क्या सत्य सबके लिए अलग-अलग होता है? || (2015)

Acharya Prashant

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क्या सत्य सबके लिए अलग-अलग होता है? || (2015)

प्रश्नकर्ता: क्या मेरा सत्य और किसी और का सत्य अलग हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: आप हैं दूसरे से अलग? मेरा सत्य माने क्या? सत्य का अर्थ ही होता है कि ‘आप’ के लिए नहीं है, ‘आप’ ही नहीं हैं, यह पहला सूत्र है आध्यात्मिकता का कि आपको बचा कर सत्य जैसा कुछ नहीं होता। आप के लिए सत्य कैसा होगा, सत्य कोई सिधांत है क्या? कि मेरे सिधांत दूसरे के सिधान्तों से अलग हैं। सत्य क्या है? बताइये, अलग–अलग कैसे करोगे? ज़रा बताइए आपका और आपके पड़ौसी का अलग–अलग कैसे हो जाएगा? क्या है सत्य? खरबूजा है, कि सेब है, कि जूता है, कि चावल है, दाल है, कि क्या है, जो अलग-अलग हो सकता है? कि रंग है कि 'मेरा पीला है उसका लाल है', कि छोटा है कि बड़ा है, 'मेरा दो इंच का है कि उसका आठ इंच का है', क्या है? कि तनख्वाह है, सत्य क्या है? कि आप जिसकी तुलना कर लोगे या भेद कर लोगे कि मेरा उसका अलग-अलग है।

बताने वाले आपको बता-बता कर थक गए कि सत्य वो जो अनिर्वचनीय है, जो कहा ही नहीं जा सकता, आपने उसकी तुलना भी कर डाली! और तुलना करके यह भी कह दिया कि अलग-अलग है! एक भी नहीं है, दो कहाँ से हो गया?

अद्वैत का क्या अर्थ होता है? दो-नहीं, एक भी नहीं।

हम तो रह गए पीछे, दुनिया निकल गयी आगे! अब कैसे बताएँगे कि हमारे पास क्या-क्या है! हम किसी को बताएँगे कि हमारे पास यह डिग्री है, हमारे पास इतना संपर्क है, हमारे पास बड़ा नेटवर्क है, हमारे पास बड़ी अच्छी छवि है, यह है, वो है, शशि कपूर की तरह सामने वाला बोल देगा, ‘मेरे पास सत्य है’, तो हम तो रह गए पीछे! क्योंकि ये कौन सी चीज़ है जो हमारे बैग में समा नहीं सकती – सत्य। तो समा लेते हैं, फिर सामने वाला यदि उस पर आपत्ति करे तो कह देंगे 'मेरा सत्य तेरे सत्य से अलग है, इसलिए तू मेरे वाले को पहचान नहीं पा रहा', सत्य अहंकार को बड़ा दुःख देता है, वो झोले-ओले-गोले-पोले किसी में समाता ही नहीं!

प्र: सर, यदि सत्य तक पहुँचना हो तो ऐसा बहुत ज़रूरी है कि अपना डर काटा जाए, जो डर है ज़रूरी नहीं है कि मेरे आस-पास जो लोग हैं उनका भी वही डर हो, लेकिन मैं जिस तरीके से सत्य तक पहुँचना चाह रही हूँ, मतलब अपना डर काट कर, तो मेरा सवाल यही था कि उस तक पहुँचने के लिए जो रास्ता ले रहे हैं...

आचार्य: किस तक पहुँचने के लिए? किस तक?

प्र: मतलब समझने के लिए या फिर कोई भी चीज़ को समझने के लिए।

आचार्य: फिर पूछ रहा हूँ किस तक पहुँचने के लिए?

प्र: समझने के लिए, सत्य तक पहुँचने के लिए।

आचार्य: सत्य तक न? आपको यहाँ से बम्बई जाना हो तो आप एक रास्ता ले सकते हो, कहीं तक पहुँचने के लिए पहले पता तो होना चाहिए कहाँ पहुँचना है। सत्य माने क्या? कहाँ पहुँचना है? रास्ता कैसे चुनोगे अपना? असल में आप जो बात कह रही हैं वो यह कह रही हैं कि 'अपनी विधि मैं ख़ुद बना लूँगी। कोई मझे ये न बताए कि मुझे क्या करना है। मंजिल तक मैं ख़ुद पहुँच जाऊँगी, कोई मुझे निर्देश न दे, कोई मुझे यह न बताए कि अब ये करो, अब ये करो, ये करो, क्योंकि मैं विशिष्ट हूँ, मैं अनुपम हूँ, सिर्फ़ मैं जान सकती हूँ कि मेरे लिए क्या चलेगा, क्या नहीं चलेगा', आपका समूचा तर्क बस यह है।

