प्रश्नकर्ता: क्या धर्मनिरपेक्ष होते हुए भी धर्म में आस्था रखी जा सकती है?
आचार्य प्रशांत: एक तो इतनी ये डुगडुगी बजी हुई है धर्मनिरपेक्षता की कि बहुत सारे सीधे-साधे लोग ऐसे ही परेशान हैं।
भाई! धर्मनिरपेक्षता इंसान के लिए नहीं होती। इसका मतलब ये नहीं है कि जानवर के लिए होती है। इसका मतलब है कि वो एक तंत्र के लिए होती है, एक व्यवस्था के लिए होती है, राज्य के लिए होती है; व्यक्ति के लिए नहीं होती। व्यक्ति धर्मनिरपेक्ष है, ये बात ही बड़ी फूहड़ है। राज्य सेक्युलर (धर्मनिरपेक्ष) हो सकता है पर व्यक्ति कहे कि मैं धर्मनिरपेक्ष हूँ, तो मैं कहूँगा — तू धर्म से निरपेक्ष है, तो तू किसके सापेक्ष है?
भारत धर्मनिरपेक्ष हो सकता है, वो ठीक है, पर भारतीय धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकते। क्योंकि भारतीय कौन है? वो एक व्यक्ति है, एक मनुष्य है, वो एक जीवित चेतना है, उसको धर्म चाहिए। तुम उसको धर्मनिरपेक्ष कैसे बना दे रहे हो भाई?
राज्य की सत्ता धर्मनिरपेक्ष हो, बात बिलकुल सही है, समझ में आने वाली बात है और आवश्यक भी है। राज्य की सत्ता धर्मनिरपेक्ष है, इसका क्या मतलब है? इसका इतना सा ही मतलब है — आप हिंदू, आप मुसलमान, आप बौद्ध, आप ईसाई, मैं आप लोगों में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करूँगा, बात ख़त्म। राज्य नहीं कह रहा है कि एक धर्म दूसरे धर्म से ज़्यादा स्वीकृत है या उन्नत है या श्रेष्ठ है।
बात समझ में आ रही है?
आप मेरे पास कोई याचना लेकर आओगे, आप कोई फ़रियाद लेकर आओगे, आप प्रार्थना लेकर आओगे, आप आवेदन लेकर आओगे, मैं आप सबकी बातें किस आधार पर सुनूँगा? मैं देखूँगा कि साहब! आपने जो आवेदन दिया है, आपकी जो प्रार्थना है, आपकी जो फ़रियाद है, उसमें कितना दम है। कागज़ दिखाइए। अच्छा तो आप रहे हैं, आपके गाँव में पक्की सड़क होनी चाहिए, ठीक है। मैं ये थोड़ी ही देखूँगा कि उसके नीचे जिसने हस्ताक्षर करे हैं, उसका धर्म या पंथ या मज़हब क्या है।
इस तरह से ही आप क्या बोल रहे हैं? आप बोल रहे हैं, ‘मेरा फ़लाना काम रुका हुआ है और मेरे साथ नाइंसाफ़ी हो रही है, मुझे इंसाफ़ मिलना चाहिए।’ तो आप जो मुद्दा लेकर आये हो, देखा जाएगा उस मुद्दे में कितना दम है, कानूनन कितना दम है। ये नहीं देखा जाएगा कि नीचे जिसने हस्ताक्षर किये हैं, उसका धर्म क्या है। ये नहीं देखा जाएगा। तो ये हुई धर्मनिरपेक्षता; और ये ठीक बात है, बिलकुल सही बात है।
राज्य जिन मुद्दों से डील करता है, राज्य का जिन क्षेत्रों में दख़्ल है, उन क्षेत्रों का वाकई धर्म से कोई लेना-देना है ही नहीं। राज्य का दख़्ल किन क्षेत्रों में है? न्याय, शिक्षा, बिजली, सड़क, पानी, स्वास्थ्य। इनमें धर्म क्या करेगा?
भई! बात समझ रहे हो आप?
