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क्या शुद्ध शाकाहार पूर्ण पोषण दे सकता है? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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क्या शुद्ध शाकाहार पूर्ण पोषण दे सकता है? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्न: आचार्य जी, मैं कुछ समय पहले वीगन (शुद्ध-शाकाहारी) हो गया था, तो मेरा वज़न बहुत काम हो गया और विटामिन की कमी भी हो गई थी। क्या वीगन हो जाने से ऐसा भी होता है?

आचार्य प्रशांत: किसने कहा है कि तुम कुछ भी अंधाधुंध हो जाओ? वीगन होने के भी कायदे होते हैं। मेरा तो नहीं वज़न गिर रहा, मैं तो चाहता हूँ गिरे! न दूध लेता हूँ, न पनीर, कुछ नहीं। जितना है उतना है, बल्कि और कम होना चाहिए।

प्रश्नकर्ता: विटामिन भी पूरे हैं?

आचार्य प्रशांत: कायदे होते हैं; तरीक़े होते हैं। एक चीज़ अगर तुम अपने आहार से हटा रहे हो, तो दूसरी चीज़ें आहार में जोड़नी होती हैं न?

प्रश्नकर्ता : फिर वो कहते हैं कि डेयरी प्रोडक्ट्स (दुग्ध उत्पाद) या माँस खाना होगा।

आचार्य प्रशांत: अरे, पढ़ो, मिलेगा; खोजो, सब मिलेगा; इतना नहीं मुश्किल है। खोजोगे तो मिलेगा। इतने वीगन एथलीट हैं, पहलवान हैं, उनका कैसे काम चल रहा है?

प्रश्नकर्ता: उसके लिए पैसा भी चाहिए।

आचार्य प्रशांत: नहीं, उतना नहीं। हाँ, ये ज़रूर है कि तुम्हें ऐसे खाद्य पदार्थों की ओर मुड़ना पड़ेगा जिनकी अभी तक तुम्हें आदत न हो और तुम्हें हो सकता है नीरस, बेस्वाद भी लगें।

प्रश्नकर्ता: उससे नींद भी कम हो जाती है।

आचार्य प्रशांत: वो होगा।

अब देखो वो तो बचपन से ही आदमी दूध की ख़ुराक पर पलता है, अचानक से जब दूध और दूध से संबंधित चीज़ें ख़ुराक से निकलती हैं तो शरीर पर उसका असर तो पड़ता ही है; बुरा असर नहीं, अच्छा ही पड़ता है। देखिए, आप किसी की भी लत तोड़ोगे तो वो विरोध करता है, तो शरीर भी शुरू में थोड़ा विरोध करता है। जो तुम्हारे साथ हो रहा है, वास्तव में मेरे साथ भी हुआ था। मेरा तो आर. बी.सी. काउंट ही गिर गया था। आज से २-३ साल पहले की बात है। पर वो इसलिए नहीं था कि दूध आवश्यक है, वो इसलिए था क्योंकि मैंने लापरवाही करी थी। फिर नहीं, फिर मुझे समझ में आ गया कि ये हटाया है तो कुछ चीज़ों के प्रति सतर्क भी रहूँ।

प्रश्नकर्ता: सर, अच्छा भी महसूस होता है।

आचार्य प्रशांत: हल्का लगता है। शरीर भी, मन भी हल्का लगता है।

प्रश्नकर्ता: पर ये लगता है सब आगे निकल गए, सब जिम कर रहे हैं, सब सेहत बना रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: तुम इंटरनेट पर जाकर के देखो, बहुत सारे वीगन बॉडी-बिल्डर्स मिलेंगे।

प्रश्नकर्ता: हाँ, मैंने देखे हैं।

आचार्य प्रशांत: तो ऐसा थोड़ी है कि दूध और चर्बी से ही शरीर बनता है। तुम्हें कौन रोक रहा है? तुम ब्रोकली खाओ, प्रोटीन ही प्रोटीन है उसमें; दाल खाओ, तमाम दालों में प्रोटीन होता है।

