क्या श्रीराम भी दुःख का अनुभव करते होंगे? || आचार्य प्रशांत, श्रीरामचरितमानस पर (2017)

Acharya Prashant

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क्या श्रीराम भी दुःख का अनुभव करते होंगे? || आचार्य प्रशांत, श्रीरामचरितमानस पर (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या प्रभु श्रीराम को भी सामान्य व्यक्ति की तरह दुःख का अनुभव होता था?

आचार्य प्रशांत: प्रश्न है कि अनेक कहानियाँ कहती हैं कि राम को भी चोट लगती थी। ख़ास तौर पर सीता के वन-गमन के पश्चात राम भी उदासी में जीने लगे थे। मानने वालों का ये भी मानना है कि राम की जल समाधि उनके दुःख का ही फल था।

तो इसमें आश्चर्य क्या है? राम जो पुरुष हैं, जो मानव हैं, वो सब कुछ कर रहे हैं जो एक मानव करता है। बालि-सुग्रीव संग्राम हो रहा है, बालि जीतता प्रतीत हो रहा है। राम पेड़ के पीछे से बालि को तीर मार देते हैं। बालि पूछता है, "ये क्या किया? क्या ये बेईमानी नहीं है?" राम कहते हैं, "तुमने जो किया वो क्या था? तुम भाई की पत्नी को उठा लाए हो, वो क्या है?"

राम के चरित्र में तुम्हें मानव होने के सारे गुण मिलेंगे। और इसी में तुलसी के राम की महानता है। अगर उनका राम कोई हिमालय जैसा ऊँचा आदर्श बन जाए, तो तुम्हारी पहुँच से इतना दूर हो जाएगा कि तुम्हारे लिए बस वो एक देवता रह जाएगा; वो तुम्हें कुछ दे नहीं पाएगा। तुलसी ने राम के चरित्र में कुछ ऐसा ढूँढ लिया है जो इंसान से आगे की बात है। राम जोकि कभी इंसान थे, उनमें तुलसी में कुछ ऐसा देख लिया जो इंसान से आगे की बात है।

"राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है। कवि कोई बन जाए सहज सम्भाव्य है।"

"तुम्हारी कहानी इतनी मीठी थी कि उसने मुझे कवि बना दिया। मेरी कल्पना को पर दे दिए।"

तुम्हें भी कोई ऐसा चाहिए जिसमें तुम्हें कुछ ऐसा दिख जाए जो उससे आगे का हो।

किसी से आगे का देखने का अर्थ ये नहीं होता कि 'वो जो है' उसको नहीं देख रहे। फिर से कह रहा हूँ, 'किसी से आगे देखने' का अर्थ ये नहीं होता कि जिसको देख रहे हो उसको नहीं देख रहे। उसको भी देख रहे हो, लेकिन उसमें उससे आगे का कुछ दिखाई देता है। राम के चरित्र में अगर तुमको मानवगत गुण दिखाई देते हैं तो तुमको ज़रा आश्चर्य होता है। तुम कहते हो, "पर ये तो अवतार हैं, भगवान हैं! इन्हें तो सब कुछ वो करना चाहिए जो आम आदमी नहीं करता है।" ठीक है, वो सब कुछ करते ऐसे दर्शाये जा सकते हैं जो आम आदमी नहीं करता है, पर अब ये बता दो कि वो आम आदमी के किस काम के रह गए? अब वो एक सुन्दर परी-कथा बन गए हैं। तुम उसे सुन लोगे और तुम कहोगे, "हाँ, बहुत मीठी है, पर हमारे काम की नहीं है क्योंकि भगवान की बात है न। भगवान ने ऊँचे-ऊँचे काम किए होंगे, हम तो इंसान हैं, हम थोड़े ही कर सकते हैं।"

आवश्यक है न कि राम के चरित्र में तुम्हें वो सब गुण-दोष दिखाई दें जो तुम्हारे चरित्र में भी हैं। कोई अपनी गर्भवती स्त्री को, जिसने उसका जीवन भर साथ दिया हो, चौदह-वर्ष के वनवास में उसकी संगिनी रही हो, किसी मूढ़ प्रजाजन के कहने पर देश निकाला दे दे। भाई को कह दे कि जाओ छोड़ आओ बाहर। और इसके बाद भी यदि उदास न हो, तो उसका हृदय पाषाण नहीं होगा? ये चाहती हो तुम कि "राम को दुःख क्यों हुआ?"