स्कूल बनेगा तो उसमें सब लोगों के बच्चे पढ़ेंगे। विज्ञान सबके लिए अलग-अलग तो होता नहीं, तो उसमें धर्म का क्या ताल्लुक़? तो राज्य को तो धर्मनिरपेक्ष होना ही पड़ेगा। ये बात तो नीति की भी नहीं है, ये बात तो व्यावहारिकता की है।
हिंदू-मुसलमान के लिए अलग-अलग सड़क तो बनेगी नहीं न! और अगर सड़क नहीं है तो हिंदू और मुसलमान, दोनों को ही तकलीफ़ होगी। तो राज्य को तो धर्मनिरपेक्ष होना ही पड़ेगा क्योंकि उसका काम ही ऐसा है। उसका काम क्या है, सड़क बनाना। सड़क का बनाना अपनेआप में धर्मनिरपेक्ष काम है। कोई सरकार ये बोले भी कि हम धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं, मान लो बोल दे; पाकिस्तान धर्मनिरपेक्ष नहीं है, इस्लामिक देश है, वहाँ पर भी जो सड़क बन रही है, वो किस हिसाब से इस्लामिक सड़क है? बताओ।
तो इस्लामिक देश में भी जो सड़क बन रही है, वो तो धर्मनिरपेक्ष सड़क ही है क्योंकि उस पर सब चलते हैं। बल्कि वो धर्मनिरपेक्ष ही नहीं हैं, भारत में जो सड़कें हैं, वो तो प्रजाति निरपेक्ष भी हैं, उस पर कुत्ते और गाय भी रहते हैं। तो आप ये भी नहीं कह सकते कि धर्म तो छोड़ दो, राज्य किसी प्रजाति का भी पक्ष ले रहा है। यहाँ तो सब भाँति-भाँति के. . . डायनासोर बेचारे चूक गये, अगर होते वो तो भारत की सड़कों पर उनको आश्रय मिलता। एकदम बढ़िया चौराहों पर बैठे हुए हैं। गोल चक्कर इतने बड़े-बड़े काहे के लिए बने हैं! उन्हीं के लिए बने हैं।
समझ में आ रही है बात?
तो राज्य को तो धर्मनिरपेक्ष होना ही पड़ेगा, भले ही वो न भी चाहे तो। तुमने अस्पताल बनवा दिया, वहाँ क्या अलग-अलग धर्म के लोगों को अलग-अलग बीमारियाँ होतीं हैं? और क्या उनको अलग-अलग दवाइयाँ दोगे? हाँ, तुम इस सीमा तक चले जाओ कि तुम अस्पताल के बाहर तख़्ती लटका दो कि फ़लाने धर्म के लोगों का प्रवेश वर्जित है, वो फिर अलग बात है।
अंग्रेज़ों ने करा था न — डॉग्स एंड इंडियन्स नॉट अलाउड (कुत्तों और भारतीयों का प्रवेश वर्जित है)। तुम उस सीमा तक चले जाओ तो बिलकुल अलग बात है, वरना तो जो काम हैं राज्य के, वो हैं ही ऐसे कि वो सब धर्मनिरपेक्ष हैं अपनेआप में।
भई! सेना अगर लड़ रही है, उदाहरण के लिए, अब देश की रक्षा राज्य का काम है — राज्य माने स्टेट, स्टेट विद अ कैपिटल एस — अगर सेना सीमा पर लड़ रही है तो वो किसकी सुरक्षा कर रही है? सिर्फ़ हिन्दुओं की? या सिर्फ़ मुसलमानों की कर रही है? सिर्फ़ आस्तिकों की कर रही है? सिर्फ़ नास्तिकों की कर रही है? बोलो। वाम मार्गियों की ही कर रही है? दक्षिणपंथियों की ही कर रही है? तुम कैसे भी हो, किसी भी रंग के हो, किसी भी विचारधारा के हो, किसी भी मज़हब के हो, सेना सब की सुरक्षा कर रही है न। तो ये है राज्य का काम जो अपनेआप में धर्मनिरपेक्ष है ही।