प्रश्नकर्ता: सोया प्रोडक्ट्स होते हैं।

आचार्य प्रशांत: सोया प्रोडक्ट्स होते हैं। पूरी सूची है, और सब कुछ महँगा नहीं है। कुछ-कुछ चीज़े हैं महंगी भी, सब कुछ महँगा भी नहीं है, तलाशना पड़ेगा।

प्रश्नकर्ता: एक तो नींद उड़ जाती है।

आचार्य प्रशांत: हाँ, नींद उड़ नहीं जाती, नींद सम्यक हो जाती है। जो आदमी बहुत खाता है, उसके लिए आवश्यक हो जाता है आठ घंटे सोना। तुमने देखा होगा कि जिस दिन तुम बहुत खाते हो, उस दिन तत्काल नींद आने लगती है। जो सात्विक और हल्का भोजन कर रहा है, उसको नींद अपनेआप कम आती है - ५ घंटे, ६ घंटे पर्याप्त होता है। ये अच्छी बात है न भई।

प्रश्नकर्ता: उससे दिमाग ज़्यादा चलता है, समझ नहीं आता है कि क्या करूँ क्या ना करूँ।

आचार्य प्रशांत: नहीं, ऐसा नहीं होता।

तो फिर उसका संबंध तुम्हारे आहार से नहीं है, उसका संबंध तुम्हारी चर्या से है, जीवन से है - ज़िंदगी में क्या चीज़ें चल रही हैं, कैसी चीज़ें चल रही हैं। और एक बात और समझना, ये बात सिर्फ़ न खाने की नहीं है, ये बात समझदारी की है। मैं क्यों नहीं खा रहा? वैसे थोड़ी है कि जैसे जब नवरात्रि आती है तो लोग कहते हैं, "माँस नहीं खाएँगे," फिर खाना शुरू कर देते हैं। उसमें कोई समझदारी तो होती नहीं है।

दूध न लेने का निर्णय तुम्हारे बोध से निकले तो ही पक्का होगा। नहीं तो कुछ दिनों तक तुम अपनेआप को घसीटोगे, फिर गिर जाओगे, फिर हिम्मत जवाब दे जाएगी।

मैंने दोनों तरह के लोग देखे हैं - ऐसे भी जो उत्साह में जल्दी-जल्दी फैसला के लेते हैं कि ये छोड़ देंगे, वो छोड़ देंगे; वो दो ही महीने में फ़िर वापस वहीं आ जाते हैं जहाँ से शुरू किए थे, उनका सारा उत्साह, सारा संकल्प क्षीण। और दूसरे भी होते हैं जो समझ-समझ के आगे बढ़ते हैं, और समय के साथ उनका संकल्प और पक्का होता जाता है। वो यही नहीं कहते कि - "हम नहीं खा रहे," वो ये भी कहते हैं कि - "हम दूसरों को भी बताएँगे कि खाना लाभप्रद नहीं है।"

दोनों तरह के लोग होते हैं।

जल्दबाज़ी में कुछ मत करो, ये कोई फ़ैशन की बात नहीं है; ये ज़िन्दगी की बात है, ये आत्मा की बात है। नहीं तो तुम्हारे मन में शिकायतें ही शिकायतें उठ आएँगी, कि - "मैंने तो अच्छा काम किया और नतीजा बुरा मिला।" ऐसे नहीं करते। समझ-समझ के आगे बढ़ो।

मैं ये भी नहीं कह रहा कि तुम हड़बड़ी में खाना-पीना छोड़ दो। तुम्हें जबतक भीतर से गहरी आश्वस्ति नहीं आ रही, तब तक तुम धीरे-धीरे क़दम बढ़ाओ। नहीं कहा जा रहा तुम्हें कि एक झटके में ही सब कुछ छोड़ दो। तुम एक महीने, चार महीने का समय ले लो। पढ़ो, समझो कि जो कहा जा रहा है उसके पीछे कारण क्या है, और कारण तुम्हें जंचे, तुम्हारा मन ख़ुद राज़ी हो, मन कहे, "नहीं, बात बिल्कुल ठीक है, हम नहीं शोषण करना चाहते। हम नहीं किसी का हक मारना चाहते," तब फिर तुम छोड़ो। तब उस छोड़ने में जान होती है, वो छोड़ना टिका रहता है। नहीं तो फिर तो आदमी देखा-देखी में या फ़ैशन की तरह छोड़-छाड़ देता है, वो २-४ महीने छोड़ा, फिर ढाक के तीन पात।

