प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या हम शरीर और मन के अतिरिक्त भी कुछ हैं?
आचार्य प्रशांत: अगर शरीर और मन है, तो कौनसी आत्मा? तुमने पूछा, 'शरीर और मन के अतिरिक्त कुछ होता है?' माने तुमने दो का होना तो पक्का मान ही रखा है, किसका?
श्रोतागण: मन और शरीर।
आचार्य: और तुम कह रहे हो, 'ये दोनों तो हैं ही भाई साहब, कोई तीसरा भी हो तो बता दो।' तो मैं कह रहा हूँ, 'अगर ये दोनों हैं ही, तो तीसरे को छोड़ो तुम फिर।' तुम ये तो पूछ ही नहीं रहे कि ये शरीर क्या है, ये मन क्या है। तुम कह रहे हो, 'शरीर और मन के बारे में आप कुछ मत बोलिएगा गुरुजी, वो तो निसन्देह हैं ही, उनके अतिरिक्त कुछ होता हो तो बताइएगा।' तो फिर गुरुजी कहते हैं, 'अरे! तुम तो ज्ञानी हो, पहले ही जानते हो कि क्या है, क्योंकि अगर शरीर है और मन है तो फिर अखिल संसार है। फिर तो सत्य तुमने इन्हीं को बना लिया, अब तुम्हें किसी वैकल्पिक सत्य की क्या ज़रूरत?' और सत्य दो-चार तो होते नहीं, कि एक सत्य हो, फिर उस सत्य का कोई विकल्प भी मौजूद हो।
अध्यात्म में ‘है’ शब्द बड़ा पावन होता है, ‘है’, ‘अस्ति’। जो कह दे 'है', वही आस्तिक हो गया, ‘अस्ति’। तुमने एक आध्यात्मिक चर्चा में ‘है’ शब्द हल्के में उछाल दिया, कि शरीर और मन तो हैं। अब अगर शरीर और मन ही ‘अस्ति’ हैं, तो और क्या चाहिए? मन है तो समूचा संसार है न। फिर तो शरीर है, मन है, संसार है। ठीक है, यही है तो यही है।
जहाँ तक मन की बात है, जहाँ तक संसार की बात है, ‘इनमें’ आत्मा नहीं है। आत्मा का अनुसन्धान शुरू ही तब होता है जब कोई तन-मन की तरफ़ थोड़ा उदासीन हो जाता है, जब एक बे-रुख़ी छाने लगती है। “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!” कि हो तो भी ठीक, न हो तो भी ठीक, हमारी बला से! यहाँ से हमें कुछ बहुत मज़ा आ नहीं रहा है। जब चित्त से ऐसी उदासीनता उठती है, जो कभी ऊब बनती है कभी आह, तब अध्यात्म की शुरुआत होती है।
अध्यात्म कोई तीसरे नम्बर की चीज़ नहीं है, कि गुरुजी तन और मन के अतिरिक्त भी कुछ और है क्या। कि नम्बर एक दे दिया तन को, नम्बर दो दे दिया मन को, और आत्मा को दिया सान्त्वना पुरस्कार। विनर्स , रनर्स-अप और आत्मा को मिलेगा कॉन्सोलेशन प्राइज़ , 'आप भी हैं।' ऐसे नहीं! मालिक अगर है तो अव्वल नम्बर है, ये दूसरे-तीसरे का हिसाब नहीं है उसका।
मालिक अगर है तो फिर ऐसा है कि पहला भी वही है, दूसरा भी वही है, तीसरा भी वही है। नम्बर एक से लेकर नम्बर दस तक वही-वही है। गोल्ड , सिल्वर , ब्रॉन्ज़ सब उसी का है। ये सन्तुलन वाला खेल नहीं चलेगा, कि अच्छा आचार्य जी, आप कहते हो तो बस आपकी ख़ातिर दिल पर हाथ रखकर नम्बर तीन से नम्बर दो करे देते हैं। 'देखो, लेने-देने की बात करो। पहले था तन, मन फिर आत्मा। अब हो गया है तन फिर आत्मा फिर मन। अब इससे ज़्यादा रियायत नहीं दे सकते।' ऐसे नहीं!