हाँ, उसमें इस तरह की अतियाँ ज़रूर की जा सकती हैं कि भई, किन्हीं पदों पर नियुक्तियाँ हो रही हैं तो वहाँ पर घपला कर दिया गया है और एक तरह के लोगों को उसमें दाख़िला ही नहीं दिया गया और ये सब। तो ये सब नहीं करना है क्योंकि अगर ये सब करोगे तो राज्य के काम में ही दिक़्क़त आएगी।
अब उदाहरण के लिए, राज्य का काम है कि अच्छे से अच्छा एयरपोर्ट तैयार हो, बंदरगाह तैयार हो। आपका स्पेस ओर्गेनाइज़ेशन (अंतरिक्ष संगठन) है, उसको क्या करने हैं? रॉकेट लॉन्च करने हैं, ऊपर कक्षा में सैटेलाइट स्थापित करने हैं, तो उसके लिए आपको जो देश की सर्वोच्च प्रतिभा है, बेस्ट टैलेंट , वो चाहिए। तो आपको तो वो जहाँ से भी मिल रहा हो, आपको लेना ही पड़ेगा। कई बार वो आपको देश के भीतर से नहीं मिल रहा होगा तो आपको देश के बाहर से भी लेना पड़ेगा। तो आपको तो धर्मनिरपेक्ष होना ही पड़ेगा।
लेकिन मुद्दे की बात, व्यक्ति धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता। कोई साहब आकर कहें कि देखिए, हम तो सेक्युलर हैं। तो वो सेक्युलर तो नहीं हो सकते, मूर्ख ज़रूर हैं। आदमी सेक्युलर कैसे हो गया! हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि आप जिस धर्म का पालन कर रहे हैं, वो आपको ख़ुद ही नहीं पता है।
आप जिस धर्म का पालन कर रहे हो, आप स्वयं ही नही जानते हो क्योंकि बहुत लोग हैं जो कहते हैं कि मैं अधार्मिक हूँ। साहब! आप अधार्मिक ज़रूर हो लेकिन फिर भी आपने जीवन में कुछ तो है न जिसको बहुत ऊँचा मूल्य दे रखा है? जिसको ही तुम सबसे ऊँचा मूल्य दे देते हो, समझ लो वही तुम्हारे धर्म का केंद्र है।
धर्म का मतलब ही यही है कि जीवन में कुछ है जो ऊपर है, आगे का है, पाने लायक़ है, मूल्यवान है और मुझे उसकी सेवा में रहना है, मुझे उसके आगे नमित रहना है। यही तो धर्म है।
हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि आप मुक्ति को तो धर्म न मानो, आप सत्य को धर्म न मानो, आप पैसे को धर्म मान लो, आप प्रतिष्ठा को धर्म मान लो, आप किसी विचारधारा को धर्म मान लो; ये ज़रूर हो सकता है। लेकिन धर्म तो सबके पास है, धर्म किसके पास नहीं है! धर्म का तो शास्त्रीय अर्थ भी है — आपकी उच्चतम धारणा। कौन है जिसके पास एक उच्चतम धारणा नहीं है? सबके पास है; तो धार्मिक तो सभी हैं।
आप ये कहेंगे, ‘नहीं, जब कोई नागरिक कहता है कि वो सेक्युलर है या धर्मनिरपेक्ष है तो इसका मतलब होता है कि वो अलग-अलग लोगों से धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।’ ये भी संभव नहीं है, बिलकुल संभव नहीं है। आप इंडियन स्टेट नहीं हो, आप एक इंडियन सिटिज़न (भारतीय नागरिक) हो। स्टेट के पास कोई चेतना नहीं होती, आपके पास चेतना है और आपकी चेतना पर आपकी संगति का असर पड़ता है। तो आपको तो भेदभाव करना पड़ेगा।