प्रश्नकर्ता: मैंने कभी उसके बाद माँस नहीं खाया था, मगर फिर बी-१२ की कमी के कारण माँस खाया। अब ग्लानि-सी महसूस होती है।

आचार्य प्रशांत: होगी ही। वीगन लोगों में बी-१२ की कमी अक्सर पाई जाती है, उसके लिए भी आहार होते हैं जिनसे बी-१२ मिलता है। और अगर वो आहार किसी वजह से तुम्हें उपलब्ध ना हो रहे हों, तो सप्लीमेंट्स होते हैं; मटन खाने की तो आवश्यकता नहीं है। ये तो ऐसी-सी बात है कि गाय का दूध नहीं पीएँगे, लेकिन उसका माँस खाएँगे। या कि एक दिन वो था जब कह रहे थे कि दूध भी नहीं लेंगे उसका, और फिर पलट करके एक ऐसे दिन पर आ गए कि दूध छोड़ो, उसका माँस भी चाहिए; ये तो अति कर दी।

ये वीगन इत्यादि मैं फिर कह रहा हूँ, ये फेड (प्रियसिद्धांत) नहीं है, ये गहरी करुणा और अहिंसा से उठने वाला जीवन है। और अगर तुम्हारे भीतर वो करुणा और अहिंसा है नहीं और तुम कोशिश करोगे शाकाहारी होने की या दूध छोड़ने की, तो तुम्हारा जो संकल्प है वो बस कुछ दिन का होगा।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो गेहूँ या चावल होते हैं, उसमें भी पेस्टीसाइड्स होते हैं। वो भी एक हिंसा ही है?

आचार्य प्रशांत: पूरी-की-पूरी जो खेती की व्यवस्था है उसी में हिंसा बैठी हुई है। हाँ बिल्कुल हिंसा है, कोई शक नहीं है इसमें। देखो बेटा, कहीं-न-कहीं तो तुम सीमा खींचते ही हो न, कहीं-न-कहीं तो तुम कह देते हो न कि - "फलानी चीज़ है, नहीं खाऊँगा।" जो आदमी हज़ार तरीके के माँस खाता है वो भी आदमी को तो नहीं खाता, जबकि खाने की चीज़ तो आदमी का माँस भी है। आदमी का माँस खाओ तो स्वादिष्ट भी है और पौष्टिक भी है। तो कहीं-न-कहीं तो तुम अपनेआप को रोक ही देते हो, वर्जना कर ही देते हो कि इसके आगे नहीं खाऊँगा। हालाँकि चीज़ खाने में स्वादिष्ट भी होगी, बेहतरीन चीज़ है, पर मैं ख़ुद अपने उपर संयम लगा रहा हूँ कि - "ये नहीं खाऊँगा। क्या नहीं खाऊँगा? "मैं बच्चा मारकर नहीं खा जाऊँगा आदमी का।' तो जब तुम्हें कहीं-न-कहीं अपनेआप को रोकना ही है, तो थोड़ा पहले ही रोक दो भाई। या तो ये कह दो कि - "कहीं नहीं रोकूँगा, खाने लायक जो कुछ है सब खाऊँगा।" अगर सब कुछ खाना ही है तो आदमी को भी खाओ। आदमी को क्यों नहीं खाते? पर नहीं खाते न? किसी भावना से ही नहीं खाते न? एक करुणा उठती है, इसीलिए नहीं खाते न?

प्रश्नकर्ता: नहीं आचार्य जी ऐसा नहीं है, क्योंकि चेतना होती है मनुष्य में, उसमें भगवान को पाने की चाह होती है।

आचार्य प्रशांत: ये सोचकर नहीं खाते? सही में?