और संसार के बाज़ार में सन्तुलन लोगों को बड़ा पसन्द है। कहते हैं, 'कुछ ऐसा करिए कि दुकान की मुनाफ़ाखोरी और आध्यात्मिक समाधि में सन्तुलन बना रहे। कोई ऐसी विधि बताइए न गुरुवर, कि कालाबाज़ारी भी चलती रहे और निर्वाण भी प्राप्त हो जाए। गुरुदेव, कोई ऐसा तरीक़ा हो सकता है कि मन्दिर में राम-राम चलता रहे और बिस्तर पर काम-काम भी चलता रहे? सन्तुलन बना कर रखेंगे बिलकुल।' मालिक अगर है, तो मन्दिर में भी है और बिस्तर पर भी है। तुम ये नहीं कर सकते कि उसको सुबह-शाम एक-एक घंटा याद रखेंगे और बाक़ी समय बिसार देंगे।
जीत की बात तो मैं कभी करता ही नहीं, जीत का भरोसा मैं किसी को दिलाता ही नहीं। तुम जीत चाहते हो, और मैं तुमसे कह रहा हूँ कि जीत तुम्हारी या तो ठीक अभी है या कभी नहीं होगी। जहाँ तक संसार के तल की बात है, इसमें तुम कभी नहीं जीतने वाले, अपनेआप को धोखा मत दो!
क्या जीत लोगे संसार में? अभी यहाँ पर आप लोग बैठे हुए हैं, आज वर्षा हुई है तो ये छोटे-मोटे कीट-पतंगे आ गये हैं, जीत सकते हो इनसे? होगे बड़े सिकन्दर तुम! और बैठे हैं बड़े ज्ञानी-ध्यानी गुरुजी, वो नन्हा-सा कीड़ा आकर के बैठ गया है उनके हिमालय पर (सिर की ओर इशारा करते हुए)। अब हटा सकते हो चोटी से तो हटा दो!
यहाँ कोई जीता है? दुनिया में तुम जितनी तरह की जीत चाहते हो, किसी को मिली है? सिकन्दर को मिली थी? तुम्हारे आज के महानुभावों, महापुरुषों को, किसी को मिल रही है? बोलो! अभी तुम ख्याति की चोटी पर चढ़े होते हो और थोड़ी देर में पता चलता है कि जूतम-पैजार! वही जो कल तक तुम्हारे गुण गा रहे थे, आज तुमको जूता बजा रहे हैं। यहाँ कौन जीता है? क्योंकि जीत तो जीत तभी है जब जीत पूर्ण और आख़िरी हो। यहाँ किसी की पूर्ण जीत होती है? मुझे बताना! अंशकालिक जीत मिल जाती है, दो दिन के लिए तुम अपनेआप को राजा समझ सकते हो, पर यहाँ राजा कोई हो पाया?
तो दुनिया में जीत की ख़्वाहिश रखो ही मत, यहाँ कोई नहीं जीतता। और तुम्हारी आख़िरी हार कभी टलती नहीं है, मौत उसका नाम है। होगे तुम बहुत बड़े विजेता, अगर तुम अपनेआप को संसार का संसारी समझते हो तो क्या मौत को हरा लोगे? है कोई ऐसा जो मौत को जीत पाया हो? तो संसार के तल पर किसी की जीत नहीं होती। “हारे को हरि-नाम।“ यहाँ तो हारे-ही-हारे हो। जिस दिन तुमने गर्भ से जन्म लिया था, जिस दिन दुनिया में पैदा होते ही रोये थे, चिल्लाये थे, उसी दिन तुमने अपनी हार की घोषणा कर दी थी, सुनने में बुरा लगता हो तो लगे।
यहाँ तुम जीतने इत्यादि के लिए पैदा नहीं हुए हो, मनुष्य जन्म माने हार। और नहीं हारना तो मैं कह रहा हूँ न, बचाकर दिखा दो शरीर को! तुम मृत्यु से क्या, सर्दी-पानी से भी तो नहीं बचा पाते शरीर को! अभी बैठे हो बड़ी आस्था में, ठंडी हवाएँ चलने लगें तो देखना कैसे कुड़कुड़ाओगे। हो गयी जीत? अभी घंटे-दो-घंटे बाद ही कई लोग पेट पर थोड़ा हाथ मलना शुरू कर देंगे, कि आचार्य जी, थोड़ा खाने-पीने का कुछ, "भूखे भजन न होय गोपाला।"