अध्यात्म तो सिखाता ही यही है कि अपनेआप को ऐसे लोगों से घिर मत जाने देना जो इस क़ाबिल नहीं हैं कि उनकी संगति करो। माने अधार्मिक लोगों से घिर मत जाने देना अपनेआप को। अगर तुम ये कह रहे हो कि मैं अपनेआप को अधार्मिक लोगों से घिरने नहीं दूँगा, तो तुमने भेदभाव किया कि नहीं किया? अध्यात्म तो यही भेदभाव सिखाता है। तो व्यक्ति कैसे सेक्युलर हो सकता है? बोलो।
आप मुझे एक बात बताइए, आप शादी करने जा रहे हैं, ठीक है। यहाँ पर कई बैठे हुए हैं जिनकी उम्र भी है। तुम अपने लिए लड़की देख रहे हो, तुम क्यों नहीं अपने लिए ऐसी लड़की देखते जो बिलकुल अधार्मिक हो? बोलो, जवाब दो। क्यों नहीं देखते? और फिर जब तुम किसी लड़की को इस नाते ठुकरा दो कि तेरी ज़िंदगी में धर्म जैसी कोई चीज़ नहीं है।
‘धर्म जैसी कोई चीज़ नहीं है’ से क्या मतलब है? इसका मतलब ये नहीं है कि तू हिंदू रस्मों-रिवाज़ों का पालन नहीं करती या किन्हीं और रिवायतों का पालन नहीं करती। इसका मतलब ये है कि तू सच्चाई को क़ीमत नहीं देती है, तू मुक्ति को क़ीमत नहीं देती है, तू गहराई को क़ीमत नहीं देती है। तुम इस नाते किसी लड़की को नापसंद कर दो और फिर वो बोले कि ये तो तुमने एंटीसेक्युलर काम कर दिया।
भई! धर्मनिरपेक्षता का तो यही मतलब है न कि मैं ये देखूँगा ही नहीं कि इनका क्या धर्म है, इनका क्या धर्म है, इनका क्या धर्म है। मैंने कहा ये चीज़ राज्य को तो शोभा देती है कि वो न देखे कि इसका क्या धर्म है, इसका क्या धर्म है, इसका क्या धर्म है — सरकारी अस्पताल में तीन लोग इलाज कराने आये हैं, बिलकुल मत देखो कि किसका क्या धर्म है, बिलकुल मत देखो, लेकिन व्यक्ति को ये कैसे शोभा दे सकता है कि मैं न देखूँ कि इसका क्या धर्म है, इसका क्या धर्म है, इसका क्या धर्म है।
मुझे तो देखना पड़ेगा क्योंकि मैं एक जीवित चेतना हूँ। स्टेट कोई जीवित चेतना नहीं है, स्टेट को मुक्ति नहीं चाहिए, सिटिज़न को मुक्ति चाहिए। किसी स्टेट को मोक्ष या निर्वाण प्राप्त होते देखा है? कभी ऐसा हुआ था कि पूरे-के-पूरे एक राज्य को, एक प्रदेश को, एक देश को मुक्ति मिल गयी है, निर्वाण मिल गया है? पर व्यक्तियों को मिलता है न!
व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है अपने प्रति। तो व्यक्ति को तो ये देखना पड़ेगा कि कौन इस लायक़ है कि उसे अपने पास रखे, कौन नहीं रखे। आप कहेंगे, ‘ये तो व्यक्तिगत चुनाव की बात है।’ हाँ, ये जो व्यक्तिगत चुनाव है, उसका आधार धर्म ही होना चाहिए।
व्यक्तिगत चुनाव का आधार अगर व्यक्तित्व ही हो गया, व्यक्तिगत चुनाव का आधार अगर यही हो गया कि भई! मुझे तो इस रंग के लोग पसंद हैं, या मुझे तो ऐसे नैन-नक्श की चलेगी, या जो ऐसा खाता है वो मेरे लिए ज़्यादा अच्छा है, या जो इस तरह का सोचता है वो मुझे पसंद है, तो फिर गड़बड़ हो जाता है न मामला, ज़िंदगी ख़राब होती है।
बात समझ में आ रही है?
