क्या करूँ कि आपको कभी न भूलूँ? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

12 min
32 reads
क्या करूँ कि आपको कभी न भूलूँ? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, सत्संग का अर्थ थोड़ा समझाइए?

आचार्य प्रशांत: मन के ऊपर ऐसे प्रभाव का पड़ना जो मन की उलझनें कम कर दे, मन को हल्का कर दे। मन को इस प्रकार की संगति का मिलना सत्संग कहलाता है। मन रहता तो संगति में ही है न लगातार, वो विशेष संगति जो मन का आहार बन जाने की जगह मन को लीन कर दे, मन को घोल दे, वो कहलाती है सत्संग।

सत्संग हुआ या नहीं हुआ इसका फ़ैसला माहौल पर नहीं, आप पर निर्भर करता है। आप शांत हुए कि नहीं, आपने अपनेआप को घोलने की, थोड़ा हटने की अनुमति दी या नहीं; आप अनुमति दें तो साधारण माहौल भी सत्संग हो सकता है।

रोज़मर्रा की घटनाएँ, कोई साधारण बात, साधारण संगति, वो भी सत्संग हो सकती है अगर आप तैयार ही बैठे हों सीखने को, मिटने को। और आप तैयार न बैठे हों तो बाहर का बड़े से बड़ा आयोजन भी आपके लिए सत्संग नहीं है। बाहर आयोजन चलता रहेगा, भीतर उपद्रव चलता रहेगा।

कल हम बात कर रहे थे न कि अंततः तो सबकुछ मेरी मर्ज़ी पर है। सत्संग भी आपकी मर्ज़ी पर है। बाहरी माहौल कुछ संयोग की बात है, कुछ कृपा की बात है। कभी अच्छा मिल गया, कभी बुरा मिल गया। पर अच्छे-से-अच्छा भी आपके काम नहीं आएगा और साधारण-से-साधारण माहौल भी दवा बन सकता है, बात आपकी तैयारी, आपकी सहभागिता, आपकी उत्कंठा की है।

कहिए, सत्संग हुआ आपका कि नहीं हुआ?

प्र: अभी नहीं हुआ ।

आचार्य: तो क्या मतलब फिर उसका?

प्र: नहीं समझ में आता।

आचार्य: अरे! फिर तो अभी जो बात बोली वो भी समझ में नहीं आयी। अभी क्या बात बोली? कि बात समझदारी की नहीं है; किसकी है? मर्ज़ी की है। तो अगर सत्संग नहीं हो रहा, तो इसका अर्थ क्या है? मर्ज़ी नहीं है।

प्र: खोट है।

आचार्य: खोट नहीं है, अपनी मर्ज़ी कभी खोट थोड़े होती है। खोट दिख ही रही होती, तो मर्ज़ी खोट की तरफ़ की क्यों होती। हमें खोट इत्यादि नहीं दिख रही होती, हमें लाभ दिख रहा होता है। अहम् को इसमें भी लाभ दिख सकता है कि कुछ समझा न जाए। क्योंकि समझना ख़तरनाक हो सकता है।

एक पोस्टर लगा रहता है हमारे यहाँ पर कई बार — वी हैव अ ग्रेट इंटरेस्ट इन नोट अंडरस्टैंडिंग। (न समझने में हमारा बड़ा स्वार्थ है।) क्योंकि समझ लिया तो ख़तरा हो जाएगा, कुछ करना पड़ेगा। तो इससे अच्छा समझो ही मत।

तो दो बातें हो सकती हैं — या तो आपकी मर्ज़ी नहीं समझने की या ये भी हो सकता है कि अभी आप पर दया-कृपा ही न हुई हो। यहाँ जो आपको माहौल दिया गया उसमें ही इतनी शक्ति न हो कि आपको समझाने के लिए वो आपको प्रेरित कर सके। ये भी हो सकता है। दोनों का संयोग, दोनों का संगम चाहिए होता है — बाहर से एक अच्छा, ऊँचा, प्रकाशित माहौल भी मिले और भीतर पूरी उत्कंठा हो कि अंधेरा त्यागना है।

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। आचार्य जी निवेदन है कि हमें आप हमेशा स्मरण रहें, कभी भूल न जाएँ। इसके लिए क्या करना होगा ?

