प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं यूट्यूब के माध्यम से जुड़ा हूँ आपसे करीब दो साल से। उसके बाद आध्यात्मिकता में थोड़ी रुचि बढ़ी। इन दो सालों में मेरे कुछ नज़दीकी मित्र थे जिनकी मृत्यु हो गई। उसके बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं मर रहा हूँ। तो ये ऐसी क्या चीज़ है जो मन और शरीर के ऊपर है और जो मृत्यु को चकमा दे सकती है?
आचार्य प्रशांत: सबसे पहले जो आपको हो रहा है वो शुभ है। इस भाव को ज़रा भी दबाइएगा नहीं। आप जिनसे भी संबंधित होते हैं जैसे-जैसे वो मिटते जाते हैं, आप भी मिटते जाते हैं। जब आदमी को साफ़ दिखाई देता है कि वो मर ही रहा है, मिट ही रहा है लगातार, बिलकुल साफ़-साफ़ और इस मरण के आगे उसे अपनी लाचारगी भी दिखाई देती है, सिर्फ़ तब अमरता की संभावना खुलती है उसके लिए। जो मृत्यु के तथ्य से ही अभी परिचित नहीं, उनके लिए अमरता जैसा कोई शब्द नहीं।
जिन्हें लगातार एहसास हो रहा हो कि वो मर रहे हैं, खत्म हो रहे हैं, उनके साथ कुछ अलग होता है। कुछ संभावना खुलती है। क्या है अमरता? अमरता का अर्थ क्या मौत को चकमा देना है आपके शब्दों में? नहीं। अमरता का अर्थ है मृत्यु का समग्र स्वीकार।
जिन तलों पर हम सामान्यत: जीते हैं, उन तलों का निर्माण समय ने करा है। और समय में तो कुछ भी स्थाई नहीं होता। वहाँ जो कुछ है, सब मिटेगा-ही-मिटेगा। जैसे-जैसे आप ये साफ़-साफ़ देखना शुरू करते हैं वैसे-वैसे ग़लत जगह पर स्थायित्व की, नित्यता की, अमरता की आपकी जो आशा होती है, वो मिटने लगती है। नहीं तो हम ये बात अपने मन में आने नहीं देना चाहते कि यहाँ जो कुछ है वो पलक झपकते मिट जाना है। आने ही नहीं देना चाहते। तो जब वो बात अपने मन में आने ही नहीं देना चाहते तो एक तरीके से हम संसार को ही अमर समझने लग जाते हैं।
संसार मिट रहा है, बुलबुले जैसा है, जा ही रहा है, लो चला गया। अगर आप इस तथ्य से प्रतिपल परिचित नहीं हैं, इस तथ्य के प्रति आप में अगर ज़रा भी विरोध है तो देखिए कि आप क्या कर रहे हैं। फिर आप ये सोच रहे हैं कि संसार ही अमर है। अगर मैं नहीं मान रहा हूँ कि ये सब कुछ मिटने के लिए तैयार है तो मैंने इसको क्या मान लिया? अमर। अगर इसको अमर मान लिया तो जो वास्तविक अमरता है उसकी मुझे ज़रूरत कहाँ है। लो अमरता मिल गई न, यही सब अमर है। फिर जब ये मिटेंगे तो मुझे कैसा लगेगा? दुःख होगा। वो दुःख है ही इसीलिए क्योंकि कहीं-न-कहीं मैंने उम्मीद बना ली थी कि ये बचे रहेंगे। साफ़ देख लीजिए कि जो चले गए सो चले गए, जो हैं वो भी चले गए - चले जाएँगे नहीं - वो चले गए।
महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित कथा है। प्रमाणित नहीं किया जा सकता पर कहते हैं कि जब बुद्ध रथ पर निकले थे अपने, युवा उत्सव मनाया जा रहा था राजधानी में उसकी ओर जाने के लिए, और फिर देखते हैं रास्ते में ऐसे-ऐसे दृश्य जो उन्होंने अपने जीवन में कभी देखें नहीं थे — बूढ़ा आदमी, रोगी आदमी, फिर देखते हैं एक मृत आदमी तो उनका जो सारथी था, रथ चालक, उसे पूछते जा रहे थे। बोले "ये बीमार है, मैं भी बीमार होऊँगा?" तो उसने कहा "हाँ, आप भी, बीमारी सबको लगती है।" फिर बूढ़ा दिखाई दिया। बोले "वो क्या है?" आज तक बुद्ध को बूढ़ा आदमी दिखाया ही नहीं गया था। बूढ़ा आदमी दिखाई दिया पूछा "वो क्या है?" सारथी — "बूढ़ा है। समय बीता वो बिलकुल बूढ़ा गया।" बुद्ध — "मैं भी बूढ़ा होऊँगा?" सारथी बोले, "आप भी होंगे।" फिर अर्थी जाती दिखाई दी। "क्या है?" "मृत आदमी है।" "अच्छा!" बोले, "मैं भी मरूँगा?" सारथी बोला, "छुपा नहीं सकता राजकुमार। आप भी मरोगे।" बुद्ध बोले, "थमो, मैं मरूँगा नहीं, मैं मर गया।" अपने-आपको धोखे में रखने का कोई फ़ायदा नहीं। जिस चीज़ का पता है कि समय के साथ नष्ट हो रही है, उसको ये मानना कि वो अभी भी है, बहुत धोखे की बात है। वो दिखती है कि अभी है, वो वास्तव में है नहीं। जो इस वास्तविकता से परिचित हो गया, उसके बाद वो जगत से अपने सरोकार सीमित कर लेता है। उसके बाद उसे जगत की सीमाओं का ज्ञान हो जाता है। तो सरोकार तो सीमित करने ही पड़ेंगे न। जो चीज़ वो जान जाता है कि दुनिया में मिल नहीं सकती, उसको दुनिया में तलाशना छोड़ देता है। एक बार आपने दुनिया में वो चीज़ तलाशनी छोड़ी, अपने-आप वो चीज़ आपको मिलने लग जाती है। उसके बाद आप ये नहीं पूछते कि, "दुनिया में अगर वो नहीं है तो कहाँ है?" ये प्रश्न कभी पूछिएगा भी मत। क्योंकि जिन्होंने ये प्रश्न पूछा कि, "दुनिया में वो वस्तु नहीं है तो कहाँ है?" वो अपने साथ एक नया धोखा खड़ा कर लेते हैं। क्या?