अब ये सवाल देखो — क्या धर्मनिरपेक्ष होते हुए भी धर्म में आस्था रखी जा सकती है? पूछनेवाले बेचारे परेशान हैं, उन पर चारों तरफ़ से दबाव पड़ रहा है। कह रहे हैं, ‘आप धर्मनिरपेक्ष हो जाइए, धर्म में आस्था वग़ैरा छोड़िये। जो धर्म में आस्था रखे वो सांप्रदायिक हो गया; कम्युनल।' ये पागलपन की बात है क्या ये? धर्म में आस्था रखने से सांप्रदायिक कैसे हो गये? धार्मिक होने और सांप्रदायिक होने में ज़मीन-आसमान का अंतर होता है।
और मेरी सब धार्मिक लोगों से विनती है कि शासन व्यवस्था को, देश की सत्ता को धर्मनिरपेक्ष रहने दीजिये, अच्छी बात है, कोई बुराई नहीं है। लेकिन आप तो गहराई से धार्मिक रहिए। आप मत कहिए कि मैं तो धर्मनिरपेक्ष हूँ। और धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब ये है कि मैं कोई भेदभाव नहीं करूँगा इसमें और उसमें, और मेरे लिए तो सब धर्म एक बराबर हैं। कैसे हो जाएँगे भाई? आपके लिए कैसे हो जाएँगे?
आजकल ये नया चलन चल रहा है। नया चलन क्या चल रहा है? 'देखिए साहब! मैं तो धर्मनिरपेक्ष हूँ तो मैं या तो कोई धार्मिक त्यौहार मनाऊँगा नहीं या फिर मैं सभी धार्मिक त्यौहार मनाता हूँ। तुम सभी धार्मिक त्यौहार कैसे मना लोगे? तुम्हारी जो श्रद्धा है, वो क्या वाक़ई पचास धार्मिक पुरुषों और पुस्तकों और प्रतीकों के प्रति है? अगर नहीं है तो ये क्या आडंबर कर रहे हो तुम?
क्रिसमस ख़ूब मनाया जा रहा है, जो कि अपनेआप में बहुत अच्छी बात है अगर आपको जीसस से प्रेम हो। जीसस से प्रेम तो है नहीं, कुछ जानते भी नहीं तुम, बाइबल तुमने ज़िंदगी में नहीं पढ़ी, पर ये धर्मनिरपेक्षता के नाम पर क्या आडंबर कर रहे हो कि मैं एक ईसाई त्यौहार मना रहा हूँ। और उस दिन करते क्या हो तुम क्रिसमस के नाम पर? करते बस यही हो कि इधर-उधर घूम लिए, शॉपिंग (खरीदारी) कर ली। केक ही नहीं काट रहे हो, हम जब जयपुर में थे तो याद है क्रिसमस में इतना बड़ा क्या रखा हुआ था वहाँ पर, होटल में?
प्र: पेड़।
आचार्य: अरे! पेड़ नहीं था वो, वो मांस का इतना बड़ा जो पिंड रखा हुआ था। टर्की था या पता नहीं क्या था, इतना बड़ा सूअर था पूरा। हाँ, इतना बड़ा पूरा कर दिया था। ये तुम कर रहे हो क्रिसमस के नाम पर।
मैं कह रहा हूँ, क्रिसमस के नाम पर तुमने थोड़ा बाइबल का एक ग्रंथ समझ कर अध्ययन कर लिया होता तो कितनी अच्छी बात होती। तुम्हारे मन में जीसस की जो क्रांतिपूर्ण ज़िंदगी थी, उसके प्रति कुछ सम्मान उठा होता तो बहुत अच्छी बात थी। लेकिन धर्मनिरपेक्षता का ये मतलब है। ये धर्मनिरपेक्षता नहीं है, ये बेवकूफ़ी है। और ये बात मैं कोई हिंदू इत्यादि होने के नाते नहीं बोल रहा हूँ, ये बात मैं बस थोड़ा समझदार होने के नाते बोल रहा हूँ।
धर्मनिरपेक्षता की बात कर-करके लोग धर्म से ही दूर हुए जा रहे हैं। धर्म को ही हमने एक अपमानित शब्द बना दिया है। आप लिबरल सर्कल्स (उदार मंडल) में अगर हो तो आप ये बोलने से डरोगे कि आप आस्थावान हो, वहाँ फ़ेथ (श्रद्धा) का मतलब बिलीफ़ (विश्वास) मान लिया जाता है। वहाँ उनको ये बात समझ ही नहीं आती कि श्रद्धा में और विश्वास में अंतर होता है। उनके लिए ये दोनों पर्यायवाची हैं। उनकी समझ ऐसी कुंद हो गयी है, ऐसी ठहर गयी है, कहने को वो इंटलेक्चुअल्ज़ (बुद्धिजीवी) हैं पर बुद्धि इतनी गयी गुज़री है कि जान ही नहीं पा रहे हैं कि श्रद्धा और विश्वास अलग-अलग चीज़ हैं।
समझ में आ रही है बात?
डरिए नहीं, धार्मिक होना अपमान की बात नहीं है। गर्व से कहिए कि आप धार्मिक हैं। और जहाँ तक धर्मनिरपेक्षता की बात है, वो एक सुन्दर आदर्श है। किसके लिए? स्टेट के लिए, राज्य के लिए।
आपको धर्मनिरपेक्ष होने की कोई ज़रुरत नहीं है। आपको अगर कृष्ण में आस्था है तो गाइए, नाचिए। और दुनिया से छुपाने की भी कोई ज़रुरत नहीं। मैं ज़बरदस्ती प्रदर्शित करने को भी नहीं कह रहा हूँ पर लज्जा अनुभव करके छुपाएँ भी न कि आप कृष्ण में आस्था रखते हैं। और ये बात मैं सिर्फ़ राम और कृष्ण को मानने वालों से नहीं कह रहा हूँ, ये बात मैं मुहम्मद और जीसस को मानने वालों से भी कह रहा हूँ। शर्माने की कोई बात नहीं है कि आपकी पवित्र पुस्तक में आस्था है तो। आप आस्था रखिए और पूरी आस्था रखिए।
ये नाटक कि मैं तो सेक्युलर हूँ, ये कहीं से नहीं चलेगा। वो जो नाटक करते हैं, ‘सेक्युलर हूँ’, वो वैसे ही होते हैं जो बोलते हैं, 'मुहर्रम की बधाइयाँ।' अब ये सेक्युलर हैं तो इनके लिए आवश्यक हो गया है कि त्यौहार आया है तो बधाई दें। तो ये पहुँच जाते हैं, 'हे हे हे, सेवइयाँ मिलेंगी क्या? मुहर्रम है न, बधाई हो! बधाई हो!’
तुम्हारा इस्लाम से कोई नाता नहीं, तुमने कुछ पढ़ा नहीं, तुम जानते नहीं कि मुहर्रम मनाया ही क्यों जाता है। जिन्होंने क़ुर्बानी दी थी उस दिन, उनसे तुमने कभी कोई आतंरिक संवाद या सम्बन्ध रखा नहीं लेकिन ऊपर-ऊपर दिखाने के लिए कि देखिए साहब! हम तो निष्पक्ष हैं। हम ऐसा नहीं करते कि दिवाली मानते हैं और दूसरे धर्मों के त्यौहार नहीं मनाते, हम तो बड़े आधुनिक, बड़े विकसित, बड़े उदारवादी हैं; तुम ये इस तरह के काम कर रहे हो।
बात समझ रहे हैं? देखो, मैंने अभी जितनी बात बोली है, बहुत आसान है इसको गलत समझ लेना और मिसइंटरप्रेट (ग़लत अर्थ) कर लेना। मैं ये नहीं चाहता हूँ बस कि तुम ये सोचने लग जाओ कि दो तरह के लोग होते हैं, एक धर्म को मानने वाले और दूसरे धर्मनिरपेक्ष; एक धर्मावलम्बी और दूसरे धर्मनिरपेक्ष। और तुम ये सोचने लग जाओ जैसा कि आजकल प्रोपगैंडा (प्रचार) चल रहा है कि धर्मनिरपेक्षता ऊँची चीज़ है और ये जो धार्मिक लोग होते हैं, धर्मावलम्बी लोग होते हैं, ये तो घटिया, गये-गुज़रे, पुराने ज़माने के गंवार, फूहड़ लोग होते हैं। और इस तरह के विचार अब बहुत लोगों के मन में आ गये हैं, वो कहने को अपनेआप को प्रगतिशील बोलते हैं।
तो मे मैं नहीं चाहता हूँ कि जो धार्मिक लोग हैं, धर्मावलम्बी हैं, आस्थावान हैं, उनके मन में अपनेआप को लेकर कोई लज्जा या ग्लानि आये। हाँ, लज्जा की बात तब ज़रूर होगी जब तुम झूठे धार्मिक आदमी हो। धार्मिक होने में लज्जा की कोई बात नहीं; धार्मिक होना तो ऊँचे-से-ऊँची बात है, सम्मानीय बात है, प्यारी बात है।