आचार्य: मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा, वो आपको करना है। मुझे जो करना है वो मैं लगातार कर ही रहा हूँ। उसके लिए तो आपके आग्रह की आवश्यकता भी नहीं है।

आप सुबह से यहाँ नहीं थे, मैं ऐसा ही कुछ कर रहा था जो आपके ही काम आएगा। आप थोड़ी देर बाद इस शहर में भी नहीं होंगे, मैं तब भी ऐसा ही कुछ कर रहा होऊँगा जो आपके काम आएगा। और उसके लिए मुझे न आपकी प्रार्थना चाहिए, न आपसे प्रेरणा चाहिए; वो मेरी निजी बात है, आत्मिक। वो तो मैं करता ही रहूँगा।

तो मेरी ओर से जो करा जा सकता है वो हो रहा है, आगे भी होता रहेगा। शरीर है, होता रहेगा; जब शरीर नहीं होगा तो किसी और तरीक़े से होता रहेगा, पर होता रहेगा। सवाल ये है कि आपकी ओर से होगा या नहीं होगा। अब आपकी आप जानिए भाई।

प्र: हम भी प्रयास करेंगे।

आचार्य: करिए, प्रयास करिए; आदमी के हाथ में इतना ही है। अपनी ओर से पूरा प्रयास रखिए। प्रयास पूरा होता है तो फिर प्रयास को अनपेक्षित मदद मिल जाती है पता नहीं कहाँ से, प्रयास पूरा रखिए।

प्र३: यहाँ आने से पहले मैं मंदिर नहीं जाता था, गुरु में विश्वास नहीं था। किताबें पढ़कर जो सीखता था वो सीखता था। जैसे आपने बताया कि भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं, तो एक गुरु चाहिए होता है जो आपको बता सके। उनकी आवश्यकता हमेशा रहती है। उसके बारे में प्रकाश डालें।

आचार्य: तुम्हें किसी-न-किसी की तो सुननी ही है। अहम् एक अविश्वास का नाम है, अपूर्णता का नाम है, अश्रद्धा का नाम है, अज्ञान का नाम है, अकेलेपन का नाम है। उसे कोई-न-कोई तो चाहिए जिसकी वो सुने। किसी का तो हाथ पकड़ेगा, किसी दूसरे पर तो भरोसा करेगा, उसकी मजबूरी है।

तो जब तुम कहते हो कि धर्म, मंदिर, गुरु आदि में विश्वास नहीं था तो तुम आधी ही कहानी बता रहे हो। साथ ही साथ ये भी बताओ कि किसमें विश्वास था। क्योंकि अहम् किसी-न-किसी पर तो विश्वास कर रहा होगा। धर्म पर नहीं कर रहा है, शास्त्रों पर नहीं कर रहा है, गुरु पर नहीं कर रहा है, तो किसी और पर कर रहा होगा।

अनुयायी सब होते हैं। जो ये भी कहते हैं कि हम किसी के भक्त नहीं हैं, हम किसी की नहीं सुनते, वो भी किसी-न-किसी की तो सुनते ही हैं। हाँ, इतना है कि वो धर्म की नहीं सुनते। धर्म की नहीं सुनते तो अधर्म की सुन रहे होंगे। सुनते तो सभी हैं किसी-न-किसी की।

आत्मा मात्र होती है जिसे किसी की सुननी नहीं पड़ती, जिसे किसी का साथ नहीं चाहिए। बाक़ी तो सबको सुनना पड़ता है।

संगत भी चाहिए।

गुरु सही संगत का नाम है। गुरु उस दृश्य का नाम है जो तुम्हारी आँखों को शीतल कर दे। गुरु उस शब्द का नाम है जो तुम्हारे मन को मौन कर दे।

और ऐसा नहीं है कि गुरु नहीं होगा तो तुम्हारे जीवन में दृश्य या शब्द नहीं होंगे। देख तो रहे ही हो, सुन तो रहे ही हो, सवाल ये है कि जिसको देख रहे हो और जिसकी सुन रहे हो उसकी वजह से जिंदगी में रोशनी आ रही है या अंधेरा, मौन आ रहा है या शोर। तो गुरु वो दृश्य है, गुरु वो शब्द है, गुरु वो देह है, गुरु वो रूप है जो जीवन में प्रकाश को ले आये, मौन को ले आये, शांति को ले आये, बोध को ले आये।

