प्रश्नकर्ता: क्या आत्मा को ही इस्लाम में रूह और क्रिश्चियनिटी (ईसाइयत) में स्पिरिट कहते हैं?
आचार्य प्रशांत: नहीं, आत्मा न रूह है, न सोल है, न स्पिरिट है; आत्मा आत्मा है। अंग्रेज़ी में आत्मा के लिए एक विशिष्ट शब्द होता है – ‘सेल्फ़’; ‘सोल’ नहीं, ‘सेल्फ़’। और आत्मा वेदांत में बिलकुल एक विशिष्ट, केंद्रीय और आख़िरी तत्व है, जो दूसरे दर्शनों में पाया नहीं जाता।
सेल्फ़ की अवधारणा ही नहीं है दूसरे पंथों में, समुदायों में, मज़हबों में। वहाँ गॉड (ईश्वर) हो सकता है, ट्रिनिटी हो सकती हैं, स्पिरिट हो सकती है। अल्लाह और अल्लाह ने जो फिर पूरी कायनात बनाई है, वो हो सकती है। फादर (पिता), सन (पुत्र) और होली स्पिरिट हो सकते हैं, लेकिन आत्मा वहाँ कहीं नहीं है। आत्मा बहुत अनूठी चीज़ है, अगर मैं उसे चीज़ कह सकूँ तो, आत्मा बहुत अनूठी चीज़ है, जो वैदिक दर्शन में ही पयी जाती है।
आत्मा क्या है? आत्मा है – तुम्हारी और मेरी सच्चाई। और सोल और स्पिरिट क्या हैं? ये कांसेप्ट्स हैं। मन की कुछ मान्यताओं को कहते हैं सोल या स्पिरिट और मन जहाँ ख़त्म हो जाता है, उसको कहते हैं आत्मा। तो सेल्फ़, सोल और स्पिरिट में ज़मीन आसमान का अंतर है। आत्मा को कभी सोल समझ भी मत लेना।
कुछ दर्शन हैं — जैसे छः दर्शन चलते हैं सनातन परंपरा में, पारंपरिक रूप से — जो कि जीवात्मा की बात करते हैं। और जो कहते हैं कि जितने लोग हैं, सबकी अलग–अलग जीवात्मा है। उसको तुम सोल बोल सकते हो। ठीक है? जैसे मीमांसा दर्शन है, उसमें ये माना जाता है कि हर प्राणी की अपनी अलग एक जीवात्मा है, वो ठीक है। उसको सोल बोल सकते हो। लेकिन वेदांत में जिस आत्मा की बात हो रही है, और ये जो छः दर्शन हैं, इनमें जो श्रेष्ठतम है और जिसको वैश्विक मान्यता भी सबसे ज़्यादा मिली है, वो वेदांत ही है।
तो आत्मा, जिसकी मैं बात करता हूँ, वो एकमात्र और अंतिम सत्य है। वो वो है जो ब्रह्म से एक है; वो वो है जो अहंकार के मिट जाने के बाद बचता है। बड़ी गड़बड़ हो गयी है जब भारत में आत्मा को रूह मान लिया गया या आत्मा को जीवात्मा मान लिया गया है या कि अभी भी बहुत लोग मिलेंगे जो आत्मा का अनुवाद सोल के रूप में करेंगे। आत्मा सोल नहीं होती। वास्तव में सारा अध्यात्म यही है कि आप सोल और सेल्फ़ का अंतर समझ लें। जो सोल और सेल्फ़ में ही अभी भ्रमित है, उसकी आध्यात्मिक यात्रा की अभी शुरुआत ही नहीं हुई।
इसीलिए मैं बार–बार बोला करता हूँ कि दुनिया का कोई भी दर्शन हो, कोई भी पंथ हो, मज़हब हो, उसको समझना है अगर, तो शुरुआत आप वेदांत से करें क्योंकि वेदांत के पास ऐसी ख़ास कुंजी है जो कहीं और है ही नहीं। आत्मा आपको कहीं और मिलेगी ही नहीं। आत्मा वाली बात आपको कहीं और मिलेगी ही नहीं।
मैंने जब भी ऐसे लोगों से बात करी है, जो सनातन धारा से नहीं है; उदाहरण के लिए, विदेशियों से अगर बात करी है मैंने, तो उनको ये सेल्फ़ जो शब्द होता है, ये सबसे ज़्यादा दुविधा में डालता है। वो कहते हैं, ‘ये सेल्फ़ क्या चीज़ है? हम गॉड (ईश्वर) समझते हैं, हम मैन (इंसान) समझते हैं। हम ऊपर वाला समझते हैं, हम नीचे वाला समझते हैं। हम रचनाकार समझते हैं, हम रचना समझते हैं। इतना हम समझते हैं। ये सेल्फ़ क्या हो गया? ये आत्मा क्या चीज़ हो गयी?’ वो यहीं पर फँस जाते हैं।
बात समझ रहे हैं?
