अस्पताल में भर्ती हूँ, मेरे पास अपनी सर्जरी के पैसे नहीं हैं, इन्शोरेंस वाले मान नहीं रहे हैं, मेरा कोई दोस्त मुझे देखने नहीं आ रहा।'
अगर आपको इस तरह के ख़्याल आते रहते हैं तो सीधा अर्थ क्या है? आप अस्तित्वगत रूप से भयंकर बेरोज़गारी से पीड़ित हो। हो सकता है कि सांसारिक रूप से आपके पास रोज़गार हो, नौकरी हो, लेकिन अस्तित्व की दृष्टि में आप पूरे बेरोज़गार हो, जिसको बोलते हैं वेला। कुछ और काम नहीं है, क्या कर रहे हैं बैठकर? ये सोच रहा है — 'मैं सड़क पर पड़ा हुआ हूँ, मर रहा हूँ और मेरे ऊपर से ट्रक गुज़र रहे हैं।' ये ऐसा हरकत कर रहा है। ऐसा हरकत क्यों कर रहा है? क्योंकि सारी ऊर्जा, जिसकी बात हो रही है यहाँ पर — मन, ध्यान, बुद्धि, हृदय ये सब जिधर को जाने चाहिए थे उधर को भेजे नहीं तो अभी ये बिलकुल खाली बैठे हुए हैं एकदम। ये खाली बैठे हुए हैं और ये व्यर्थ की इधर-उधर की दौड़-धूप कर रहे हैं। इस तरह की सोच रहे हैं कि ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा।
अरे तुम काम करो न! और अगर काम तुम्हारा बढ़िया चल रहा है तो मौज करो न! या तो एक सैनिक की भाँति जूझते नज़र आओ कि अभी दिन का समय है जूझ रहे हैं या अगर साँझ ढल गयी है, बढ़िया दिनभर लड़ाई लड़ी है तो अपनेआप को फिर पुरस्कार दो, पारिश्रमिक दो, मौज मनाओ।
सैनिक को हक़ होता है रातों को नाचने का और अगर रात और गहरा गयी है तो गधा-घोड़ा सब बेचकर सो जाओ। तुम्हारे पास डरने का, आशंकित होने का समय कहाँ से आ गया बताओ न? दिन भर क्या कर रहे थे? जूझ रहे थे, रण-क्षेत्र में थे। समय था कि हाय-हाय मर जाऊँगा? 'कोई समय ही नहीं था, डरे कौन?' फिर साँझ को क्या कर रहे थे? 'लड़ाई ख़त्म करके आ गये, बहुत सारे ज़ख्म हैं लेकिन साथ-ही-साथ छाती में ये गौरव है कि पूरे दिन दुश्मन को पीठ नहीं दिखायी। घाव ख़ूब खाये हैं, दर्द भी हो रहा है, ये सब हो रहा है।' तो अब क्या करेंगे? 'अब ब्लैक टी पिएँगे और नाचेंगे — तुम कुछ भी पी सकते हो, तुम्हारी मर्ज़ी है; मैं अपनी ब्लैक टी पीऊँगा — अब नाचेंगे।' तो अब जब नाच रहे हैं तो डरने का समय किसके पास है? कि है? नहीं है।
अब दिनभर लड़ रहे थे उसके बाद घंटा-दो घंटा नाच लिये तो अब क्या होगा? अब आएगी नींद, और ज़बरदस्त नींद आएगी। ऐसा खर्राटा मारकर सोओगे, डरने का समय किसके पास है! तुम अमर हो गये। उपनिषद् इस अमरता की बात कर रहे हैं। हम अमर हो गये। जिसने अपनी ज़िन्दगी सही जगह पर लगा दी, वो अमर हो गया। जिसने अपने सारे संसाधन सही दिशा में प्रेषित कर दिये, वो अमर हो गया। तो इसका मतलब फिर मरा हुआ कौन है? — मरेगा कौन नहीं कह रहा हूँ — मरा हुआ कौन है? जो ग़लत ज़िन्दगी जी रहा है। जो ग़लत ज़िन्दगी जी रहा है वो मरा हुआ ही है और जो सही ज़िन्दगी जी रहा है वो कभी नहीं मरने वाला, इतना अन्तर है।
'जो सही जी रहा है वो कभी नहीं मरने वाला?'