राम को दुःख इसलिए हुआ क्योंकि अवतार थे। साकार थे; निराकार नहीं थे। और अगर साकार हैं तो मानुष देह ली है न? जब मानुष देह ली है, तो मानुष भावनाएँ भी दर्शानी पड़ेंगी न? और अगर वो नहीं दिखा रहे हैं मनुष्य की भावनाएँ, तो ये बताओ तुम उनसे सम्बन्ध क्या बनाओगी? अब उनके पास भावनाएँ नहीं, अब उनके पास विचार नहीं, अब उनके पास मात्र मौन है, अब तुम्हारा-उनका नाता क्या बनेगा? फिर तो राम शून्य हो गए। शून्य से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? शून्य से यदि तुम सम्बन्ध बना ही सकते तो शून्य को अवतार लेने की क्या ज़रूरत पड़ती? अगर तुम्हारा शून्य से सीधा ही सम्बन्ध बन सकता, अगर तुम्हारा ब्रह्म से सीधा ही सम्बन्ध बन सकता, तो ब्रह्म को अवतार लेने की क्या ज़रूरत थी? अवतार होते ही इसीलिए हैं ताकि वो कुछ-कुछ तुम्हारे जैसे हों।

पर तुम्हारा चित्त कभी-कभी उल्टा चलता है। तुम कहते हो, "अगर ये मेरे जैसा है तो इसका मतलब इसमें दोष है और दुर्गुण है। और अगर इसमें दोष और दुर्गुण हैं, अगर ये पूर्ण नहीं है, अगर ये आदर्श नहीं है, तो मैं इसकी सुनूँ क्यों?"

तुलसी की कुछ चौपाइयाँ हैं, कुछ दोहे हैं जिनको लेकर कुछ लोगों ने पूरे मानस को ही अस्वीकार कर दिया है। वो कहते हैं, "न, राम में बड़े दोष थे। उन्होंने इसका उत्पीड़न किया, उसका शोषण किया, ये ग़लत किया, वो ग़लत किया।" अरे! तुम हज़ार चीज़ें ग़लत करते हो, तुम अपने-आपको अस्वीकार कर देते हो क्या? और तुम कहाँ कोई पाओगे ऐसा जिसमें कहीं कुछ भी छूट न गया हो, कोई अपूर्णता न हो?

कोई अपूर्णता न हो, ऐसा तो सिर्फ़ 'पूर्ण' होता है। और पूर्ण से तुम्हारा कोई सम्बन्ध बैठता नहीं। तो तुम्हारा तर्क बड़ा अजीब है। निराकार से तुम कहते हो, "तू निराकार है इसलिए हम तुझसे कोई सम्बन्ध नहीं बैठा पाएँगे।" और जब निराकार साकार हो जाता है, तब तुम कहते हो, "अब तू साकार हो गया, अब तू सीमित हो गया, अब तुझमें कुछ दोष आ गए, इसलिए अब हम तुझसे सम्बन्ध नहीं बैठा पाएँगे।" सीधे क्यों नहीं कहते कि तुम्हारा इरादा ही नहीं है सत्य से सम्बन्ध बैठाने का!

बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें पूरे रामचरितमानस में सिर्फ़ इतना याद है कि – "ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी"। वो कहते हैं, "न, इसको तो वर्जित कर दो, इसका तो छपना ही बंद कर दो! इसने इतनी भद्दी बात बोल दी है!" तुम्हें इतने बड़े पोथे में कुछ दिखाई नहीं दिया? मक्खी की तरह हो तुम जो सिर्फ़ घाव पर जाकर बैठ जाती है। कूड़ा-करकट ही दिखाई देता है उसको।

आ रही है बात समझ में?

आवश्यक है कि अवतार में भी मानवीय भावनाएँ हों, तभी आप उनसे सम्बन्ध बैठा पाएँगे। बहुत आवश्यक है। आवश्यक है कि राधा के लिए कृष्ण रोएँ। आवश्यक है कि जब वो जमुना त्यागें तो भाव विह्वल हो जाएँ। आवश्यक है कि कभी-कभी अवतार भी लजा जाएँ। आवश्यक है कि वो भी कभी फिसल जाएँ। इसी में उनका सौंदर्य है।

बात आ रही है समझ में?