कैसे जीतोगे दुनिया में? रिश्ता बनाते हो दायें का, निकल जाता है वो बायें का, देखा है? दुनिया कभी तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार चली है? तुम भी कभी अपनी अपेक्षाओं के अनुसार चले हो? कभी चले हो? दूसरों को जितना दोष देते हो, अपनेआप को भी तो उतना ही देते हो न, कहते हो, 'ये मैंने क्या कर डाला!' यहाँ कौन जीत सकता है? यहाँ नहीं जीत सकते। तुम जीतना चाहते हो। जो जीतना चाहते हैं मैं उनसे कहता हूँ, 'फिर सही तल पर खेलो, जहाँ जीत पक्की है।'
दुनिया में जीत हमेशा भविष्य में होती है, और तुम हमेशा उस जीत के पीछे भागते रहते हो, वो नहीं मिलती, मौत मिल जाती है। दूसरी जगह है एक, जहाँ पर जीत आगे नहीं होती, जहाँ जीत अभी होती है, वहाँ की जीत का नाम है जीत के प्रति कृत-संकल्प हो जाना। तुममें जीत की ख़्वाहिश जग जाए, यही जीत है। तुममें मालिक की तमन्ना जग जाए, यही जीत है। वहाँ पर प्रार्थना ही प्राप्ति है, तुमने माँगा नहीं कि तुमने पाया।
दुनिया में माँगोगे, फिर श्रम करोगे, फिर तुम उम्मीद रखोगे कि अब मिल जाए। और मिलेगा भी तो सदा के लिए नहीं मिलेगा। दुनिया में जो भी कुछ माँगते हो, उसकी इच्छा और उसकी प्राप्ति के मध्य अन्तराल होता है, पहली बात। दूसरी बात, जो माँगा वो मिल भी गया तो उसकी प्राप्ति कभी पूर्ण नहीं होती। न पूर्ण होती है, न अनन्त होती है; सीमित प्राप्त होती है, आंशिक और अल्पकालीन।
कुछ और है जिसको तुम अभी, इसी समय, तत्काल धारण कर सकते हो, वो घटना ठीक अभी घट सकती है। अभी घट भी सकती है, और चूँकि वो तुम्हारे धारण करने से आता है हृदय में, इसीलिए तुम उसको तत्काल त्याग भी सकते हो, छोड़ भी सकते हो, सब तुम्हारे ऊपर है, मर्ज़ी तुम्हारी है। जीवन तुम्हारा है, तुम तय करते हो कैसे जीना है।
लगातार मुक्ति की चाहत के साथ जियो, लगातार मुक्ति को सर्वोपरि मूल्य देकर के जियो, यही मुक्ति है। साफ़-साफ़ समझ लो, क्या है मुक्ति? मुक्ति को जीवन में सर्वोच्च मूल्य देना ही मुक्ति है। मूल्य तो हम सब लगाते ही हैं न पचासों चीज़ों पर? जो मुक्ति पर उच्चतम मूल्य लगाये, जो मुक्ति पर अनन्त मूल्य लगाये, सो मुक्त है। कब मुक्त है वो?
श्रोता: अभी।
आचार्य: अभी मुक्त है। लेकिन मूल्य तुम पलट भी सकते हो। अभी तुम कह रहे हो मुक्ति सबसे ऊँची बात, तो तुम मुक्त हो। थोड़ी देर में तुम ही कह सकते हो, 'नहीं, मुक्ति से ज़्यादा ऊँचा तो कुछ और है', खेल पलट गया। अपरिवर्तनीय नहीं है कुछ भी। बात आ रही है समझ में?