वो दुनिया का ही एक और कोना, एक और हिस्सा निर्मित कर लेते हैं, जहाँ उस वस्तु को तलाशने लगते हैं। ऐसा आमतौर पर आध्यात्मिक लोगों के साथ होता है। वो ऐसे कहना शुरू कर देते हैं। वो कहते हैं, "देखो, संसार नश्वर है, भगवान अमर है।"
और वो अपने लिए एक सांसारिक भगवान खड़ा कर लेते हैं। जिसको वो क्या कहना शुरू कर देते हैं? अमर। अब ये भगवान जो तुमने अपने लिए कल्पित किया है, निर्मित किया है, ये भी है किसका हिस्सा? संसार का ही। लेकिन तुमने बखूबी अपने-आपको धोखा दिया। तुमने कह दिया, "संसार तो झूठा है, भगवान मेरा असली है।"
और तुम ये बिलकुल भूल गए कि ये भगवान तुम्हारी अपनी कृति है, तुम्हारी ही रचना है। अब तुम फँसोगे। इसीलिए जिन्होंने जाना उन्होंने बार-बार चेताया है। उन्होंने कहा है कि पीर भी मरेंगे, पैगंबर भी मरेंगे। कबीर साहब की वाणी है। कहते हैं, "तुम्हारे ये जितने देवी-देवता हैं सब मरेंगे, इन पर भी भरोसा मत रखना। चाँद-सूरज भी मरेंगे, इन पर भी उम्मीद मत बाँध लेना।"
जो कुछ भी तुम्हारी सोच और समझ के दायरे में आ सकता है वो मिटने के लिए तैयार खड़ा है। भले ही वो तुम्हारा भगवान क्यों न हो। बोलो अब उम्मीद कहाँ टिकाना चाहते हो?
जो ऐसा हो जाए कि अब उम्मीद कहीं नहीं टिका सकता, उसको कुछ मिलता है फिर। अब मेरी इन बातों पर उम्मीद मत टिका दीजिएगा। तो आप ये तो छोड़ ही दीजिए कि, "उम्मीद नहीं टिकाओ तो क्या होगा?" आप बस अपने-आपको अनुशासन पूर्वक इतने तक सीमित रखिए कि, "यहाँ किसी पर भी उम्मीद नहीं रखनी है।" ये प्रश्न पूछिए ही मत कि किस पर रखनी है। वो प्रश्न घातक होता है। कौन सी उम्मीद नहीं रखनी है? आपको अगर पानी चाहिए तो संसार से पानी मिल जाएगा, आपको अगर कपड़ा चाहिए, तो संसार से आपको कपड़ा मिल जाएगा। आपको अगर पैसा चाहिए, तो संसार से आपको पैसा मिल जाएगा। इन चीज़ों की उम्मीद रखनी है तो दुनिया से रख लीजिए।
जब मैं कह रहा हूँ कि दुनिया से उम्मीद मत रखिए तो मैं किस चीज़ की बात कर रहा हूँ? उस चीज़ की जो मरती-मिटती नहीं है। वो चीज़ नहीं मिलेगी दुनिया में। बाकी सब चीज़ें मिल जाएँगी। नई गाड़ी चाहिए, वो ब्रह्मलोक से थोड़े ही उतरेगी, वो तो फैक्ट्री से ही निकलेगी। तो वो मिल जाएगी दुनिया में। दुनियावी चीज़ों की उम्मीद कर लीजिए दुनिया से। लेकिन वो जो एक चीज़ है, जिसकी तलाश बहुत है और दुनिया में मिलती नहीं, उसको दुनिया में मत खोजने लग जाइएगा।
तो सूत्र है कि जब भी कोई चीज़ मन पर बहुत छाए, चाहे आकर्षित करे चाहे विकर्षित करे, लुभाए चाहे डराए, बस इतना पूछ लेना अपने आप से, "कितनी देर?"
कुछ मिला है नया-नया जिंदगी में, कि जैसे फूल खिल गए और सुगंध तैर गई। बस ये पूछ लीजिएगा, "कितनी देर?"
और लग रहा है कि लुट गए, बर्बाद ही हो गए, कुछ बचा नहीं तो भी पूछ लीजिएगा, "कितनी देर?"