प्र: ये भी कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने बच्चों को राज्य के घृणास्पद माहौल से दूर रखने के लिए सीता को वन में भेज दिया था।

आचार्य: इसमें इतना तर्क और बुद्धि लगाने की ज़रूरत नहीं है कि वो आगे का सोच रहे थे, अपना स्वार्थ सोच रहे थे और बालकों का हित सोच रहे थे। इतनी अक्ल हम लगाते हैं कि देश छोड़कर जाते हैं कि किसी और देश में बच्चे पैदा होंगे तो गोरे होंगे! उन्होंने ये थोड़े ही किया था कि अयोध्या में प्रदूषण ज़्यादा है तो अच्छा है कि बच्चे वन में पैदा हों! वहाँ की हवा ज़्यादा साफ़ है! इतना तर्क राम नहीं लगाते। इतना नहीं सोचा जाता।

अपने मंतव्यों को अवतारों के ऊपर प्रक्षेपित नहीं करते। ये हमारे मंतव्य हैं, इनको उनके ऊपर मत आरोपित करिए। ऐसे हम होते हैं, वो नहीं होते हैं। कुछ हद तक वो हमारे जैसे होते हैं। जिस हद तक वो हमारे जैसे हैं, बस उसी हद तक रखिए, उसके आगे मत जाइए।

वो इस हद तक आपके जैसे ज़रूर हैं कि जब उनकी पत्नी को एक राक्षस उठा ले गया तो वो ढूँढते फिर रहे हैं, जैसे आप ढूँढते फिरेंगे। कोई बीवी उठा ले जाए, तो जाएँगे नहीं पुलिस के पास? तो राम भी पूछ रहे हैं, "हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।" बावले हो गए हैं, पक्षी से पूछ रहे हैं, "हे खग..." मृग से पूछ रहे हैं, "मृग...।" "हे मधुकर श्रेनी...", भँवरे से पूछ रहे हैं, "तुम देखी सीता मृगनैनी।"

बीवी का सौंदर्य ही याद आ रहा है। ये थोड़े ही कह रहे हैं कि मेरी बीवी की आत्मा बड़ी सुंदर थी। उसके मृग जैसे नयन याद आ रहे हैं। तो इन मामलों में आपके जैसे हैं। और थोड़ा आपके जैसा होना ज़रूरी है न उनका।

प्र: फिर क्या विचार करते हुए श्रीराम ने सीता को वन में भेज दिया था?

आचार्य: जब आप कोई आसन ग्रहण करते हैं, खास तौर पर ऐसा जिसमें बहुत लोगों का हित और कल्याण आपसे जुड़ा हो, तब वहाँ पर सर्वजन का कल्याण आपके व्यक्तिगत कल्याण से ऊपर हो जाता है। राम के सामने दो विकल्प थे: या तो सीता को छोड़ देते, या सिंघासन छोड़ देते। प्रजा में असंतोष है, प्रजा कह रही है, "नहीं, हमारे राजा की पत्नी अशुद्ध है।" अब ऐसी प्रजा के साथ तो चल नहीं सकता। तो दो ही विकल्प हैं: या तो सीता छोड़ दें, या तो सिंघासन छोड़ दें।

सिंघासन छोड़ दें तो हज़ारो लोगों का नाश होगा। राम राजा बने हैं तभी तो राम-राज्य आया है। उन्होंने एक के भले के ऊपर वरीयता दी हज़ारों के भले को। और इसलिए भी क्योंकि उन्हें पता था कि सीता, 'सीता' हैं। सीता वन में भी रहेंगी तो भी 'सीता' हैं। सीता का कुछ नहीं बिगड़ने का। और अपनी प्रजा का भी जानते थे, कि इतनी मूढ़ है कि सीता पर ही आक्षेप लगा रही है।

जो बीमार होता है, उसे चिकित्सक की ज़रुरत होती है न? सीता बीमार नहीं हैं। ये प्रजा बीमार है। वो धोबी बीमार है जो सीता पर लांछन लगा रहा है। उसे राम की ज़रुरत है। राम उस धोबी को नहीं त्याग सकते; राम सीता को सहर्ष त्याग सकते हैं, क्योंकि सीता का कुछ बिगड़ेगा नहीं। दोनों दुःखी होंगे आरम्भ में। सीता भी दुःखी होंगी, राम भी दुःखी होंगे, लेकिन दोनों भीतर से स्वस्थ हैं। दोनों आत्मा हैं। दोनों का क्या बिगड़ जाना है? पर अभी आवश्यक है, चौदह-वर्ष के बाद लौटे हैं। एक राज्य की स्थापना हो रही है, एक व्यवस्था बनाई जा रही है – "मैं नहीं छोड़ना चाहता हूँ अभी अपनी प्रजा को।"