तो संसार में तो तुम बस लड़ सकते हो, जूझ सकते हो। यही जीत है संसार में, क्या? कि जूझ गये।
“कबीर साँचा सूरमा, लड़े हरी के हेत। पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कट मरे, तबहुँ न छाड़े खेत।।“ ~ कबीर साहब
इतना ही बता रहे हैं कि पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कटकर मर सकते हो संसार में। संसार में ऊँचे-से-ऊँचा तुम्हें यही उपलब्ध हो सकता है कि मुक्ति की ख़ातिर कट ही मरो, ख़त्म हो जाओ। और शारीरिक रूप भर से कटने की बात नहीं कर रहे हैं। हरि के ख़ातिर जो लड़ता है, कटता है उसका अहम्। तो दुनिया में तुम्हारी उच्चतम उपलब्धि यही हो सकती है कि तुम्हारे बन्धन कट जाएँ। और वो बन्धन, याद रखना, देह पर नहीं हैं, देह ही वो बन्धन है। तो वो बन्धन लगातार बने ही रहेंगे, मतलब तुम्हें उन्हें लगातार काटते ही रहना होगा, अर्थात् जगत में जीने का अर्थ ही है लगातार संघर्षरत रहना।
अध्यात्म की ये परिकल्पना मन से बिलकुल निकाल दो कि अध्यात्म का मतलब है कि कभी एक आख़िरी, निर्णायक मुक्ति मिल जाएगी और उसके बाद हमें कुछ साधना, तपस्या करनी नहीं होगी। संसार का तो मतलब ही ये है कि तुम यहाँ निरन्तर संघर्षरत रहोगे-ही-रहोगे, जीव पैदा हुए हो। संसार में उच्चतम उपलब्धि फिर तुम्हारी क्या हो सकती है? ये कि तुम कह दो कि हमें बन्धन नहीं हैं, हम बन्धनों के विरुद्ध युद्धरत हैं। ये संसार में तुम्हारी उच्चतम उपलब्धि है, एक जीव की भाँति। हाँ, आध्यात्मिक तल पर, हृदय के तल पर तुम्हारी उच्चतम उपलब्धि क्या है? कि तुम आनन्दमग्न हो।
ये दोनों बातें समझो, साफ़-साफ़ समझो। जहाँ तक तन और मन की बात है, वहाँ तुम्हें अधिक-से-अधिक दुनिया में ये हासिल हो सकता है कि तुम लगातार तुम पर जो अन्धेरा और बन्धन चढ़े आ रहे हैं उनके ख़िलाफ़ चाक-चौबन्द रहो, उनके ख़िलाफ़ तुम्हारी तलवार उठी ही रहे। ये दुनिया में तुम्हारी ऊँची-से-ऊँची उपलब्धि होने वाली है, और ये होनी चाहिए। और हृदय के तल पर तुम्हारी उच्चतम उपलब्धि क्या है? पूर्ण मुक्ति, पूर्ण आनन्द। वहाँ कोई युद्ध नहीं, वहाँ पूर्ण विश्राम है।
तो विश्राम क्या तुम्हें मिलने वाला है शरीर के तल पर? नहीं, शरीर के तल पर तो लगातार रहेगा युद्ध और संघर्ष, यही ज़िन्दगी है। शरीर के तल पर आराम मत माँगने लग जाना। बहुत लोग अध्यात्म का यही अर्थ निकाल लेते हैं, कि किसी आश्रम इत्यादि में चले जाएँगे, वहाँ आराम करेंगे। जब तक जीवन है तब तक श्रम करना पड़ेगा। तुम पैदा ही कुरुक्षेत्र में हुए हो, तुम्हें लड़ना पड़ेगा। कृष्ण भी उसी कुरुक्षेत्र में मौजूद हैं और वो बार-बार तुमसे कह रहे हैं, 'पलायन नहीं, लड़ो!'
तो अगर तन और मन के तल पर लगातार संघर्ष है और रण है, तो फिर शान्ति और मौन और विश्राम कहाँ हैं?