नहीं।
'और जो ग़लत ज़िन्दगी जी रहा है वो अभी ही मरा हुआ है?'
हाँ।
फिर से मुझे याद आ गया मिस्टर नटवरलाल। सुनाया था न एक बार? तो अमिताभ बच्चन ने गाया, ‘मुझे मारकर बेशरम खा गया।' एक शेर मिला था जंगल में। तो शेर के साथ क्या हुआ था, इसकी कहानी सुनाई जा रही थी गाकर के। तो बोलते हैं, ‘ख़ुदा की कसम बस मज़ा आ गया, और मुझे मारकर बेशरम खा गया।' कौनसा बेशरम? शेर। तो बच्चो को ये कहानी सुनाई जा रही है, तो बच्चे कहते हैं, 'मारकर खा गया, पर तुम तो ज़िन्दा हो!' — मैं खूब सुनता था जब छोटा था, बड़ा मज़ा आता था — ‘पर तुम तो ज़िन्दा हो!' तो गाने वाला क्या जवाब देता है? ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू!' हम मरे ही हुए हैं। मुझे मारकर बेशरम खा गया, खा जाएगा नहीं, मौत मुझे मारकर खा चुकी है, खा गयी, मैं जी रहा ही नहीं हूँ, तुम्हें लग रहा होगा कि मैं जी रहा हूँ, मैं ज़िन्दा नहीं हूँ।
ज़्यादातर लोगों का यही हाल है। वो लगते हैं कि ज़िन्दा हैं, वो मरे हुए हैं। और जो सही ज़िन्दगी जी रहा है वो जिस क्षण शरीर भी त्याग रहा होगा वो उस क्षण भी मरा नहीं। जब वो शरीर त्याग भी चुका है वो तब भी मरा नहीं।
प्र: जो आँखों से दिखता नहीं, उसे किस तरह से जाना जा सकता है?
आचार्य: जो आँखों से दिखता है उसे तो मिथ्या जाना जा सकता है न?
प्र: जी।
आचार्य: बस। यही जानना होता है कि आँखें धोखा देती हैं। इतना जान लिया आपने कि आँखें धोखा देती हैं तो बहुत है। फिर उसके बाद आप अपनी जानी हुई चीज़ को एक सुन्दर अभिव्यक्ति देने के लिए कह सकते हैं कि सच्चाई आँखों से देखी नहीं जा सकती। लेकिन ऐसा नहीं है कि आप सच्चाई के बारे में कोई बात बता रहे हो, वास्तव में आप आँखों के बारे में कोई बात बता रहे हो।
जब हम कहते हैं, 'सच्चाई वो है जो आँखों से देखी नहीं जा सकती' तो हमें ऐसा लगता है कि जैसे हम सच्चाई को देखकर आये हैं और अब सच्चाई के बारे में ये बता रहे हैं कि वो आँखों से देखी नहीं जा सकती। ये वक्तव्य सच्चाई के बारे में है ही नहीं। ये वक्तव्य किसके बारे में है? आँखों के बारे में, और आँखों के बारे में क्या कहा जा रहा है? 'इनसे जो कुछ दिखता है वो धोखा देता है, भाई! हमने ज़िन्दगी को बहुत आज़माया यही पाया। आँखें धोखा देती हैं, इन्द्रियाँ धोखा देती हैं, मन धोखा देता है, सब अनुभव धोखा देते हैं। धोखा ही देते हैं। कभी कम धोखा, कभी ज़्यादा धोखा; कभी प्रकट धोखा, कभी अप्रत्यक्ष धोखा। कभी धोखा पता चल जाता है उसी वक़्त कि धोखा हो गया, कभी उम्रभर पता नहीं चलता कितना बड़ा धोखा हो गया। पर धोखा ही धोखा है। धोखे के बस तल अलग-अलग हैं।'