प्रश्नकर्ता: जैसे मुर्गा, बकरा भगवान को नहीं पा सकते।

आचार्य प्रशांत: तुम्हें कैसे पता मुर्गी, बकरे का? क्या पता वो तुमसे ज़्यादा करीब हों भगवान के? भगवान से दूर तो सब पापी होते हैं। मुर्गी, बकरे को पाप करते देखा है? पाप कौन करता है? इंसान। तो फ़िर सबसे पहले किसे खाना चाहिए मारकर?

अगर तुम्हारा यही क्राइटेरिया (कसौटी) है कि जो भगवान के पास है उसको नहीं मारूँगा, तो फिर तो तुम्हें सबसे पहले छोड़ना चाहिए मुर्गी-बकरे को, क्योंकि वो बहुत पास हैं। उनको पाप करते किसी ने नहीं देखा, न उनमें हिंसा है, न प्रतिस्पर्धा है, न बलात्कार करते हैं, न षड्यंत्र करते हैं, न किसी की दौलत चुराकर बैठते हैं, न किसी का ख़ून पीते हैं।

जब तुम तय करते ही हो कि एक सीमा के आगे नहीं मारूँगा। यही तय करते हो न कि एक सीमा के आगे नहीं मारूँगा, तो वही सीमा-रेखा थोड़ी पहले क्यों नहीं खींच देते?

कहीं-न-कहीं तो तुम कहते ही हो कि इस रेखा के नीचे जो कुछ है वो खा लूँगा और इस रेखा के पार जो कुछ है वो नहीं खाऊँगा। या तो तुम ऐसे हो जाओ कि कहो कि सब कुछ खाद्य पदार्थ है, सब कुछ ही खा लूँगा, फिर कोई बात नहीं, फिर तुम अघोरी हुए - अघोरियों का यही है, वो आदमी की लाश भी खा जाते हैं। फिर बढ़िया है, फिर तुम सीधे शिव के हो गए। पर वैसे तुम हो नहीं, तुम विवेक तो लगाते हो, तुम भेद तो करते हो, तुम कहीं-न-कहीं जाकर ठहरते तो हो ही। मैं तुमसे कह रहा हूँ कि ज़रा पहले ही ठहर जाओ, तुम्हारे लिए अच्छा होगा।

विवेक के कारण ही ठहरते हो न, करुणा के कारण ही ठहरते हो न, प्रेम के कारण ही ठहरते हो न? नहीं तो कुछ पहुँचे हुए लोगों ने ये भी बताया है कि आदमी के बच्चे का कोमल माँस अति स्वादिष्ट होता है। क्यों नहीं खाते आदमी के बच्चे का कोमल माँस?

ये ज़रा सहृदयता की बात है, ये नियम कायदे भर की बात नहीं है; ये आदमी के दिल की बात है। है कि नहीं? ये तुम्हारी इंसानियत, तुम्हारे प्रेम, तुम्हारी करुणा की बात है। तो उसी करुणा को थोड़ा और विस्तार दे दो, जो करुणा तुम आदमी के बच्चे पर लगाते हो, वही करुणा तुम भेड़ और बकरी के बच्चे पर भी लगा दो।

लगाते तो हो ही करुणा, ऐसा तो नहीं कि तुम में करुणा बिल्कुल नहीं है। ऐसा तो नहीं कि तुम प्रेम से बिल्कुल खाली हो, ऐसा तो नहीं कि तुम्हारा दिल पत्थर है। जो प्रेम, जो सहृदयता तुममें उठती है आदमी के बच्चे के लिए, वही यदि ज़रा दूसरों के बच्चों के लिए उठ आए तो क्या बुरा है? गाय के बच्चे के लिए भी लगा दो न।

आदमी के बच्चे का दूध तो छीनकर नहीं भागते तुम, और आदमी के बच्चे का दूध किसी को छीनकर भागते देखो तो क्या बोलोगे? बड़ा कमिना आदमी है, गंदा आदमी। तो तुम जैसे आदमी के बच्चे का दूध छीनना पसंद नहीं करते, वैसे ही किसी गाय या भैंस या बकरी के बच्चे का दूध काहे को छीनते हो? नियम कायदे की बात नहीं है, बात दिल की है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो दवाईयाँ खाते हैं विटामिन की इनमें भी माँस होता है?

