प्रश्नकर्ता: जो सबसे प्रमुख सिद्धान्त मैं सुनता हूँ बाजार में या इंटरनेट पर वो है थ्योरी आफ़ कर्मा। जिसको मैं कर्म भी नहीं बोलूँगा, मैं थ्योरी ऑफ़ कर्मा ही बोलूँगा, क्योंकि वो अपने विकृत रूप में ऐसे ही बिकती और चलती है। जहाँ मैंने ये बोल दिया कि अच्छा काम करो तो अच्छा होगा, बुरा काम करो तो बुरा होगा, वहाँ मैंने पहले से ही डर को बाँध कर बेच दिया। अब किस बात की फ़्रीडम (आज़ादी), अब तो उस चक्कर में मैं फिर फँस गया। कर्मा के पीछे नहीं, कर्म के पीछे कुछ तो तर्कसंगत बात है। क्या है वो, उसे सही तरीक़े से कैसे समझा जाए? और जो भौंडी नक़ल बाँटी जा रही है, उसके विरुद्ध स्वयं को कैसे बचाया जाए?
आचार्य प्रशांत: देखो, कर्मा में जो कुछ चल रहा है, वो तो तुमको पता ही है। अभी बोल ही रहे थे, ‘अच्छा करो अच्छा होगा, बुरा करो बुरा होगा’, कार्मिक अकाउंट , कार्मिक बैलेंस और कार्मिक लेफ़्टओवर्स और कार्मिक क्लीनज़िंग , पता नहीं क्या-क्या वो सब चल रहा है। वो सब कुछ नहीं है।
कर्म की जो बात है वो बहुत सीधी है। वो ये है कि कर्म से पहले कर्ता आता है। सीधी सी बात है, एक्टर (कर्ता) है, तभी तो एक्शन (कर्म) होगा। तो एक्शन हवा में तो हो नहीं सकता। पहले एक्टर बैठा है और ये जो एक्टर है, जो करता है काम को वही उस काम का एक्सपीरियंसर (भोक्ता) भी है — इस बात को अच्छे से समझो। ये आइडेंटिटी (पहचान) हमे एकदम साफ़ होनी चाहिए कि एक्टर ही एक्सपीरियंसर भी है। जो काम कर रहा है, वही उस काम की प्रक्रिया का और उस काम के परिणाम का एक्सपीरियंसर भी है।
ये स्पष्ट हो गया? अब समझो! तो हमे मतलब किससे है? हमे मतलब तो अपने एक्सपीरियंसर से है न। अच्छा-बुरा सब किसको लगता है? एक्सपीरियंसर को। ये एक्सपीरियंसेस हैं न कि अच्छा कुछ हो रहा है या कुछ बुरा हो रहा है। और ये जो अच्छा है या बुरा है, ये एक्सपीरियंसर के साथ हो रहा है।
एक्सपीरियंसर इक्वल्स एक्टर (भोक्ता = कर्ता) और एक्टर एक्शन से पहले आता है। ये दो, तीन इक्वेशंस (समीकरण) बन रही हैं। पहली आइडेंटिटी हमने बनायी कि एक्टर इक्वल्स एक्सपीरियंसर , दूसरी है कि एक्टर प्रिसिड्स एक्शन। (कर्म से पहले कर्ता आता है)
अच्छा-बुरा सब एक्सपीरियंसर के साथ एक्सपीरियंसेस (अनुभव) हैं। तो इसका मतलब ये है कि अच्छा-बुरा प्रिसिड्स एक्शन (कर्म से आगे है) । तो अच्छा बुरा परिणाम एक्शन के बाद नहीं आएगा, एक्शन से पहले आएगा। एक्टर एक्शन से पहले है न, तो जो कुछ भी अच्छा-बुरा है वो एक्शन से पहले ही हो गया। एक्शन के परिणाम से नहीं मिलेगा वो, एक्शन का रिज़ल्ट (परिणाम) अच्छा-बुरा नहीं होता, एक्शन का ओरिजिन (उद्गम) अच्छा-बुरा होता है।
प्र: आचार्य जी, शुरू में वो एक्टर है, वो एक्शन करता है और वो एक्सपीरियंसर बन जाता है, वृत्त घूमकर आ जाता है। उस स्थिति में तो एक्शन का परिणाम भी है न एक।
आचार्य: एक्शन का जो परिणाम है उसको भी भोगने वाला, एक्सपीरियंस करने वाला तो यही एक्टर ही है न। और वो जिस हिसाब से एक्शन कर रहा था, जो बनकर एक्शन कर रहा था, वही बनकर रिज़ल्ट का कंज़म्प्शन (भोग) भी करेगा। वही बन्दा है न?
प्र: बिलकुल।
आचार्य: अगर वो सही है, तो उसे आगे की परवाह नहीं रहेगी और अगर वो ग़लत है तो आगे की बहुत ज़्यादा परवाह करेगा। तुम ऐसे समझो — कुछ बेवकूफ़ी भरा करने के लिए पहले मुझे बेवकूफ़ होना पड़ेगा और बेवकूफ़ होने में ही सफ़रिंग (कष्ट) मिल गयी। अब रिज़ल्ट का क्या वेट कर रहे हो, रिज़ल्ट तो बस तुम्हारी सफ़रिंग को उघाड़कर रख देगा।
प्र: बाहर लाकर रख देगा।
आचार्य: बाहर लाकर रख देगा। तुम इतने बेहोश हो कि वो धमाका तुम्हें तुम्हारी सफ़रिंग प्रदर्शित कर देगा, मेनिफ़ेस्ट कर देगा, वरना सफ़रिंग तो एक्शन से पहले ही थी। तो आपको एक्शन के परिणाम की परवाह नहीं करनी है, आपको एक्टर की दशा की परवाह करनी है। एक्टर की दशा ही अगर ख़राब है, तो एक्शन की बात क्या करनी फिर!
अगर एक्शन सही एक्टर से आ रहा है, तो एक्टर के सही होने में ही उसे राइट एक्शन (सम्यक् कर्म) का रिवॉर्ड (सम्मान) मिल गया। क्या रिवॉर्ड है? मैं सही हूँ। और सही होने में अपनी एक ब्लिस है। सही होने में अपना एक मज़ा, आनन्द, स्थिरता है — जो भी बोल लो। उस स्थिरता से जो एक्शन निकल रहा है, अब एक्शन की बहुत क़ीमत ही नहीं रही। जब एक्शन की बहुत क़ीमत नहीं रही तो एक्शन के परिणाम की भी बहुत क़ीमत नहीं रही।
दैट्स वन हॉल मार्क ऑफ़ द राइट एक्शन, यू डू नॉट बॉदर टू मच अबाउट द कॉनसिक्वंसिस। (ये सम्यक् कर्म का ये लक्षण है कि आप परिणाम की बहुत फ़िक्र नहीं करते)
प्र: बिकाज़ द कॉनसिक्वंसिस आर सैट्ल्ड विद द एक्शन इटसेल्फ़। (क्योंकि कर्म के साथ परिणाम भी तय हो जाते हैं)
आचार्य: बिकॉज़ वाट मैटर्ड वॉज़ द पॉइंट फ्रॉम व्हेयर द एक्शन केम। (क्योंकि महत्वपूर्ण बात ये थी कि कार्रवाई कहाँ से हुई) जो एक्शन जिस प्वाइंट से आ रहा है, एक्टर से, वो एक्टर ही सही है। उस एक्टर के सही होने से उस एक्शन में अपना मज़ा है। एक्शन में ही जैसे उसको रिज़ल्ट मिल गया, अब वो कॉनसिक्वंस की परवाह नहीं कर रहा। वो ये कह रहा है कि अगर एक्शन राइट था, तो उसका कॉनसिक्वंस रॉन्ग कैसे हो सकता है।
प्र: ये तो बहुत बड़ी सैद्धान्तिक, दार्शनिक बात हो गयी।
आचार्य: जो चीज़ तुमको पता ही होती है बिलकुल सही है, उसमें तुम परिणाम की परवाह कम करने लग जाते हो न? बोलो।
प्र: बिलकुल।
आचार्य: करने लग जाते हो न?
प्र: हाँ, हाँ।
आचार्य: बस यही है। परिणाम कर्मा में चलता है कि अच्छा करो, अच्छा परिणाम, रिज़ल्ट मिलेगा, फ़्यूचर। जो आदमी होश में और डूबकर और बड़े प्रेम के साथ काम कर रहा है, वो अंजाम की परवाह करता ही नहीं। तो उसको तुम क्या बताओगे कि क्या अंजाम आएगा, परिणाम अच्छा आएगा कि बुरा आएगा कि क्या मिलेगा। सो द रियल थिंग इज़ द लविंग एंड कॉन्शियस एंड इमर्ज़्ड स्टेट ऑफ़ द एक्टर। (तो असली चीज़ कर्ता की प्रेमपूर्ण और सचेतन और उभरी हुई अवस्था है)
तुम सही होकर काम करो और अंजाम की परवाह करो ही मत। तुमने जो सही होकर काम करा, उसी में तुमको बढ़िया वाला इनाम मिल गया। ऑलरेडी मिल गया। अब तुम्हें आगे नहीं मिलेगा, भविष्य में नहीं मिलेगा। भविष्य की चिन्ता करने की कोई ज़रुरत ही नहीं। उस काम को करने में ही जॉय था।
प्र: द वर्क इटसेल्फ़ वॉज़ जॉय।
आचार्य: वर्क इटसेल्फ़ वॉज़ जॉय। द स्टेट इन विच आइ वॉज़ एक्ज़ीक्यूटिंग द वर्क , मैं जिस दशा में वो काम कर रहा था, वो अपनेआप में आनन्द है, मज़ा आ गया। अब उसका आगे क्या होगा, हमें नहीं पता, परवाह किसको है! जब आपको अपने काम में कोई कन्विक्शन (दृढ़ विश्वास) नहीं है, कोई रस नहीं है, तो फिर आप भिखारी की तरह फ़्यूचर की ओर देखते हो कि इसका रिज़ल्ट अच्छा आ जाए।
क्योंकि जो काम था, वो तो अपनेआप में पूरा था नहीं, उसमें तो कुछ मज़ा आया नहीं, तो फिर हम क्या बोलें कि हमने काम क्यों किया। तब हम रिज़ल्ट की बहुत परवाह करने लगते हैं। हम कहते हैं, ‘काम तो घटिया है। दिन भर किसी फ़ालतू दुकान में बैठा हुआ हूँ, कोई फ़ालतू सामान बेच रहा हूँ, तो एक महीने बाद ये पूछना पड़ेगा न कि मैं पूरे महीने, दिन के आठ घंटे, दस घंटे एक फ़ालतू काम क्यों करता रहा।’ तो फिर मैं तीसवें दिन प्रॉफिट की या सैलरी की यानि कि रिज़ल्ट की, परिणाम की फिर बहुत परवाह करूँगा। ये जो मैंने तीस दिन इतनी पीड़ा सही है, उसका मुझे कुछ अच्छा सा परिणाम भी तो मिलना चाहिए न।
प्र: अगर मैं इसको छात्रों के सन्दर्भ में कहूँ, ‘तुम भौतिकी और गणित को पढ़ने में किसी तरीक़े से मज़ा या एक प्रेम खोज लो तो तुम्हें मार्क्स की टेंशन नहीं रहेगी। और अगर तुम्हें मार्क्स की टेंशन है तो तुम उस प्रकिया का मज़ा नहीं ले रहे हो।’
आचार्य: बात ख़त्म।
प्र: इसलिए तुम परिणाम पर इतना केन्द्रित हो।
आचार्य: और इसमें मज़ेदार बात जानते हो क्या है? पहली बात, तुमको बहुत ज़्यादा मार्क्स की यानि परिणाम की टेंशन रहेगी नहीं। दूसरी बात, अच्छे मार्क्स लाने की और अच्छा परिणाम लाने की प्रोबेबिलिटी (सम्भावना) बहुत बढ़ जाती है जब तुम परिणाम की नहीं, वर्क की, प्रोसेस की, एक्शन की परवाह करते हो। तो अपनेआप जो रिज़ल्ट आना होता है, आ जाता है। ये है सीधे-सीधे।
प्र: मैं जिद्दूकृष्णमूर्ति के बारे में जानना चाह रहा था। वो अपनी किताब इनर फ़्रीडम में कोई गहरी बात समझा गये हैं। क्या और भी गहरी फ्रीडम है किसी चीज़ से?
आचार्य: फ़्रीडम फ्रॉम वनसेल्फ़। (स्वयं से मुक्ति)
प्र: ये फ़्रीडम फ्रॉम वनसेल्फ़ क्या है?
आचार्य: एक होती है फ़्रीडम फ्रॉम हिज़ बर्डन (उसके बोझ से आज़ादी), फ़्रीडम फ्रॉम हिज़ एट्रोसिटीज़ (उसके अत्याचारों से आज़ादी), फ़्रीडम फ्रॉम हिज़ डिक्टेट्स (उसके हुक्म से आज़ादी) ठीक है? और एक फ़्रीडम होती है उन सब चीज़ों से जो तुमने अपने भीतर बायोलॉजिकली (जैविक) या सोशली (सामाजिक रूप से) पाल रखी हैं। वो हाइयर फ़्रीडम (ऊँची आज़ादी) होती है।
देखो, क्या है कि बाहर से कोई तुमको ग़ुलाम बनाता है, तो ज़्यादा आसानी से दिख जाता है। और फिर उसके खिलाफ़ विद्रोह करना भी एक तरीक़े की रिएक्टिव ईज़ (प्रतिक्रियाशील शुल्क) के साथ आता है। है न? कोई तुम पर चढ़ने की कोशिश कर रहा है, तो तुम्हारा रिएक्शन यही होता है कि चल हट!
लेकिन ज़्यादा बड़ी ग़ुलामी तब होती है जब बाहर की जितनी आवाज़ें हैं, वो तुमने अपने भीतर सोख लीं — बेहोशी में सोख लीं, तुम्हें पता भी नहीं था, वो यूँ ही हो गया — और वो आवाज़ें तुम्हारी जो बायोलॉजिकल इंस्टिंक्ट्स (जैविक मूलवृत्ति) है, उनके साथ जुड़ गयीं और वो जो जुड़ी हुई चीज़ है, उसको तुमने नाम दे दिया अपना कि ये तो मैं हूँ और तुमने मैं की ग़ुलामी करनी शुरू कर दी।
प्र: मैं ऐज़ अ कांसेप्ट की। (मैं जो एक अवधारणा है।)
आचार्य: हाँ। अकॉर्डिंग टू योर ओन इमेजिनेशन, (आपकी अपनी कल्पना के अनुसार) योर सेल्फ़ वर्थ, (आपका आत्मा मूल्य) सेल्फ़ असेस्मेंट, (आत्म मूल्यांकन) सेल्फ़ इस्टीम (आत्म सम्मान) देट धिस इज़ आई (कि ये मैं है) वो झूठा मैं है। लेकिन उस झूठे मैं की जो भी इच्छा है तुम उसका पालन कर रहे हो, तो ये मैं की ही ग़ुलामी हो गयी। उस झूठे मैं को जो अच्छा लगता है, बुरा लगता है, तुमने उसको कह दिया, ‘ये माय लाइक्स (मेरी पसन्द) हैं, माय डिसलाइक्स (मेरी नापसन्द) हैं’, ये मैं की ग़ुलामी हो गयी।
समझ में आ रही है बात?
वो तुम्हारी हैं भी क्या? उस झूठे मैं के जो टार्गेट्स (लक्ष्य) हैं, उसको तुमने अपना टार्गेट बना लिया। तो इनर फ़्रीडम (अन्तरिक स्वतन्त्रता) का मतलब होता है, फ़्रीडम फ़्रॉम दैट विच यू कंसिडर टू बी इनर टू यू (उससे आज़ादी जो आप समझते हैं कि आपके भीतर है)। द फ़ैक्ट इज़, द आउटर इज़ द इनर। (तथ्य ये है कि जो बाहर है वही भीतर है)
इनर डोमेन (आन्तरिक क्षेत्र) में कोई ट्रू सेल्फ़ (सच्चा आत्म) नहीं बैठा हुआ है। ये सब जो बातें होती है न कि यहाँ छाती में ट्रू सेल्फ़ है कहीं, न अन्दर है न बाहर है। ट्रू सेल्फ़ न अन्दर होता है न बाहर होता है। बाहर एक तरह की ग़ुलामी होती है। फ़ॉल्स सेल्फ़ है बाहर। और अन्दर दूसरे तरह की ग़ुलामी होती है। फ़ॉल्स सेल्फ़ है भीतर भी। और जो भीतर वाले की ग़ुलामी होती है, वो बाहर वाले की ग़ुलामी से ज़्यादा घातक होती है।
बाहर वाले की ग़ुलामी को हम अक्सर बोल देते हैं बॉन्डेज (बन्धन), भीतर वाले की ग़ुलामी को हम अक्सर बोल देते हैं फ़्रीडम। तो इसीलिए जो हमारी फ़्रीडम है वो अक्सर बॉन्डेज से या स्लेवरी (दासता) से भी ज़्यादा ख़तरनाक होती है।
देखो, जो आदमी बाहर से ही एनस्लेव्ड (ग़ुलाम) है, उसको आज़ाद करना थोड़ा आसान है, क्योंकि उसने हथकड़ी पहन रखी है, तुम जाकर चाबी लगाकर खोल सकते हो। लेकिन जो आदमी भीतर से ग़ुलाम है, उसको आज़ाद करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उसने अपनी ग़ुलामी के साथ अपना ‘मैं’ जोड़ लिया है।
तुम्हें को उससे आज़ाद कराना बहुत आसान है, लेकिन तुम्हें को तुम से आज़ाद कराना बड़ा मुश्किल है। तो जितने भी सोशल रिवोल्यूशन्स होते हैं या जो भी होते हैं, इतनी सारी ऐतिहासिक क्रान्तियाँ हुई हैं — फ्रेंच हो, रशियन हो, कोई हो — ये सब कोशिश करते हैं इंसान को किसी बाहरी ताक़त से आज़ादी देने की। राजा की ऑटोक्रेसी (निरंकुशता) नहीं चलनी चाहिए, चर्च की नहीं चलनी चाहिए, किसी की हूकुमत इंसान पर नहीं चलनी चाहिए, तो फिर इसके लिए होती हैं क्रान्तियाँ।
सब क्रान्तियाँ ये करती हैं कि भाई, तुम्हें को उससे आज़ाद कराना है। वो बहुत चौड़ में रहता है, उसने बिलकुल ऐसे दबा रखा है, तो तुम्हें आज़ाद करना है। लेकिन असली क्रान्ति वो होती है जहाँ पर मैं, मैं से आज़ाद हो जाए। वजह? मैं उस बाहर वाले से भी इसीलिए दबता है क्योंकि मैं पहले मैं से दबा हुआ है। मैं, मैं से दबना छोड़ दे जिस दिन, उस दिन वो बाहर वाले से भी नहीं दबेगा। अब तुम मैं को बाहर वाले से आज़ाद करा रहे हो, लेकिन अभी मैं से दबा ही हुआ है मैं, तो वो दबने के लिए बाहर एक दूसरा ढूँढ लेगा। यही होता रहा है।
तो वो जो इंटर्नल लिब्रेशन (आंतरिक मुक्ति) है इनर फ़्रीडम है, वो ये चीज़ है — इंसान को इंसान से ही मुक्ति दिलाना। वो ही सबसे मुश्किल काम है।
प्र: अगर मैंने ठीक समझा है तो बताइए। मैं मेरे नाम के रूप में एक वेशभूषा, एक अवधारणा अपना लेता हूँ और फिर उसके एवज में उसका दास बन जाता हूँ। तो अपने विरुद्ध क्या करने का प्रयास करूँ? क्योंकि जैसा आपने बताया कि कहीं कोई ट्रू सेल्फ़ तो होता नहीं, सारे ट्रू सेल्व्स झूठे हैं। तो मैं इस अवधारणा को किससे बदलूँ?
आचार्य: नथिंग। ( कुछ नहीं)
प्र: रैंडमनेस? (सांयोगिक रूप से)
आचार्य: नथिंग। जस्ट नथिंग। (कुछ भी नहीं)
प्र: आय एम नथिंग एंड दिस इज़ द आंसर। (मैं कुछ भी नहीं हूँ यही उत्तर है)
आचार्य: यू डोंट नीड टू बी एनीथिंग। व्हाय सच ग्लैमर अरांउड समथिंग, एनीथिंग ऑर नथिंग ? (आपको कुछ भी होना नहीं है। कुछ होने या न होने को लेकर इतना ठाठ-बाट क्यों)
प्र: राइट। यू हैव टू बी नथिंग।। (ठीक है। आपको कुछ भी नहीं होना है)
आचार्य: (मुस्कुराते हुए) नो, इट्स नॉट अ मोरल इम्परेटिव। (ये कोई नैतिक अनिवार्यता नहीं है) यू हैव टू एक्नॉलेज फर्स्टली दैट यू हैव लॉट ऑफ़ थिंग्स। (आपको सबसे पहले जानना है कि आपके पास पहले ही से बहुत सारी चीज़ें हैं) जस्ट रेंडमली, जस्ट कोइंसिडेंटली। (बस संयोगवश) एंड यू आर नॉट गेटिंग एनीथिंग बाय बीइंग दोज़ थिंग्स। (और ये चीजें बनकर आपको कुछ भी नहीं मिल रहा है)
प्र: ये फिर से मुझे सोचने को मजबूर कर रहा है। दर्शनशास्त्र में एक बहुत पुरानी बहस है, बीइंग वर्सेस बीकमिंग। (होना बनाम बनना) बी योरसेल्फ़ ऑर बिकम द बेस्ट वर्ज़न ऑफ़ योरसेल्फ़ (स्वयं बनें या स्वयं का सर्वश्रेष्ठ संस्करण बनें)
अब अगर कोई ट्रू सेल्फ़ नहीं है, तो बी योरसेल्फ़ क्या है, पहली बात। और अगर कोई डेस्टिनेशन (गंतव्य स्थान) कोई सुपर कॉन्शियस (अति चेतन) नहीं है तो बिकमिंग योरसेल्फ़ भी क्या है?
आचार्य: कुछ नहीं, दोनों ही कुछ नहीं हैं।
प्र: मिथ्स हैं दोनों, कहानियाँ हैं।
आचार्य: हम तो बोलते हैं फाउंडेशन में डोंट बी योरसेल्फ़। (स्वयं के मत बनो)
प्र: बी हू देन ? (फिर किसकी तरह बने) बी नथिंग (कुछ नहीं बनो)
आचार्य: स्पेंड अ लॉट ऑफ़ टाइम। (बहुत अधिक समय लगाओ) नॉट बीइंग योरसेल्फ़ इट्स नॉट दैट इज़ी। (स्वयं का न होना इतना आसान नहीं है) इट रिक्वायर्स लॉट्स ऑफ़ एफ़र्ट्स। (इसके लिए बहुत प्रयत्न करने पड़ते हैं)
प्र: आचार्य जी, ऐसा ही नहीं है कि समाज की संरचना, किंतु समसामयिक आधुनिक समय में जो भाषा हम जीवन को समझने के लिए यूज़ करते हैं, वो भी तथ्य तक पहुँचने के लिए तैयार नहीं है।
आचार्य: बढ़िया बात। बढ़िया!
प्र: तो ये जो मौलिक बदलाव की हम लोग माँग कर रहे हैं, वो जीवन के प्रति तुम्हारी भाषा, तुम्हारी धरणा, सबकुछ बदल देगा । आप कह रहे हैं, ‘देखो, जीवन को देखो। तुम ध्यान रखो, देखो, हो क्या रहा, अभी हो रहा है।’ कोई और तरीक़ा, रास्ता, तकनीक है?
आचार्य: ये भी तकनीक नहीं है। ये एक स्पॉन्टेनियस हैपेनिंग (सहज घटना) है। आप मुझे समझाइए, आप ये कैसे कर सकते हैं कि ठीक अभी जो हो रहा है, वो आपकी चेतना पर अंकित ही नहीं हुआ। वो आपकी कांशियसनेस पर रजिस्टर नहीं हुआ। ये हो कैसे गया? आप ही के साथ हो रहा है न? आप ही एक्सपीरियंसर हो? तो आपको पता कैसे नहीं है कि क्या हो रहा है? बस यही तो है। इसको टेक्निक बोलना चाहते हो, बोल लो।
बट ऑल टेक्निक्स आर लर्नेड प्रोसेसेस (विधियाँ सीखी हुईं प्रक्रियाएँ हैं) ये कोई लर्न्ड चीज़ नहीं है। इट्स अ रियल टाइम थिंग। (ये वास्तविक समय की बात है) कि आपको अभी जो अनुभव हो रहा है, आप उसके प्रति ज़रा सा जाग्रत रहें या जाग्रत भी नहीं बोलूँगा, जाग्रति भी ऐसा लगता है कोई करने की चीज़ है। इसीलिए मैं बार-बार बोलता हूँ ईमानदारी। थोड़े ईमानदार रहो यार। अभी-अभी तुमको तकलीफ़ हुई है, मानो न।
एक बन्दा सामने से निकला। उसके पास ज़्यादा पैसे दिख रहे थे या ज़्यादा वो वेल बिल्ट (मज़बूत) था या उसके पास ज़्यादा ज्ञान था, तुमको तकलीफ़ हुई, अब क्यों नहीं मान लेते कि तुम्हे तकलीफ़ हुई? जैसे ही तुमने उस क्षण में ईमानदारी से माना, ‘हाँ, अभी-अभी कुछ हुआ था’, तुम्हें अपने बारे में, ये जो फ़ॉल्स सेल्फ़ है, इसके बारे में तुम्हें कुछ पता चलेगा। मज़ेदार बात ये है कि जितना तुम्हें इसके बारे में पता लगता है, उतना तुम इससे आज़ाद होते जाते हो।
प्र: इसका मोह कम होता जाता है।
आचार्य: चीज़ ही गन्दी है, कौन चिपकेगा उससे!
प्र: आचार्य जी, कोई छठी इन्द्री जैसा कुछ आन्तरिक क्षेत्र है जो धीरे से मुझसे कहता है कि ये ग़लत है, ये सही नहीं है। मैं झूठ ही बोल देता हूँ या बातें छुपाता हूँ तो मुझे महसूस होता है कि कुछ ग़लत हुआ है, मैं अपनी जगह पर स्थिर नहीं हूँ। कुछ ऐसा है जो होता रहता है, मैं उसे व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ।
आचार्य: देखो, ये दोनों बातें हो सकती हैं। मान लो कि तुम एक भारतीय हिन्दू घर में पैदा हुए हो और तुम्हारे घर में बचपन से ही माँस नहीं खाया जाता था। तुम अचानक एक ऐसे कमरे में घुस जाते हो जहाँ चारों तरफ़ माँस बँट रहा है, तो तुम्हें तुरन्त ये लगेगा कि कुछ ग़लत हुआ। ये जो तुमको अभी लग रहा है, ये कोई ज़रूरी नहीं है कि ये बात तुम्हारे होश से आ रही है। ये तुम्हारी कंडीशनिंग (संस्कारों) का रिएक्शन (प्रतिक्रिया) भी हो सकता है।
तुम्हें घर में हमेशा ये बताया गया कि झूठ नहीं बोलना है, झूठ नहीं बोलना है, झूठ नहीं बोलना है। अब किसी दबाव में आकर तुमने किसी दिन कहीं झूठ बोला, तो तुमको बुरा लगेगा। लेकिन तुमको ये जो बुरा लग रहा है — जिसको लोग बोलते हैं न कई बार मेरी आत्मा कचोट रही है मुझको — ये जो बुरा लगना है, ये बिलकुल ज़रूरी नहीं है कि किसी ट्रू सेल्फ़ से आ रहा हो, ये तुम्हारी कंडीशनिंग का रिएक्शन हो सकता है।
तो इसीलिए बहुत जल्दी इस निर्णय पर नहीं पहुँच सकते हैं कि असली प्रखर कौनसा है। बार-बार मैं समझाता हूँ कि असली की बात को ज़रा पीछे रख देना चाहिए। नकली प्रखर कौनसा है, उसको हटाते चलो। ठीक है? एलिमिनेशन (निकाल देना) से। क्योंकि हो सकता है कि जो तुम अच्छे-से-अच्छा काम भी कर रहे हो, सो कॉल्ड , तथाकथित, वो भी सिर्फ़ कंडीशन्ड हो।
वो तुम इसलिए कर रहे हो कि तुम्हें उसकी ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) दे दी गयी है। उसमें कोई होश नहीं है, कोई समझ नहीं है। तुम्हें मालूम भी नहीं है कि वो काम क्यों नहीं करना चाहिए, पर तुम कर रहे हो। तो सारी दिक्क़त तब पैदा हो जाती है और ज़्यादा बढ़ जाती है बल्कि जब हम कंडीशंड बिहेवियर (संस्कृत व्यवहार) को ही फ़्री बिहेवियर (मुक्त व्यवहार) समझना शुरू कर देते हैं।
समझ रहे हो?
एक आदमी शराब पी रहा है, एक आदमी शराब नहीं पी रहा है। बिलकुल ज़रूरी नहीं है कि जो नहीं पी रहा है, वो कंडीशनिंग से मुक्त (संस्कारित होने से मुक्त) है इसीलिए नहीं पी रहा है। बहुत सम्भावना है दूसरा नशा कर रहा है। तो शराबी को चाहिए वो अपना नशा हटाए और जो शराबी नहीं है, उसे चाहिए वो अपना नशा हटाए। नशे सबके पास हैं। सारा खेल हटाते रहने का है।
किसी भी चीज़ को ये नहीं मान लो कि ये तो मेरी नशा-मुक्त अवस्था है। प्रखर सिगरेट पी रहा है, तो उस पर दोस्तों का इन्फ़्लुएंस (प्रभाव)है। प्रखर सिगरेट नहीं पी रहा है, उसमें मम्मी का इन्फ्लुएंस है। इसमें फ़्रीडम कहाँ है दोनों में? तो प्रखर सिगरेट पिये, चाहे प्रखर सिगरेट नहीं पिये, दोनों ही केसेज़ में कोई है जो उस पर चढ़कर बैठा हुआ है, कभी दोस्त, कभी मम्मी। तो जो कोई भी चढ़कर बैठा है उसे नीचे उतारना है। बस यही देखना है।
प्र: उसके बाद कोई भी विकल्प चुनो।
आचार्य: उसके बाद जो होगा, अपनेआप अच्छा होगा। उसके बाद की परवाह हम करते नहीं। फ़्रीडम इज़ इट्स ओन जज, आर्बिटर एंड द अल्टीमेट। (आज़ादी अपना निर्णायक, मध्यस्थ और आख़िरी स्वयं है) उसके आगे सवाल नहीं पूछे जाते। वो आख़िरी है। आख़िरी पर सवाल पूछने क्या मतलब। आख़िरी के आगे कोई उत्तर तो हो नहीं सकता।
प्र: बढ़िया, मैं समझ गया। तो एक बार जो आवाज़ तुम पर चढ़कर तुम्हें सही-गलत बता रही है, उसको उतार दो। उसके बाद तुम चिन्ता मुक्त हो सकते हो। आपने आज़ादी पा ली।
आचार्य: उसके बाद।
प्र: अपनेआप ध्यान हो जाएगा। सही है।
आचार्य: अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय। अब कुछ नहीं है। उसके बाद असल में सवाल बचता नहीं है। तुम बार-बार पूछ रहे हो इसीलिए मुझे इस पर बात करनी पड़ रही है। नहीं तो ये सवाल कि अब आगे क्या होगा, ये सवाल उठेगा, तभी तो इसका जवाब दोगे! ये सवाल उठना, ऑकर (घटना) करना ही बन्द हो जाता है।
प्र: लोग विज़ुअल क्यू (दृश्य संकेत) चाहते हैं। उनका प्रश्न ये है कि जब ये पूरा हो जाता है तो कैसा दिखता है?
आचार्य: वो विज़ुअल क्यू , पहले एक बार सोचो कि हम माँग क्यों रहे हैं। पता है क्यों माँग रहे हैं?
प्र: प्लेज़र के लिए।
आचार्य: एक तो प्लेज़र के लिए। नालेज में कितना प्लेज़र होता है।
‘अच्छा पता चल गया ऐसा होता है।’ ‘देखो, मैंने पता लगा लिया कि फ़्री स्टेट (मुक्त अवस्था) कैसी होती है।’
उसके आगे एक काम और करेंगे हम। उस फ़्री स्टेट में कोई-न-कोई हम खोट निकाल लेंगे और कहेंगे, ‘अच्छी है, पर अभी उसमें ये कमी है। तो अभी हम फ़्री नहीं होना चाहते। हम यहीं ठीक है।’
तो इसीलिए फ़्रीडम का विज़ुवलाइज़ेशन या इमेजिनेशन या कंसेप्चुलाइज़ेशन बहुत ख़तरनाक चीज़ है। कुछ नहीं बोलना चाहिए उसके बारे में। तो उपनिषद् फिर क्या बोल गये हैं कि सत्य क्या होता है — अकथ्य होता है, अचिन्त्य होता है। अकथ्य माने उसके बारे में ज़्यादा बात नहीं करनी चाहिए। कोई बात नहीं करनी चाहिए। अचिन्त्य माने उसके बारे में सोचा नहीं जाना जाना चाहिए। अकल्प माने उसके बारे में कोई कल्पना नहीं की जा सकती है।
तो सत्य के बारे में इसीलिए दिमाग़ चलाओ ही मत और मुँह चलाओ ही मत, ऐसा समझाने वालों ने कहा है। उन्होंने क्या कहा है? झूठ की बात करो। अध्यात्म झूठ की बात है। अध्यात्म सत्य की बात नहीं है, झूठ की बात है। मैं बोलता हूँ माया को पकड़ो माया को। तुम आत्मा को, ब्रह्म को छोड़ो, ये वैसे भी पकड़ने वाली चीज़ें हैं ही नहीं।
अध्यात्म का या राइट लिविंग का — ऐसे बोल लो। अध्यात्म भारी शब्द हो जाता है कई बार — वाइज़ लिविंग का, होशमंद, होशपूर्ण जीवन का मतलब होता है माया को पकड़ना। माया समझते हो न? डिसेप्शन। तो डिसेप्शन को पकड़ते चलो, झूठ को पकड़ते चलो, ग़ुलामी को पकड़ते चलो। सच क्या है, मुक्ति क्या है ये सब बेकार की चर्चाएँ हैं, ये करनी ही नहीं चाहिए।
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