बुरी चीज़ तब है जब तुम कहने को तो धार्मिक हो, कहने को तो बोलते हो 'जय श्रीराम' लेकिन श्रीराम के जीवन के जो आदर्श थे, वो तुम्हारे जीवन में कहीं दिखाई नहीं देते। न उनके जैसा साहस, न उनके जैसा त्याग, न धैर्य, न उनके जैसी सत्यप्रियता। ये सब तुम्हारे जीवन में दिखाई न देते हों और तुम बोलते हो, 'जय श्रीराम', तब ज़रूर तुम्हारी धार्मिकता लज्जा का विषय है। लेकिन अगर तुम सच्चे धार्मिक हो तो सच्चे धार्मिक बने रहो, धर्मनिरपेक्ष हो जाने की बिलकुल कोई ज़रूरत नहीं है।
प्र: आचार्य जी, जब आपने कहा कि सेक्युलर होने की ज़रूरत व्यक्ति को नहीं है तो क्योंकि मैं आपको भी सुन रहा हूँ और ये भी सोच रहा हूँ कि ये वीडियो कट कर संदर्भ से बाहर भी पब्लिसाइज़ (प्रचारित) हो सकती है। सामान्य अर्थों में, समाज में आज ये माना जाता है कि सेक्युलर का विपरीत होता है कम्युनल (सांप्रदायिक)। सेक्युलर का विपरीत वो नहीं होता है जो सच्चे धर्म में आस्था रख रहा है या उसकी समझ रखता है। तो जब आप कह रहें हैं कि सेक्युलर होने की ज़रुरत नहीं है तो इसका अर्थ ज़रूर ऐसे किया जाएगा, जिसका मुझे डर है कि आप सांप्रदायिक हो जाइए।
आचार्य: हाँ, मुझे मालूम है, मेरी बात को बिगाड़ करके इसके उल्टे अर्थ किये जाएँगे, इल्ज़ाम लगाए जाएँगे। लेकिन फिर भी जो बात सही है, सच्ची है, वो तो बोलनी ज़रूरी है न। निश्चितरूप से ठीक कह रहे हो कि इस वीडियो के बीच-बीच में से टुकड़े काटकर के और बहुत उसको विकृत अर्थ दिए जा सकते हैं, बिलकुल। देखो, समझने की बात ये है कि इंसान को धर्म चाहिए और ऐसा माहौल नहीं पैदा किया जाना चाहिए जिसमें उसको अपने धार्मिक होने पर शर्म आने लग जाए।
सेक्युलर का विपरीत कम्युनल नहीं होता, सेक्युलर का विपरीत होता है नॉन-सेक्युलर। और सेक्युलर शब्द व्यक्ति पर लागू ही नहीं होना चाहिए। व्यक्ति दो तरह के हो सकते हैं — धार्मिक या अधार्मिक। व्यक्ति सेक्युलर नहीं हो सकता।
जहाँ तक धर्म की बात है, व्यक्ति बोल सकता है, 'आइ एम रिलीजियस और आइ एम इररिलीजियस।’ (मैं धार्मिक हूँ या मैं अधार्मिक हूँ।) कुछ आकर ये भी कह सकते हैं कि हम इररिलीजियस (अधार्मिक) हैं। लेकिन अगर व्यक्ति कहे, ‘मैं सेक्युलर हूँ’, तो ये बात वैसी है कि कोई व्यक्ति बोले कि मैं सोलह किलोमीटर प्रति लीटर देता हूँ। ये बात कार पर लागू होती है, तुम पर थोड़ी ही लागू हो गयी। जो चीज़ तुम पर लागू नहीं होती, तुम बोल क्यों रहे हो?