आचार्य प्रशांत: हाँ, इनमें भी होता है, इसीलिए अब दवाइयाँ आने लगी हैं जिनमें ये भी अंकित रहता है कि क्या ये दवाई किसी पशु पर प्रयोग करके आई है, क्या इसकी रिसर्च के दौरान ख़रगोशों इत्यादि पर अत्याचार हुए, गिनी पिग बनाया किसी को, अब ये सब भी बातें हो रही हैं।

अब इतनी जागरूकता अभी आ रही है कि हम वो दवाई इस्तेमाल नहीं करेंगे जिसको बनाने के लिए पशुओं का शोषण हुआ और उनके साथ बड़ा निर्मम काम हुआ। वो सब भी होने लगा है और लोग माँग कर रहे है कि - "हम यूँ ही कोई दवाई नहीं ले लेंगे, पहले बताओ ये दवाई कैसे आई, क्या इसका परीक्षण पहले तुमने बिचारे ख़रगोशों पर किया था?"

प्रश्नकर्ता: क्या पशुओं का ही पदार्थ दवाइयों में डाला?

आचार्य प्रशांत: हाँ, बिल्कुल। वो भी अब आने लगा है अंकित होकर, सब कुछ। सब कुछ। और धीरे-धीरे जैसे ज़माना बढ़ेगा, ये तक आने लग जाएगा उदाहरण के लिए कि इस दवाई का कार्बन फुटप्रिंट कितना है। इस दवाई को बनाने की प्रक्रिया में तुमने कार्बन-डाय-ऑक्साइड कितनी वातावरण में घोल दी। तुम्हें ये सब भी बताया जाएगा, ताकि तुम एक उचित निर्णय ले सको कि ये चीज़ खानी है या नहीं खानी है। क्योंकि कोई चीज़ दिखने में बहुत स्वादिष्ट हो सकती है, पर उसको बनाने की प्रक्रिया ऐसी है कि बहुत सारा कार्बन उत्सर्जित हो रहा है वातावरण में; वो चीज़ तुम्हें नहीं खानी चाहिए। ये सारे प्रस्ताव हवा में हैं और जल्दी ही ये कार्यान्वित भी होंगे।

उदाहरण के लिए तुम फ्लाइट ले रहे होगे, तुम्हें बताया जाएगा कि तुम जो यहाँ से वहाँ जा रहे हो, तुम्हारे जाने के कारण कितना कार्बन वातावरण में घुल जाएगा। तुम होटल का एक कमरा ले रहे हो होगे, वहाँ तुम्हें साथ में बताना पड़ेगा होटल वाले को कि आप जो कमरा ले रहे हो उसकी जो कूलिंग हो रही है, उसकी जो सफ़ाई हुई है, उसका जो निर्माण हुआ है, उस पूरी चीज़ का कार्बन फुटप्रिंट कितना है।

धीरे-धीरे तुम देखोगे आने वाले दस सालों, बीस सालों में कि ये सब बातें हो रही हैं, ताकि तुम एक सही निर्णय ले सको। पहाड़ों पर अगर कोई एक होटल बना रहा है जंगल काटकर, तो उसको ये घोषणा करनी ही पड़ेगी कि इस होटल के निर्माण के लिए इतने पेड़ कटे थे ताकि तुम्हें पता हो कि ये होटल ठीक नहीं है। इस होटल को बनाने के लिए वातावरण का बड़ा नाश किया गया है। और ये सूचना तुम्हें दी जाएगी ताकि तुम इस सूचना के आधार पर उचित निर्णय ले सको।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं नशा करता हूँ, तो कुछ दिन छोड़ पाता हूँ, उसके बाद उसकी ललक और ज़्यादा हो जाती है। ऐसे क्यों?

