क्या छुपा रहे हो शब्दों के पीछे?

Acharya Prashant

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क्या छुपा रहे हो शब्दों के पीछे?
मुझे बड़ा आनंद रहेगा अगर आप कहो कि नहीं मात्र परमात्मा ही मात्र चाहिए, सत्य के अलावा कोई कामना नहीं है। पर जब तक आप उस स्थिति में न पहुँच जाओ जहाँ सत्य के अतिरिक्त कोई कामना नहीं, तब तक जो चाहिए वो साफ़-साफ़ जानो और साफ़-साफ़ बताओ भी, क्योंकि अगर साफ़-साफ़ नहीं बताओगे तो बात खुद से ही छुपी रह जाएगी। जब जो चाह रहे हो, वो बता पाना थोड़ा लज्जास्पद लगता है तो हम ऐसे जताते हैं कि जो हम चाह रहे हैं वो बात बताई ही नहीं जा सकती। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे लगता है कि मुझे सबकुछ चाहिए और कुछ भी नहीं चाहिए? मैं गलत तो नहीं हूँ?

आचार्य प्रशांत: सूक्ष्मतम संप्रेषण की भाषा होते हैं ऋचाएँ, ऋचाएँ, आयतें, कोण। बहुत जो महीन भावनाएँ हो उनके संप्रेषण का माध्यम होता है काव्य, जो बहुत महीन चीज़ हो बस वही काव्यात्मक भाषा के द्वारा ज़ाहिर की जाती है और माँगी जाती है। और महीन ही चीज़ को काव्य के माध्यम से माँगा जाना चाहिए।

जब आप कहती हैं कि मुझे सबकुछ चाहिए और कुछ भी नहीं, तो ये आपने बड़ी, काव्यात्मक माँग रखी। काव्यात्मक रखना भला है पर ये याद रखिए कि काव्यात्मक माँग में माँग का विषय अति सूक्ष्म होना चाहिए, जो आप माँग रहे हो वो वस्तु बहुत झीनी होनी चाहिए, बहुत महीन। अगर जो वस्तु आप वास्तव में चाहते हो अपने जीवन में वो स्थूल है, तो उसको काव्य के माध्यम से मत माँगो, पहली बात तो वो मिलेगी नहीं, दूसरी बात, ये काव्य के प्रति भी ज़्यादा शोभनीय नहीं हुआ।

किसी पर बहुत दिल आ गया हो और उसका हाथ माँगना हो तो तुम काव्य के माध्यम से माँगते हो, ग़ज़ल कह देते हो, कविता कह देते हो क्योंकि चीज़ ज़रा महीन है। परमात्मा पर दिल आ गया हो, परमात्मा का हाथ माँगना हो तो तुम श्लोकों के माध्यम से माँगते हो, उसके लिए श्लोक हैं, दोहे हैं, शाखियाँ हैं, ऋचाएँ हैं, आयतें हैं। जोकि वो बात और भी महीन है।

पर तुम जाओ और किराने की दुकान से तुमको चना और चावल खरीदना है तो इसके लिए तुम कविता थोड़े ही कहोगे? सबसे पहले तो ये देखो कि तुम्हारा जीवन किन माँगो से भरा हुआ है। आपके प्रश्न में चाहिए शब्द दो बार आया है, सबसे पहले तो ये देखो कि जीवन में चाहते हैं क्या? साफ़-साफ़ देखो कि क्या चहा रहे हो? और अगर ये देखना चाहते हो तो ये देखलो कि क्या नहीं मिलता तो तड़प उठते हो। अभी थोड़ी देर पहले यहाँ पर ऐसी नहीं था तो तड़प उठे हो। अब ऐसी और काव्य में तो कोई साम्य नहीं, कोई मेल नहीं, जीवन में यदि हमारे भौतिक सुख की ही आकांक्षा है, तो भौतिक सुख की माँग, भौतिक सुख की चाहत काव्य के द्वारा थोड़ी ही ज़ाहिर की जाती है। वरना वो फिर काव्य नहीं, पैरोडी कहलाएगा।

बात समझ रहे हो?