और ये बिल्कुल मत कहना कि हम किसी की नहीं सुनते, हम तो अपनी सुनते हैं। अहम् के पास अपना कुछ होता ही नहीं। वो कंगाल है, वो बंजर है, उसके पास अपना कुछ नहीं होता। उसके पास तो जो होता है दूसरे का ही होता है।

तो प्रश्न ये है कि वो दूसरा कौन है जिस पर अहम् आश्रित हो रहा है और उस दूसरे का अहम् पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। तो सारा खेल उस दूसरे को ही विवेक से चुनने का है। और मैं तीसरी बार चेता रहा हूँ — ये मत कहना कि हम किसी दूसरे की नहीं सुनते। किसी-न-किसी की तो सुनते ही हो; धर्म की नहीं तो अधर्म की, शास्त्रों की नहीं तो समाज की, सत्य की नहीं तो संसार की। सुनना तो तुम्हें पड़ेगा, वो मज़बूरी है तुम्हारी।

जो बड़े आत्मनिर्भर बनकर घूमते हैं, उन्हें भी ये पता नहीं है कि वो किसी और की सुन तो रहे ही हैं। उनमें बस अपने प्रति इतनी जागरूकता नहीं है कि वो जान पायें कि वो किसकी सुन रहे हैं। सुन सभी किसी और की रहे हैं।

जिन विचारों को तुम अपना कहते हो, जिन धारणाओं, मान्यताओं को तुम अपना कहते हो, वो भी किसी और से ही आयी हैं। वो भी तुमने कहीं-न-कहीं से सोखी ही हैं, ग्रहण ही करी हैं। हाँ, तुम्हें अब लगने लग गया है कि वो तुम्हारी अपनी बात है; ग़लतफ़हमी का हक़ सबको है ।

प्र३: आचार्य जी, हमें समाज में तो रहना ही है?

आचार्य: किस समाज में? ये समाज नहीं है क्या? (सामने बैठे श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए)

प्र३: मेरा मतलब है कि सोशल स्ट्रक्चर, जॉब्स , वैसा वाला।

आचार्य: यहाँ जॉब्स नहीं हैं क्या? ये भूत-प्रेत बैठे हैं सब? या पशु-पक्षी हैं? (सामने बैठे हुए श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए) ‘मैं तो मनुष्यों के समाज में रहूँगा।’ यहाँ क्या आपत्ति है?

हाँ, यहाँ वालों को तुमसे आपत्ति हो तो समझ में आता है कि ये किसको भीतर प्रवेश दिये दे रहे हैं। तुम्हें क्या आपत्ति है? आदत। डर।

प्र४: मन के विचलन के ऊपर जो बात आगे बढ़ी थी, तो कुछ तो सुधार महसूस हो रहा है लेकिन उसको हम रोकें कैसे? हम चाहते हैं कि उधर न जाएँ उस तरफ़ बार-बार।

आचार्य: कल दो बातें कही थीं। उधर क्या है — इसकी पूरी खोज-ख़बर करिए। ये मत कहिए कि उधर नहीं जाना है, ये पूछिए कि उधर जाते हैं तो क्या दिखता है; वो देश क्या है, वहाँ अनुभव क्या होते हैं, वहाँ पाते क्या हैं, वहाँ गँवाते क्या हैं। और दूसरी बात मैंने कही थी — दूसरी तरफ़ जिधर आप कम ही गये हैं पर जिधर आपको जाना चाहिए, उधर जाने का थोड़ा अभ्यास करिए। कुछ प्रयोग करिए, कुछ जीवन में नया अनुभव लीजिए। ये दो चीज़ें साथ-साथ चलेंगी तो फिर पुरानी धारा टूटेगी।

समझ रहे हैं?

जहाँ जाने से आप घबरा रहे हैं, वहाँ घबराइए मत। क्योंकि पहुँच तो जाते ही हैं वहाँ।

प्र४: उस तरफ़ तो जाते ही हैं, बहुत विशेष रूप से जाते हैं।

आचार्य: बहुत विशेष रूप से जाते हैं। तो जब जाना उधर है ही तो फिर छटपटायें क्यों, क्यों अपनेआप को कोसें और परेशान हों। उधर जब जाइए तो उधर का पूरा सर्वेक्षण कर लीजिए कि यहाँ क्या है जो मुझे बुलाता है, और जो मुझे बुलाता है वो यहाँ पाया भी जाता है या नहीं।

