प्रश्नकर्ता: क्या ध्यान को वैज्ञानिक तौर पर मापा जा सकता है? अभी कोई इंस्ट्रूमेंट्स (उपकरण) हैं ऐसे, या ऐसा कुछ भविष्य में ऐसा कुछ बन सकता हैं?
आचार्य प्रशांत: ध्यान क्या है?
प्र: विचार शून्यता।
आचार्य: ध्यान में विचार शून्यता क्यों आ जाती है, कारण क्या है?
प्र: मन अपने मूल स्थान पर बैठ जाता है।
आचार्य: नहीं यह सब तो बातें हैं। थोड़ा और ज़मीन पर आकर बताइए।
ध्यान का मतलब है किसी ऐसे को ध्येय बनाना जो मन से बाहर का है, जिसका न चिंतन हो सकता है, जिसका न मनन हो सकता है, जिसका न कथन हो सकता है, जिसका न श्रवण हो सकता है। उसको ध्येय बनाया, तो ध्यान है। और अगर संसार के अंदर ही किसी व्यक्ति को, किसी वस्तु को, किसी विचार को अगर ध्येय बना लिया तो उसको कह देते हैं एकाग्रता या धारणा।
मुझे अगर पानी चाहिए तो यह ध्यान नहीं कहलाएगा। क्योंकि मैं क्या माँग रहा हूँ? मैं कुछ ऐसा माँग रहा हूँ जो दुनिया के भीतर का ही है। दुनिया के भीतर का माँगते-माँगते जीव एक दिन उकता जाता है। वह कहता है कि दुनिया के भीतर जितनी चीज़ें थी वो माँग ही लीं। जो चीज़ें अभी तक नहीं माँगी है वो भी पुरानी माँगी हुई चीज़ों से ही सम्बन्धित हैं।
जब आज तक जितनी चीज़ें माँगी उनमें संतुष्टि नहीं मिली तो और जो बाक़ी चीज़ें हैं उनसे भी हमें कोई आशा बची नहीं है। अब हमें कुछ ऐसा चाहिए जो यहाँ का हो ही न। यहाँ का तो जो भी है, वो पीड़ा को बढ़ा ही जाता है। तब ध्यान की घटना घटती है।
ध्यान का अर्थ है वह माँगना जो यहाँ का नहीं है।
इसी वाक्य को दूसरे तरीक़े से पढ़ें तो ध्यान का अर्थ है – यहाँ का जो कुछ है उसे नहीं माँगना। एक तरीक़े से ध्यान का अर्थ हुआ उसको माँगना जो पार का है, जो संसार से अतीत है, आगे का है, बियोंड (परे) है। और उसी वाक्य को दूसरे तरीक़े से कहूँ तो ध्यान का अर्थ है किसी ऐसी चीज़ को ध्येय न बनाना जो यहीं की है, क्योंकि यदि यही की है तो दे क्या देगी!
अब हमने कहा कि विचार शून्यता क्यों आ जाती है ध्यान में? दुनिया का अगर आप कुछ माँगें, तो उसके लिए विचार चाहिए न प्राप्ति के लिए? दुनिया में अगर आपने कोई लक्ष्य बनाया, कोई कामना करी तो उसे पाने के लिए विचार तो चाहिए ही चाहिए; विचार उपयोगी है। यदि आपको दो साल में पचास लाख रुपए कमाने हैं, बिना विचार के कमा लेंगे? आपको घर खड़ा करना है या फैक्ट्री खड़ी करनी है, बिना विचार के कर लेंगे? बोलो!
दुनिया का कोई छोटे-से-छोटा काम भी विचार के बिना सफल होता है? दुनिया में तो विचार की बहुत ज़रूरत है, बड़ा आवश्यक है। लेकिन दुनिया से आगे का कुछ माँगा तो विचार क्या करेगा? कुछ नहीं करेगा। ज़बरदस्ती का बोझ है।
भई, आपको अगर अहमदाबाद के एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में जाना है तो आपकी कार उपयोगी है। उपयोगी है कि नहीं है? कार मान लीजिए विचार है। लेकिन अगर आपको चाँद तक जाना है तो कार का क्या करेंगे? अब आप चाँद तक जाने की कोशिश कर रहे हो और कार में बैठकर कोशिश कर रहे हो, तो क्या होगा? बिलकुल नहीं जा पाओगे, और भी नहीं हो पाएगा। कार तो और बोझ बन गयी।
सोचिए किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में जो जीवनभर कार में चला हो और कार में बैठे-बैठे उसने बहुत से लक्ष्य हासिल किए हो। जहाँ जाना है, कार ने पहुँचाया है। अब उसे अगर चाँद पर भी जाना है तो उसने कार को अपनी पीठ पर बाँध लिया है। कह रहा है, 'आज तक मैं जहाँ भी पहुँचा, कार के साथ ही पहुँचा। तो इसका तात्पर्य यह है कि अगर मैं चाँद पर भी पहुँचूँगा तो कार के साथ ही पहुँचूँगा।' अब वह कार को पीठ पर बाँधे-बाँधे उड़ने की कोशिश कर रहा है।
एक तो चाँद पर पहुँचना वैसे ही मुश्किल। और उस पर तुमने अपनी पीठ पर बाँध ली कार। अब तो और नहीं पहुँचोगे। इसलिए बेकार है विचार।
क्योंकि विचार तुम्हें इस दुनिया में जिस भी जगह जाना हो, पहुँचा देगा, कोई शक नहीं है इसमें। विचार बहुत उपयोगी है। लेकिन जब चाँद पर जाना हो।
अरे! मैं चंद्रयान वाले चाँद की बात नहीं कर रहा हूँ। किस चाँद की बात कर रहा हूँ? पार का चाँद। वह चाँद नहीं जो पृथ्वी के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है। उस चाँद तक जब जाना हो तो एक तो काम वैसे ही मुश्किल, ऊपर से कार। कार क्या करेगी?
इसलिए विचार शून्यता आवश्यक है। विचार शून्यता आ ही जाती है क्योंकि विचार दो बार, चार बार उस लक्ष्य तक पहुँचने की कोशिश करेगा, फिर विफल हो जाएगा। जब विफल हो जाएगा तो ख़ुद ही थक-हारकर के सो जाएगा।
अगर ध्यान के वक़्त भी विचार चल रहे हैं तो इसका मतलब है कि आपने ध्येय ही दुनिया की किसी चीज़ को बना लिया है। तभी तो विचार चल रहे हैं, अन्यथा विचार स्वयं ही जान जाता है कि 'मैं अनावश्यक हूँ; अभी जो प्रक्रिया चल रही है, अभी जो अभियान भीतर छिड़ा हुआ है उसमें मेरी कोई ज़रूरत नहीं।' फिर वह चुप हो जाता है।