कुछ बहुत ऊँचा माँगो तब कविता करो, पहले देखो जो माँग रहे हो उसमें ऊँचाई है भी या नहीं है? इसी प्रकार, सत्य अज्ञेय होता है, वहाँ रहस्य है, जब उसको माँगोगे तो बता भी नही पाओगे कि क्या माँग रहे हो या माँग भी रहे हो या नहीं माँग रहे हो। उसके सामने तो बस प्रार्थना में मौन हो जाते हो, माँगे तो माँगे क्या? कुछ पता है ही नहीं, कुछ पता चल ही नहीं सकता, तो चुप।

परमात्मा से माँगे हैं चुप्पी चाहिए, किसी प्रेमी के सामने खड़े हो उससे माँगते हो, तो निगाहें चाहिए, नज़र चाहिए और आँसू चाहिएँ और वहाँ भी शब्दों की बहुत अहमियत नहीं। बात समझ रहे हो? पर कुर्ता-पजामा खरीदने गए हो तो मौन से थोड़े ही मिल जाएगा? चाहत किसकी है? परमात्मा की चाहत हो तो रहस्य की तरह रखो अपने सवाल को, मुझे सबकुछ चाहिए और कुछ भी नहीं। ये तो तभी शोभा देता है जब बाकी सारी चाहतें खत्म हो गयी हों, और एक ही चाहत बची हो, परमात्मा की। तब आप ऐसा गूढ़ प्रश्न रख सकते हो — या तो सबकुछ मिले या तो कुछ भी नहीं। क्योंकि सबकुछ यानि पूर्णता, कुछ भी नहीं यानि शून्यता, ये दोनों तो परमात्मा के नाम है। और परमात्मा की चाहत; मैं कह रहा हूँ, वही कर सकता है जो अब दाल-चावल, छोला-भटूरा, कुर्ता-पजामा की चाहत, इन सबसे आगे निकल गया हो।

समझ रहे हो?

अगर कुर्ता-पजामा चाहिए होगा तो साफ़-साफ़ बोलना पड़ेगा न कि कुर्ता-पजामा चाहिए, मिल नहीं रहा, परेशान हैं। तो सवाल में साफ़-साफ़ बोलना पड़ेगा कि क्या चाहिए? सबकुछ थोड़े ही चाहिए आपको? अभी गर्मा-गरम पानी ला दिया जाए, चाहिए क्या आपको? तो फिर काहे को कह रहीं हैं, ‘सबकुछ चाहिए।‘

बिना बात का तिलस्म और रहस्य खड़ा करना काम नहीं आता न। जो चाहिए हो वो साफ़-साफ़ बयान करना होता है। सिर्फ़ जब परमात्मा चाहिए हो तब साफ़ बयान नहीं किया जा सकता क्योंकि तब जो माँग रहे हैं वो अकल्प्य है, अचिंत्य है, अज्ञेय है, अकथ्य है। उसका कोई कथन नहीं कर सकते तो, क्या बोलेंगे? पर क्या आप मात्र परमात्मा ही माँग रहे हो? ऐसा तो नहीं है, अगर हो तो बहुत शुभ बात है।

मुझे बड़ा आनंद रहेगा अगर आप कहो कि नहीं मात्र परमात्मा ही मात्र चाहिए, सत्य के अलावा कोई कामना नहीं है। पर जब तक आप उस स्थिति में न पहुँच जाओ जहाँ सत्य के अतिरिक्त कोई कामना नहीं, तब तक जो चाहिए वो साफ़-साफ़ जानो और साफ़-साफ़ बताओ भी, क्योंकि अगर साफ़-साफ़ नहीं बताओगे तो बात खुद से ही छुपी रह जाएगी। हम तो चाहते ही हैं कि हमारी असली हसरतें छुपी रह जाएँ क्योंकि सामने आती हैं तो ज़रा बुरा सा लगता है कि छी! मैं इतनी छोटी सी चीज़ चाहता हूँ, इसके फेर में पड़ा हुआ हूँ। ये छोटी सी चीज़ मेरे लिए इतनी महत्वपूर्ण हो गयी। तो फिर हम बात को रहस्यपूर्ण बना देते हैं। जब जो चाह रहे हो, वो बता पाना थोड़ा लज्जास्पद लगता है तो हम ऐसे जताते हैं कि जो हम चाह रहे हैं वो बात बताई ही नहीं जा सकती।

प्रेमिका पूछती है प्रेमी से, ‘अच्छा बताओ तुम्हें मुझमें क्या अच्छा लगता है?’ प्रेमी कहेगा, ‘ये बात शब्दों में बयान नहीं की जा सकती।‘ नहीं, बयान की जा सकती है, क्योंकि बात बहुत भौतिक है। बयान भी की जा सकती है, कागज़ पर बनाकर भी दिखाई जा सकती है, इतनी शारीरिक है। शरीर शास्त्र की सब किताबो में वो सारे चित्र होते है जो प्रेमी को प्रेमिका में अच्छे लगते हैं। सब बताया जा सकता है पर प्रेमी उस वक़्त बड़ा रूहानी हो जाएगा। रूमी की कोई कविता उठा लाएगा और बोलेगा, ‘अब हम कैसे बताएँ कि हमें तुममें क्या अच्छा लगता है? कैसे बताएँ, क्यों तुमको चाहें? यारा बता न पाएँ।‘ अरे बाप रे! कैसे बताए क्यों तुमको चाहे यारा?’

