प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी तक जो विवरण रहा, उसमे ऐसा लग रहा है कि जैसे देवी जी कोई व्यक्तित्व हों और हमसे बाहर का कुछ हों, तो इसको मन के तल पर कैसे समझा जा सकता है?
आचार्य: देखो, आत्मा सत्य है, आत्मा का ही दूसरा नाम ब्रह्म है। आत्मा को आच्छादित किए हुए बड़े कोष हैं, उपनिषदों में पंचकोष की बात आती है न। आचार्य शंकर ने भी समझाया है, आप पढ़ चुकें है। एक दृष्टि है जो इनको देखती है धुएँ की तरह, आवरण की तरह जिसने आत्मा को ढक रखा है और दूसरी दृष्टि है जो इनको देखती है आत्मा की ही अभिव्यक्ति के रूप में, कि जैसे आत्मा ही अलग-अलग कोषों के रूप में अभिव्यक्त हुई हो।
तो आत्मा का जो पहला सगुण प्राकट्य है, वे देवी हैं। उन्हीं को महा प्रकृति कहते हैं। देवी, देवी मात्र। ये जो देवी हैं, ये आत्मा के इतने निकट और इतनी अभिन्न हैं कि अभी ये त्रिगुणात्मक भी नहीं हैं। जैसे आत्मा निर्गुणी होती है न, वैसे ही जो महादेवी हैं, जो महा प्रकृति हैं, जो मूल प्रकृति हैं, वो अभी त्रिगुणात्मक भी नहीं हैं। फिर वो आगे चल करके तीन गुणों में जैसे विभाजित हो जाती हों, जैसे अपने तीन रूप दिखाती हों। फिर वो तीन देवियों के नाम से जानी जाती हैं, तो सतोगुणी सरस्वती हो जाती हैं, रजोगुणी लक्ष्मी हो जाती हैं और तमोगुणी काली हो जाती हैं।
तो आपके चित्त में जो मूल अहम् वृति है, वो महामाया हैं। फिर उस मूल अहम् वृत्ति से आपकी न जाने कितनी वृत्तियाँ निकलती हैं, जिनको आप अलग-अलग देवियों का नाम दे सकते हैं। मूल अहम् वृत्ति क्या हो गई? महादेवी या महामाया, और फिर जो आपकी अन्य सब वृत्तियाँ हैं, उनको आप अन्य देवियों का नाम दे सकते हैं। और फिर उनसे भी बाद में आती हैं भावनाएँ, और उनके बाद आते हैं विचार और फिर उनके बाद आते हैं कर्म। तो यह सब आत्मा के ऊपर के जैसे कोष हो गए या आत्मा की एक के बाद एक तल की अभिव्यक्तियाँ हो गईं। समझ में आ रही है बात?
तो जब यहाँ पर देवी की बात हो रही है तो किन देवी की बात हो रही है? वो देवी जो आत्मा के बिल्कुल सन्निकट हैं, आत्मा से बिल्कुल अभिन्न हैं, जैसे शिव से शक्ति, जो दो होते हुए भी एक हैं। तो उन देवी की बात हो रही है, वो देवी जो संसार बनकर हमें दृष्टिगत होती हैं, अनुभव में आती हैं, वो देवी जों स्वयं संसार भी हैं और संसार का दृष्टा और अनुभोक्ता भी। मूल वृत्ति, मूल वृत्ति को यहाँ पर महामाया कहा जा रहा है। तो देवी कोई व्यक्ति नहीं हैं।
लेकिन देखो, मैं जिस बात से अभी आपको पिछले कुछ पलों से समझा रहा था, जिस तरीके से वो विशुद्ध वेदांत का तरीका है। और विशुद्ध वेदांत इतना शुद्ध है कि वो बहुत कभी प्रचलित नहीं हो पाया। आज की चर्चा के आरंभ में हमने संप्रदायों की बात करी। अद्वैत संप्रदाय यदि किसी को कहा जा सकता है तो वो बहुत ही छोटा है। हालाँकि आप यह कह सकते हो कि जो शैव हैं, वो भी अद्वैतवादी होते हैं। ठीक है? लेकिन फिर भी अगर आप विशुद्ध अद्वैत की बात करोगे तो ऐसे लोग बहुत कम हैं। कारण बहुत स्पष्ट है न?
आप महादेवी बोलोगे तो बात ज़्यादा बोधगम्य हो जाती है, समझने में आसानी हो जाती है। और आप मूल वृत्ति बोलोगे वेदांत की भाषा में तो समझना ज़रा जटिल हो जाता है, क्योंकि बात बहुत सीधी हो जाती है। मन के साथ ऐसा ही है, बात इतनी सीधी कर दोगे अगर तो समझ में ही नहीं आएगी, मन को मनभावन आख्यान चाहिए। मन बेचारे की विवशता यह है कि उसे बोध भी उसी के तल पर चाहिए। उसे उसकी विवशता भी बोल सकते हो और उसका हठ भी, जैसे देखना चाहो। तो इसलिए मूल वृत्ति को फिर प्रतिबिंबित किया गया है महामाया के रूप में। ठीक है? स्पष्ट है?
प्र२: आचार्य जी, आपने एक जगह बोला है कि प्रकृति से पूरी तरह से हारे हुए हैं हम। 'हारोगे तुम बार-बार' शीर्षक से एक वीडियो भी है। तो जैसे अभी महामाया की जैसे बात हुई तो और साथ में आपने कई बार कहा है कि हालाँकि हम पूरी तरह से हारे हुए हैं पर कम-से-कम हमको अपनी तरफ से जितना हम लोग फाइट (संघर्ष) कर सकते हैं, हमको करना चाहिए। तो वह फाइट करने का क्या मतलब है?
आचार्य जी: यह मत पूछिए कि फाइट करने का क्या मतलब है, संघर्ष का क्या मतलब है? मेरे साथ हैं तो हमेशा पूछिए कि कौन है जो संघर्ष करेगा? जो संघर्ष करेगा, वह भी तो प्रकृति ही है न? जिससे सारी बात हो रही है, वो भी तो प्रकृति ही है न? अहंकार कौन है? प्रकृति का ही तो अंग है न, कि नहीं है? प्रकृति से भिन्न है क्या अहंकार? भिन्न तो नहीं है न?
तो प्रकृति का एक रूप वहाँ है, एक कार्य वो है जो अहंकार को बद्ध रखता है, जिसके बारे में मैंने कहा कि हारोगे तुम बार-बार। वह प्रकृति का ही काम है जो तुम्हें हराएगा। लेकिन प्रकृति का ही अंग होने के नाते, प्रकृति का ही पुत्र होने के नाते, प्रकृति की ही ओर से तुम्हारी मुक्ति के लिए सुविधा और उपाय भी होंगे। तो जब मैं तुम्हें प्रेरणा देता हूँ कि 'पर कोई हार आखरी न हो', तो वास्तव में मैं बात भी किससे कर रहा हूँ? मैं प्रकृति पुत्र से ही तो बात कर रहा हूँ, उसी से तो कह रहा हूँ न कि कोई हार आखिरी नहीं होनी चाहिए।
अरे! भाई, ब्रह्म की तो कोई हार-जीत होती नहीं। आत्मा का न कोई संघर्ष होता है, न हार होती है, न जीत होती है, तो यह सारी बात ही मैं तुमसे कर रहा हूँ जो प्रकृति के भीतर ही है। जो प्रकृति के भीतर ही है उसको जो भी सहायता इत्यादि मिलनी है, वो कहाँ से मिलनी है? प्रकृति से ही मिलनी है। तो कहने का आशय यह था कि प्रकृति को अपनी हार की तरह नहीं, अपनी जीत की तरह उपयुक्त करो। यह आपके ऊपर है कि प्रकृति में आपकी हार हो जाती है या आपकी जीत हो जाती है। संभावना ज़्यादा यही है कि हार होगी। क्यों होगी? क्योंकि आप अज्ञान में घिरे हुए हो।
अब ज्ञान भी सारा प्रकृति के भीतर है, अज्ञान भी सारा प्रकृति के भीतर है। उसमें से आप चुनते क्या है? अधिकांशतः अज्ञान। इसीलिए प्रकृति आपके लिए कष्टदायिनी हो जाती है। देवी आपके लिए दुःख दायिनी हो जाती हैं। आपको सही चुनाव करने हैं इसी प्रकृति में, इसी संसार में। जब संघर्ष करने की बात आती है तो संघर्ष आपको वास्तव में प्रकृति के विरुद्ध नहीं करना है, अज्ञान के विरुद्ध करना है।
देखिए, क्या है प्रकृति? दो छोर हैं। प्रकृति के एक छोर पर है आत्मा। एक ऐसे (क्षैतिज) रेखा की तरह लो, उसके एक छोर पर है?
श्रोतागण: आत्मा।
आचार्य: दूसरे पर है अहंकार। आत्मा क्या है? प्रकृति ही है। अहंकार क्या है? प्रकृति ही है। जो कुछ है, सब क्या है? प्रकृति ही है। उसी प्रकृति की शुद्धतम अवस्था को, उसी प्रकृति के सत्य को कहते हैं आत्मा और उसी प्रकृति की बद्ध अवस्था को कहते हैं अहंकार। तो एक ही है, आत्मा और अहंकार भी उस दृष्टि से एक ही हैं, बस उन दोनों के बीच में प्रकृति आ गई है, प्रकृति का पूरा फैलाव आ गया है — आत्मा, अहंकार और बीच में प्रकृति।
अब तुम्हारे ऊपर है कि तुम प्रकृति को उस विरोधी की तरह देखते हो जिसने तुम्हें आत्मा से दूर कर दिया। देख सकते हो बिल्कुल। एक तरफ़ आत्मा, एक तरफ़ अहंकार, बीच में कौन है? प्रकृति। अब तुम कह सकते हो कि इसी ने मुझे आत्मा से दूर कर रखा है या तुम प्रकृति को इस पुल की तरह देखते हो जो तुमको आत्मा से मिलाएगी। यह मैं, यह आत्मा और बीच में पुल है जिसका नाम है प्रकृति। यह तुम पर है, जैसे देखना हो, देख लो।
अभी तक तो देखो, ऐसा रहा है कि हम बात कर रहे थे न कि वेदांतमार्गियों की संख्या कभी बहुत ज़्यादा नहीं रही। पर तुम शाक्तों की अगर संख्या देखोगे तो बहुत ज़्यादा है, वैष्णवों की संख्या देखोगे तो बहुत ज़्यादा है। शैव भी शिव भक्ति ही करते हैं, उनकी संख्या भी बहुत है। इन सब ने प्रकृति को पुल की तरह देखा है और वो बात आमतौर पर ज़्यादा लाभप्रद रही है, वह ज़्यादा लाभप्रद रही है। (प्रकृति से) लड़ नहीं सकते, उसको समझकर उसका सही उपयोग कर लो। लड़ोगे तो हारोगे। या ऐसे कह लो कि लड़ने का एक ही तरीका है: उसको समझ लो और लड़ो मत। यही सही तरीका है लड़ने का — अविरोध, नॉन रेजिस्टेंस , विरोध का बड़ा गहरा तरीका है यह।
बुद्ध की एक शिक्षा है कि तुम्हें जो भी कष्ट होते हैं, वो परिवर्तन से नहीं होते, परिवर्तन को जो तुम विरोध दे रहे हो, उससे तुम्हें कष्ट होता है। वरना परिवर्तन मात्र तुम्हें कष्ट क्यों दे देगा? समझ रहे हो, अविरोध। अविरोध माने वो नहीं होता जो बहुत बार लोगों को लग जाता है कि वृत्ति के बहाव में बहने लग गए। न-न-न, वृत्त का विरोध नहीं किया, इसको अविरोध नहीं कहते। वृत्ति का तो अर्थ ही है वो जो विरोध में ही जीती है। अगर तुमने वृत्ति का विरोध नहीं किया तो तुम विरोध में जी रहे हो क्योंकि वृत्ति का नाम ही विरोध है, वरना द्वैत कहाँ से आएगा।
व्यक्ति हो, संसार हो और विरोध और संघर्ष न हो, हो ही नहीं सकता न। बच्चा पैदा होते ही रोता है। व्यक्ति और संसार में तो लगातार संघर्ष बना ही रहता है। तो वृत्ति के बहाव में स्वयं को बहने देना, जैसे गोइंग विद द फ्लो कहते हैं, वह नहीं है नॉन रजिस्टेंस या अविरोध। वृत्ति को समझ लेना और वृत्ति की विरोधात्मकता में न फँसना अविरोध कहलाता है। तुम जब वृत्ति की विरोधात्मकता में नहीं फँसते, तब तुमने वास्तव में वृत्ति का विरोध किया। तो अविरोध विरोध करने का श्रेष्ठतम तरीका है। कुछ समझ में आ रही है बात?