प्र: तो फिर ये भी कहा जाता है न कि उनके कृत्य को प्रजा के अन्य लोग भी अनुसरित करेंगे, जिससे समाज पर नकारात्मक असर पड़ेगा।

आचार्य: आप तो कुछ भी कर सकते हैं, उसमें राम बेचारे क्या कर लेंगे? वो तो आप राम-कथा सुनकर कोई भी निष्कर्ष निकाल लें। वो तो आप कुछ भी कर सकते हैं, उससे राम का क्या लेना-देना? आप राम को देखें और आपको इतना ही समझ आए कि मुकुट पहनना बढ़िया बात है, और आप आज के ज़माने में मुकुट पहनकर घूमने लग जाएँ, तो आप जानिए! सड़क पर कोई मुकुट और धनुष-बाण लेकर आपको घूमता मिले, तो आप १०० नंबर डाइल करेंगे और कुछ नहीं। आप ये नहीं कहेंगे, "अवतार आ गए!"

तो आप क्या सीख रहे हैं राम से, ये आपके ऊपर है न? शुरुआत ही हमने इससे करी थी कि एक मायने में भक्त स्वयं भगवान का निर्माण करता है। आपकी भक्ति कितनी गहरी है, इससे पता चलेगा कि आपके भगवान कैसे हैं।

प्र: आचार्य जी, दुःख के समय प्रभु श्रीराम को किस प्रकार याद करें?

आचार्य: जब दुःख आए तो राम को मत देखिएगा, ये देख लीजिएगा कि राम को छोड़ा कहाँ पर। छोड़ा है राम को तभी तो दुःख आया है। आपका सवाल कुछ ऐसा है कि जब मोबाइल फ़ोन खो जाए तो कॉल कैसे अटेंड करें। अब खो गया है तो अटेंड तो नहीं करोगे। अब ये याद करो कि खो कहाँ दिया था।

दुःख का अर्थ ही है कि खो दिया। किसको? राम को। कहाँ खोया है, ये देख लो। और राम को खोने का अर्थ होता है: कुछ और पा लेना। राम खोने वाली चीज़ नहीं हैं। जब और बहुत कुछ पा लेते हो तो राम खोए-खोए से प्रतीत होने लग जाते हैं। जब दुःख आए तो ये देख लेना: "और क्या है जिसको अपने ऊपर ओढ़ लिया है। और क्या है जिसको ज़माने से ग्रहण कर लिया है।" तभी दुःख आया है।

जो कुछ भी तुमने ओढ़ लिया है, धारण कर लिया है, उसको हटा दो; दुःख छँट जाएगा, राम पुनः प्रकाशित हो जाएँगे। दुःख कभी अपने पाँव चलकर नहीं आता, तुम बुलाते हो, खींच-खींच कर लाते हो। देखो कि कैसे खींच कर लाए हो। जैसे खींच रहे थे, वैसे ही खींचना छोड़ दो।

प्र: आपने कहा था कि राम जी का शुद्ध रूप ही सीता या प्रकृति है, तो फिर प्रकृति में स्थित सब कुछ ही क्या शुद्ध नहीं होगा?

आचार्य: हाँ। वास्तव में अशुद्धि कुछ होती नहीं। अशुद्धि का अर्थ इतना ही है कि शुद्धि आपको समझ नहीं आयी। तत्वगत रूप से, वस्तुगत रूप से कहीं कोई अशुद्धि नहीं है। सब कुछ ही तो परमात्मा का प्रसार है, तो कहीं कुछ ग़लत कैसे हो सकता है? पर आप तो रोते हो न, "मेरे साथ ग़लत हो गया," तो अशुद्धि यही है, दोष यही है, दुःख यही है। जब कुछ भी आपको बुरा लगे, ग़लत लगे, और लगता है न? उसी को अशुद्धि कहते हैं। वही अविद्या है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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