आप एक चीज़ खरीदने गये हो बाज़ार। आप जो चीज़ खरीदने गये हो उसकी जगह आपको कोई दूसरी चीज़ बेच दे तो आप तुरन्त जान जाते हो आपको धोखा मिल गया। ठीक है न? आप एक चीज़ खरीदने गये थे, उसने आपको दूसरी चीज़ थमा दी तो आप कहते हो, 'धोखा हो गया, धोखा हो गया।' फिर आप दूसरी दुकान में जाते हो, वो आपको बिलकुल वही चीज़ दे देता है जो आपको चाहिए थी, तो आप कहते हो, 'धोखा नहीं हुआ।' ऐसा नहीं है। ये दूसरी तरह का धोखा हुआ है। धोखा यहाँ भी हुआ है, कौन कह रहा है यहाँ धोखा नहीं हुआ। धोखा यहाँ ऐसे हुआ है कि आप चीज़ ही ग़लत खोज रहे थे।
क्योंकि हम ग़लत हैं इसीलिए हर चीज़ जो हम खोजते हैं वो ग़लत है। आप ग़लत चीज़ खोज रहे थे और जो चीज़ आप खोज रहे थे वही किसी ने आपको दे दी; तो आपको धोखा हुआ है या नहीं हुआ है? कहिए। हुआ है न? पर धोखा हम इसको मानेगें ही नहीं। हम धोखा सिर्फ़ तब मानते हैं कि जो चीज़ हम माँगने गये थे उसकी जगह हमें कुछ और दे दिया गया हो। जैसे कि कोई आदमी बिलकुल बावला हो। वो माँगने निकला है, कह रहा है कि मुझे लाल ज़हर चाहिए, मुझे लाल ज़हर चाहिए। क्या चाहिए? लाल ज़हर चाहिए। और गया एक दुकान में, उसने उसको पीला ज़हर दे दिया। तो बोला, 'धोखा हो गया, भयानक धोखा हो गया।' और दूसरी जगह जा रहा है और कह रहा है, 'लाल ज़हर चाहिए, लाल ज़हर।' उसने लाल ही ज़हर दे दिया। बोला, 'देखो, यहाँ धोखा नहीं हुआ। ये बिलकुल सही जगह है।'
ऐसे तो हम गणना करते हैं, ऐसा हमारा हिसाब चलता है कि कब धोखा हुआ और कब धोखा नहीं हुआ। फिर मेरी बात समझ में नहीं आएगी; लोग कहेंगे, 'नहीं, हमेशा थोड़े ही होता है। कई बार तो नहीं होता धोखा, हम लाल ज़हर माँगते हैं, लाल ही मिल जाता है। देखिए, धोखा नहीं हुआ बिलकुल। जो माँगा था वही मिल गया।' जब आपको वो नहीं मिलता जो आपने माँगा था, वो आपको छोटा धोखा हुआ है। जब आपको वो मिल जाता है जो आपने माँगा तो वो आपको और बड़ा धोखा हुआ है। ज़्यादा दुख आपको किन चीज़ों से है? जो माँगा मिली नहीं, या जो माँगा और मिल गयी हैं और अब उनको ढो रहे हो और अब छूटे नहीं छूट सकते, भागे नहीं भाग सकते। बोलो! ज़्यादा बड़ा धोखा कब हुआ?
प्र: जो माँगा वो मिल गया।
आचार्य: हाँ, देखो।
प्र: इससे बचने का उपाय क्या है?
आचार्य: उपाय यही है कि जो माँगने चला है वो बाज़ार जाने से पहले अपनेआप से पूछे, 'क्या माँग रहा हूँ? कौन माँग रहा है मेरे भीतर का? क्या ऐसी ही चीज़ें मैंने सौ दफ़े पहले नहीं माँगी हैं? जब पहले उन चीज़ों से लाभ नहीं हुआ तो मैं क्यों मान रहा हूँ कि अब होगा?'
प्र२: पर आपने ये कहा है कि हमें जो अपनी चाहत का मिलता है वो बड़ा धोखा है और अपनी चाहत का नहीं मिलता, वो छोटा धोखा है। तो हमें पता कैसे चलेगा कि हम चाहते क्या हैं?
आचार्य: ऐसे मत पूछिए कि चाहते क्या हैं; ये देखिए कि जो चाह रहे हैं उसको चाहने की प्रक्रिया क्या रही है, वो चाहत कहाँ से आ गयी, और क्या वैसी चाहतें पहले नहीं आयीं थीं, उससे क्या मिलेगा। इधर-उधर क्यों आपको भागना है? आपके पास पहले ही बहुत मसाला मौजूद है, उसपर थोड़ा ध्यान दीजिए न। आपके पास चाहत क्या वर्तमान में नहीं मौजूद है? ये क्यों पूछ रही हैं कि और क्या चाहें?
प्र२: वह चीज़ क्या है जो सच में शान्त करती है?