आचार्य प्रशांत: वो ऐसी ही बात है जैसे कि दूध छोड़ना, ऊपर-ऊपर से छोड़ रहे हो। तुम्हारे यहाँ (मन में) बैठा हुआ है। जैसे कंगारू को देखा है? वो अपने पेट में क्या बैठाकर रखता है? बच्चा। कंगारू ने अपने हाथों में जो पत्तियां और शाखें पकड़ रखी थीं, वो तो छोड़ दी शाखाएँ, लेकिन अभी वहाँ कोई बैठा है जो पकड़कर बैठा हुआ है।

तुम्हारे छोड़ने भर से नहीं होगा न, तुम्हारे भीतर कोई है जो पकड़े हुए है। या तो उस भीतर वाले को छोड़ दो या उस भीतर वाले को सिखा दो कि पकड़ना नहीं है। तुम बाहर-बाहर से छोड़ते हो, भीतर तुम्हारे कोई बैठा है जो पकड़ने के लिए एकदम आतुर है। मामला खस्ता है फिर। जानो, समझो, उसके बाद जो छूटता है सो छूटता है, जो जीवन में नया प्रवेश करता है वो प्रवेश करता है। इन बातों को तुम अनुशासन की तरह लोगे तो बहुत दिन नहीं चल पाएगी।

बहुत लोग इस तरह का अनुशासन उठाते हैं। देखते नहीं हो कि १ जनवरी को लोग कितने वादे, कसमें लेते हैं? वो कितनी देर चलते है? २ हफ्ता, ४ हफ्ता और फिर बात ख़तम; उतना भी नहीं चलते।

समझने पर ज़ोर दो; दुनिया क्या है, मन क्या है, चीज़ों के अंतर-संबंध क्या हैं। फिर अपनेआप तुमसे कुछ काम होंगे ही नहीं, और कुछ कामों से तुम हट पाओगे नहीं।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे कुछ ऐसा बता दीजिए जिससे मुझे नशे से ज़्यादा मज़ा काम में आने लगे।

आचार्य प्रशांत: इसीलिए तो तुम कह रहे हो न, “बता दो”, अगर मेरे बताने से नशा छूटा, तो मतलब उसको सुनने में मज़ा है। अभी यही पूछा न - "नशे से ज़्यादा मज़ेदार कोई चीज़ दे दो," और उसका उत्तर तुमने ख़ुद ही दे दिया। तुम कह रहे हो, "सर, कुछ ऐसा बता दो कि नशा छूट जाए।" अगर बताने में और सुनने में कोई ऐसी बात है कि वो नशे को छुटवा सकती है, तो मतलब ये बताना और सुनना ही नशा छुटाने की विधि है।

विधि यही है कि सुनते चलो, नशा छूट जाएगा।

संतों ने इसको कहा 'राम-खुमारी'; ये भी एक नशा है। और ये ऐसा नशा है कि बाकी सारे नशे छूट जाते हैं। जीने के लिए नशा तो चाहिए, जिसके पास नशा नहीं है वो जी नहीं सकता। तो जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा कि - "ऐसा करो तुम राम का नशा कर लो।" राम का नशा माने - पूर्ण होश, गहरा बोध।

इसीलिए देखा नहीं है संतों को, सूफ़ियों को, वो ऐसे-ऐसे झूम रहे होते हैं। ऐसा नहीं कि उन्होंने गांजा चढ़ा लिया है। फ़क़ीरों को देखा है? वो चल भी रहे होते हैं तो ऐसा लगता है जैसे बादलों पर चल रहे हैं, और ४-५ कुत्ते और चल रहे होते हैं। कुत्ते भी जानते हैं कि हाँ साथ चल सकते हैं, ये लात नहीं मरेगा। वो चल ऐसे रहा है जैसे आसमान में तैर रहा हो, अपनी ही धुन उसकी, नशा। नशे से तात्पर्य है मेरा - सामान्य कोटि का बोध नहीं है उसको, सामान्य श्रेणी का होश नहीं है उसको; उसके होश की गुणवत्ता दूसरी है।

वो जो अतिंद्रिय होश होता है, उसको फिर पारमार्थिक नशा भी बोलते हैं। वो वाला नशा कर लो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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