मजबूरी को विधि बना लीजिए। जो चीज़ बहुत आकर्षित करती हो, जो चीज़ आपको विवश करके खींच ही लेती हो, जब खिंच जाएँ तो उसका अवलोकन शुरू कर दीजिए कि इसमें क्या है जो मुझे खींच रहा है। खिंचे तो चले ही आये हैं, हार तो हो ही गयी, अब देख तो लें कि हमसे जीता कौन है। ये जो हमको बार-बार विवश करके खींच लेता है, ये कौन है और क्यों खींच लेता है? हमें क्या दे रहा है? हमें क्या चाहिए?

लड़िए मत, हार ही जाइए पूरी तरह से। और साथ ही साथ जब सम्भव हो पाये तो दूसरी दिशा के, दूसरे आयाम के, वो जो दूसरा देश है, वहाँ टहल आया करिए। इधर (सामाजिक क्षेत्र) की पोल जितनी खुलती जाएगी और उधर (आध्यात्मिक क्षेत्र) का बोध जितना होता जाएगा, ये दोनों मिलकर आपकी वरीयताएँ बदल देंगे।

आश्रम में आजकल कोशिश चल रही है कि यहाँ जो सफ़ाई का स्तर है, उसको और उठाया जाए; कहीं ज़रा भी कोई धूल का कण, दाग़-धब्बा दिखायी न दे। तो उसके लिए दो तरफ़ा प्रयास हो रहे हैं। एक तो ये किया जा रहा है कि जो लोग, जो स्वयंसेवक या जो कर्मचारी सफ़ाई के लिए ज़िम्मेदार हैं, उन पर निगाह रखी जा रही है। उनको प्रेरित भी किया जा रहा है, डॉंटा भी जा रहा है।

उनसे कहा जा रहा है, ‘ग़ौर से देखो, कोना भी साफ़ हुआ है या नहीं। पंखे में तो कुछ लगा नहीं रह गया? ये चादर है, अरे! देखो इस पर यहाँ पर दाग़ है।’

इसको हम कह रहे हैं सर्वेक्षण। और एक काम और किया हमने, ये (एक स्वयंसेवी की ओर इशारा करते हुए) कल यहाँ के कर्मचारियों को ले गये थे एक अच्छे होटल में, बहुत अच्छे होटल में, और उनको पूरा घुमाया। क्या दिखाया उनको?

दोनों बातें जाननी ज़रूरी हैं, हम कितनी गंदगी में रह रहे हैं और कितनी सफ़ाई सम्भव है। जब ये दोनों बातें एक साथ दिखती हैं तो परिवर्तन आता है। और फिर जो लोग गये थे वहाँ होटल में, उन्होंने इतना ही नहीं किया कि इधर-उधर देखा हो, फिर उन्होंने जी भर के भोजन भी करा।

तो संदेश क्या गया?

जहाँ सफ़ाई है वहाँ तृप्ति भी है। सफ़ाई रखो, तर माल बार-बार मिलेगा। ये बात कही नहीं गयी, बिना कहे समझ ली गयी।

तो दोनों काम करिए — जैसे जी रहे हैं, जिधर को खिंचे जाते हैं, वहाँ के दाग़-धब्बों पर विशेष नज़र रखें: अवहेलना न करें, अनदेखा न करें। कुछ साफ़ दिख रहा हो तो भले उस पर आपकी नज़र न टिके, पर जैसे वो दीवार देखिए (सामने की दीवार को इंगित करते हुए), ज़रा सा वो काला दाग़ दिखा? देखिए, नज़र ऐसी होनी चाहिए, सीधे उसी को जाकर पकड़े। बाक़ी सब साफ़ हो तो हो, ये काला दाग़ कहाँ से आ गया! और हमारे तो कलंक ही कलंक हैं।

अपने जीवन का अवलोकन चाहिए होता है और संतों की जीवनी से परिचय। दोनों बातें — अपने जीवन का भी पता हो और शास्त्रों और संतों का भी पता हो, फिर परिवर्तन आता है। अवलोकन चाहिए, श्रद्धा चाहिए; ध्यान चाहिए, श्रद्धा चाहिए; ज्ञान मार्ग चाहिए, भक्ति मार्ग चाहिए। दोनों जब एक साथ मिल जाते हैं तो मुक्ति!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories