क्या कुछ लोग प्राकृतिक तौर पर निडर व आध्यात्मिक होते हैं?

Acharya Prashant

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क्या कुछ लोग प्राकृतिक तौर पर निडर व आध्यात्मिक होते हैं?

प्रश्नकर्ता: क्या कुछ लोग प्राकृतिक तौर पर निडर और आध्यात्मिक होते हैं?

आचार्य प्रशांत: अध्यात्म के रास्ते पर जितना हानिप्रद है यह कहना कि मैं कायर हूँ उतना ही हानिप्रद है मानना कि मैं वीर हूँ। जैविकरूप से, निश्चितरूप से ऐसा हो सकता है कि जैसे तुमने कहा कि एक बच्चा पैदा हो बचपन से ही भीरू और एक जो थोड़ा निर्भीक है। पर जो भीरू पैदा हुआ है, वह किसके प्रति भीरू है? संसार के प्रति न? किससे डरता है? संसार से। और तो कुछ जानता नहीं है जीव, तो वह डरेगा भी तो किससे? संसार से। तो उसने अपना वास्ता किससे बनाया? संसार से। वह कहता है- डर के रहो, बच के रहो, किससे? संसार से। ठीक? उसने अपने केंद्र पर किसको बैठा लिया? संसार को।

और एक पैदा हुआ है जो कह रहा है मैं तो बड़ा निर्भय हूँ। वह किसके प्रति निर्भय है? वह कह रहा है- दबा के रखूँगा, डरता मैं किसी से नहीं। किस से नहीं डरता वह? संसार से। केंद्र पर किसको बैठा लिया? संसार को। प्रकृतिकरुप से, जैविकरूप से जो दोनों को मिल रहा, वह मुक्ति में सहायक नहीं होने वाला।

कोई बच्चा आध्यात्मिक दृष्टि से खास नहीं पैदा होता, यह मान्यता दिमाग से बिल्कुल निकाल दो।

पर तुम कैसे निकाल दोगे क्योंकि तुम्हारे मन में न जाने कितनी पुरानी कहानियाँ भरी हुई हैं जिसमें कहा गया है बच्चा पैदा ही खास हुआ था। बच्चा क्यों पैदा खास हुआ था? क्योंकि माँ-बाप ने बड़ी साधना करी थी और फिर वह बच्चा दिव्य आशीर्वाद से पैदा हुआ था और तुमको बताया जाता है कि वह फ़लाने महात्मा थे वह तो पैदा ही ऐसे एक विशिष्ट मुहूर्त में हुए थे कि पूछो ही मत। अवतारों, गुरुओं, संतों, पैगंबरों इन सब के साथ अक्सर इस तरह की कहानियाँ जुड़ी होती हैं कि वह सब बड़े विशिष्ट मुहूर्त में पैदा हुए थे, इसीलिए तो ख़ास हैं।

मेरे पास भी आते हैं कहते हैं- आप तो अलग हैं न? आप से हो गया, हम से कैसे होगा? इसीलिए तो आपकी बात हमारे काम की नहीं है। निष्कर्ष तुमने पहले से ही तय कर रखा था कि तुम्हें यह निकालना है कि- मेरी बात तुम्हारे काम की नहीं और अपने निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए तुमने मेरी ही योग्यता का सहारा ले लिया। आप तो बचपन से ही किताबें इत्यादि पढ़ते थे, हम तो बुद्धू थे। आपने तो दसवीं में बोर्ड टॉप किया था और हमारे तो साठ ही परसेंट आए थे। तो इसीलिए तो आप अध्यात्म में भी इतना आगे निकल गए। हमने थोड़े ही आईआईटी, आईआईएम करा था, आपने करा न?

उन बातों का इससे बहुत कम ताल्लुक है भाई! किसी को यह मत घोषित कर दो कि वह आध्यात्मिक मुक्ति के लिए बचपन से ही बेहतर उपकरणों से लैस होकर पैदा हुआ है और न कभी यह कह दो कि कोई है जो पैदा ही ऐसा हुआ है कि उसको 'मुक्ति' नहीं मिल सकती। आठ जगह से टेढ़े थे, अष्टावक्र। शंकराचार्य के शिष्य थे और उनके बारे में मशहूर है की बुद्धि से ज़रा कुंद थे। कुछ समझ ही नहीं पाते थे। इन बातों का क्या लेना देना? पर हमें बड़ा अच्छा लगता है कि हम घोषणा कर दे कि दिव्य पुरुष तो जन्म से ही विशिष्ट होते हैं। कोई विशिष्ट नहीं होता। तुम्हें मुक्ति मिलती है कि नहीं यह तुम्हारे वैशिष्ट्य पर, तुम्हारे जन्म पर, यह तुम्हारी प्रकृति प्रदत्त योग्यताओं पर नहीं निर्भर करता। यह बस निर्भर करता है 'तुम्हारे चुनाव' पर। जिसे चाहिए उसे मिलेगी। भले ही वह प्राकृतिक, जैविक, सामाजिक रुप से कितना भी साधारण हो अगर उसे चाहिए तो उसे मिलेगी। जिसे नहीं चाहिए, उसे नहीं मिलेगी चाहे बचपन से वह कितना हीं ख़ास पैदा हुआ हो।

हो सकता है तुम तीन साल की उम्र में इतने मेधावी रहे हो कि कक्षा चार की किताबें पढ़ लेते हो। बिल्कुल होते हैं ऐसे। किसी की स्मरण शक्ति विलक्षण होती है। कोई तीन की उम्र में ही छह साल जितना दिखता है। ऐसे भी तो मामले आए हैं कि किसी ने अपनी पीएचडी चौदह की उम्र में ही कर ली। तो तुम्हें क्या लगता है इन्हें 'मुक्ति' ज़्यादा आसानी से मिल जाएगी? नहीं! पर

हम कहानियों के उस्ताद हैं। जहाँ किसी को पाया कि उसने सही चुनाव करके बोध अर्जित किया, मुक्ति अर्जित की तहाँ उसके बारे में कहानियाँ फैला देते हैं। कहानियाँ हम क्यों फैलाते हैं क्योंकि स्वार्थ है हमारा। कहानी नहीं फैलाई तो यह मानना पड़ेगा, अगर उसको मिली तो, हमें भी मिल सकती है।

उसको मिली है उसके चुनाव से और चुनाव के बाद के श्रम और साधना से तुम वह श्रम और साधना करना नहीं चाहते हो, इसलिए तुम झूठा अंधविश्वास फैलाते हो। तुम कहते हो उसको श्रम और साधना से थोड़े ही मिली है, उसको तो इसलिए मिली क्योंकि वह बचपन से ही ख़ास था। वह तो भगवान के आशीर्वाद से पैदा हुआ था न? वह तो खास मुहूर्त में पैदा हुआ था न? इसलिए उसको मुक्ति मिली है। हमें थोड़े ही मिलेगी? तुम वास्तव में सही चुनाव से, मेहनत से, साधना से बचना चाहते हो इसीलिए उस दूसरे व्यक्ति के बारे में झूठी कहानियाँ गढ़ रहे हो।

मुझे कितनी बार कहा जा चुका है। मेरा जन्मदिवस महाशिवरात्रि को पड़ता है। मुझसे कहते हैं भुनाते क्यों नहीं? जिनका महाशिवरात्रि से कोई लेना-देना नहीं वह भी महाशिवरात्रि पर बड़े-बड़े आयोजन करके दुकानें चमका रहे हैं। आपका तो जन्म ही महाशिवरात्रि को हुआ था। आप तो सीधे-सीधे शिव-पार्वती के अंश से ही हो गए। आप क्यों नहीं अपने बारे में थोड़ा फ़ैलाते? हर साल कहा जाता है। पिछले दस साल से। मैं कहता हूँ- माफ़ कर दो! मैं एक दिन आगे पैदा होता या एक दिन पीछे पैदा होता, उससे क्या हो जाता? बात तो मेरे चुनाव की है। मुझे इसलिए थोड़े ही मिला कि मैं ख़ास दिन पैदा हुआ था। मुझे इसलिए मिला है क्योंकि मुझे शिव चाहिए। मुझे शिव चाहिए, तो मुझे मिले। नहीं तो महाशिवरात्रि को कितने लोग पैदा होते हैं। प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि को हज़ारों लोग पैदा होते होंगे न? शायद लाखों। सबको 'शिवत्व' प्राप्त हो जाता है क्या? हो जाता है? अगर हो रहा होता महाशिवरात्रि को ही पैदा होने से, फिर तो माँ-बाप गणना करके, बच्चे पैदा कर सकते थे कि इस दिन इस तरीके से हो कि उसी दिन उसका जन्म हो। और नहीं जन्म हो रहा हो तो सीज़ेरियन इत्यादि करा दो, इमरजेंसी में। इन बातों से नहीं होता।

किसको मिलता है? जो चाहता है उसे मिलता है। बात इतनी सीधी है कि हम काँप जाते हैं, थर्रा जाते हैं। न योग्यता से मिलता है, न जन्म से मिलता है, न सिद्धि से मिलता है- प्रेम से मिलता है। जो प्रेम में माँगेगा वो पाएगा। नहीं मिल रहा? माने, चाहिए नहीं। बाधाएँ मत बताओ, कमजोरियाँ अपनी मत गिनाओ, दूसरों को दोष मत दो, जिस भी विलक्षण चीज़ से तुम वंचित हो उसकी वजह सिर्फ़ तुम हो, तुम्हारा अप्रेम तुम्हारी शुष्कता, तुम्हारा रूखापन, तुम्हारे दिल से वह पुकार ही नहीं निकल रही कि चाहिए। इसलिए नहीं मिल रहा तुम्हारे मन पर पचास और चीज़ें छाई हुई हैं, तुम्हारी बीसियों और कामनाएं हैं दूसरे तरीके की। तुम कैसे एकनिष्ठ होकर एक को ही पुकारोगे? इसलिए नहीं मिल रहा। पर हम बबेवफ़ा तो है हीं, मक्कार भी हैं। स्वीकारते नहीं कि हमारी बेवफ़ाई है जिसके कारण मिलन नहीं हो रहा। हम फिर कहानियाँ बनाते हैं। अष्टावक्र इतने ज्ञानी निकले कि ग्यारह वर्ष की उम्र में, जनक को उपदेश करने लगे तो हमने कह दिया- वह तो इसलिए था क्योंकि गर्भ में ही उन्होंने पिता का प्रवचन सुन लिया था। अरे! हमें तो ऐसे पप्पा मिले ही नहीं न! हमारी क्या गलती? अष्टावक्र के डैडी, अष्टावक्र की मम्मी को वेदांत का ज्ञान दिया करते थे। वह गर्भवती थी, वो लेटी रहती थी और वह वेदांत का ज्ञान देते रहते थे। तो अष्टावक्र को पहले ही सब पता चल गया। हमारे डैडी तो बुद्धू, बे दाँत। वहाँ वेदांत, यहाँ बे दाँत, यहाँ दाँत भी नहीं है।(सभी श्रोता हँसते हुए) क्या बोलेंगे ये? और हमारी जो ये हालत खराब है वो इसलिए क्योंकि हम जब गर्भ में थे, तो उल्टा-पुल्टा ही बोलते रहते थे माँ को। हमने भी वह सब सुन लिया। वैसे हम कम नहीं हैं अष्टावक्र से सुनने में, सुना हमने भी पूरा-पूरा। पर किसी का बाप ही ऐसा हो तो कोई क्या करे? बाप की ओर से मार खा गए, नहीं तो अष्टावक्र तो कब के पीछे छूट गए होते।

कभी अपने ऊपर भी ज़िम्मेदारी ले लो! क्यों व्यर्थ में कहानियाँ बना रहे हो? कि उन्होंने गर्भ में सुन लिया था, इसलिए वे अद्भुत ज्ञानी पैदा हुए। गर्भ में किसी को नहीं ज्ञान हो जाता। यही कहानी अभिमन्यु के बारे में निकाल दी है। अब वह सोलह साल का था और उसने विलक्षण वीरता दिखा दी। तो कह दिया वह तो जब गर्भ में था तू अर्जुन चक्रव्यूह भेदन की कला समझा रहे थे पत्नी को, तो अभिमन्यु को पहले से ही पता था। मैच फिक्सिंग चल रही थी। जो निर्भीकता थी उस निर्भीकता का तुमने कभी चयन ही नहीं किया। क्यों कहानियाँ बना रहे हो? कभी कह देते हो वेदांत सुनाया जा रहा है पत्नी को, कभी कह देते हो चक्रव्यूह तोड़ने के गुर सिखाए जा रहे हैं पत्नी को। पत्नी को चक्रव्यूह भेदना कोई काहे को सिखाएगा भाई? पत्नी जाएगी क्या लड़ने? सो नहीं जाएगी वह बोर होकर? वह वैसे ही गर्भ से है और तुम उसको बैठ कर बता रहे हो कि चक्रव्यूह में कैसे घुसना है? कहेगी माफ करो! कल को तुम यह भी बोल देना कि उसैन बोल्ट के पिताजी, उसकी सोती हुई माता के इर्द-गिर्द बहुत तेज़-तेज़ दौड़ा करते थे (सभी श्रोता हँसते हुए), इसीलिए तो वह बहुत तेज़ दौड़ता है। हमारे पिताजी को तो दौड़ना ही नहीं आया। यह पिता ही नालायक हो तो बेटा क्या करेगा फिर? जितना दोष है सब पिताजी पर डाल दो।

जब तुम परमात्मा को कहते हो न- ये तूने क्या किया? तब वास्तव में पिताजी पर ही दोष डाल रहे हो। ऐसे ही डाला जाता है पिताजी पर दोष कि मैं क्या करूँ? मेरे पास तो कोई खास टैलेंट ही नहीं है। पिताजी ने ही गड़बड़ कर रखी है। पिताजी, ऊपर वाले पिताजी।

प्र: मैंने जीवन में ऐसे बहुत सारे निर्णय ले लिए जिनके लिए मुझे बाद में बहुत पछताना पड़ा। जिसके बाद दिमाग को शांत करने के लिए दो बार विपश्यना की। उसका असर ऐसा हुआ कि अब दिमाग में कुछ रहता नहीं है। हर चीज़ को समान तरीके से देखने लगा हूँ। जैसे पहले काम ज़्यादा रहता था तो दिमाग पर चढ़ जाता था, अब काम ज़्यादा रहता है तो भी मैं आराम से रहता हूँ। पता नहीं ऐसा लग रहा है कि भावनाशून्य हो गया हूँ या फ़िर ये क्या है समझ नहीं पा रहा हूँ।

आचार्य: जो भी चल रहा है उससे तृप्ति है?

प्र: खालीपन है।

आचार्य: वो जो भी है, वो ठीक है तुम्हारे लिए?

प्र: समझ नहीं पा रहा हूँ।

आचार्य: नहीं समझ पा रहे! बिना समझे भी ठीक हो?

प्र: ठीक तो हूँ।

आचार्य: तो चलने दो। समझ के क्या करोगे? तुम्हारे पेट में खाना कैसे पच रहा है? यह समझ पा रहे हो क्या? तो मैं यह थोड़े ही पूछूंगा कि यह समझ में आता है कि कैसे पच रहा है? मैं तो यह पूछ पूछूंगा- पेट ठीक है न? जब किसी से पूछो पेट ठीक है? तो क्या तुम यह पूछते हो कि क्या तू समझ पा रहा है कि पेट में खाना कैसे पचता है या यह पूछते हो कि कहीं दर्द तो नहीं है? कहीं असहजता तो नहीं है? है? कि नहीं है?

प्र: वो भी समझ नहीं आ रहा?

आचार्य: जब होगी तो समझ आ जाएगा। जिसके दर्द होता है वह यह नहीं कहेगा कि मुझे पता नहीं दर्द है कि नहीं है। जब होता है, तो समझ में आ जाता है कि दर्द है। ठीक है? तो जब दर्द उठे तब प्रश्न करना। जब दर्द नहीं है तो प्रश्न का लाभ क्या? उत्सुकता मिटाने के लिए थोड़े ही होता है- उत्तर। दर्द मिटाने के लिए होता है न?

गड़बड़ हो गई! आश्रम समझ कर आए थे, दवाखाना निकला। यहाँ उत्तर नहीं मिलते, यहाँ दवा मिलती है। जिन्हें दर्द हो, वही आएं। जिन्हें सवाल-जवाब करने हों, वो रेडियो मिर्ची पर जाएं। वहाँ पर किसी आरजे को पकड़ लो, वह सवाल पूछेगा तुम जवाब देना, लोग ताली बजाएंगे।

जिसको अपना गहरे से गहरा दर्द अनुभव होने लगा हो। तापत्रय में जो गहरे से गहरा ताप, दुःख होता है, जानते हो न कौन सा होता है वो? आध्यात्मिक।

तीन तरह के दुःख होते हैं- आम आदमी, जो सबसे सतही दुःख है उसी में फँस के रह जाता है। दुःख सबको होते हैं, पर आम आदमी को बहुत दुःख होते हैं, पर सतह-सतह पर। वो उन्हीं दुखों में लिप्त रह जाता है।

फिर कुछ बिरले होते हैं, जिन्हें कुछ गहरे दुःख मिलते हैं। फिर कुछ और होते हैं, जिन्हें गहरे से गहरा दुःख मिलता है। वह आध्यात्मिक दुःख कहलाता है। जिन्हें आध्यात्मिक दुःख अनुभव होने लग गए हों, अध्यात्मा उनके लिए है। मात्र उनके लिए।

अभी यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि दुःख है कि नहीं है, तो क्या करोगे? कुछ नहीं। घूमो फिरो मौज करो!

प्र: पर आचार्य जी वह आनंद भी तो नहीं है?

आचार्य: कौन-सा आनंद?

वह आनंद माने कौन-सा आनंद?

प्र: वही जिसका वादा अध्यात्म करता है।

आचार्य: यह कौन-सा आनंद? मैं तुमको बोलूँ- 'टूरा-टूरा' माने क्या? या तो तुमने पहले टूरा-टूरा देख रखा हो तो मैं बोलूं टूरा-टूरा तो यह शब्द सार्थक हुआ तुम्हारे लिए। नहीं तो मैं कह रहा हूँ 'टूरा' और तुम कह रहे हो 'टूरा'। (सभी श्रोता हँसते हुए) पागल हो क्या?

'टूरा' माने क्या?

या तो तुम्हें 'आनंद' पता हो कि क्या होता है और फिर तुमसे कोई बोले कि ऐसे जियो तो आनंद मिलेगा। तो तुम कहो ठीक बात! ऐसे जिए तो आनंद मिलेगा और आनंद ऊँची बात है क्योंकि हमें पता है, हमें अनुभव है, हम जानते हैं 'आनंद' क्या है। आनंद तुम जानते नहीं

जैसे किसी छोटे बच्चे को कोई बहकाए- चुप हो जा आज चिजी दिलाएंगे। अब चिजी माने क्या? और बच्चे खुश हो जाते हैं चिजी मिलेगी चिजी! पर कौन सी चिजी? तुम्हें तो पागल बना रहे हैं। नहीं, आज तो चिजी मिलेगी!

ऐसे ही तुम आनंद बोल रहे हो। किताबों में लिखा है- आनंद मिलता है!

आनंद!

आनंद माने क्या?

आनंद शब्द प्रासंगिक ही उनके लिए है जिन्हें पहले दुःख मिला हो।

जिन्हें गहरा दुःख मिला हो वही तो आनंद की गहराई की बात करने योग्य हुए न? आनंद और कुछ नहीं है, तुम्हारा गहरा दुःख, तुम्हें तैयार कर देता है दुख से मुक्ति के लिए, उसी मुक्ति का नाम 'आनंद' है। अगर तुम्हें अभी, अपने गहरे दुःख का ही पता नहीं, तो तुम आनंद की क्या बात कर रहे हो?

मेरे सामने बैठकर यह फ़िफ्टी-फ़िफ्टी नहीं चलेगा। या तो पूरा बताओ कि हाँ! विकार हैं और विकारों के कारण नर्क में हूँ, गहरे दुःख में हूँ। तो मैं दवा दूँ। जो कहे कि अभी पता ही नहीं कि दर्द है कि नहीं। ऐसों से कोई बात नहीं और अगर वह बहुत ज़िद्द करते हैं तो मैं दर्द दे देता हूँ। अब जब आए ही गए हो और कह ही रहे हो कि कुछ तो करिए! कुछ तो करिए! तो पहले दर्द ले लो,ताकि मैं तुम्हें दवा दे पाऊँ। क्योंकि दवा देने की तो शर्त है क्या? दर्द होना चाहिए। दर्द नहीं है, तो मैं दिए देता हूँ।

तुम्हें और क्या लग रहा है? वीडियो पर मैं क्या कर रहा हूँ? दर्द दूर कर रहा हूँ? दूर करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता, समझो! तीन तरह के दुःख हैं। गहरा दुःख हो जब सबसे ज़्यादा, तब मुक्ति संभव होती है और लोगों के पास गहरे दुःख भी नहीं होते। उनके दुःख कैसे होते हैं? लॉलीपॉप छिन गई, सौ रुपया छिन गया, बीवी भाग गई, साड़ी में छेद हो गया, नौकरी माँ-बाप की इच्छाओं के मुताबिक नहीं लग रही है, गोरा होना है, हो नहीं पा रहे। इस तरीके के तो दुःख हैं। अब ऐसे दुःखों के साथ तो मुक्ति नहीं मिल सकती क्योंकि अभी इस दुख में उतनी गहराई ही नहीं है कि तुम दुःख से मुक्ति की बात करो। दुःख से मुक्ति की बात तभी करते हो, जब दुःख में तीसरे चरण की गहराई आ जाती है। तुम्हारा दुःख अभी है ही पहले चरण का- इसे आदिभौतिक दुःख है।

पहले चरण के दुःख को अध्यात्म कहता है- आदिभौतिक दुःख। तुम्हारे सारे दुःख भौतिक तल के हैं। यहाँ (चेहरे की तरफ इशारा करते हुए) मुंहासा निकल आया है। अब जब तुम्हारा दुःख ही इसी कोटि का है कि मुहांसा निकल आया है और उसको लेकर के दुःखी हो। तो तुम्हें कौन सी आध्यात्मिक मुक्ति मिलने वाली है भाई?

लेकिन तुम फिर भी चले आते हो कि नहीं हमें मुक्ति चाहिए और दुःख है अभी पहले चरण के। तो मुझे क्या करना होगा?

दुःख देना होगा। यही मेरा काम है। मैं दुःख दे रहा हूँ तुम्हें। ये सात हज़ार वीडियो किस लिए हैं? मुक्ति देने के लिए थोड़े ही हैं?

