क्या प्रेम किसी से भी हो सकता है? || (2016)

Acharya Prashant

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क्या प्रेम किसी से भी हो सकता है? || (2016)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या प्रेम किसी से भी हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: एक व्यक्ति वह होता है जो किसी और से कोई संबन्ध रख ही नहीं सकता क्योंकि वह बहुत स्वकेंद्रित होता है। यह मन का सबसे निचला तल है, स्वकेंद्रित मन। वह किसी से कोई रिश्ता रख ही नहीं सकता। उसके जो भी रिश्ते होंगें वह होंगें भी मतलब परस्त। वह बहुत छुपाना भी नहीं चाहेगा कि वह सिर्फ स्वार्थ देख पाता है। उसे बस काम निकालना है। और वह सारे काम उसके अपने हैं भी नहीं। वह सारे काम उसके संस्कारों और उसके ढाँचों, उसके ढर्रों द्वारा निर्देशित हैं। जो कुछ उसे सिखा दिया गया है, जो कुछ उसके रक्त में बह रहा है, जो कुछ उसको शरीर ने और समाज ने दिया है इसको वह समझ लेता है अपना काम, अपना हित, अपना प्रयोजन। और उसकी पूर्ति के लिए वह निर्भर रहता है मात्र अपने आप पर, दूसरा उसके लिए अधिक से अधिक ज़रिया बन सकता है। यह सबसे निचले तल का मनुष्य है, सबसे निचले तल का मन है।

इससे ऊपर वह मन आता है जो किसी का हो जाता है, जो कहता है मैं इस ‘एक’ का हुआ। इस ‘एक’ से मैंने नाता जोड़ा, गाँठ बाँधी। वह कहता है मैं वफादार हूँ। वह कहता है मैं एक का हूँ। वह कहता है पूरी दुनिया में से कोई एक चुन लिया, पकड़ लिया या संयोगवश सामने आ गया और अब इससे कभी न टूटने वाला संबन्ध बन गया और जो यह संबन्ध है यह निश्चित रूप से विभाजनकारी है, इस अर्थ में कि एक से बना है तो अब दूसरों से बन नहीं सकता। एक के हो गए हैं और उस एक के होने का अर्थ ही यह है कि दूसरों को अब उतनी ही आत्मीयता की दृष्टि से देख नहीं सकते।

जिसे हम आमतौर पर सम्बन्धों में समर्पण कहते हैं या वफ़ा कहते हैं उसका अर्थ ही यही होता है कि तुमने अब सीमारेखा खींच दी। तुमने कह दिया कि, “सीमा के इस पार यह जो एक है या दो-तीन हैं यह तो मेरे प्रियजन हैं, मेरा परिवार है, कुटुंब और कुनबा है और इसके बाहर जो कुछ है वह गैर है। वह दूसरे हैं। अब ये भीतर वाले मुझे प्रिय हैं और इनका मतलब साधने के लिए, इनके स्वार्थों की परिपूर्ति के लिए अगर बाहर वालों का शोषण भी करना पड़े तो मैं करूँगा। यदि बाहर वालों का शोषण करके मुझे रिश्वत लेनी पड़े तो मैं लूँगा ताकि मेरा अपना परिवार सुखी रह सके। मुझे पूरी दुनिया में दुख भी फैलाना पड़े तो मैं फैलाऊँगा ताकि जिन्हें मैं अपना कहता हूँ, मेरे वो अपने प्रसन्न रह सकें।” यह वो मन है जो कहता है कि कोई एक मेरा है और बाकी पराए। यह दूसरे तल का मन था।

पहले तल का मन, हमने कहा, स्वकेंद्रित। दूसरे तल का मन हमने कहा वह जो किसी एक को समर्पित हो गया है।

पहले तल के मन को तो समाज भी स्वीकृति नहीं देता। दूसरे तल के मन की समाज भूरी-पूरी प्रशंसा करता है। समाज कहता है इससे बढ़िया कुछ हो नहीं सकता। इस मन से समाज में सुव्यवस्था कायम रहती है। सब कुछ तयशुदा रहता है, गणित जैसा। एक के साथ एक, एक के साथ एक, एक के साथ एक और जो एक के साथ लग गया अब वह कभी किसी दूसरे की ओर नज़र उठाकर देखेगा नहीं, तो फिर किसी भी तरह गड़बड़, अराजकता, अव्यवस्था की कोई आशंका नहीं। अब कुछ उपद्रव नहीं हो सकता है। सबको हमने तयशुदा डिब्बों में फिट कर दिया है। और जो फिट हो गया वह जीवन भर के लिए फिट हो गया। साँप के दाँत उखाड़ दिए गए हैं, साँड को बैल बना दिया गया है। अब चिंता की कोई बात नहीं, अब कोई हानि नहीं हो सकती। समाज प्रसन्न रहता है इस दूसरे तल के व्यक्ति से।