और बात बहुत सीधी है कि क्या अच्छा लगता है। प्रमाण ये है कि जो अच्छा लगता है कल को वो अगर न रहे, तो प्रेमिका अच्छी लगनी तुरंत बंद हो जाएगी। अगर किसी चीज़ के न रहने पर कोई तुम्हे अच्छा लगना बंद हो सकता है, तो इसका मतलब उसकी वही चीज़ तो तुम्हें पसंद थी। और तुम भली-भाँति जानते हो कि प्रेमिका में क्या न रहे तो वो तुम्हें अच्छी नहीं लगेगी। पर जब वो पूछेगी कि ज़रा बता तो दो, ये तो बता दो मेरे कौन हो। तो तुम उस बात को मिस्टिकल, एक आध्यात्मिक, एक रूहानी रंग दे दोगे, उसमें रूहानी कुछ है ही नहीं, पर तुम रंग उसको वही दोगे। और वो वैसा ही है जैसे, इमरान हाश्मी के जितने कामोत्तेजक गाने होते है सब सूफ़ियाना होते हैं। अब कैसे दिखा दें कि वो पूरा खेल ही वासना का है तो पर्दे पर वासना चल रही है, बटन खुल रही हैं, हुक खुल रहे हैं और पीछे से गीत चल रहा है — मेरा इश्क़ सूफ़ियाना।

क्योंकि जो बात है वो बताते लाज आती है। क्योंकि जो बात है अगर वो ज़ाहिर कर दी, तो जो पूछ रहा है उसको भी धक्का लग जाएगा। लग जाएगा कि नहीं? न तुम बताना चाहते हो, जो पूछ रहा है वो सुनना भी नहीं चाहता। तो असली कामना क्या है तुम इसको दबा ही जाते हो, बिल्कुल बात छुपी-छुपी रह जाए तो ही ठीक है। आपने जो अल्फ़ाज़ लिखे हैं ये प्रेमियों के बड़े काम के हैं, प्रेमिका पूछे, ‘बताओ तुम्हें मुझमें क्या अच्छा लगता है?’ बिल्कुल ऐसे उत्तर दिया जा सकता है। उचित बिल्कुल व्हाट्सअप रिप्लाई है ये, मुझे सबकुछ भी अच्छा लगता है तुममें और कुछ भी नहीं।

पड़ी रहने दो उसको चक्कर में, अब सोचती रहेगी रात भर। भला है कोई निष्कर्ष नहीं निकाला, कोई ऐसा गोलमोल जवाब दे दो, प्रेमी लोग, पति लोग ये कला बिल्कुल पारंगत हो जाते है इसमें। ऐसा घुमाया!

क्यों जी रात में कब तक आओगे? अरे रात जवान होगी, चढ़ेगी, हम भी आ जाएँगे। ऐसा लग रहा है जैसे कि आशिकी में जवाब दिया है, जवाब आशिकी में नहीं दिया है। ये जवाब दिया गया है गोल-गोल घुमाने के लिए। क्योंकि कौन जनता है कि रात कब जवान होती है. आएँगे नहीं आएँगे पता नहीं।

अगली बार जब बोले प्रेमी, कि जानेमन हमें तो तुममें सभी कुछ अच्छा लगता है, तो एक बाल तोड़कर देना — लो या आँख से ऐसे कीचड़ निकालकर तिलक देना कि लो। इशारा समझ ही गए होंगे इससे आगे भी जा सकते हो। ले भाई! तुझे तो सभी कुछ अच्छा लगता है। शब्दों को पर्दा मत बनाओ। शब्द बताने के लिए होते हैं छुपाने के लिए नहीं। तो बताओ, ये छुपा रहे हो, वर्षा (प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए) बताओ।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी मुझे कुछ पूछना है, जैसे आपने कहा कि शब्दों को छुपाओ मत, अगर आपको नहीं पता हो, तो फिर (शब्दों को) कैसे ले कर आओ?

आचार्य प्रशांत: जो पता है उसके साथ राज़ी हो ये तो,

प्रश्नकर्ता: नहीं पता आचार्य जी, तभी तो ये प्रश्न लिखा।

आचार्य प्रशांत: अगर नहीं ही पता है कि कुछ गलत है, तो सब ठीक है चलने दो न, फिर समस्या क्या है? दिक्कत तो तभी होती है न जब अनुभव होता है कष्ट का, और अनुभव होना माने पता होना। अगर कष्ट का कोई अनुभव ही नहीं हो रहा तो सब बढ़िया है चलने दो। अगर ईमानदारी से आप ये कह सकती हैं, ‘कोई कष्ट नहीं, किसी प्रकार का, किसी पीड़ा का, कोई अनुभव ही नहीं मुझे’, तो जो चल रहा है उसको चलने ही देना, फिर कुछ बदलने की क्या ज़रूरत है? और अगर पीड़ा का अनुभव होता है तो फिर साफ़-साफ़ बताएँ।

प्रश्नकर्ता: मतलब यहाँ अगर पीड़ा का अनुभव नहीं है, तो जो चल रहा है।

आचार्य प्रशांत: हाँ चलने दें, बिल्कुल। अगर किसी प्रकार की कोई पीड़ा पता ही नहीं चल रही, तो अध्यात्म की शुरुआत हो ही नहीं सकती, अध्यात्म छोड़िए कविता तक की शुरुआत होती है आँसुओं से। वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। आह नहीं है तो गान कैसा? और आह यदि है ही नहीं तो ठीक है।

पर मुझे अंदेशा दूसरा है, आह है पर आह से डर बहुत लगता है तो आह को दबा रखा है। अक्सर ऐसा ही होता है, भगवान करे यहाँ ऐसा न हो। पर संदेह है मुझे कि ऐसा होगा, क्योंकि सौ में से निन्यानवे मामलो में होता ऐसा ही है। हम इतने डरे हुए होते हैं कि अपने डर को भी दबा ले जाते हैं। दर्द जब बेपनाह बढ़ जाता है, तो हम कोई आंतरिक पेनकिलर (दर्द मिटने कि दवा) ले लेते हैं, ताकि हमें ही दर्द की अनुभूति न हो और हम कह सकें कि जीवन में तो दर्द है ही नहीं। पर दर्द तो है, और अगर है तो बात खोलिए।

प्रश्नकर्ता: अगर नहीं है तो?

आचार्य प्रशांत: नहीं है तो चल रहा है अरे।

प्रश्नकर्ता: चलने दें।

आचार्य प्रशांत: निर्वाण, मुक्ति।

प्रश्नकर्ता: सर डेफ़िनेशन मिसप्लेस्ड (अपात्र-गत/गलत) कैसे होगी?

आचार्य प्रशांत: अगर डेफ़िनेशन मिसप्लेस्ड (अपात्र-गत) होगी तो उस मिस्प्लेस्मेंट (ग़लत जगह रखना) का ही दर्द होगा।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कृपया इसे और विस्तार से समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: उदहारण के लिए, हम जानते है भली-भाँति कि उँगलियाँ ऐसी (उँगलियाँ दिखते हुए) हों तो ये सामान्य कहलाएँगी। किसी की उँगली सूजकर इतनी मोटी हो गई हो, पर वो स्वथ उँगली की परिभाषा ही बदल दे, वो ये कह रहा है। वो कह रहा है कि अपने मन को वो ये समझा ले कि स्वस्थ उँगली होती ही वही है जो सूजकर इतनी मोटी हो। तुम समझा लो, दर्द तो तब भी होगा। दर्द तो तब भी होगा।

इसी प्रकार रोग यदि मानसिक है और तुमने अपने आप को ये भी समझा लिया कि मानसिक रोग ही ठीक हैं, तो इस समझाने के मूल में भी दर्द बैठा होगा, अनुभव तो तब भी होगा और वो अनुभव तरीके-तरीके से तुम्हारी दिनचर्या को प्रभावित करेगा। तुम पाओगे कि तुम चीज़ों को भूल रहे हो। तुम पाओगे कि जो कुछ भी कर रहे हो मन उससे उचाट है। तुम पाओगे कि बिना बात की एक उदासी तुम्हें घेरी रहती है। तुम पाओगे कि चिड़चिड़ा जाते हो। तुम पाओगे कि अकारण डर की एक लहर उठती है। तमाम तरीकों से ये जो विसंगति है अपना एहसास कराएगी, अनुभव में आएगी। तो तुम ऊपर-ऊपर से भले ही विकृति की परिभाषा बदल दो, पर विकृति अगर मौजूद है भीतर तो वो तुम्हारे तंत्र, तुम्हारी व्यवस्था को चैन से जीने थोड़े ही देगी।

प्रश्नकर्ता: स्वभाव के विरुद्ध।

आचार्य प्रशांत: स्वभाव के विरुद्ध है।

प्रश्नकर्ता: कोई ऐसा माने ही बैठा है कि जैसे कोई समस्या ही न हो उसे, तो उसको निकालें कैसे?