श्रोता: हृदय में।
आचार्य: (हृदय की ओर इशारा करते हुए) हृदय में। जो चीज़ दिल की है, उसे बाज़ुओं की मत बना लेना! हृदय में सुकून रह सकता है, हृदय शान्त और स्थिर रहना चाहिए। शरीर तो बन्धन है, उसको तो खटना होगा, उसको तो कटना होगा। वेदान्त के पास जाओगे तो वेदान्त बार-बार कहेगा 'आनन्द-आनन्द', वेदान्त कहाँ की बात कर रहा है? हृदय की। बुद्ध के पास जाओगे तो बुद्ध का पहला ही आर्ष वचन है, “जीवन दुख है।“ और वो अधिक-से-अधिक इतना कहते हैं कि दुख से मुक्ति मिल सकती है अगर अष्टांग-मार्ग का पालन करोगे। तो बुद्ध कहाँ की बात कर रहे हैं? बुद्ध बात कर रहे हैं तन और मन की।
लोग सोचते हैं कि बुद्ध और वेदान्त का वक्तव्य अलग-अलग है। नहीं, अलग-अलग नहीं हैं, दोनों बातें अपनी-अपनी जगह पर सही हैं। वेदान्त कहीं और की बात कर रहा है, बुद्ध कहीं और की बात कर रहे हैं। वेदांत कहता है, 'अगर तुम आत्मस्थ हो गये तो अमृत बरसता है, आनन्द-ही-आनन्द है।' बिलकुल ठीक बात है! और बुद्ध देखते थे आदमी की ज़िन्दगी को, बुद्ध देखते थे आदमी की चाल-ढाल को, हाव-भाव को, चाल-चलन को, और कहते थे, 'कहाँ आनन्द है? इसकी शक्ल देखो, दुख-ही-दुख है। और इस आदमी के लिए ऊँची-से-ऊँची बात बस यही हो सकती है कि इसे दुख से आज़ादी मिल जाए।'
मैं इन दोनों ही बातों को संश्लिष्ट करके तुमको बता रहा हूँ, अच्छे से समझ लो। जहाँ तक खोपड़े की बात है और जहाँ तक बाज़ुओं की बात है, दुख लगा ही रहेगा। एक मिटेगा तो दूसरा आ जाएगा, बड़ा हटेगा तो छोटा आ जाएगा। तो जहाँ तक संसार और संसारी की बात है, वहाँ तुम अधिक-से-अधिक यही कर सकते हो कि दुख को घटा-घटाकर, घटा-घटाकर शून्य कर दो। दुख को घटा-घटाकर शून्य कर दो। ये बुद्ध की देशना है, 'दुख को घटा-घटाकर शून्य कर दो।' किससे कहा ये? उससे कहा जो तन और मन बनकर जीता है। उसके लिए अधिक-से-अधिक यही हो सकता है कि वो दुख को घटा-घटाकर शून्य कर दे।
सुख का नाम ही नहीं लिया बुद्ध ने, उन्होंने कहा, 'यही हो सकता है अच्छे-से-अच्छा तुम्हारे साथ कि तुम दुख घटा दो।' दुख घट कर कितना हो जाए? शून्य हो जाए। सुख आ जाएगा, ऐसा उन्होंने कभी कहा ही नहीं। हाँ, 'दुख घट जाएगा,' ये ज़रूर कहा।
और दुख बड़ी ज़िद्दी चीज़ है, वो घट-घटकर भी इतना सा तो बचा ही रहता है, जैसे कोई पुरानी बीमारी, ठीक भी हो गयी तो लौट आने के बड़े आसार रहते हैं, ऐसा है दुख। पुरानी बीमारी का मतलब समझते हो न? जिसका बीज बचा रह जाता है, तो एक बार उसकी पूरी चिकित्सा हो भी गयी तो वो लौटकर के आती है। दुख का बीज है शरीर, दुख का बीज है हमारी एक-एक कोशिका। जब तक वो मौजूद है तब तक दुख लौट-लौटकर आएगा ही। और बड़े सौभाग्यशाली होगे तुम कि लौटकर न आये, या लौट कर भी आये तो ज़रा मन्द रहे। नहीं भी लौट कर आता तो लौट कर आने की सम्भावना?
श्रोता: बनी रहती है।
आचार्य: बनी रहती है। यहाँ (शरीर के तल पर) क्या चलता रहेगा फिर? संघर्ष चलता रहेगा और दुख बना रहेगा, आता-जाता रहेगा। और यहाँ (हृदय की ओर इशारा करते हुए)? यहाँ (हृदय में) आनन्दित रह सकते हो। यहाँ आनन्दित रह सकते हो। यहाँ (हृदय) आनन्दित नहीं हो अगर तो फिर जी कैसे रहे हो? क्योंकि जीवन तो किससे भरा हुआ है?
श्रोता: दुख से।
आचार्य: दुख से। अब जीवन भरा हुआ है दुख से, और यहाँ (हृदय) से तुम्हें आनन्द भी नहीं है, तो बाबा जियोगे कैसे?