तीसरे तल का जो मन होता है वह कवि का मन होता है।

दूसरे तल पर समझ लीजिए कि गृहस्थ था, हमारा आम मध्यम-वर्गीय गृहस्थ। जो बैलगाड़ी ढोता है। साँड को कभी देखा है सांडगाड़ी ढोते हुए? बैल बनाना इसीलिए आवश्यक होता है ताकि बैलगाड़ी चले।

तीसरे तल पर कवि होता है। उसका प्रेम, जैसा कि प्रश्न था आपका, ‘किसी’ से हो सकता है। इसीलिए कवियों को, कलाकारो को, चित्रकारों को आमतौर पर ज़रा अनैतिक किस्म का व्यक्ति माना जाता है कि ये तो कहीं भी फिसल जाते हैं, इनका दिल तो कहीं भी लग जाता है। दो घूँट पीते हैं तभी इनकी कविता उभरती है। सुरूर इनको चढ़ता नहीं तो इनका ब्रश भी नहीं चढ़ता है। और इनका मन बड़ा डावांडोल रहता है, कभी इधर जाता है कभी उधर जाता है। और कई बार तो इधर-उधर दोनों जगह जाता है। ऐसे व्यक्तियों को समाज कोई विशेष पसंद नहीं करता लेकिन बर्दाश्त फिर भी कर लेता है क्योंकि ये सामाजिक ढर्रे को चुनौती देते हैं लेकिन कभी उससे विद्रोह नहीं करते, कभी उसे तोड़ते नहीं हैं। निषेध की, नकार की, विरोध की, डिसेन्ट की, इनकी आवाज़ उठती है पर ये कभी भी संघुलन तक, डिसोलुशन तक नहीं पहुँचते। डिसेन्ट रहता है, डिसोलुशन नहीं रहता। तो समाज कहता है, “ठीक है, हमारे तयशुदा ढर्रों के भीतर ही तुम्हें जितना विरोध और विद्रोह दिखाना है तुम दिखा लो कोई बात नहीं, तुम उपयोगी हो। तुम कलाकृतियाँ बनाते हो, तुम फिल्में बनाते हो।”

अब गृहस्थ तो जाएगा नहीं फिल्म बनाने। उसको तो रोज़ी-रोटी, कपड़े, चाकरी और बच्चो के डाइपर से ही मुक्ति नहीं है। तो अच्छा है कि समाज में दो-चार इस तरह के सिरफिरे हों जो कुछ ऐसा काम करें जो हमें ऊब से जरा मुक्ति देता हो। वो गाने लिखते हैं, वो नए-नए रंगबिरंगे ऐसे काम करते हैं जो मन को ज़रा ताज़गी दे देते हैं। वह लेखक होते हैं, वह कवि होते हैं, वह मिट्टी में से आकार निकाल देते हैं। वह जंगलों की सुंदरता देख पाते हैं, वह नदियों का संगीत सुन पाते हैं। तो समाज कहता है, “ठीक है, ठीक है, तुम हमें परेशान करते तो हो पर उतना ही जितना कि खाने में थोड़ी मिर्च। ज़ायका बना रहता है, तुम बने रहो।”

चौथे तल पर जो मन आता है उसे ‘अ-मन’ कहना ज्यादा उचित होगा। वह कवि से आगे, ऋषि का मन है। कवि तो इतना ही कर पाया था कि एक व्यक्ति पर न अटक कर कई व्यक्तियों तक पहुँचा था। ऋषि को अब व्यक्ति दिखाई ही नहीं देते वह अब एक से आगे निकलकर कई और कई से आगे निकलकर, सभी के भी फेर में अब वह पड़ता नहीं। उसके लिए संख्याएँ अब अस्तित्व में हैं नहीं। उसके लिए मात्र प्रेम है।

उससे आप पूछिए, “एक से प्रेम करते हो? गृहस्थ के तल पर हो?” वह कहेगा, “ना!”

उससे आप पूछिए, “कइयों से प्रेम करते हो? कवि के तल पर हो?” वह कहेगा, “ना!”