आचार्य: आपके पास अभी कितनी चाहतें हैं? दो दर्जन होंगी कम-से-कम?
प्र२: हाँ।
आचार्य: इन दो दर्जन को आपने अनरियल जान लिया क्या? या आप रियल , इनको अनरियल जाने बिना ही पूछ रही हैं?
पहले आप ये कहिए न कि जो दो दर्जन चाहत थी ये सब अनरियल सिद्ध हो गयीं, तो अब चूँकि ये अनरियल सिद्ध हो गयी तो अब मुझे बताओ कि रियल क्या है। आप तो इन दो दर्जन को ही रियल मानती हैं, तो अब और कौन बताए कि रियल क्या है। यही रियल है, आपने तो इसी को रियल मान लिया है।
ये ऐसी-सी बात है कि मैं बहुत सारे संतरे लेकर घूम रहा हूँ और उन संतरों को मैं क्या मानता हूँ? सेब। संतरें क्या हैं मेरे? सेब। अब मैं कह रहा हूँ, 'मेरे पास दो दर्जन सेब हैं।' और फिर मैं ये भी पूछ रहा हूँ, 'सेब कहाँ मिलते हैं? सेब कहाँ मिलते हैं?' क्यों, तुम्हारे पास तो दो दर्जन सेब पहले से ही हैं। पहले तो तुम ईमानदारी से मानो न कि तुम्हारे पास सेब नहीं हैं, कि तुम्हारे सेब नकली हैं। उसके बाद हम शायद तुम्हें बता पाएँगे कि सेब कहाँ मिलते हैं या हो सकता है उसके बाद तुम्हें ये पूछने का मन ही न बचे कि सेब कहाँ मिलते हैं असली।
तुम नकली सेब से मुक्त तो होओ, फिर हम देखेंगे कि असली सेब की कहानी क्या है, कि असली सेब तुम्हें चाहिए भी या नहीं चाहिए। क्या पता ये नकली सेब से मुक्ति का नाम ही असली सेब हो? क्या पता नकली सेब जिसने छोड़ दी है वो फिर असली सेब माँगता ही न हो? नकली छोड़ना नहीं है, असली पहले पूछना है तो कैसे करें, बताइए? कैसे करें? सबकुछ तो भरा हुआ है। छोटे बच्चे आते हैं न ऐसे, एक हाथ में गेंद पकड़ रखी है और दूसरे हाथ में पत्थर उठा लाये हैं, और कह रहे हैं लड्डू चाहिए।
'जो हाथ में है वो तो छोड़ दे बेटा।'
'नहीं, लड्डू चाहिए।'
'कैसे दें लड्डू? नहीं दे सकते।'
प्र३: आचार्य जी, एक तरफ़ तो ये बात है कि सत्य की खोज में अगर लगे हैं जीवन भर तो मौत याद नहीं रहती या मौत का विचार नहीं आता, लेकिन ये भी तो कहा जाता है कि मौत को याद रखना होता है।
आचार्य: मौत को याद रखना होता है ताकि सत्य की ओर निकले रहो, अगर सत्य की तरफ़ ही देख रहे हो तो मौत को याद रखने की कोई ज़रूरत नहीं है। पर सत्य से जब भी तुम्हारी बेरुख़ी हो जाए, तुम सत्य की ओर जब भी पीठ करके खड़े हो जाओ तो ये मत समझना कि तुम दुनिया को देख रहे हो, जीवन को देख रहे हो, मौज-मज़े को देख रहे हो, तुम फिर मौत को देख रहे हो। इसलिए मौत को याद रखना होता है। किससे कहा जा रहा है मौत को याद रखो? उससे थोड़े ही जो पहले ही सत्य की ओर जा रहा है, उसके पास जगह ही नहीं है मौत को याद रखने की। उसके पास जगह कहाँ है मौत को याद रखने की?