क्योंकि उनकी जो पूरी जीवन दृष्टि है, जो वो उनका पूरा दर्शन है, उसमें यही द्वैत है। क्या द्वैत है? कि गॉड मेड द वर्ल्ड (ईश्वर ने संसार की रचना की)। आसमान है और ज़मीन है।
समझ में आ रही है बात?
और यहाँ वेदांत में, एक बिलकुल ही अलग आयाम आ जाता है, जब आप कह देते हो – ‘सेल्फ़’। ‘ये सेल्फ़ माने क्या होता है, भाई? इंसान हैं न, मैन! मैन तक ठीक है।’ मैन माने? द पर्सन मेड बाई गॉड (ईश्वर द्वारा बनाया गया व्यक्ति)। ‘मैन तक तो ठीक है। ये ‘सेल्फ़’ क्या चीज़ होती है?’ ये सेल्फ़ वहीं चीज़ होती है, जिसको अगर समझ जाओ जो जीवन सार्थक हो जाता है। और उसको अगर नहीं समझे, तो भटकते रह जाओगे। कारण बहुत सीधा है, बताए देता हूँ। जो आत्मा को नहीं समझा, वो अहंकार में भटकेगा। तो इसलिए आत्मा को जानना ज़रूरी होता है। आदमी के भीतर दो ही केन्द्र होते हैं — या तो वो अहंकार से चल रहा होगा, जहाँ झूठ है सब; नहीं तो वो सच्चाई पर चल रहा होगा, उसको आत्मा बोलते हैं। तो अगर कोई आत्मा से अपरिचित है, तो इसका मतलब वो कहाँ से चल रहा है? अहंकार से चल रहा है। माने, जो आत्मा से अपरिचित हैं, उसके जीवन में दुख–ही–दुख आएगा, क्योंकि अहंकार माने दुख।
उपनिषदों का जो प्रतिपाद्य विषय है, वो आत्मा है; कि कैसे अहंकार की सफ़ाई करें। अहंकार माने वो भीतर हमारे जो भावना रहती है — मैं ऐसा, मैं वैसा, अच्छा, बुरा, ऊँचा, नीचा, जैसा भी। ख़ुद को लेकर जो धारणा है, उसे अहंकार बोलते हैं। तो उस अहंकार की कैसे सफ़ाई करें कि उसमें कोई गंदगी बचे ही नहीं। जब उसमें कोई गंदगी नहीं बची रहती तो उसको आत्मा कहते हैं। उपनिषद् यही काम करते हैं। हमें आत्मा तक ले जाते हैं। माने अहंकार को साफ़ करके आत्मा तक ले जाते हैं।
इसीलिए उपनिषद् विशेष हैं। इसीलिए जीवन पूरा मैंने उपनिषदों को समर्पित किया है। और इसीलिए विवेकानंद कहा करते थे कि वेदांत जो है, वो भविष्य का विश्वधर्म है। विश्व धर्म! और यहाँ ये याद रखिए कि वेदांत उस हिंदू–धर्म से कई मामलों में बहुत भिन्न है, जिसका आप अपने आसपास आचरण होता देखते हैं। कहने को तो जो हिंदू धर्म है वो वैदिक धर्म है, पर वो जिस तरीके से अभी चल रहा है, उसमें बहुत कम है वैदिक अंश। इसीलिए एक साधारण, सामान्य हिन्दू की जो जीवनचर्या है या उसकी जो मान्यताएँ हैं, वो वेदांत के बहुत विरुद्ध हैं। वो जिस तरीके से अपना धार्मिक जीवन जीता है, वेदांत उसका समर्थन ही नहीं करता।
तो जब मैं कह रहा हूँ कि स्वामी विवेकानंद कहा करते थे, सोचा करते थे कि वेदांत विश्वधर्म हो सकता है भविष्य का, तो वो ये नहीं कह रहे थे कि हिंदू–धर्म भविष्य का विश्वधर्म हो सकता है। क्योंकि जो प्रचलित हिंदू–धर्म है और जो बात वेदांत कहता है, दोनों में काफ़ी भेद है। होना नहीं चाहिए, पर दुर्भाग्यवश काफ़ी भेद है। वो भेद मिटना चाहिए, इसी की हमारी कोशिश है।