पर मैं ये पूछ रहा हूँ कि कहाँ पहुँचना है ये तो बता दीजिए, कहाँ पहुँचना है? बम्बई पहुँचना है तो रास्ता लिया जा सकता है, पर उसके लिए पहले पता तो होना चाहिए कि बम्बई किस दिशा में है। यहाँ बात पहुँचने की नहीं होती, यहाँ बात होती है कि आप जो भी कुछ हो उसको ख़त्म कर देना है और आप जो कुछ हो उसे ख़त्म करने में आपकी विधि काम नहीं आएगी क्योंकि अहंकार कभी स्वयं अपने-आपको ख़त्म नहीं करता। हाँ, यदि विधि अगर चलानी है तो यही चला लो जो कुछ अपना करने का मन करे उसका उल्टा कर लो। पर माया बड़ी ठगनी है जल्दी पाओगे कि उल्टा ही करने का मन करता है। मीठा खाने का मन होगा, तो बोलोगे 'आज कुछ नमकीन मिल जाता तो अच्छा रहता', फिर बोलोगे 'नमकीन बोला न, चलो केक खा लेते हैं।'

कहाँ पहुँचना है? सत्य क्या है? सत्य तुम्हारा अभाव है, तुम अपने-आपको जो भी माने बैठे हो, तुम नहीं रहोगे तो जो बचता है वो सत्य है। तो तुम कैसे सत्य तक पहुँच जाओगे? कहते हो, "सत्य तक पहुँचना है तो मैं अपना रास्ता ख़ुद चुनूँगा", तुम कैसे पहुँच जाओगे ये बता दो?

सत्य कोई मंज़िल है क्या? तुम से बाहर कहीं कि तुम जैसे हो वैसे ही हो, किसी बढ़िया गाड़ी में बैठ कर के, अपने अनुसार कुछ चुन करके, रास्ते में खाना-वाना खाते हुए इन-फ्लाइट मनोरंजन लेते हुए सत्य तक पहुँच गए और पायलट उद्घोषणा कर रहा है ‘मैं आपका विमान चालक गुरुदेव हूँ। बाहर का तापमान अड़तीस डिग्री है’ और अनुराधा उतर रही हैं, बिलकुल जैसी थी वैसी ही उतर गई, सत्य के देश में।

असल में पिछले कुछ दिनों में अनुराधा ने पूर्ण विद्रोह किया है कि 'मैं अपने अनुसार करूँगी', तो ये जो पूरा प्रश्न है, पूरी बातचीत है वहीं से आ रही है। बात पिछले कुछ दिनों की भी नहीं है, यह लम्बी प्रक्रिया है। आप जो भी कुछ कह रहे हो, आप जो भी कुछ कर रहे हो, निवेदन करना चाहता हूँ, सब झूठा है; मात्र भ्रम है। जिन आधारों पर आपने अपना जीवन खड़ा कर रखा है, वो नकली हैं, झूठे हैं। बात आप पर ही लागू नहीं होती करीब-करीब समूचे संसार पर लागू होती है, पर चूँकि अभी आप से बात हो रही है तो आप से कह रहा हूँ।

ये भ्रमों में महा-भ्रम है कि, जैसा आज सुबह मैंने कहा था कि, अंधा व्यक्ति अपनी आँखों से देख कर के आँख के अस्पताल पहुँच जाएगा। और वहाँ तो फिर भी कुछ संभावना है कि गिरते-पड़ते-टटोलते-पूछते-पाछते, मात्र संयोग से कभी पहुँच ही जाए क्योंकि आँख का अस्पताल फिर भी उससे बाहर की कोई वस्तु है तो। मात्र संयोग वश ही हो सकता है कभी पहुँच जाए। जहाँ दस मिनट में पहुँच जाना चाहिए था वहाँ हो सकता है छः साल में पहुँचे, पर संयोग वश ही पहुँच गया। पर सत्य तक अपने को बचा कर कभी नहीं पहुँच पाओगे, सत्य तक तो मनमानी करके और अपनी मर्ज़ी पर चल कर, भूल जाओ!

जिनके पास मेरा-तेरा का भाव प्रबल हो, वहाँ वो जान लें 'मैं' बहुत प्रबल है, बड़ी बीमारी है। आप कुछ पाने की बात मत करो, आप तो छोड़ने की भाषा में बात करो। अपने-आपको, अपने मन को सलाह दीजिए कि 'मैं पाने की भाषा में बात करूँगी ही नहीं क्योंकि मैं जैसी हूँ मुझे कुछ भी असली तो मिल नहीं सकता, नकली-नकली खूब मिला हुआ है, वही मिलता जाएगा, आगे और मिलेगा।'

छोड़ने की भाषा में बात करिए, ये ज़रा सी मेरी सलाह है और मेरा निवेदन है कि इसे स्वीकार कीजिए, समझिए। बात करिए ही नहीं सत्य तक पहुँचना है कि कुछ पाना है। आप बस यह बात करिए कि क्या-क्या छोड़ती जाऊँ अपना, कैसे अपने-आप को मिटाती चलूँ, आप इस भाषा में बात करिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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