आप उससे पूछिये, “सबसे प्रेम करते हो?” वह मुस्कुराकर कहेगा, “ इसके लिए भी ना।”

अब वह प्रेम मात्र है। वह किसी से प्रेम नहीं करता। उसके प्रेम का कोई विषय नहीं है। आप उससे कहेंगे इससे प्रेम करते हो? वह हँसेगा। किसी से प्रेम करने के लिए कोई होना चाहिए न प्रेम करने वाला? दूसरा दिखे इसके लिए पहले का होना ज़रूरी है न? और पहला जो होता है जो प्रेम करता है उसके प्रेम में भी कर्ता-भाव होता है। यह प्रेम करने वाला मात्र अहंकार है। हम जिसे कहते हैं कि ‘मैं’ प्यार करता हूँ, इसमे ‘मैं’ अहंकार के अलावा है कौन? हमारा तो प्यार भी हमारा कर्तृत्व है।

प्रेम वास्तव में कुछ और नहीं है, वह मन का निरंतर आकर्षण है, सतत प्रवाह है शांति की तरफ। वह शांति ऐसी होती है जो जब एक को उपलब्ध होती है तो एक के माध्यम से अनेकों तक पहुँचती है। उस प्रवाह में बहुत सारी बीच-बीच की मंज़िलें आती रहती हैं। आखिरी मंज़िल कोई नहीं होती क्योंकि आखिरी मंज़िल तक पहुँचने वाला कोई बचता ही नहीं है। जब मुसाफिर को ही गल जाना है तो आखिरी मंज़िल कैसी? हाँ, तमाम मद्धिय मंज़िलों से आप गुज़रते ज़रूर हैं, जैसे मील के पत्थर। आप उनसे गुज़रते जा रहें हैं, गुज़रते जा रहें हैं। आपके प्रेम के छींटे सब पर पड़ते जा रहें हैं और अब आप विशुद्ध प्रेम हैं।

गृहस्थ का यहाँ तक कि कवि का भी जो प्रेम है उसमें हिंसा बहुत शामिल है। हिंसा ऐसे शामिल है कि यदि एक से जुड़ा हूँ तो दूसरे से कटा हूँ। और चूँकि स्वभाव नहीं है आपका कटना इसीलिए जिस एक से आप जुड़ते भी हैं उसके प्रति वैमनस्य से भर जाते हैं, इसी कारण क्योंकि उसने आपको दूसरों से काट दिया। इससे ज्यादा बड़ी तकलीफ और शिकायत आपकी आपके प्रेमीजनों से होती भी नहीं है। आप कहते, “तूने तो प्रेम दिया पर पूरी दुनिया से जो मिल सकता था उस अवसर को बांध कर। अपने से तो जोड़ा पर बाकी सब से काट दिया। और अगर मैं बाकीयों से जुड़ता हूँ तो तू खफा होता है। तेरे भीतर असुरक्षा इतनी गहरी है कि तू बर्दाश्त ही नहीं कर पाता कि मेरा दायरा फैले। तू चाहता है कि सूरज तो उगे पर रोशनी सिर्फ तेरे आँगन में हो। तू चाहता है चाँद तो खिले पर उसकी ठंडक बस तेरे बिस्तर पर गिरे।”

ऋषि का प्रेम द्वैतात्मक नहीं होता। उसके प्रेम में हिंसा नहीं होती। हमारे प्रेम में हिंसा निहित होती है, अपेक्षाओं का जाल होता है। वहाँ (ऋषि के पास) मात्र प्रेम होता है। जब अपेक्षा नहीं तो हिंसा कैसी? जब बँटवारा नहीं तो परायापन कैसा?

आप जिसे प्रेम कहते हो वह आप तक मात्र किस्से-कहानियों और फिल्मों के माध्यम से पहुंचा है। वह दूसरे तल का सामाजिक प्रेम है। वह प्रेम है ही नहीं। वह सिर्फ एक मनुष्य द्वारा रचित व्यवस्था है।