अभी बोधस्थल पर मुझसे किसी ने पूछा, 'कैसे हैं आप?' मैंने भी मज़ाक किया, मैंने कहा, 'आनन्द की कोई कमी नहीं, वो हमें थोक के भाव मिलता है, इतना मिलता है कि लुटाते हैं, पर दुख भी बहुत है।' अब सुनने वाला थोड़ा भौंचक्का, बोला, 'ये कैसी बात कर रहे हैं आप? पहली बात, सन्त आदमी को दुख कैसा? दूसरी बात, आनन्द के साथ-साथ दुख कैसा?' मैंने कहा कि आनन्द की कोई कमी नहीं है, आनन्द तो बरस रहा है, छप्पर फाड़कर, लेकिन साथ-ही-साथ दुख भी लगा हुआ है।' तो उसने कहा, 'पहली बात कि आप तो गुरुदेव हैं, आपको दुख कैसे हो सकता है! और दूसरी बात, आनन्द के साथ-साथ दुख कैसे हो सकता है!' मैंने कहा, 'हम गुरुदेव हैं या नहीं, पता नहीं पर तुम अभी छात्र ही बने रहो। तुम समझ ही नहीं रहे बात को, तुम सोच रहे हो कि आनन्द और दुख एक-दूसरे के विपरीत हैं। ना! आनन्द का मतलब ही है वो अमृत जो तुम्हें हर प्रकार के दुख से गुज़ार देता है। आनन्द वो कवच है जो तुमने अगर पहन रखा है तो दुख की बरसात होती रहे, बाण बरसते रहे, तुम बचे रह जाते हो।'
श्रोता: हाँ, ये तो बड़ी सुन्दर बात है।
आचार्य: हाँ। तो दुख से घबराना नहीं है, जीवन माने दुख, दुख लगा ही रहेगा। बल्कि सांसारिक आदमी फिर भी एक बार को झूठ बोल जाएगा कि जीवन अच्छा चल रहा है, हम बड़े सुखी हैं, आध्यात्मिक आदमी तो कभी नहीं कहेगा कि बड़ा सुख है। अगर कोई आध्यात्मिक आदमी मिले बड़ा हँसता-मुस्कुराता, तो समझ लेना कि घोर पाखंडी है। मुस्कुराता आध्यात्मिक आदमी भी है, पर उसके आँसू मुस्कुराते हैं, जैसे किसी रणबाँकुरे के, योद्धा के घाव मुस्कुराते हैं।
एक मोटे सेठ की तोन्द मुस्कुराती है, देखा है कभी उसे हँसते हुए? मोटे लोग जब हँसते हैं तो इधर (गालों की ओर इशारा करते हुए) उनके गाल हिलते हैं दो, और इधर (पेट की ओर इशारा करते हुए) आगे से पेट हिलता है। ये एक हँसी होती है, संसार-लोलुप आदमी की हँसी है ये। और दूसरी मुस्कुराहट होती है कबीर के सूरमा की, उसके घाव हँसते हैं। “गगन दमदमा बाजिया...,” बोलो!
श्रोतागण: “गगन दमदमा बाजिया..।”
आचार्य: “पड्या निसाने घाव।“
श्रोतागण: “पड्या निसाने घाव।“
आचार्य: “खेत बुहारेया सूरमा, मोहे मरण का चाव।“
श्रोतागण: “खेत बुहारेया सूरमा, मोहे मरण का चाव।“
आचार्य: सूरमा का तो तिलक होते हैं घाव। अगर सच्चा जीवन जी रहे हो तुम, तो हो नहीं सकता कि तुम्हें घाव की निशानी न मिले। घाव-ही-घाव मिलेंगे, चिकना-चुपड़ा तुम्हारा चेहरा नज़र आ ही नहीं सकता। चिकना-चुपड़ा चेहरा या तो नगर-सेठों का होता है या नगर-वधुओं का होता है; सूरमा का मेकअप तो रुधिर होता है उसका। आ रही है बात समझ में?
अरे जब सुख को जानोगे कि माया का आमन्त्रण है, तो वो पलटकर दुख तो देगी न। दुख तो मिलेगा, बस अगर दिल में मालिक है तो उस दुख से अछूते गुज़र जाओगे। संसारी को दुख मिले-न-मिले, आध्यात्मिक आदमी को दुख मिलेगा-ही-मिलेगा। संसारी तो माया का कारिंदा है, नौकर, ग़ुलाम। उसको तो माया कभी-कभी बख़्शिश में थोड़ा सुख भी दे देती है, 'ले! ले! इतनी ग़ुलामी करता है तू, बीच-बीच में तू थोड़ा सा सुख भी ले लिया कर।' आध्यात्मिक आदमी तो माया के ख़िलाफ़ खड़ा है। उसको सुख नहीं मिलता, उसको तो दुख-ही-दुख मिलता है। लेकिन दुख के साथ क्या रहता है? आनन्द, मौज। दुखी हैं पर मस्त हैं।