आचार्य प्रशांत: या तो प्रेम से या दंड से। दो ही तरीके हैं, या तो उसको दिखाओ, कि उसके झूठ के कारण उन्हें कितनी समस्या हो रही है जो उसे प्रेम करते हैं। तुम्हारे आसुओं से उसको समझ में आए कि उसको कितना कष्ट है, या फिर जिस दंड के कारण उसने अपनी समस्याओं को छुपा रखा है वो दंड उसे मिलने दो।

बात समझ रहे हो?

समस्या अपने आप वो ज़ाहिर कर देगा कि हाँ है। आदमी समस्या को छुपाता ही इसीलिए है कि दिखाएगा तो कष्ट होगा, और छुपाएगा तो कष्ट से बच जाएगा। कष्ट से बचने का उसका आयोजन खराब कर दो, कष्ट उस तक आने दो। अब उसके पास समस्या को छुपाने के लिए कोई वजह नहीं है क्योंकि, क्यों छुपा रहा था समस्या को? कष्ट न आए और कष्ट तो आ रह है तो अब काहे को छुपाएगा? कहेगा, ‘लो फिर बता ही देते हैं क्या बात है।‘ हम समस्या छुपाते भी तो इसीलिए हैं न कि कुछ लाभ हो छुपाने से। उसे जो लाभ हो रहा है समस्या को छुपाने से उस लाभ को काट दो। समस्या को फिर वो उघाड़ देगा।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कई बार ऐसा भी होता है कि अगर दंड के माध्यम से हम समझाएँ तो वो दूसरे के लिए फेटल (जानलेवा) भी हो सकता है। ऐसे में क्या करें?

आचार्य प्रशांत: देखो, अगर फेटल से तात्पर्य ये है कि अगर बात उघाड़ दी तो किसी की मौत हो सकती है, इतनी जल्दी नहीं लोग मर जाते। जो अपने डर को छुपाए हुए है तुम्हें क्या लग रहा है उसे मौत का डर नहीं है? जिसे छोटे-मोटे डर भी इतने बड़े हैं कि वो उनको छुपा रहा है उसके लिए मौत का डर कितनी बड़ी चीज़ होगी? बोलो? तो वो इतनी आसानी से मर लेगा क्या? ये सब ज़बानी बाते हैं और कभी-कभार धमकियाँ है कि जान चली जाएगी, ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा। जान देने वाले सूरमा होते हैं। इतनी आसानी से जान नहीं दे देता कोई, उसके लिए योद्धा चाहिए, सूरमा चाहिए कि अपनी कुर्बानी दे दे। ये जो आम आदमी बोलता है न कि अगर ये दुख आया मुझे तो मेरी तो जान ही निकल जाएगी, ऐसा कुछ नहीं होता। फेटल वगैरह इतनी आसानी से नहीं हो जाता।

दूसरी बात कि अगर लगता ही है कि उसे कष्ट वाले रास्ते से नहीं गुज़ारना है तो मैंने सुझाया तो, प्रेम का रास्ता है, फिर प्रेम के रास्ते से चलाओ। प्रेम का रास्ता ये है कि दूसरे व्यक्ति को दिखाई दे कि उसके झूठ की वजह से उसके प्रेमी को कितनी तकलीफ़ हो रही है — वो प्रेम का रास्ता है।

प्रश्नकर्ता: शायद वो नहीं देखेंगे, आँखें मूँदे ही रहेंगे।

आचार्य प्रशांत: तो कान में चिल्लाओ उसके, आँख मूँद ले तो कान में चिल्लाओ। भई सारी बात इस पर आश्रित है कि उसके झूठ की वजह से तुम्हे तो तकलीफ़ हो ही रही है न, हो रही है न? तुम कोई स्वांग तो नहीं कर रहे। तुम्हें वास्तव में तकलीफ़ हो रही है क्योंकि वो व्यक्ति एक झूठा जीवन जी रहा है, तो वही तकलीफ़ उसके सामने रख दो — ‘ये देखो ये रही तकलीफ़ तुम वैसे जी रहे हो इस कारण हमारी ये हालत हो रही है।‘

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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