समाज तीसरे को पसंद नहीं करता पर चौथे से तो नफरत करता है। पहले तल पर जो है समाज फिर भी एक बार उसको झेल लेगा क्योंकि वह स्वकेंद्रित है, चौथे तल पर जो है समाज उसे कभी नहीं झेलेगा क्योंकि वह आत्म-केन्द्रित है। और संस्कारित मन के लिए स्वकेंद्रित होने और आत्म-केन्द्रित होने में कोई अंतर नहीं है। उसको पहले तल का मन और चौथे तल का मन एक जैसे ही दिखाई देते हैं। वह दोनों को ही कहता है — स्वार्थी हैं। उसके लिए एक चोर, एक लुटेरा और बुद्ध और महावीर एक बराबर हैं। किस अर्थ में? वह कहेगा, “देखो चोर भी अपने लिए चोरी करता है और बुद्ध भी अपने स्वार्थ के लिए अपनी पत्नी को छोड़ कर चले गए थे। उन्होने दूसरे का ख्याल कहाँ किया? उन्होने अपना ही तो ख्याल किया कि मुझे मुक्ति चाहिए तो मैं अपनी जिम्मेदारियों को, अपने पिता को, अपने राज्य को, अपनी पत्नी और छोटे से पुत्र को छोड़कर के चला जा रहा हूँ। बड़े स्वार्थी थे।”

सामाजिक मन अहंकार और आत्मा में अंतर नहीं जानता। वह ‘मैं' और ‘मैं’ का फर्क नहीं समझता। वह स्वकेंद्रित होने और आत्म-केन्द्रित होने का भेद नहीं जानता। वह पहले और चौथे को एक ही जानता है और दोनों को ही निंदनीय जानता है, मात्र अपने को ही वह स्वीकृति देता है।

कृपा करके इस दूसरे के फेर से बाहर आयें। आपने जो गाने सुने हैं, आपके सामने इश्क़ का जो पूरा चित्र खींचा गया है, जो बिम्ब उपस्थित है वह नकली है। वह एक डरे हुए मन कि पैदाइश है, उसे गम्भीरता से न लें। वह आपको चैन नहीं देगा। हम जानते ही क्या हैं प्रेम के बारे में? हम मात्र वही जानते हैं जो हमे जनवा दिया गया है। छोटे-छोटे बच्चे सड़क पर इश्क़ बाज़ी कर रहे होते हैं, कहाँ से जान लिया उन्होने इश्क़? प्रेम को जानना तो आत्मा को जानने की बात है। टीवी खोलिए तो इतनी-इतनी बच्चियाँ प्रेम के गानो पर नाच रहीं हैं, झूम रहीं हैं। उन्हे प्रेम का कुछ पता है? मूर्खता को, भोंडेपन को, अभद्रता को, और अश्लीलता को उनके मन में प्रेम कह कर के भर दिया गया है और परम दुर्भाग्य यह है कि वो अब जीवन भर इसी को प्रेम समझेंगी। और यदि नहीं मिलेगा यह तो बिफरेंगी-कलपेंगी।

हम आँखें खोल पाएँ, साफ दृष्टि से जीवन को देख पाएँ उससे पहले ही हममें यह भर दिया जाता है कि जीवन क्या है। प्रश्न भी बाद में आते हैं, उत्तर पहले ही दे दिए जाते हैं। दूधमुहां बच्चा उत्तरों से भरा होता है। और चूँकि माँ-बाप खुद भ्रमित हैं, परवरिश करने वाले खुद अज्ञानी हैं उन्हे पता भी नहीं चलता कि उन्होने अपने बच्चे के जीवन में किस प्रकार का विष भर दिया है। जानते-बूझते वह नुकसान करना नहीं चाहते हैं पर अनजाने में खूब नुकसान कर जाते हैं और ऐसा नुकसान कर जाते हैं जिसकी क्षतिपूर्ति फिर जीवन भर नहीं हो पाती। किसी का आप रुपया-पैसा चुरा ले, किसी से आप उसकी प्रतिष्ठा और वैभव पूरा छीन ले, आपने उसका कोई नुकसान नहीं कर दिया। पर किसी का मन अगर आप मान्यताओं, धारणाओं, संस्कारों से भर दे तो आपने मार ही डाला उसे, कुछ छोड़ा नहीं।

जो दूसरे तल का प्रेम है, जिसके विषय में आपने जिज्ञासा की, यही वह है जिसे साधारणतया हम प्रेम के नाम से जानते हैं।