कार के साथ ये चलेगा, 'हाँ भाई, कितना देती है माइलेज?’ तो तुम बोलो, ‘सोलह किलोमीटर प्रति लीटर।’ कोई व्यक्ति आकर के बोले, ‘मैं सोलह किलोमीटर प्रति लीटर देता हूँ’, तो ये बात बचकानी है, बेतुकी है।
ये बात बिलकुल वैसी ही है कि कोई व्यक्ति आकर बोले, ‘मैं सेक्युलर हूँ’। तू सरकार है क्या कि सेक्युलर है? तू कैसे सेक्युलर हो गया? हाँ, तू ये ज़रूर बोल सकता है कि मैं अधार्मिक हूँ। आइ एम इररिलीजियस। वो चलेगा। ‘आइ एम ए रिलीजियस पर्सन। मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूँ’, ये भी चलेगा। लेकिन ‘मैं सेक्युलर हूँ’, ये तो बात ही बहुत विचित्र है। जैसे कोई व्यक्ति आकर के बोले, ‘मेरा तो जी देखिए, दो गीगा वाट की पावर रेटिंग है।' तू क्या है? डीज़ल जनरेटर है? पावर प्लांट (बिजली संयंत्र) है? क्या है?
व्यक्ति कैसे सेक्युलर हो गया? व्यक्ति की चेतना को, मैं बार-बार बोल रहा हूँ, धर्म चाहिए क्योंकि हमारी चेतना एक असंतुष्ट-अतृप्त चेतना है। चेतना को पूर्णता देने के प्रयास को ही धर्म कहते हैं। और हर व्यक्ति कैसा है? तड़प रहा है, उसकी चेतना असंतुष्ट है, अतृप्त है। तो हर व्यक्ति अपनी चेतना को तृप्ति देनी की कोशिश कर रहा है न! इसी को धर्म कहते हैं।
इसका मतलब हर व्यक्ति, सही अर्थों में, वाक़ई पूछो तो धार्मिक है ही। बस कुछ लोग हैं जो स्वीकारते हैं कि वो धार्मिक हैं और कुछ लोग हैं जो स्वीकारते नहीं हैं कि वो धार्मिक हैं। कुछ लोग हैं जो किसी तरीक़े से अपनी चेतना को तृप्ति देना चाहते हैं, ऐसे तरीक़ों से जो पारंपारिक रूप से धार्मिक तरीक़े माने गये हैं। कुछ लोग हैं जो ऐसे तरीक़ों से अपनी चेतना को तृप्ति देना चाहते हैं जो पारंपरिक रूप से धार्मिक नहीं माने गये हैं।
उदाहरण के लिए, कोई कह सकता है कि साहब, मैं इतनी किताबें लिखूँगा इतनी किताबें लिखूँगा कि मेरी चेतना को तृप्ति मिल जाएगी। ये आदमी भी काम तो धार्मिकता का ही कर रहा है न! ये आदमी भी अपनी चेतना को ऊँचाई और पूर्णता ही देना चाहता है। तो ये काम धर्म का ही है; ये व्यक्ति भी धार्मिक है। हाँ, ये कह ज़रूर रहा है कि मैं धार्मिक नहीं हूँ।
इंसान पैदा होने का मतलब ही यही है कि तुम्हें धर्म चाहिए ही चाहिए होगा। इंसान-इंसान में फ़र्क बस इतना होता है कि कौन अपने लिए धर्म का सही रास्ता चुनता है और कौन अपने लिए धर्म का एक टेढ़ा-मेढ़ा, उलझा हुआ, विकृत रास्ता चुनता है। बस ये है। अपने लिए किसी-न-किसी तरह का धर्म तो सभी चुनते हैं।