'मुक्ति' तो स्वतः मिल जाती है, जब तीसरे चरण का दुःख आ जाता है।

मैं इतना ही कर सकता हूँ कि तुम्हें तीसरे चरण के दुःख की तरफ ढकेल दूँ। और साधुवाद है आपको कि यह बात खुले में बता दी, फिर भी भागकर नहीं जा रहे आपलोग।(सभी श्रोता हँसते हुए) निश्चितरूप से आपलोग अब तीसरे चरण के दुःख के लिए तैयार हैं। नहीं तो देखिए! मैंने तो इमानदारी से बता दिया। बाद में मत कहिएगा कि बताया नहीं। मेरा काम मुक्ति इत्यादि देना नहीं है। मैं तो आपको, आपके गहनतम दुःख से ही परिचित करा सकता हूँ। कह रहा हूँ दुःख देता हूँ, दुःख देता नहीं हूँ। आपको आपके दुःख की तरफ चैतन्य कर देता हूँ, दुःखी तो सब हैं। हर जीव को आध्यात्मिक दुःख है, पर उसे उसका पता नहीं। उसे पता सिर्फ आदिभौतिक दुःख का है, पहले चरण के साथ ही दुःख का उसे पता है। अपने गहरे दुःख का किसी को पता नहीं, वो सोचता है उसे दुःख है ही नहीं। मैं दुःख देता नहीं, मैं जता देता हूँ, तुम दुःखी हो। तुम झूठे सुख का स्वांग कर रहे हो गहराई में तुम्हें बहुत दुःख है। और एक बार तुमने मान लिया कि तुम दुःखी हो फ़िर मुक्ति दूर नहीं।

भूलना नहीं दुःख भी तुम्हें उतना दूँगा, जितना तुम्हारा चुनाव है। जो मेरे जितना निकट आते जाते हैं, वो मुझे उतना अधिकार देते जाते हैं कि मैं उन्हें दुख दूँ। जो मुझसे दूर जाते हैं, मैं उन्हें दुःख देना छोड़ देता हूँ। क्योंकि याद रखो कि मालिक तो तुम ही हो। मालकीयत तो तुम्हारी ही चलेगी, संप्रभुता तुम्हारी है। दुःख भी तुम्हें उतना मिलेगा, जितना तुम चाहते हो। अब मैंने बता दिया कि मेरा काम है- दुःख देना। तो मेरे निकट आकर तुम स्वयं चुनाव करते हो दुःख पाने का। ठीक? तो फिर मैं तुम्हें दुःख दे देता हूँ। और जो मेरे निकट आए, उसे दुःख मिले और वह कहे नहीं-नहीं! नहीं चाहिए दुःख! तो फिर वह दूर चला जाएगा। जब वो दूर चला जाएगा, तो मैं उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए उसे दुख देना बंद कर दूँगा।

इसीलिए तो सत्र शुरू होने के पहले कहता हूँ- आगे आ जाओ। मैं भी देख लेता हूँ कौन तैयार है? कुछ इतने चालाक होते हैं कि उनको कहता हूँ आगे आओ, तो वह इतना आगे आते हैं कि मेरे पीछे निकल जाते हैं। कहते हैं कि दिखाई ही न दें अब। और कहने को भी यही रहेगा कि गुरु जी ने ही तो बोला था कि आगे आ जाओ तो आगे आए-आए उधर निकल गए। पीछे।

पास के लोग तो सही में बहुत दुःख पाते हैं। उनकी एक-एक हरकत पर नज़र रखता हूँ। डांट पाएंगे, फटकार पाएंगे। प्रेम ऐसा ही है मेरा। और-और ज़्यादा निकट आएंगे तो चाटा भी पाएंगे। फिर जिसको नहीं जमता। (उसको हाथ जोड़ कर प्रणाम का इशारा करते हुए) जाओ! पहले से बताए दे रहा हूँ, फिर न कहना कि पता नहीं था। इरादे तो बना रहे हो कि आश्रम आना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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