एक कहानी है न, वो एक लड़की थी उसका दोस्त, प्रेमी कुछ रहा होगा; वो आया बहुत दिनों के बाद तो वो दौड़ी चली जा रही थी मिलने के लिए। रास्ते में, जाने मौलवी जी थे, पंडित जी थे वो अपना कुछ पूजा-अर्चना नमाज़ का आयोजन कर रहे थे। और वो बावली उसने देखा ही नहीं। उन्होंने जो कुछ बिछा रखा था अपना पूजा-वूजा करने के लिए, उसी पर पाँव रखकर आगे भाग गयी। तो वो पीछे से चिल्लाते हैं, 'अरे बावली, पागल, अधर्मी तुझे दिख नहीं रहा है?' तो वो बस एक पल के लिए रुकी, पीछे मुड़ी और बोली, 'मेरा तो जो प्रेमी है वो फिर भी इसी दुनिया का है, हाड़-माँस का है और तब भी मुझे इतना उतावलापन है कि मुझे ये सब तुम्हारी पूजा-अर्चना की कोई तैयारी दिखाई नहीं दी। मेरा तो जो है वो इसी दुनिया का एक साधारण बंदा है, इंसान है तो भी मुझमें इतना उतावलापन है, इतनी हड़बड़ी है कि मैंने ध्यान ही नहीं दिया कि यहाँ रास्ते में तुमने क्या बिछा रखा है। तुम्हारा तो जो प्रेमी है वो तो सर्वोच्च है, परम है, उसके बाद भी तुमको इतनी फ़िक्र है, इतनी फ़ुर्सत है कि तुम मुझे पीछे से आवाज़ें मार रहे हो और गालियाँ मार रहे हो? अगर तुममें मुझसे आधी भी उत्कंठा होती अपने प्रेमी को मिलने की तो तुम अब तक वहाँ पहुँच गये होते।' समझ में आ रही है बात?
तो जो सच्चाई की ओर जा रहा है उसको तो वैसे ही फ़ुर्सत नहीं होती है। उसको क्या करना है मौत को याद करके। उसको तो याद मौत आनी ही नहीं है। किसको बार-बार कहा जाता है? सन्तों ने सौ बार कहा मौत याद रखो, मौत याद रखो, किसको कहा जाता है 'मौत याद रखो'? जो सच्चाई की ओर नहीं जा रहा है, जिसने पीठ कर ली है, ठीक है? उसे याद रखना है। और अगर ठीक से याद कर लिया उस क्षण में जब सच की ओर पीठ कर रहे हो, ज़माने की ओर मुँह कर रहे हो, उस वक़्त पर अगर मौत याद आ गयी तो एकदम फट से फिरकी की तरह घूम जाओगे, यू-टर्न।
प्र४: आचार्य जी प्रणाम। आप कहते हैं कि मुक्ति एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है, कोई ऐसा बिन्दु नहीं है जहाँ मुक्ति होती है। मगर उपनिषद् बहुत जगह कहते हैं कि वह जो जान लेता है वो सब बन्धनों से मुक्त हो जाता है। इसको समझाएँ।
आचार्य: इसको ऐसे ही पढ़ लो — वह जो जानता हुआ चलता है। या ऐसे पढ़ लो — वह जो जान लेता है कि जानते चलना है। उपनिषद् इतना ही तो कहते हैं न कि वो जो जान लेता है वो सब बन्धनों से मुक्त हो जाता है। ये थोड़े ही बताते हैं कि क्या जान लेता है। उपनिषदों ने ये कहा है क्या कि वो जो जान लेता है कि मुक्ति एक आख़िरी बिन्दु है? ये तो नहीं कह रहे उपनिषद्। उपनिषद् कह रहे हैं, 'वो जो जान लेता है', क्या जान लेता है? कि जानते चलना है।
प्र५: प्रणाम आचार्य जी। जब हम कहते हैं कि हृदय की सुनो, दिमाग से नहीं; या फिर 'हृदय से सोचो', इसका क्या अर्थ है? हृदय या दिल तो कुछ सोच नहीं सकता।
आचार्य: नहीं, सोचने का काम हृदय का है ही नहीं, हृदय नहीं सोच सकता। सोचेगा तो मन ही। पर ये जो सोचने वाला मन है ये हृदय की ओर उन्मुख रहे। उन्मुख समझते हो? मुख कर रखा है हृदय की ओर, जैसे कि सुनने वाले के लिए कहते हैं कि उसे गुरुन्मुख होना चाहिए। गुरुन्मुख का क्या अर्थ होता है? जिसने गुरु की ओर मुख कर रखा हो; वैसे ही मन को क्या होना चाहिए? हृदय की ओर उन्मुख होना चाहिए, कि वो लगातार ऐसे देख रहा है हृदय को। सोचने का काम उसी का है, मन ही सोचेगा पर हृदय की ओर उन्मुख होकर सोचेगा।