क्या 'मैं' से मुक्ति संभव है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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क्या 'मैं' से मुक्ति संभव है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

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आचार्य प्रशांत: नैन्सी का सवाल है कि, ‘अगर बताया गया कि अहंकार ‘मैं’ है तो इसके साथ बड़ी समस्याएं हैं, वो एक बीमारी के तरह भी है, पर क्या जीवन में कुछ भी ऐसा है जो इस मैं से मुक्त है?’

नैन्सी, ‘मैं’ को हम कभी अनुभव नहीं करते, हम अपने विशुद्ध होने को बिलकुल नहीं जानते, ध्यान देना इस बात पर तुमने कभी भी यह नहीं कहा होगा कि ‘मैं हूँ’, तुमनें यह बिलकुल कभी भी नहीं कहा होगा कि ‘मैं हूँ’, तुम हमेशा कहती हो, ‘मैं नैन्सी हूँ’ या कि ‘मैं भारतीय हूँ’ या कि ‘मैं लड़की हूँ’ या कि ‘मैं इस प्रान्त की हूँ’; ‘मैं हूँ’ के साथ तुमने हमेशा कुछ-न-कुछ ऐसा जोड़ दिया है जो बाहरी है, जो तुम नहीं हो।

‘मैं हूँ’ तुम्हारे होने की घोषणा है, बात बिलकुल ठीक है, और ‘मैं हूँ’ पूर्णतय विशुद्ध वक्तव्य है, इसमें कोई मिलावट नहीं है, ‘मैं हूँ’ बात ठीक है, और इस बात से कोई बहस नहीं की जा सकती कि तुम हो, ये परम सत्य है कि तुम हो, पर ये बात परम झूठ है कि तुम कुछ और हो।

यह बात समझ में आ रही है?

कि तुम्हारा होना तो पूरी तरह सच है, पर तुम्हारा कुछ और होना उतना ही बड़ा झूठ है। पर तुम सिर्फ अपने होने को तो कभी जानते नहीं न, तुम तो अपने कुछ होने को जानते हो, और यह वैसा ही है कि किसी बहुत साफ़ चीज़ में, यह कह लो कि साफ़ पानी में एक बूँद ज़हर की मिलावट कर दी जाए, तो पूरे पानी को ज़हरीला बनाने के लिए वो कुछ बूँद काफी है, विशुद्ध रूप से अपने होने का एहसास हमें होता कहाँ है, हम हमेशा अपने व्यक्तित्व में जीते हैं न, पर्सनालिटी में कि ‘मै ऐसा हूँ’ कि ‘मैं वैसा हूँ’, समझ रहे हो बात को?

कुछ भी होने को हटा के जीना, हमें आता कहाँ है?

तुम किसी भी मुद्दे को, दुनिया को, किसी भी व्यक्ति को सिर्फ देखते कहाँ हो? तुम तो उसे एक दृष्टिकोण ले कर के देखते हो न? कि ‘मैं ऐसा हूँ’, तो मैं इस बात को ऐसे देखूँगा, ‘मैं हिन्दू हूँ’ तो मैं मंदिर को ऐसे देखूँगा, और चूँकि ‘मैं हिन्दू हूँ’, तो मैं मस्जिद को ऐसे देखूँगा।

तुम सिर्फ देख कहाँ पाते हो शुद्ध रूप से?

तुम्हारे देखने में तो मिलावट रहती है न हमेशा ‘मैं कुछ हूँ’?

‘मैं लड़का हूँ’, तो मैं लड़कियों को इस तरह से देखूँगा, वो जो सामने व्यक्ति खड़ा है, ठीक-ठीक है कि वो लड़की है, पर लड़की से पहले इंसान है, उसको तुम इंसान की तरह तो कभी नहीं देख पाते, क्योंकि तुम लड़के हो, तुम उसे सिर्फ लड़की की तरह देख पाते हो, तुम यह थोड़ी कहते हो कि मैं एक व्यक्ति को देख रहा हूँ, तुम्हें लड़की दिखाई देती है क्योंकि तुम लड़के हो, और तम यह नहीं बोलते हो कि मैं हूँ, तुम यह बोलते हो कि मैं लड़का हूँ, और अब गड़बड़ हो गई, क्योंकि अब तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देगा, तुम्हें सिर्फ लड़की दिखाई देगी, और लड़की का अर्थ तुम जानते हो क्या है तुम्हारे लिए।

कुछ अब बचा नहीं, सारी संभावनाएं अब समाप्त हो गई तुम्हारे लिए, कुछ होते ही दुनिया भी कुछ कि कुछ हो जाती है, क्योंकि दुनिया में तुम जो भी देखते हो अपने ही सन्दर्भ में देखते हो, बात समझ में आ रही है?

रहो, पूरी तरह रहो, ‘मैं’ पूरी तरह रहे, पर मैं के साथ जो बाकी सारी जितनी चीजें तुमने चिपका ली हैं, वो न रहें, मैं का अर्थ है विशुद्ध चेतना, मैं का अर्थ है बस ‘जानना’, ‘समझना’, ‘इंटेलिजेंस’, ‘प्योर इंटेलिजेंस’, वो ‘मैं’ है, तुम वही रहो पूरे तरीके से, और जब तुम विशुद्ध ‘मैं’ हो कर के रहोगे, तब देखना क्या मज़ा आता है, तब वो सब कुछ दिखाई पड़ेगा जो आज तक दिखाई ही नहीं पड़ता था, और बहुत कुछ जिसको तुम सच समझते थे तुम्हें उसका झूठ होना समझ में आ जाएगा।

शब्द-योग सत्र से उद्धरण। स्पष्टता के लिए सम्पादित।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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