ऋषि परेशान हो गए। उन्होने कहा कि, “प्रेम शब्द की तो बड़ी फ़ज़ीहत हो रही है।” तो उनको बेचारों को सरल-सहज प्रेम को सामाजिक प्रेम से अलग दर्शाने के लिए नाम ही दूसरा देना पड़ा, उन्होने कहा यह परा-प्रेम है, परम-प्रेम। आप शांडिल्य भक्ति- सूत्र देखे या नारद भक्ति-सूत्र देखे उसमे फिर वह प्रेम नहीं कहते, उसमे कहते हैं परम-प्रेम। यह मज़बूरी है उनकी। मज़बूरी इसलिए है क्योंकि अंतर दर्शाना है, उन्हे बताना है कि भाई हम अपने सूत्रों में जिस प्रेम कि बात कर रहे हैं वह तुम्हारा घरेलू प्रेम नहीं है, वह तुम्हारा सात फेरो वाला प्रेम नहीं है, वह तुम्हारा लेन-देन का प्रेम नहीं है, वह कोई और प्रेम है तो फिर उन्हे नाम देना पड़ता है — परा-प्रेम। ट्रान्सेंडेंटल लव , परम प्रेम, *लव ऑफ दी बियोंड*। पर गलती कर गए वो भी, उन्होने समझोता कर लिया दूसरा नाम देकर। उन्हे और सघन विद्रोह करना चाहिए था, उन्हे कहना चाहिए था, “मात्र यही प्रेम है, हम सिर्फ इसे प्रेम बोलेंगें, तुम वह नाम बदलो जो तुमने दे रखा है। तुम्हें कोई हक ही नहीं है अपने इस कीचड़ को प्रेम कहने का। प्रेम मात्र वह है जिसकी बात हम कर रहें हैं। हम इसे परम-प्रेम नहीं बोलेंगे। हम इसे प्रेम बोलेंगें। तुम अपने उस बंधन को प्रेम बोलना छोड़ो, तुम उसे कोई ओर नाम दो। तुम कहो ही मत कि वह प्यार है, कि मोहब्बत है, वह कुछ ओर है। वह तुम्हारी बीमारी है, रुग्णता है, वह तुम्हारी दुर्बलता और तुम्हारी दुर्गन्ध है। तुम उसे क्यों प्रेम कहते हो?”

प्रेम तो मन की ऊँची से ऊँची उड़ान है खुले आकाश में। और प्रेम के नाम पर हम इतना ही जानते हैं कि मन की चिड़िया को पिंजड़े में कैद कर दो।

उसे प्रेम कह सकते हैं आप, कैसे?

उन सलाखों को आप मोहब्बत कहते हैं, कैसे?

और न सिर्फ कहते हैं बल्कि अपने बच्चो को यही सिखाते भी हैं, कैसे?

एक डरे हुए चित्त के रुग्ण प्रलाप को आप प्रेम गीत कहते हैं, कैसे?

और दिन रात आप वह सुनते भी हैं, चाहे सीडी लगाते हों, चाहे एफएम लगाते हों, वही बीमार पंक्तियाँ और सुने जा रहे हैं, सुने जा रहें हैं, झूमे भी जा रहें हैं।

कैसे?

प्रेम है साहस, प्रेम है श्रद्धा। प्रेम है मन का आसमान में उड़ना, आसमान की ही तलाश में। प्रेम है मन का ऊँचाईयों को छूते जाना, छूते जाना, यह जानते हुए भी कि ऊँचाई के बाद ऊँचाई आनी ही है अनंतता है। प्रेम है मन का न पाने में हर्षित होना। प्रेम पाना नहीं है। प्रेम है एक साथ दोनों बातें — तात्कालिक उपलब्धि और सतत अनुपलब्धि। इतना पा लिया है कि पंखों को प्राण मिलते हैं। और न पाने की ऐसी छटपटाहट है कि पंख निरंतर फड़फड़ाते ही रहते हैं। न पाया होता प्रेम तो पंखों में इतनी जान कहाँ से आती कि अज्ञात की उड़ान भर सके। और यदि पा लिया तो पंखों में अब प्राण बचेंगे क्यों? वह एकसाथ दोनों बात है — पाया हुआ है और कभी पूरा पाया नहीं जा सकता। चूँकि कभी पूरा पाया नहीं जा सकता इसलिए पाना निरंतर शेष रहता है, इसीलिए सबकुछ अभी नया है, बाकी है, अभी और है, चुक नहीं गया। जीवन भर चलते रहो उसकी ओर, पाते रहोगे, पाते रहोगे, पाते रहोगे पर कभी पूरा नहीं पाओगे। पाते रहोगे इसीलिए आनंदित रहोगे। पूरा नहीं पाओगे इसीलिए चलते रहोगे।

प्रेम जा कर के किसी बिन्दु पर ठहर जाने का नाम नहीं है। जो ठहरेगा वह भी छोटा और जिस बिन्दु पर ठहरा है वहाँ निश्चित ही कोई छोटा सा पिंजड़ा रखा होगा, कटघरा, और खड़े हो आप उसमे।

YouTube Link: https://youtu.be/B6-rSfmQHhI

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